Published on Jan 05, 2023 Updated 0 Hours ago

अगर भारत जलवायु के मोर्चे पर विश्व नेता के तौर पर उभरना चाहता है तो उसे निश्चित रूप से ब्लू-कार्बन समाधानों को अपनाना चाहिए.

ब्लू कार्बन: भारत के लिए अपनी क़ाबिलियत दिखाने का माक़ूल समय

2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने की भारत की वचनबद्धता को पूरा करने के लिए तमाम संभावित हस्तक्षेपों की पड़ताल और उनका भरपूर इस्तेमाल करना निहायत ज़रूरी है. इस सिलसिले में प्रकृति-आधारित समाधान, कार्बन ज़ब्ती के लिहाज़ से अहम साबित हो सकते हैं. इन समाधानों में ब्लू कार्बन इकोसिस्टम जैसे मैंग्रोव्स, ज्वारीय और लवणीय झाड़ियां, समुद्री घास आदि शामिल हैं. बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन ढांचा सम्मेलन (UNFCCC) में दाख़िल भारत के ‘दीर्घकालिक निम्न-कार्बन विकास रणनीति’ दस्तावेज़ में इस अवसर पर तवज्जो नहीं दिया गया है. ब्लू कार्बन भंडारण परिसंपत्तियों की बहाली को लेकर स्पष्ट रास्तों का अभाव, भविष्य में कार्बन उत्सर्जनों का एक बड़ा स्रोत बन सकता है.

ख़ुशक़िस्मती से भारत को 7500 किमी से भी ज़्यादा लंबी तटरेखा मिली हुई है. अनिर्बान अखंड (2022) और अन्य के मुताबिक भारत के पास फ़िलहाल तक़रीबन 5000 वर्ग किमी मैंग्रोव्स, 500 वर्ग किमी समुद्रीघास और 300 से 1400 वर्ग किमी के बीच लवणीय झाड़ियां मौजूद हैं.

जलवायु परिवर्तन रोकथाम और उसके हिसाब से ढलने के फ़ायदे

ख़ुशक़िस्मती से भारत को 7500 किमी से भी ज़्यादा लंबी तटरेखा मिली हुई है. अनिर्बान अखंड (2022) और अन्य के मुताबिक भारत के पास फ़िलहाल तक़रीबन 5000 वर्ग किमी मैंग्रोव्स, 500 वर्ग किमी समुद्रीघास और 300 से 1400 वर्ग किमी के बीच लवणीय झाड़ियां मौजूद हैं. ये पूरा इलाक़ा देश के कुल क्षेत्रफल का तक़रीबन 0.5 प्रतिशत है. छोटे आकार के बावजूद ये तटीय प्रणालियां लाखों वर्षों तक बेहद तेज़ी से कार्बन ज़ब्ती को अंजाम देती रह सकती हैं. हैमिलटन और फ़्राइस (2018) के मुताबिक ये तटीय जंगल, ज़मीन पर मौजूद दूसरी पारिस्थितिकीय प्रणालियों (उत्तर के जंगलों और ऊष्णकटिबंधीय वर्षावनों समेत) के मुक़ाबले 20 गुणा ज़्यादा कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) सोख सकती हैं. एक आकलन के मुताबिक फ़िलहाल उनकी कार्बन ज़ब्ती की कुल क्षमता 70.24 करोड़ टन CO2e या भारत के सालाना कार्बन उत्सर्जन का तक़रीबन 22 प्रतिशत है. ये आकलन भी किया गया है कि अगर देश के मैंग्रोव वनों को संरक्षित करके बचा लिया जाए तो 20.81 करोड़ टन CO2e की अतिरिक्त ज़ब्ती क्षमता हासिल हो सकती है. 

इसके अलावा तटीय पारिस्थितिकी तंत्र जलवायु के हिसाब से ढलने के अतिरिक्त फ़ायदे भी मुहैया कराते हैं. इनमें समुद्री तूफ़ानों और समुद्र-जल स्तरों में उछाल, तटीय भूमि के कटाव की रोकथाम और तटीय जल गुणवत्ता के नियमन शामिल हैं. इतना ही नहीं, तटीय इलाक़ों के संरक्षण से पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़ी कई और सेवाएं भी सुनिश्चित होती हैं. इनमें खाद्य सुरक्षा, आजीविका (छोटे स्तर का मछली पालन) और जैव-विविधता शामिल हैं.

बदक़िस्मती से कई वजहों के चलते तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों का नुक़सान हो रहा है. इनमें शहरीकरण; कृषि और मछली पालन के लिए ज़मीन का स्वरूप बदला जाना और मौसम से जुड़ी उग्र घटनाएं शामिल हैं. नेचर पत्रिका में भारत का ज़िक्र ब्लू कार्बन ‘प्रदाता’ देश की बजाए ‘ब्लू कार्बन धन प्राप्तकर्ता देश’ के तौर पर किया गया है. इससे देश में ब्लू कार्बन संसाधनों के ज़रूरत से कम इस्तेमाल की झलक मिलती है.

