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लोकतंत्र के एक मॉडल के रूप में "चीनी लोकतंत्र" को हाल ही में चीन द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है जो वैश्विक लोकतंत्र की चर्चा में अपने लिए एक स्थान बनाने की कोशिश है.
Image Source: Getty
9-10 दिसंबर को आयोजित अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के लोकतंत्र शिखर सम्मेलन ने चीन में लोकतंत्र की स्थिति पर एक अहम बहस छेड़ दी. 4 दिसंबर को चीन के स्टेट काउंसिल इन्फ़ॉर्मेशन ऑफ़िस ने “चीन में प्रजातंत्र” पर एक श्वेत पत्र जारी किया जिसके बाद चीन के विदेश मामलों के मंत्रालय ने 5 दिसंबर को “अमेरिका में प्रजातंत्र की स्थिति” पर एक श्वेत पत्र जारी कर दिया. महीने भर कई तरह के सम्मेलन, सेमिनार, चर्चा आयोजित किए गए जिसमें चीन के नौकरशाह और प्रमुख विद्वानों/रणनीतिकारों ने प्रजातंत्र पर बहस और चर्चा की. चीन के राज्य मीडिया ने भी लोकतंत्र शिखर सम्मेलन को ध्यान में रखते हुए जोर-शोर से अभियान चलाया. वास्तव में कुछ चीनी विद्वानों ने दिसंबर 2021 को वैश्विक “लोकतंत्र प्रतियोगिता माह” के तौर पर समर्पित किया, जिसमें अमेरिका और चीन दो मुख्य किरदार थे.
चीन के राज्य मीडिया ने भी लोकतंत्र शिखर सम्मेलन को ध्यान में रखते हुए जोर-शोर से अभियान चलाया. वास्तव में कुछ चीनी विद्वानों ने दिसंबर 2021 को वैश्विक “लोकतंत्र प्रतियोगिता माह” के तौर पर समर्पित किया, जिसमें अमेरिका और चीन दो मुख्य किरदार थे.
यह साफ तौर पर चीन में एक नया चलन है. क्योंकि लंबे समय से देश में “लोकतंत्र” शब्द की भारी अनदेखी की जाती रही है. चीनी विद्वान, रणनीतिकार, अधिकारी अक्सर इस मुद्दे को पूरी तरह से नकारते रहे हैं और शायद ही कभी सार्वजनिक रूप से इस पर चर्चा करते थे लेकिन सच यही है कि मौजूदा समय में वैश्विक प्रजातंत्र की बहस में चीन के पास योगदान देने के लिए कुछ ख़ास नहीं है. अब, अधिक से अधिक चीनी विद्वानों की राय है कि चीन को वैश्विक लोकतंत्र की परिचर्चा में योगदान देना चाहिए और सक्रिय रूप से हिस्सा लेना चाहिए और दूसरों को हावी होने का मौका नहीं देना चाहिए, विशेष रूप से अमेरिका को इसके लिए मौका नहीं देना चाहिए कि वह इसे सॉफ्ट पावर टूल के तौर पर अपनी विदेश नीति के एजेंडे को बढ़ाने में इस्तेमाल कर सके.
अमेरिकी लोकतंत्र शिखर सम्मेलन के ख़िलाफ़ चीनी पक्ष का मुख्य तर्क यह था कि – कारोबारी प्रतिद्वन्द्विता से लेकर लोकतंत्र की जंग से अमेरिका और चीन में तल्ख़ियां पैदा हो रही हैं और बाइडेन शासन काल की नीतियां आख़िरकार चीन से सामना करने के लिए उनके पूर्ववर्ती ट्रंप के शासन के मॉडल को ही अपनाती जा रही है. चीन का तर्क यह है कि प्रजातंत्र पर सम्मेलन आयोजित कर अमेरिका ने चीन को रोकने के लिए एक वैचारिक मोर्चा खोल लिया है, जिसकी कोशिश चीन के ख़िलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को बांट कर एक गठजोड़ को बढ़ावा देना है, जिससे नए शीत युद्ध का सूत्रपात होगा, जिसकी वजह से इतिहास एक बार फिर अतीत की ओर कदम बढ़ाने पर मज़बूर होगा. चीन का तर्क है कि इससे चीन के ख़िलाफ़ एक सांस्कृति जंग छेड़ने की अमेरिका की कोशिश है, जिससे अमेरिका अपने सहयोगियों को एकजुट कर सके और उन्हें प्रजातंत्र के नाम पर एक साथ कर सके, और चीन के ख़िलाफ़ प्रजातांत्रिक देशों की एक धुरी बना सके.” कुछ लोगों ने अनुमान लगाया कि अमेरिका वैश्विक औद्योगिक श्रृंखला सुरक्षा प्रणाली के पुनर्निर्माण के लिए लोकतंत्र का उपयोग कर सकता है और लोकतांत्रिक देशों के बीच नए औद्योगिक मापदंडों और कारोबारी नियमों को स्थापित कर सकता है, और चीन समेत अन्य देशों के साथ भेदभाव कर सकता है, और उन्हें “गैर-लोकतांत्रिक” देश करार दे सकता है. दूसरे विशेषज्ञों ने तो प्रजातंत्र पर हुए इस सम्मेलन को एक बड़ी अंतर्राष्ट्रीय साजिश तक मान लिया. उन्हें बाइडेन सरकार के लोकतांत्रिक प्रोजेक्ट और संयुक्त राष्ट्र के बनने के इतिहास में काफी समानता नज़र आई – एक मॉडल जिसे मुख्य रूप से फासीवाद-विरोधी गठबंधन के सदस्यों को समायोजित करने के लिए डिज़ाइन किया गया था. उन्होंने तर्क दिया कि बाइडेन, अमेरिका के नेतृत्व में एक नया वैश्विक अंतर्राष्ट्रीय संगठन, एक नया संयुक्त राष्ट्र स्थापित करने का प्रयास कर रहा है.
