Author : Samir Saran

Originally Published प्रोजेक्ट सिंडीकेट Published on May 29, 2023 Commentaries 0 Hours ago
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI), लोकतंत्र और ग्लोबल व्यवस्था

भविष्य के इतिहासकार मार्च 2023 के दूसरे पखवाड़े को एक ऐसा दौर मानेंगे, जब आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का युग वास्तव में आरंभ हुआ था. महज़ दो हफ़्तों के भीतर दुनिया ने GPT-4, बार्ड, क्लॉड, मिडजर्नी वी5, सिक्योरिटी कोपायलट और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के ऐसे और बहुत से टूल लॉन्च होते देखे गए, जिन्होंने लगभग सभी की उम्मीदों को पीछे छोड़ दिया है. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के ये नए मॉडल इतने परिष्कृत हैं कि ये ज़्यादातर विशेषज्ञों के पूर्वानुमानों को लगभग एक दशक पीछे छोड़ आए हैं. 

सदियों से क्रांतिकारी आविष्कारों ने- प्रिंटिंग प्रेस के ईजाद से स्टीम इंजन और हवाई जहाज़ के आविष्कार से इंटरनेट तक- आर्थिक विकास को नई रफ़्तार दी है. सूचना तक पहुंच का दायरा बढ़ाया है, और स्वास्थ्य समेत दूसरी ज़रूरी सेवाओं में बड़े पैमाने पर सुधार किया है. लेकिन, ऐसे बड़े बदलावों के नकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिले हैं. ज़ाहिर है आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के टूल्स के मामले में भी ऐसा ही होगा.

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) ऐसे काम कर सकते हैं, जिन्हें करना लोग नापसंद करते हैं. इनके ज़रिए दुनिया भर के उन करोड़ों लोगों तक स्वास्थ्य और शिक्षा की सेवा पहुंचाई जा सकती है, जिनकी अनदेखी मौजूदा व्यवस्थाएं करती हैं. और, AI  रिसर्च और विकास को भी बहुत बढ़ावा दे सकते हैं, जिनमें आविष्कारों का स्वर्ण युग शुरू करने की संभावनाएं दिखती हैं. लेकिन, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से फेक न्यूज़ गढ़ने और उनके प्रचार प्रसार की रफ़्तार भी बहुत तेज़ होने की आशंका है; ये औज़ार बड़े स्तर पर मानव श्रम की जगह ले सकते हैं; और इनके ज़रिए ऐसे ख़तरनाक और बाधा डालने वाले औज़ार गढ़े जा सकते हैं, जिनसे हमारे अस्तित्व के लिए ही संकट पैदा होने का डर है.

ख़ास तौर से बहुत से लोग ये मानते हैं कि आर्टिफ़िशियल जनरल इंटेलिजेंस (AGI)- यानी ऐसा AI जो ख़ुद को ऐसा कोई भी ज्ञान संबंधी काम करना सिखा सकता है, जो इंसान कर सकते हैं- से मानवता के अस्तित्व के लिए ख़तरा पैदा हो जाएगा. असावधानी से तैयार किया गया कोई AGI (या वो AI जो ‘ब्लैक बॉक्स’ प्रक्रिया से नियंत्रित होता हो) अपना काम इस तरह से कर सकेगा, जो मानवता के बुनियादी तत्वों के लिए ख़तरनाक हो सकता है. उसके बाद, इंसान होना क्या होता है, इसका फ़ैसला भी AGI के ही हाथ में होगा.

