Author : Harsh V. Pant

Originally Published दैनिक भास्कर Published on Mar 10, 2025 Commentaries 0 Hours ago

पिछले दिनों यूक्रेन के मसले पर डोनाल्ड ट्रंप और वोलोडिमिर जेलेंस्की के बीच हुई तीखी नोंकझोक के बाद अमेरिका और यूरोपीय देशों के बीच तनाव बढ़ गया है. लेकिन क्या इस तनाव से वैश्विक समीकरणों पर भी असर पड़ेगा?

अमेरिका-यूरोप तनाव से क्या बदलेगा?

यूक्रेन के मसले पर अमेरिका और यूरोप (खासकर यूरोपीय यूनियन) आमने- सामने हैं. दोनों मिलकर 'पश्चिम' का जो कॉन्सेप्ट बनाते थे, वह अब चौराहे पर खड़ा नजर आ रहा है. दोनों ब्लॉक्स के बीच की दूरियां बढ़ती जा रही हैं और यूरोपीय देशों को पहली बार यह एहसास हुआ है कि उन्हें केवल अमेरिका पर निर्भर न रहते हुए अपनी सुरक्षा के लिए खुद से कदम उठाने पड़ेंगे. यही वजह है कि यूरोपीय यूनियन (ईयू) देशों के बीच लगातार बैठकें हो रही हैं.

अमेरिका ने यूरोप को सुरक्षा देने की जो भूमिका निभाई है, अब वह उससे पीछे हटना चाहता है. इसलिए यह स्थिति अमेरिका और यूरोप के संबंधों में सबसे बदतर स्थिति की ओर इशारा कर रही है.

सबसे बदतर स्थिति में पहुंचे यूरोप-अमेरिका संबंध !

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका और यूरोप साथ-साथ चले हैं. अमेरिका की अगुवाई में ही पश्चिमी देशों ने ग्लोबल गवर्नेंस का फ्रेमवर्क रचा . अमेरिका की लीडरशिप के बगैर यूरोपीय देश न तो इकट्ठे हो पाते, न अपनी विदेश नीति बना पाते और यहां तक कि यूरोपीय यूनियन के तौर पर भी खड़े नहीं हो पाते. लेकिन अमेरिका ने यूरोप को सुरक्षा देने की जो भूमिका निभाई है, अब वह उससे पीछे हटना चाहता है. इसलिए यह स्थिति अमेरिका और यूरोप के संबंधों में सबसे बदतर स्थिति की ओर इशारा कर रही है. यूरोप जहां यूक्रेन पर रूसी आक्रमण को अस्तित्व के संकट के तौर पर देख रहा है तो वहीं डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के मद्देनजर इसे एक ट्रांजैक्शनल एप्रोच ( लेन-देन का नजरिया) के तौर पर देख रहे हैं. ऐसे हालात में यूरोप को लग रहा है कि अमेरिका उसका साथ छोड़ रहा है. 

यूरोप खुद भी कुछ करें. यूरोप में ऐसे कई बड़े देश हैं जो आर्थिक तौर पर विकसित हैं, लेकिन सुरक्षा पर वो ज्यादा खर्च नहीं करते हैं. लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि यूरोप अपनी सुरक्षा का जिम्मा अपने कंधों पर उठाने के लिए विवश हो रहा है.

तो क्या अपनी सुरक्षा का जिम्मा यूरोप खुद लेगा?

अमेरिका में यह सवाल पहले से ही उठता रहा है कि आखिर वह कबतक ढोता रहेगा. ट्रंप ने यहां हो जाता है, तब भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा. यूरोप की सुरक्षा के मामले में भी उन्होंने बेफिक्री जताई है. तो वे इशारा कर रहे हैं कि यूरोप खुद भी कुछ करें. यूरोप में ऐसे कई बड़े देश हैं जो आर्थिक तौर पर विकसित हैं, लेकिन सुरक्षा पर वो ज्यादा खर्च नहीं करते हैं. लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि यूरोप अपनी सुरक्षा का जिम्मा अपने कंधों पर उठाने के लिए विवश हो रहा है. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने तो यहां तक कह दिया है कि उनके परमाणु हथियार पूरे यूरोप के लिए सुरक्षा ढाल बन सकते हैं. इसलिए यूरोप की सुरक्षा को लेकर विचार-विमर्श हो रहा है, जो वैसे बहुत पहले हो जाना चाहिए था. लेकिन अब डोनाल्ड ट्रंप इसके लिए दबाव बना रहे हैं.

रूस : अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के बीच तनाव से सबसे बड़ा फायदा रूस को होगा और हो भी रहा है. कल जब तक सारे पश्चिमी देश इकट्ठे थे तो वो रूस पर दबाव बना रहे थे, उस पर प्रतिबंध लगा रहे थे, उसे अगल -थलग करने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन अब जब पश्चिमी देशों में दरार पड़ रही है तो इसका सबसे अधिक फायदा रूस को ही होता नजर आ रहा है. हालांकि शुक्रवार को ट्रंप ने यह कहकर एक पेंच जरूर डाल दिया है कि यूक्रेन के साथ युद्धविराम और शांति समझौता नहीं होने तक वे रूस पर टैरिफ लगाने पर विचार कर रहे हैं.

चीन: इस तनाव से दूसरा फायदा चीन को हो सकता है. डोनाल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल से लेकर बाइडेन के शासनकाल तक चीन को लेकर यूरोप और अमेरिका ने एक साझेदारी में अपनी पॉलिसी बनाई. चीन को टारगेट किया गया. चीन पॉलिसी पर धार तभी बन पाई, जब अमेरिका और यूरोप दोनों एक साथ आए . अब अगर दोनों के बीच में दूरियां आती हैं और अगर चीन समझदारी से अपने पत्ते चलता है तो वह यूरोप को अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर सकता है. ऐसे में इसका बहुत बड़ा फायदा चीन को हो सकता है.

भारतः इसे दो तरह से देखना होगा. भारत ने अमेरिका और यूरोपीय देशों के साथ जो साझेदारी बनाई, उसी से हमें चीन के सामने खड़े होने का दम मिला. इसलिए अब अगर दोनों के बीच दरार आती है तो जाहिर है चीन को इसका फायदा होगा और भारत को नुकसान. लेकिन दूसरी तरफ एक फायदा भी नजर आ रहा है, बशर्ते अमेरिका रूस के साथ नए सिरे से अपने संबंध रच पाए. ऐसी स्थिति में भारत को फायदा यह मिलेगा कि अब तक उसे अपनी डिप्लोमेसी को लेकर अमेरिका और रूस के बीच जो संतुलन साधना पड़ा है, वह नहीं करना पड़ेगा.

जब यूरोप को अपनी सुरक्षा के लिए खुद निवेश करना पड़ेगा तो फिर यह सवाल भी उठेगा कि नाटो की जरूरत ही क्या है ?

संकट में नाटो का अस्तित्व ?

1949 में नाटो अमेरिका की लीडरशिप में ही बना था. तब यूरोपीय देश काफी कमजोर थे. लेकिन अब स्थिति काफी बदल गई है. अब अमेरिका चाहता है कि यूरोपीय देश अपनी सुरक्षा की ज्यादा जिम्मेदारी उठाएं. लेकिन अगर अमेरिका और यूरोप के बीच की दूरियां इसी तरह से बढ़ती रहेंगी तो नाटो के अस्तित्व पर सवाल जरूर खड़ा हो सकता है. जब यूरोप को अपनी सुरक्षा के लिए खुद निवेश करना पड़ेगा तो फिर यह सवाल भी उठेगा कि नाटो की जरूरत ही क्या है ?

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