Author : Snehashish Mitra

Published on Jul 29, 2023 Updated 0 Hours ago

2023 का विश्व जनसंख्या दिवस भारत की आबादी और डेमोग्राफिक डिविडेंड का बेहतर इस्तेमाल करने के लिए रणनीति बनाने के बारे में फिर से विचार करने का एक उचित अवसर था.

भारत के शहरों के बारे में फिर से सोचने का आह्वान करता है विश्व जनसंख्या दिवस

विश्व जनसंख्या दिवस दुनिया की आबादी और जनसांख्यिकी (डेमोग्राफी) से जुड़ी उपलब्धियों और चुनौतियों पर सोच-विचार करने का एक अवसर होता है. आज दुनिया की आबादी 8 अरब के आसपास है और ये आंकड़ा इंसानी जिंदगी पर जैविक खतरे का समाधान करने में चिकित्सा विज्ञान (मेडिकल साइंस) की शानदार प्रगति के बारे में बताता है. इसके बावजूद लंबे समय से फैली कोविड-19 महामारी, जिसने लगभग 70 लाख लोगों की जान ले ली, ने दिखाया कि कैसे अप्रत्याशित चुनौतियां काफी हद तक मानवता की तरक्की को खत्म कर सकती है. इसके अलावा दुनिया युद्ध, जलवायु परिवर्तन, राजनीतिक संघर्ष और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एवं हमेशा आगे बढ़ती टेक्नोलॉजी की वजह से अभूतपूर्व एवं 360 डिग्री रुकावटों से भी जूझ रही है.

दुनिया के विभिन्न हिस्से जनसंख्या से जुड़ी अलग-अलग चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. कई विकसित देश जहां जनसंख्या में गिरावट का सामना कर रहे हैं, वहीं चीन को पीछे छोड़कर भारत सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया है. 2010-2056 के दौरान ज्यादा कामकाजी आबादी (51-56 प्रतिशत) के साथ भारत का डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनसांख्यिकीय लाभांश) उसे घरेलू और वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण स्थिति में रखता है जो इस बात से तय होगी कि कैसे युवा आबादी फायदेमंद तौर पर रोजगार में जाती है और नीतिगत चर्चा में शामिल होती है. इसके लिए भारत की जनसंख्या को कृषि क्षेत्र, जहां अभी भी भारत के श्रम बल (वर्कफोर्स) के 40 प्रतिशत से ज्यादा लोगों को रोजगार मिलता है, से दूर रखने की आवश्यकता होगी. जनसंख्या में इस तरह के आर्थिक बदलाव के लिए एक तरफ जहां भारत के शहरी केंद्रों में रोजगार के अवसरों के विस्तार की जरूरत होगी, वहीं दूसरी तरफ गैर-कृषि क्षेत्र में ग्रामीण रोजगार को बढ़ाना होगा. लेकिन क्या भारतीय शहर और ज्यादा प्रवासियों (माइग्रेंट) को अपनाने के लिए तैयार हैं? भारत के ज्यादातर बड़े शहरों में घर के संकट को देखते हुए शहरी केंद्र आर्थिक और सामाजिक तौर पर कमजोर वर्गों से ताल्लुक रखने वाले लोगों के लिए एक दुश्मनी भरा माहौल पेश करते हैं. अध्ययनों से पता चलता है कि कैसे भारत में शहरीकरण समावेशी नहीं है और इसकी वजह से समय के साथ शहरों का अपेक्षित विकास रुक जाता है.

जनसंख्या में इस तरह के आर्थिक बदलाव के लिए एक तरफ जहां भारत के शहरी केंद्रों में रोजगार के अवसरों के विस्तार की जरूरत होगी, वहीं दूसरी तरफ गैर-कृषि क्षेत्र में ग्रामीण रोजगार को बढ़ाना होगा.