निश्चित रूप से आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और दूसरी उभरती हुई तकनीकों के लिए बेहतर प्रशासनिक ढांचा बनाने की ज़रूरत है, ख़ास तौर से वैश्विक स्तर पर. लेकिन, राजनयिक और अंतरराष्ट्रीय नीति निर्माता कई दशकों तक तक़नीक को एक ऐसे ‘क्षेत्रीय विषय’ के तौर पर देखते रहे हैं, जिसे ऊर्जा, वित्त या फिर रक्षा मंत्रालयों के ऊपर छोड़ दिया जाना चाहिए. ये एक संकुचित सोच है, जिसकी मिसाल हम जलवायु प्रशासन के मामले में देख चुके हैं. ज़्यादा पुरानी बात नहीं है, जब जलवायु प्रशासन को ख़ास वैज्ञानिकों और तक़नीकी जानकारों के लिए आरक्षित क्षेत्र माना जाता था. आज जब जलवायु परिवर्तन से जुड़ी परिचर्चाएं केंद्र बिंदु में हैं, तो जलवायु प्रशासन को आला दर्ज़े का ऐसा विषय माना जाता है, जिसमें विदेश नीति समेत अन्य बहुत से क्षेत्रों के जानकार भी शामिल होते हैं. इसी हिसाब से आज का प्रशासनिक ढांचा इस मुद्दे के वैश्विक स्वभाव को दिखाता है, जिसमें सारी जटिलताएं और बारीक़ियां शामिल हैं.

जैसा कि हाल ही में हिरोशिमा में हुए G7 शिखर सम्मेलन की परिचर्चाओं से संकेत मिलता है कि तक़नीकी प्रशासन के लिए भी ऐसा ही नज़रिया अपने की ज़रूरत होगी. आख़िरकार, AI और दूसरी उभरती हुई तकनीकें पूरी दुनिया में ताक़त के स्रोत, वितरण और इसके प्रदर्शन को नाटकीय ढंग से बदल जो डालेंगी. इन तकनीकों से हमला करने और अपनी रक्षा करने की नई क्षमताएं विकसित की जा सकेंगी और इनसे संघर्ष, मुक़ाबले और टकराव के बिल्कुल नए मोर्चों का जन्म होगा- इनमें साइबर दुनिया और अंतरिक्ष क्षेत्र भी शामिल होंगे. और, ये तकनीकें ही तय करेंगी कि हम क्या उपभोग करते हैं. इन नई तकनीकों से अंतत: आर्थिक विकास कुछ क्षेत्रों, उद्योगों और कंपनियों में केंद्रित हो जाएगा. वहीं, दूसरों से ऐसे ही अवसर और क्षमताएं छिन जाएंगे.

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीकों का, मूलभूत अधिकारों और स्वतंत्रताओं, हमारे रिश्तों, उन मुद्दों पर जिनकी हम परवाह करते हैं और यहां तक कि हमारी सबसे प्रिय आस्थाओं पर भी गहरा प्रभाव पढ़ेगा. अपने फीडबैक लूप और हमारे अपने आंकड़ों पर निर्भरता के कारण AI के मॉडल मौजूदा पूर्वाग्रहों को और बढ़ा देंगे, और इनसे बहुत से देशों के पहले से ही नाज़ुक सामाजिक समीकरण भी और तनावपूर्ण हो जाएंगे.

साफ़ है कि इसके जवाब में जो क़दम हम उठाएं उनमें कई अंतरराष्ट्रीय समझौते शामिल होने ही चाहिए. मिसाल के तौर पर आदर्श स्थिति में हम नए समझौते (संयुक्त राष्ट्र के स्तर पर) करेंगे, ताकि युद्ध क्षेत्र में कुछ तकनीकों का उपयोग प्रतिबंध कर सकें. इसकी एक अच्छी शुरुआत स्वचालित हथियारों पर पूरी तरह पाबंदी लगाने वाली संधि से की जा सकती है; इसी तरह, साइबर दुनिया को नियमित करना- ख़ास तौर से स्वचालित बॉट्स द्वारा किए जाने वाले हमलों को नियंत्रित करना भी ज़रूरी होगा. 

