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कांग को हटाने के नाम पर चीन ने एक तरह से किसी कानूनी आवरण की आड़ में लीपापोती करने का ही काम किया है, लेकिन उन्हें हटाने की स्पष्ट वजह नहीं बताई. ऐसे में इसे लेकर तमाम तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं.
यदि किसी देश का विदेश मंत्री एकाएक गायब हो जाए तो यह निश्चित ही एक बड़ी चिंता का विषय होगा. हालांकि, चीन में यह बड़ी सामान्य सी घटना है. विदेश मंत्री रहे छिन कांग के साथ बीते दिनों कुछ ऐसा ही हुआ. चीनी सत्ता के गलियारों में कांग जितनी तेजी से उभरकर सामने आए थे, उतनी ही तेजी से वह गायब हो गए. उनके स्थान पर पूर्व विदेश मंत्री वांग यी को आनन-फानन में विदेश मंत्री नियुक्त किया गया.
चीन में इससे पहले भी मशहूर हस्तियों के अचानक गायब होने की घटनाएं बहुत आम रही हैं, लेकिन कांग का मामला बहुत खास है. वह न केवल गायब हो गए, बल्कि सार्वजनिक जीवन से जुड़ा उनका ब्योरा भी मिटाया जा रहा है. यानी चीन की निरंकुश सत्ता उनके अस्तित्व को ही झुठलाने के प्रयास में लगी है. कम्युनिस्ट शासन में आलोचकों की दुर्गति कोई नई बात नहीं, लेकिन इतने बड़े स्तर पर सक्रिय व्यक्ति के साथ हुई यह घटना बड़ी संदिग्ध स्थिति की ओर संकेत करती है.
कम्युनिस्ट शासन में आलोचकों की दुर्गति कोई नई बात नहीं, लेकिन इतने बड़े स्तर पर सक्रिय व्यक्ति के साथ हुई यह घटना बड़ी संदिग्ध स्थिति की ओर संकेत करती है.
कांग वैश्विक स्तर पर चीन का प्रमुख चेहरा बने हुए थे. वह अमेरिका में चीन के राजदूत भी रहे. जिस दौर में अमेरिका और चीन के संबंधों में गिरावट आनी शुरू हुई उस दौरान इन रिश्तों को संभालने में कांग ने बड़ी सक्रिय भूमिका निभाई. विदेश मंत्री के रूप में भी उन्होंने कुछ दिन पहले ही अपने अमेरिकी समकक्ष एंटनी ब्लिंकन के साथ भी मुलाकात की थी. ऐसे में मात्र सात महीनों में विदेश मंत्री के पद से कांग की विदाई कई सवाल खड़े करती है. इससे चिनफिंग शासन को लेकर अस्थिरता की धारणा और मजबूत होगी, क्योंकि कांग राष्ट्रपति के बहुत करीबी माने जाते थे. वह विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रहे तो चिनफिंग के विदेश दौरों का प्रबंधन भी किया करते थे.
कांग को हटाने के नाम पर चीन ने एक तरह से किसी कानूनी आवरण की आड़ में लीपापोती करने का ही काम किया है, लेकिन उन्हें हटाने की स्पष्ट वजह नहीं बताई. ऐसे में इसे लेकर तमाम तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं. एक कारण तो उनकी बढ़ती लोकप्रियता बताई जा रही है जिससे राष्ट्रपति शी चिनफिंग असहज हो रहे थे. यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिका में राजदूत रहने के दौरान से ही वाशिंगटन के साथ उनकी कड़ियां काफी मजबूती से जुड़ी रहीं और इस कारण भी चीनी सत्ता प्रतिष्ठान में उन्हें संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा था.
हांगकांग की एक महिला पत्रकार के साथ उनका कथित अफेयर भी उन्हें हटाने की एक वजह गिनाई जा रही है. इसमें चाहे जो भी सच हो या न हो, लेकिन एक बात तो तय है कि इससे वैश्विक स्तर पर चीन की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. कोविड के बाद चीन जिस तेजी से वैश्विक स्तर पर कूटनीतिक सक्रियता दिखा रहा था, कांग की विदाई से उस पर असर पड़ना तय है. चीन को लेकर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में पहले से ही तमाम संदेह रहे हैं. इस नए घटनाक्रम से उन्हें और बल मिलेगा. कांग किस देश के साथ किस स्तर पर सक्रिय थे, उस सक्रियता को नए सिरे से शुरू करना होगा. स्वाभाविक है कि तमाम अंशभागियों में इसे लेकर असहजता होगी.
एक ऐसे दौर में जब चीन तमाम आंतरिक एवं बाहरी चुनौतियों से जूझ रहा है तब कांग को हटाने का कदम उसकी मुश्किलों को और बढ़ाने का काम करेगा. चीन की अर्थव्यवस्था इस समय सुस्ती की शिकार है. अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय बाजारों में इस समय मांग में कमी का सिलसिला जारी है. यही बाजार चीन की निर्यात केंद्रित अर्थव्यवस्था के प्रमुख खरीदार हैं.
आंतरिक स्तर पर भी चीन में विरोध के स्वर मुखर हो रहे हैं, जिनकी अभिव्यक्ति कोविड महामारी के दौर में ही शुरू हो गई थी. हालांकि, चीन से बहुत ज्यादा खबरें बाहर नहीं जा पातीं, लेकिन छिपते-छिपाते जो भी खबरें आ पाती हैं उनसे आंतरिक खटपट के संकेत जरूर मिलते हैं. इन परिस्थितियों में वैश्विक महाशक्ति बनने की चीन की आकांक्षाओं को झटका लग सकता है, क्योंकि विदेश मंत्री के साथ इस प्रकार का व्यवहार कई तरह से प्रभाव डालेगा.
नत्थी वीजा का मुद्दा एक बार फिर से यही रेखांकित करता है कि भारत के साथ संबंधों को लेकर चीन निश्चित नहीं है कि उसे किस राह पर आगे बढ़ना है.
अच्छी बात है कि सरकार चीन के इस खेल में फंसने से बच रही है और विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने हाल में फिर दोहराया कि भारत-चीन संबंध अच्छी स्थिति में नहीं हैं और उसका एक बड़ा कारण सीमा पर चीन की खुराफात है. भारत ने 2020 से ही स्पष्ट किया हुआ है कि जब तक चीन सीमा पर अपना रवैया नहीं सुधारता तब तक उसके साथ किसी भी प्रकार की रचनात्मक वार्ता संभव नहीं है. नत्थी वीजा का मुद्दा एक बार फिर से यही रेखांकित करता है कि भारत के साथ संबंधों को लेकर चीन निश्चित नहीं है कि उसे किस राह पर आगे बढ़ना है. एक ओर तो वह भारत को अमेरिका का भय दिखाकर उसके साथ सहभागिता बढ़ाने की बात करता है तो दूसरी ओर कभी अरुणाचल का मुद्दा छेड़कर या मनमाने तरीके से भारतीय इलाकों के नाम बदल देता है तो कभी नत्थी वीजा का अनावश्यक पैंतरा चलता है.
यह लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित हो चुका है.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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