भारत को ब्लू कार्बन को बढ़ावा देना होगा

भारत की निम्न-कार्बन रणनीति में ब्लू कार्बन पर तवज्जो का अभाव है. ज़ाहिर है भारत को तटीय पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़ी अपनी समझ में ‘आमूल-चूल बदलाव’ लाते हुए इसे सामरिक रूप से अहम कार्बन ज़ब्ती भंडार के तौर पर देखना होगा. ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत ने इन संभावनाओं की ओर अपनी आंखें मूंद रखी हैं. ऐसा हो सकता है कि अतीत में वनीकरण और दोबारा जंगलों को स्थापित किए जाने की पहलों के तहत भारत की क़वायदों में तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों की बहाली और उनमें दोबारा जान फूंकने से जुड़ी कुछ साधारण पहलू शामिल रहे हों. बहरहाल बदलते वक़्त के साथ ऐसी तमाम परियोजनाओं को ‘ब्लू कार्बन’ की व्यापक छतरी के तहत चिन्हित कर उन्हें एकजुट किया जाना ज़रूरी हो गया है. इस तरह वैश्विक जलवायु नीति के उभरते स्वरूप के साथ क़दम से क़दम मिलाया जा सकता है.

ब्लू कार्बन के लिए राष्ट्रीय संस्थान का वक़्त

भारत सरकार को ये महसूस करना चाहिए कि अबतक ब्लू कार्बन पर देश सिर्फ़ एकरूपी साहित्य पर निर्भर रहा है, वो भी अक्सर इस मसले से जुड़े मुट्ठीभर विशेषज्ञों द्वारा ही तैयार किए गए हैं. बहरहाल भारत सरकार को इस कार्यप्रवाह को संस्थागत रूप देने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ों को तैयार करने, संग्रहित करने और उन्हें औपचारिक स्वरूप देने की दिशा में क़दम बढ़ाने चाहिए.

ब्लू-कार्बन के क्षेत्र में अगुवा के तौर पर उभरने के लिए भारत को विशेषज्ञता-प्राप्त सहयोगी संगठनों से प्रेरणा लेनी चाहिए. इस सिलसिले में राष्ट्रीय पवन ऊर्जा संस्थान (NIWE), राष्ट्रीय सौर ऊर्जा संस्थान (NISE) और राष्ट्रीय जैव-ऊर्जा संस्थान (NIBE) आदि की तर्ज पर ब्लू-कार्बन क्षेत्र के लिए भी एक संगठन स्थापित किया जाना चाहिए. ये नई संस्था भारतीय मौसम विभाग, राष्ट्रीय महासागरीय विज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान, इसरो और IIT बॉम्बे के मातहत नेशनल सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंस इन कार्बन कैप्चर एंड यूटिलाइज़ेशन आदि से नज़दीकी गठजोड़ कर काम कर सकती है. इससे इस क्षेत्र में रफ़्तार लाने के लिए ज़रूरी शर्तें पूरी की जा सकती हैं. ये ज़रूरी मानकों, कोडों और सहयोगियों द्वारा समीक्षा किए जाने वाले ढांचों की स्थापना को बढ़ावा दे सकता है ताकि ब्लू कार्बन समाधानों के आकलन किए जा सकें. ये मानव संसाधनों को कौशल युक्त करने की गतिविधियों को आगे बढ़ा सकता है, साथ ही स्टार्ट-अप्स में जान फूंक सकता है और नवाचार से जुड़े क्लस्टरों को भी आगे बढ़ावा दे सकता है. इनसे तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों के क्षरण को रोका जा सकता है, मिट्टी की पोषकता बरक़रार रखी जा सकती है और मौलिक जैव-विविधता को संरक्षित किया जा सकता है. इस तरह स्थानीय समुदायों की संस्कृतियों और आकांक्षाओं का सम्मान भी सुनिश्चित किया जा सकता है.