भारत, अमेरिका और यूरोपिय संघ

नए व्यापार नियमों की भी ज़रूरत होगी. कुछ ख़ास तरह की तकनीकों के बेलग़ाम निर्यात से सरकारों को असहमति को दबाने और अपनी सैन्य शक्ति में क्रांतिकारी ढंग से वृद्धि करने के ताक़तवर हथियार मिल सकते हैं. इसके अलावा, हमें डिजिटल अर्थव्यवस्था में सभी देशों को बराबरी का मौक़ा देने के लिए अभी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है. इसमें, ऐसी गतिविधियों पर उचित कर लगाने जैसे उपाय भी शामिल होंगे.

जैसा कि G7 देशों के नेता शायद पहले से स्वीकार कर रहे हैं कि आज आज़ाद समाजों की स्थिरता दांव पर लगी है. तो, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के नियमन के लिए एक साझा नज़रिया विकसित करना लोकतांत्रिक देशों के ही हित में होगा. आज सहमति निर्मित करने और जनता की राय में हेरा-फेरी करने के लिए सरकारें अभूतपूर्व क्षमताएं हासिल कर रही हैं. इन्हें अगर निगरानी की विशाल व्यवस्थाओं से जोड़ कर देखें, तो AI के विकसित औज़ारों के विश्लेषण करने की ताक़त एक तक़नीकी महादानव बनाने की क्षमता रखती है; जब अपने नागरिकों की सारी जानकारियों से लैस सरकारों और बड़ी कंपनियों के पास अपनी सीमा के भीतर ही नहीं, सीमाओं के पार भी नागरिकों के बर्ताव को तय करने और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें दबाने की ताक़त होगी. ऐसे में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के नैतिक मूल्यों की वैश्विक रूप-रेखा तय करने के यूनेस्को (UNESCO) के प्रयासों का समर्थन करना ही महत्वपूर्ण नहीं है. बल्कि, डिजिटल अधिकारों के वैश्विक घोषणापत्र को भी बढ़ावा देना भी ज़रूरी है.

तक़नीकी कूटनीति के विषय पर ध्यान केंद्रित करने का मतलब, उभरती हुई शक्तियों के साथ संवाद की नई रणनीति तैयार करने की ज़रूरत है. उदाहरण के लिए, पश्चिमी अर्थव्यवस्थाएं, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के साथ अपनी साझेदारी को किस तरह देखते हैं, ये बात ऐसी कूटनीति को सफल या नाकाम बना सकती है. वर्ष 2028 तक संभवत: भारत (अमेरिका और चीन के बाद) दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगा. भारत की तरक़्क़ी असाधारण रही है. इस प्रगति में भारत की सूचना प्रौद्योगिकी और डिजिटल अर्थव्यवस्था की ताक़त का बड़ा योगदान रहा है. मुद्दे की बात पर आएं, तो उभरती तकनीकों के मामले में भारत की राय बहुत अहम है. करोड़ों लोग AI का इस्तेमाल किस तरह करते हैं, ये इससे तय होगा कि भारत, AI के क्षेत्र में प्रगति को किस तरह बढ़ावा देता है, और इसे कैसे नियंत्रित करता है.

भारत से संवाद, अमेरिका और यूरोपीय संघ, दोनों के लिए प्राथमिकता है. ये बात हाल ही में अमेरिका-भारत के इनिशिएटिव ऑन क्रिटिकल ऐंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजी (iCET) और EU- भारत ट्रेड ऐंड टेक्नोलॉजी काउसिल से स्पष्ट है, जिसकी बैठक इसी महीने ब्रसेल्स में हुई थी. लेकिन, ये कोशिशें कामयाब हों इसके लिए सांस्कृतिक एवं आर्थिक संदर्भों और हितों को तार्किक रूप से सम्मान देने की ज़रूरत होगी. ऐसी बारीक़ियों का सम्मान करने से हमें एक समृद्ध और सुरक्षित डिजिटल भविष्य हासिल करने में मदद मिलेगी. इसका दूसरा विकल्प आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से पैदा हुई अराजकता ही है.


ये लेख मूल रूप से प्रोजेक्ट सिंडीकेट में प्रकाशित हुआ था

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