पिछले हफ़्ते ऐसी ख़बरें आईं कि चीन अपने शिन्जियांग सूबे में कम ताक़त या कम शक्ति के विस्फोट वााले परमाणु परीक्षण कर रहा है. चीन ने ये परमाणु परीक्षण अपनी एटमी परीक्षण के पुराने ठिकाने, शिन्जियांग के लोप नुर नाम की जगह पर किए. चीन के कम शक्ति वाले परमाणु परीक्षण करने के ये दावे अमेरिका के विदेश मंत्रालय की एक रिपोर्ट के हवाले से किए गए हैं. इससे इस बात की चिंता बढ़ गई है कि चीन सब क्रिटिकल यानी अर्ध शक्ति या कम शक्ति वाले परमाणु परीक्षण पर प्रतिबंध लगाने के अपने वादे से मुकर गया है. हालांकि, चीन की साम्यवादी सरकार ने बड़े अधिकारियों ने अमेरिकी विदेश विभाग के इन दावों का खंडन किया है. लेकिन, इसमें चौंकाने वाली कोई बात नहीं दिखती. इस समय जब पूरी दुनिया का ध्यान कोविड-19 से निपटने में लगा हुआ है तो ऐसे में यदि कोई देश इसका फायदा उठाकर परमाणु परीक्षण करता है तो इसका प्रमुख कारण ये हो सकता है कि उस देश के परमाणु हथियारों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग रहे हों. और अपने हथियारों की विश्वसनीयता परखने के लिए ही ये परीक्षण किए जाएं. इस संदर्भ में 10 से 200 टन की शक्ति के परमाणु परीक्षण से निकाले गए आंकड़े बेहद महत्वपूर्ण हो जाते हैं. 1995 में जब कॉन्फ़्रेंस ऑन डिसआर्मामेंट (CD) के मंच पर कॉम्प्रिहेन्सिव टेस्ट बैन ट्रीटी (CTBT) से संबंधित वार्ताएं चल रही थीं. तब फ्रांस और रूस के अलावा चीन की साम्यवादी सरकार ने भी इस संधि के अंतर्गत 10 से 200 टन क्षमता वाले परमाणु परीक्षण करने की छूट की मांग उठाई थी. इतनी क्षमता के परमाणु परीक्षण के अधिकार सुनिश्चित करके ये ताक़तें भविष्य में परमाणु परीक्षण के अवसर अपने हाथ में रखना चाहती थीं. ताकि उस समय के परमाणु शक्ति संपन्न देशों और संभावित परमाणु शक्ति संपन्न देशों के पास ये आकर्षक विकल्प हमेशा खुले रहें कि वो एटमी टेस्ट कर सकें.
इस समय जब पूरी दुनिया का ध्यान कोविड-19 से निपटने में लगा हुआ है तो ऐसे में यदि कोई देश इसका फायदा उठाकर परमाणु परीक्षण करता है तो इसका प्रमुख कारण ये हो सकता है कि उस देश के परमाणु हथियारों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग रहे हों
ऐसे परीक्षणों से परमाणु हथियारों से जुड़े और आंकड़े प्राप्त होते हैं. इससे कोई भी देश कंप्यूटर पर शून्य विकिरण या कम शक्ति वाले परमाणु परीक्षण कर सकता है. लेकिन, CTBT संधि में शून्य विकिरण वाले परमाणु परीक्षण के विकल्प खुले नहीं रखे गए थे. हालांकि, इस संधि के अंतर्गत कोई भी देश, कम शक्ति वाले परमाणु परीक्षण करने के लिए स्वतंत्र था. क्योंकि ये एक पारंपरिक हथियार के विस्फोट के समान होता है. इसके लिए परमाणु परीक्षण की आवश्यकता नहीं होती. क्योंकि उससे वातावरण में विकिरण फैलता है. परमाणु अप्रसार संधि (NPT) तहत, सभी मान्यता प्राप्त परमाणु शक्ति संपन्न देशों (Nuclear Weapon States) ने CTBT पर भी हस्ताक्षर किए हैं. इसमें साम्यवादी चीन भी शामिल है. हालांकि, अभी तक अमेरिका और चीन ने अपनी संसद से CTBT पर मुहर नहीं लगवाई है. इसका अर्थ ये है कि अभी सभी परमाणु शक्ति संपन्न देश इस संधि की सभी शर्तों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है. क्योंकि ये समझौता तभी लागू होगा, जब सभी देश अपने अपने देश की संसद से इस पर मुहर लगवा लें.