बढ़ता शहरीकरण

पिछले दो दशकों के दौरान भारत सरकार की तरफ से प्रमुखता के साथ नीतिगत जोर दिया गया है. जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन और स्मार्ट सिटीज मिशन जैसी नीतियों का मकसद भारतीय शहरों का पुनर्निर्माण करना और उन्हें वैश्विक मानक (ग्लोबल स्टैंडर्ड) तक लाना है. इन नीतियों में पाइप से पानी की सप्लाई, स्वच्छता, सार्वजनिक परिवहन और बेहतर सड़क पर ध्यान तो दिया गया है लेकिन ये नीतियां लगातार बढ़ती शहरी आबादी की जरूरतों को पूरा करने में अक्सर अयोग्य और अपर्याप्त रही हैं. इस वजह से शहरों में बड़ी झुग्गी बस्तियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है जहां रहने और जरूरी नागरिक सुविधाओं की स्थिति खराब है. मुंबई (आर्थिक राजधानी) और बेंगलुरु (IT केंद्र) जैसे शहर जनसंख्या के दबाव से निपटने में भारी बोझ का सामना करते हैं और इस तरह योजना बनाने में कमियों को जाहिर करते हैं. दूसरी तरफ पूरे भारत में लगभग सभी महानगर मौसम से जुड़ी चरम घटनाओं (एक्सट्रीम वेदर इवेंट) का सामना करते हैं जिसकी वजह से लोगों को एक आरामदेह ढंग से रहने (एयर प्यूरीफायर और एयर कंडीशनर को खरीदना) को सुनिश्चित करने के लिए ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ता है. भारत के कुछ ही बड़े शहरों में बड़ी संख्या में लोगों के जमा होने पर ध्यान देने की जरूरत है. उत्तर, पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में दिल्ली और कोलकाता को छोड़कर कोई महानगर नहीं है. शहरी आबादी का अलग-अलग शहरों में फैलाव नीतिगत तौर पर ध्यान देने का एक बड़ा विषय होना चाहिए.

दक्षिण एशिया के संदर्भ में शहर की स्थिति को तय करने में एक बड़ा कारण है कि कैसे अनौपचारिक सेक्टर (अर्थव्यवस्था और आवास) को संभाला जाता है. कई मामलों में अनौपचारिक सेक्टर से जुड़े लोगों को शहरों के द्वारा उनकी क्षमता हासिल करने में एक रुकावट के तौर पर देखा जाता है. लेकिन रोजमर्रा के आधार पर शहर को चलाने के लिए उनका श्रम जरूरी है. ये देखते हुए कि भारत का औपचारिक सेक्टर अभी भी अपनी पूरी क्षमता तक पहुंच नहीं पाया है, ऐसे में और भी लोग रोजगार के विकल्पों के लिए शहरी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर विश्वास करेंगे. इसलिए शहरों को शहरी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए और बाद में किफायती एवं किराए वाले घर के बराबर स्तर के अनुसार योजना बनाने की जरूरत है. ऐसी योजना बनाने के लिए सरकारी एजेंसियों को अनौपचारिक क्षेत्र में हित समूहों (इंट्रेस्ट ग्रुप) के साथ भागीदारी करने की आवश्यकता होगी. अहमदाबाद नगर निगम (AMC) के द्वारा सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट और बुनियादी ढांचे की देखरेख के लिए सेल्फ एम्प्लॉयड विमेंस एसोसिएशन (SEWA) और सामुदायिक संगठनों के साथ साझेदारी इस तरह की सहभागी योजना का एक सफल उदाहरण है. इस साझेदारी के जरिए AMC ने अनौपचारिक बस्तियों के लिए स्वामित्व की सुरक्षा को भी बरकरार रखा है.

भारत के कुछ ही बड़े शहरों में बड़ी संख्या में लोगों के जमा होने पर ध्यान देने की जरूरत है. उत्तर, पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में दिल्ली और कोलकाता को छोड़कर कोई महानगर नहीं है. शहरी आबादी का अलग-अलग शहरों में फैलाव नीतिगत तौर पर ध्यान देने का एक बड़ा विषय होना चाहिए. 