चीन का तर्क यह है कि प्रजातंत्र पर सम्मेलन आयोजित कर अमेरिका ने चीन को रोकने के लिए एक वैचारिक मोर्चा खोल लिया है, जिसकी कोशिश चीन के ख़िलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को बांट कर एक गठजोड़ को बढ़ावा देना है, जिससे नए शीत युद्ध का सूत्रपात होगा, जिसकी वजह से इतिहास एक बार फिर अतीत की ओर कदम बढ़ाने पर मज़बूर होगा.
ताइवान को निमंत्रण और इस मौके पर हॉन्गकॉन्ग के पूर्व विधायक लुओ गुआनकोंग की मौजूदगी ने चीनी पक्ष को और भड़का दिया, जिसने बाइडेन प्रशासन पर चीन में रंग क्रांति को भड़काने की कोशिश करने का आरोप लगाया. इस तरह के “खुले और दुर्भावनापूर्ण उकसावे“, पर कई लोगों ने तर्क दिया कि इसके लिए चीन से एक मज़बूत जवाबी कार्रवाई की ज़रूरत है – जिसका स्वरूप ” रक्षात्मक तो हो लेकिन आक्रामक भी हो“.
इसके इतर दूसरी सोच यह भी है कि, अमेरिका को एक लोकतंत्र के रूप में पूरी तरह से ख़ारिज करना संभव नहीं है और इसलिए, चीनी आलोचक को “लोकतांत्रिक नुकसान” पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिसका अमेरिका मौजूदा समय में सामना कर रहा है. यहां अमेरिका को एक जख़्मी और बीमार लोकतंत्र के रूप में पेश किया जाना है, जो गहरे संकट से जूझ रहा है और जिसमें पहले से ही बिखराव शुरू हो गया है लिहाज़ा उसमें तत्काल सुधारों की आवश्यकता है. यह तर्क दिया जाता है कि बढ़ता राजनीतिक ध्रुवीकरण, सामाजिक भरोसे की कमी, अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई, कोरोना संकट से निपटने में नाकाम रहना, अमेरिका को लोकतांत्रिक दुनिया के नेता बनने के लिए अयोग्य साबित करता है.
आम सहमति यही है कि अमेरिकी लोकतंत्र का मॉडल, चीन की ईर्ष्या का विषय नहीं है बल्कि उसकी व्यथा है, क्योंकि चीन जो देखता है वह “इतिहास का अंत नहीं बल्कि इतिहास के अंत का अंत” है. यह तर्क दिया जाता है कि चीनी लोगों के लिए, ख़ासकर युवा पीढ़ी के लिए, अमेरिकी लोकतंत्र एक मज़ाक बन गया है, जबकि ताइवान का लोकतंत्र एक बड़ा मज़ाक है.
हालांकि, आम सहमति यही है कि अमेरिकी लोकतंत्र का मॉडल, चीन की ईर्ष्या का विषय नहीं है बल्कि उसकी व्यथा है, क्योंकि चीन जो देखता है वह “इतिहास का अंत नहीं बल्कि इतिहास के अंत का अंत” है. यह तर्क दिया जाता है कि चीनी लोगों के लिए, ख़ासकर युवा पीढ़ी के लिए, अमेरिकी लोकतंत्र एक मज़ाक बन गया है, जबकि ताइवान का लोकतंत्र एक बड़ा मज़ाक है. इस प्रकार लोकतंत्र शिखर सम्मेलन, चीनी इंटरनेट पर मज़ाक और आलोचना का लक्ष्य बन गया, कुछ इसे “कॉमेडी शो” भी कहते हैं – जो न तो अमेरिका में “लोकतांत्रिक घाटे” को समाप्त कर सकता है और ना ही यह असरदार तरीके से विचारधारा पर आधारित चीनी विरोधी गठबंधन का निर्माण कर सकता है .