1990 के दशक में साम्यवादी चीन के लिए ऐसी किसी भी संधि को पास कराना उचित नहीं होता, जो उसे परमाणु परीक्षण करने से रोकती हो. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सभी पांच स्थायी सदस्यों या परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर करने वाले परमाणु शक्ति संपन्न देशों (NWS) में से अब तक चीन ने ही सबसे कम यानी कुल 45 परमाणु परीक्षण किए हैं. ये ब्रिटेन के कुल परमाणु परीक्षणों के बराबर हैं. मगर, ब्रिटेन के परमाणु हथियार रख-रखाव और मरम्मत के लिए अमेरिकी मदद पर निर्भर हैं. लेकिन, चीन को अपने परमाणु हथियारों के रख-रखाव के लिए ऐसे किसी बाहरी देश से मदद की आवश्यकता नहीं है. चूंकि चीन ने परमाणु हथियारों की क्षमता परखने वाले हॉट टेस्ट कम संख्या में किए हैं. तो उसके पास अपने परमाणु हथियारों से जुड़े आंकड़े भी कम हैं. अब अगर इसके साथ हम लंबे समय तक परमाणु परीक्षणों पर रोक को भी जोड़ दें, तो इससे चीन के परमाणु हथियारों की सुरक्षा और उनकी विश्वसनीयता पर बड़े सवाल खड़े हो जाते हैं. हालांकि, चीन की साम्यवादी सरकार ने 1996 में और परमाणु परीक्षण न करने पर उस वक़्त सहमति दे दी थी, जब सभी देशों के बीच CTBT पर सहमति बनी थी. लेकिन, इस बात की पूरी संभावना है कि तब से लेकर अब तक चीन की सरकार पर और परमाणु परीक्षण करने का दबाव निश्चित रूप से बढ़ गया होगा.
अमेरिका के परमाणु सुरक्षा संबंधी वैज्ञानिक समुदाय का मानना है कि हथियार बनाने लायक़ प्लूटोनियम को ख़राब होने से रोकने के लिए परमाणु परीक्षण करने की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि इससे परमाणु हथियारों की सुरक्षा और उनकी क्षमता पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. लेकिन, अगर कोई देश ये चाहता है कि वो अपने परमाणु शस्त्रों के ज़ख़ीरे में नए हथियार शामिल करे, तो इसके लिए और परमाणु परीक्षण करना लाज़मी हो जाता है. तभी किसी नए परमाणु हथियार की सुरक्षा, उसकी विश्वसनीयता और क्षमता का परीक्षण हो सकता है. हो सकता है कि चीन को अपने नए परमाणु हथियारों की विश्वसनीयता परखने के लिए ऐसे परमाणु परीक्षण करने को बाध्य होना पड़ा हो, जो उसने हाल ही में अपने एटमी ज़ख़ीरे में शामिल किए हैं. चीन ने अपने परमाणु हथियारों के बारे में कोई भी आंकड़ा न तो इंटरनेशनल मॉनिटरिंग स्टेशन (IMS) से साझा किया है. और न ही उसने इससे जुड़े आंकड़े इंटरनेशनल डेटा सेंटर (IDC) को दिए हैं. ये दोनों ही संगठन कॉम्प्रिहेंसिव टेस्ट बैन ट्रीटी के प्रेपरेटरी कमीशन (CTBTO) के अंतर्गत कार्य करते हैं.
हो सकता है कि चीन के हाल में परमाणु परीक्षण करने से जुड़ी ये ख़बरें न हों, बल्कि महज़ अटकलें हों. चूंकि अब अगर दुनिया में कहीं भी छुप कर परमाणु परीक्षण किया जाता है, तो वो इंटरनेशनल मॉनिटरिंग सिस्टम (IMS) की निगाहों से बच नहीं सकते. ख़ासतौर से अमेरिका की निगरानी और निरीक्षण की जो व्यवस्था है, उससे छुप कर अब कोई भी देश परमाणु परीक्षण नहीं कर सकता है. हालांकि, आज से दो दशक पहले, जिस वक़्त परमाणु शक्ति संपन्न देशों के बीच CTBT को अपनाने पर सहमति बनी थी. उस समय तक चीन के पास अन्य परमाणु शक्ति संपन्न देशों की तुलना में परमाणु हथियारों का ज़ख़ीरा भी कम था और इससे जुड़े परीक्षण भी उसने बहुत कम किए थे. क्योंकि उस वक़्त चीन, कंप्यूटर आधारित परमाणु परीक्षण या कम शक्ति के एटमी टेस्ट करने की क्षमता भी पूरी तरह विकसित नहीं कर सका था. यही कारण है कि चीन ने शुरुआत में CTBT पर हस्ताक्षर करने में नख़रे दिखाए थे. अब अगर साम्यवादी चीन को अपने परमाणु हथियारों की सुरक्षा, उनकी क्षमता और ख़ासतौर से बड़े परमाणु शस्त्रों की विश्वसनीयता बिना परमाणु परीक्षण के सुनिश्चित करनी थी. तो फिर चीन को कंप्यूटर के क्षेत्र में असाधारण क्षमता वाले सुपरकंप्यूटरों की आवश्यकता थी. तभी वो असल परमाणु परीक्षण न कर पाने की क्षति की पूर्ति कर सकता था. इस संदर्भ में अगर हालिया ख़बरें सच हैं कि चीन ने कम शक्ति वाले या फिर शून्य विकिरण वाले परमाणु परीक्षण अपने लोप नुर क्षेत्र में किए हैं. तो इसके आधार पर इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि कम से कम चीन कंप्यूटर आधारित परमाणु परीक्षण की अपनी क्षमताओं की कमियों को दूर करने का प्रयास कर रहा है. ये वो अक्षमताएं और कमियां हैं जिनका सामना चीन पिछले 25 वर्षों से कर रहा है. इसलिए चीन के पास इस बात के पर्याप्त तर्क हैं कि वो अपने परमाणु हथियारों के मौजूदा ज़खीरे की क्षमता, सुरक्षा और विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए ऐसे परमाणु परीक्षण करे. साथ ही साथ उसे अपने ज़ख़ीरे में नए परमाणु हथियार शामिल करने के लिए भी ऐसे परमाणु परीक्षणों की ज़रूरत है.