ब्लू कार्बन के लिए राष्ट्रीय मिशन

ब्लू-कार्बन सेक्टर में वित्तीय और नीतिगत हस्तक्षेपों के साथ-साथ प्रौद्योगिकीय विकासों का तालमेल बनाने के लिए भारत सरकार द्वारा इस मक़सद से एक सामरिक मिशन की शुरुआत किया जाना ज़रूरी है. ये प्रासंगिक क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित कर सकता है जो ब्लू-कार्बन इकोसिस्टम के विकास की दिशा में योगदान दे सकता है. इस तरह ज्ञान, मानवशक्ति, धन और सामग्रियां जुटाने के लिए चरणबद्ध नीतियां के ज़रिए मूल्य-श्रृंखला का विकास किया जा सकता है. ये प्रक्रियाएं देश की सामूहिक क़वायदों में तेज़ी ला सकती हैं. ये मांग निर्माण की संभावित कार्रवाइयों की पहचान कर सकते हैं. इनमें ब्लू कार्बन प्रतिबद्धताएं शामिल हैं. इसके साथ ही इस दायरे में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय किरदारों के मुख्य सहायकों को आगे बढ़ाया जा सकता है. देश में एक मज़बूत कार्बन बाज़ार की स्थापना इस सफ़र का एक अहम कारक हो सकता है. ये निजी क्षेत्रों/ग़ैर-सरकारी संगठनों/थिंक टैंकों के साथ पायलट प्रोजेक्ट्स का आग़ाज़ कर सकता है. इस दिशा में निगरानी, नियम-पालना और जोख़िम रोकथाम से जुड़े दिशा-निर्देशों की समुचित क़वायद सुनिश्चित की जा सकती है. मैकिन्से की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ब्लू कार्बन की प्रकृति-आधारित प्रणालियों (जैसे दलदली घास के मैदानों की बहाली) को 2050 तक 50 अमेरिकी डॉलर/tCO2 के समकक्ष मूल्य पर हासिल किया जा सकता है. इस सिलसिले में उभरते ब्लू-कार्बन समाधानों द्वारा ज़मीन पर प्रकृति-आधारित समाधानों से प्रतिस्पर्धा कराने का भी प्रस्ताव किया गया है. प्रायोगिक क़वायदों द्वारा प्रस्तावित मिशन को अनुभव आधारित तथ्यों द्वारा सत्यापित किया जा सकता है. इस तरह अल्पकाल से लेकर मध्यम काल तक वित्तीय आवंटनों के फ़ैसले किए जा सकते हैं ताकि बाज़ार उम्मीदों से भी आगे के नतीजे हासिल किए जा सकें. इनसे जुटाए गए तजुर्बों को आगे दुनिया भर के साथ साझा किया जा सकता है.

ब्लू-कार्बन सेक्टर में वित्तीय और नीतिगत हस्तक्षेपों के साथ-साथ प्रौद्योगिकीय विकासों का तालमेल बनाने के लिए भारत सरकार द्वारा इस मक़सद से एक सामरिक मिशन की शुरुआत किया जाना ज़रूरी है.

अंतरराष्ट्रीय साझेदारियां 

भू-सामरिक रूप से अपने अहम मुकाम के चलते ब्लू-कार्बन के क्षेत्र में अलग-अलग प्रक्रियाओं और महादेशीय प्रयासों को एकजुट करने में भारत एक अगुवा ताक़त बन सकता है. वो द्विपक्षीय और बहुपक्षीय मंचों पर सार्थक आमसहमति तैयार कर सकता है. इसके साथ ही अपने हितों के लिए भारत को दूसरे तमाम मंचों पर भी सक्रिय रूप से भागीदारी करनी चाहिए. इनमें ब्लू कार्बन इनिशिएटिव, ब्लू कार्बन के लिए अंतरराष्ट्रीय भागीदारी और हिंद महासागर में वनों के विकास से जुड़ी तमाम आगामी परियोजनाएं शामिल हैं. भारत ने हाल ही में फ़्रांस की अगुवाई वाले ‘राष्ट्रीय न्यायिक क्षेत्राधिकार से परे जैव-विविधता पर ऊंची महत्वाकांक्षाओं वाले गठजोड़’ को समर्थन दिया है. इसके अलावा उसने ‘एक महासागर सम्मलेन’ में भी हिस्सा लिया है. ये सही दिशा में उठाए गए शुरुआती क़दम हैं. इसके अलावा भारत विकासशील छोटे द्वीप देशों (SIDS) को भी उनके विशाल ब्लू कार्बन संसाधनों के क्षेत्र में सहायता उपलब्ध करवा सकता है. इस मोर्चे पर भारत के वैचारिक नेतृत्व के अभाव से जलवायु संवादों के क्षेत्र में ऐसे देशों के बीच निराशा के भाव का संचार हुआ है. चूंकि, भारत ने हाल ही में जी20 की अध्यक्षता संभाली है लिहाज़ा वो इस मोर्चे पर ख़ालीपन को दूर कने के लिए अपनी क्षमताओं का इस्तेमाल कर सकता है. 

भारत को भौगोलिक रूप से घेरने वाले जलीय क्षेत्रों ने यहां की सभ्यता के उभार में गहरा प्रभाव छोड़ा है. भारत के प्राचीन सिद्धांतों, साहित्यों और हस्तलेखों में हमेशा ही गहरे समंदरों से मिलने वाले उपहारों का सम्मान किया जाता रहा है. भारत जलवायु के क्षेत्र में नेता के तौर पर उभरने का मंसूबा रखता है, जिसके लिए ब्लू-कार्बन के क्षेत्र में इसका अगुवा के तौर पर उभरना लाज़िमी हो जाता है.


References:

[1] https://link.springer.com/article/10.1007/s11625-022-01181-4

[2] https://www.nature.com/articles/s41558-021-01089-4

[3] https://www.iucn.org/resources/issues-brief/blue-carbon

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.