विभिन्न चीनी रणनीतिकारों ने इस विचार को लेकर अपनी सहमति जताई कि चीन में वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को “पीपुल्स डेमोक्रेसी“, “मज़बूरी का लोकतंत्र“, “सारी प्रक्रियाओं का लोकतंत्र” के रूप में वर्णित किया, जो कल्पना या औपचारिकता-आधारित नहीं हो सकती है लेकिन वास्तव में यह लोगों को आनंद लेने और इससे लाभ उठाने की अनुमति देता है. उन्होंने कहा, चीन “लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं (चुनावी)”का अनुसरण नहीं करता है लेकिन “लोकतांत्रिक मापदंडों” या “बेहतर गुणवत्ता वाले लोकतंत्र” का अनुसरण करता है. कुछ चीनी रणनीतिकारों की यह भी राय है कि अगले चरण में चीन को भविष्य के “ग्लोबल डेमोक्रेसी सम्मिट” का आयोजन करना चाहिए और संयुक्त राज्य अमेरिका को इसमें भाग लेने के लिए आमंत्रित भी करना चाहिए.
इसके अलावा, एक विचार यह भी है कि चीनी प्रयासों को तर्क-वितर्क और बयानबाजी या दूसरों की कमियों को उजागर करने तक ही नहीं रुकना चाहिए. बजाए इसके इसे अपनी विभिन्न ज़मीनी सफलताओं का समर्थन करने के लिए सैद्धांतिक स्तर पर एक मोर्चा तैयार करना चाहिए. उनका तर्क है कि चीन को वैश्विक लोकतंत्र बहस के प्रतिमानों में एक अहम बदलाव लाने का प्रयास करना चाहिए, जो इसे पश्चिम द्वारा परिभाषित “लोकतंत्र या निरंकुशता” प्रतिमान से “सुशासन या ख़राब शासन” के भाव में तब्दील करना होगा.
उनका प्रयास अब लोकतंत्र और निरंकुशता की जुगलबंदी को त्रिकोण में बदलना है. इस त्रिकोणात्मक स्वरूप में, मानव जाति के सार्वभौमिक सामान्य मूल्य के रूप में लोकतंत्र सबसे ऊपर है और इस सर्वसम्मत मूल्य को अहसास कराने वाली सारी व्यवस्थाएं लोकतांत्रिक सरकार का हिस्सा हैं. इसके तहत चीनी लोकतंत्र और पश्चिमी लोकतंत्र दो अवधारणाएं पैदा करते हैं. यह सामान्य समझ को चुनौती देने के लिए है कि पश्चिमी शैली का लोकतंत्र सार्वभौमिक है. इसके बजाए, चीनी रणनीतिकार इसे एक विशिष्ट लोकतांत्रिक व्यवस्था के रूप में पेश करने के इच्छुक हैं जो चीनी लोकतंत्र की अवधारणा के समानांतर ही है. यह चीनी तर्क को आसान बनाता है कि प्रतिस्पर्द्धी चुनाव पश्चिमी शैली के लोकतंत्र का एक पैमाना भर है, लेकिन समग्र रूप से लोकतंत्र का यह मापदंड नहीं कहला सकता है. यह एक माध्यमिक मानक हो सकता है, अलग-अलग अवधारणाओं में विभेद करने के लिए मानक है, लेकिन यह प्राथमिक मानक नहीं है, इसलिए, “चीनी लोकतंत्र” पर भी लागू नहीं है.
इस त्रिकोणात्मक स्वरूप में, मानव जाति के सार्वभौमिक सामान्य मूल्य के रूप में लोकतंत्र सबसे ऊपर है और इस सर्वसम्मत मूल्य को अहसास कराने वाली सारी व्यवस्थाएं लोकतांत्रिक सरकार का हिस्सा हैं.
निष्कर्ष के तौर पर बाइडेन के वैश्विक लोकतंत्र शिखर सम्मेलन ने चीनी रणनीतिक हलकों के अंदर हलचल पैदा कर दी है. हालांकि, नाराज़गी की मुद्रा और आक्रामक बयानबाजी से परे, यह बात समझने में किसी को भूल नहीं करनी चाहिए कि वैश्विक लोकतंत्र की बहस को चीन, अमेरिका और चीन के बीच रणनीतिक गतिरोध के तौर पर दिखाने की गहरी रूचि रखता है – इसके पीछे चीन की मंशा किसी सर्वसम्मत दृष्टिकोण या फिर किसी समझौते के स्तर पर नहीं पहुंचना है, ना ही जीत और हार के तौर पर इसे देखना है, बल्कि चीन की भागीदारी बढ़ाने को लेकर यह केंद्रित है. और तो और चीन की मंशा घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, “चीनी लोकतंत्र” की अवधारणा को पेश करना, लोकप्रिय बनाना और वैध बनाना है – शायद ऐसा कुछ जो अब तक सुना नहीं गया हो.
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Antara Ghosal Singh is a Fellow at the Strategic Studies Programme at Observer Research Foundation, New Delhi. Her area of research includes China-India relations, China-India-US ...
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