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लंबे समय से ये कहते आए हैं कि अमेरिकी परमाणु हथियारों के ज़ख़ीरे का आधुनिकीकरण करना उनकी प्राथमिकताओं में से एक है. उन्होंने वर्ष 2021 के बजट में परमाणु हथियारों के आधुनिकीकरण के लिए 29 अरब डॉलर की रक़म का प्रावधान किया है. ये इस साल इस मद के बजट से 16 प्रतिशत अधिक है
अगर व्यापक सामरिक दृष्टिकोण से देखें, तो रिपब्लिकन पार्टी के नेता लंबे समय से अमेरिकी राष्ट्रपति से ये मांग कर रहे हैं कि वो परमाणु परीक्षण करने पर लगे प्रतिबंध हटा दें. अमेरिका, वर्ष 1992 से परमाणु परीक्षण न करने की पाबंदी का पालन कर रहा है. अमेरिका के ख़ुफ़िया विभाग ने रिपोर्ट दी थी कि किस तरह रूस ने मई 2019 में चुपके-चुपके कम क्षमता वाला परमाणु परीक्षण किया था. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लंबे समय से ये कहते आए हैं कि अमेरिकी परमाणु हथियारों के ज़ख़ीरे का आधुनिकीकरण करना उनकी प्राथमिकताओं में से एक है. उन्होंने वर्ष 2021 के बजट में परमाणु हथियारों के आधुनिकीकरण के लिए 29 अरब डॉलर की रक़म का प्रावधान किया है. ये इस साल इस मद के बजट से 16 प्रतिशत अधिक है. असल में अमेरिका के परमाणु ज़ख़ीरे के आधुनिकीकरण का काम ट्रंप के पूर्ववर्ती अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ही शुरू कर दिया था. ताकि, अमेरिका की पुरानी और विलुप्त होती जा रही सुपर पावर वाली शक्ति को दोबारा प्राप्त किया जा सके. साथ ही साथ अमेरिका के परमाणु हथियारों की सुरक्षा और विश्वसनीयता सुनिश्चित की जा सके.
चीन को लगता है कि रूस और अमेरिका के मुक़ाबले उसका परमाणु हथियारों का ज़खीरा बहुत कम है. लेकिन, चीन के पास परमाणु हथियार बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में ईंधन है. इसकी मदद से चीन अपने परमाणु हथियारों का ज़खीरा बढ़ाने की क्षणता रखता है
साथ ही साथ अमेरिका ये प्रयास भी कर रहा है कि अन्य परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों के साथ द्विपक्षीय बाध्यकारी परमाणु समझौतों का दायरा बढ़ाया जा सके. अमेरिका का लक्ष्य है कि वो चीन के साथ भी ऐसी द्विपक्षीय परमाणु अप्रसार संधि कर ले. इसके अलावा अमेरिका और रूस के बीच परमाणु अप्रसार संधि ‘स्टार्ट’ (START) के बारे में भी चर्चा चल रही है. क्योंकि पुरानी START संधि की अवधि फ़रवरी 2021 में समाप्त हो रही है. और रूस इस संधि के नवीनीकरण का तीव्र प्रतिकार कर रहा है. चीन की साम्यवादी सरकार को ये लगता है कि अभी उसके पास इतने परमाणु हथियार नहीं हैं कि वो किसी देश के साथ परमाणु हथियार घटाने का समझौता करे. चीन को लगता है कि रूस और अमेरिका के मुक़ाबले उसका परमाणु हथियारों का ज़खीरा बहुत कम है. लेकिन, चीन के पास परमाणु हथियार बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में ईंधन है. इसकी मदद से चीन अपने परमाणु हथियारों का ज़खीरा बढ़ाने की क्षणता रखता है. इसके बावजूद अगर चीन अपनी परमाणु शक्ति को किसी संधि के दायरे में लाने और परमाणु शस्त्रों के ज़खीरे को सीमित रखने के प्रयासों का विरोध करता है, तो ट्रंप प्रशासन पर भी इस बात का दबाव बढ़ेगा कि वो अमेरिका के नए परमाणु परीक्षण करने की राह की बाधाएं दूर करें. जिस तरह दुनिया में परमाणु शक्तियों के बीच तनाव और प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है, ऐसे में भारत को भी परमाणु परीक्षण करने पर ख़ुद के लगाए प्रतिबंधों की नए सिरे से समीक्षा करनी होगी. भारत ने 1998 के एटमी टेस्ट के बाद से परमाणु परीक्षण पर स्वत: ही रोक लगा रखी है.
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