भारत के शहरीकरण को तेज करने में भारत की जनसंख्या का पूरा फायदा उठाने के लिए दो प्रमुख विषयों पर जरूर विचार किया जाना चाहिए. सबसे पहले, शहर के सार्वजनिक हित को पूरी तरह प्राइवेट डेवलपर्स के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता है. भारत के शहरों में घर का संकट इस बात की गवाही देता है कि प्राइवेट रियल एस्टेट डेवलपमेंट सामाजिक वास्तविकताओं और आवश्यकताओं को शामिल नहीं कर सकता है. उदाहरण के लिए, मुंबई में रीडेवलपमेंट प्रोजेक्ट के लिए फ्लोर स्पेस इंडेक्स (FSI) में अधिक स्तर पर छूट की वजह से पिछले कुछ दशकों में हाई-राइज इमारतों की संख्या बढ़ गई है. लेकिन इन हाई-राइज इमारतों ने स्थानीय बुनियादी ढांचे पर अतिरिक्त दबाव डालते हुए मुंबई में घर के संकट का नाममात्र समाधान किया है.

इसके अलावा मुंबई को “झुग्गी मुक्त” बनाने के लिए झुग्गियों के पुनर्वास की बड़ी-बड़ी योजनाओं की नाकामी ने स्थिति और खराब कर दी है. मुंबई की लगभग आधी आबादी अभी भी बेहद खराब स्थिति में जीवन गुजार रही है. ये हालत सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं के साथ जुड़ी शहरी आवास परियोजनाओं को तैयार करने के लिए बड़े स्तर पर तुरंत सरकारी दखल की मांग करती है ताकि घरों को किफायती बनाया जा सके और समाज के ज्यादातर वर्गों की पहुंच में लाया जा सके. हमें सरकारी एजेंसियों जैसे कि हाउसिंग एंड अर्बन डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (HUDCO) और सिटी इंप्रूवमेंट ट्रस्ट की भूमिका पर फिर से विचार करने की जरूरत है ताकि शहरों को अच्छी तरह रहने के योग्य और समावेशी बनाया जा सके. दूसरी बात, शहरी जनगणना की नियमित जानकारी का तरीका बनाया जा सकता है जिसमें माइग्रेशन, रोजगार और घरों की जरूरत पर ध्यान हो. ये देखते हुए कि किस तरह तेजी से चीजें बदल रही हैं, ऐसी स्थिति में एक दशक के बाद शहरों में जनगणना शायद अपर्याप्त साबित होगी. स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों (जैसे कि नगरपालिकाओं) को जरूरी डेटा इकट्ठा करने का अधिकार मिलना चाहिए. इस उद्देश्य की दिशा में भारतीय सांख्यिकी संस्थान (ISI) जनसंख्या की गतिशीलता (डायनैमिक्स) को शहरी शासन व्यवस्था (अर्बन गवर्नेंस) के साथ जोड़ने में एक प्रमुख भूमिका निभा सकता है. डाटा जमा करने और उसके प्रबंधन की मजबूत व्यवस्था असरदार शहरी नीतियों को तैयार करने के लिए जरूरी होगी और ये नियमित अंतराल पर अलग-अलग शहरी योजनाओं जैसे कि स्मार्ट सिटीज मिशन, अटल मिशन फॉर रिजूविनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन (AMRUT) की प्रगति की समीक्षा करने में भी मदद करेगी.

आगे की राह

सघन आबादी वाले शहर अधिक पूंजी वाली बड़ी सार्वजनिक परियोजनाओं को आर्थिक रूप से संभव बनाएंगे और वहां प्रति इकाई लागत अपेक्षाकृत तौर पर कम होगी. इससे ये संभावना बनती है कि शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और परिवहन के लिए बुनियादी ढांचे का विस्तार किया जाए. चुनौती ये है कि उन्हें किफायती और समाज के सभी वर्गों तक पहुंच के योग्य बनाया जाए ताकि न्यायसंगत परिणाम हासिल किया जा सके. इस तरह की पहल, जिनमें जलवायु के अनुकूल योजना शामिल है, सभी कस्बों और शहरों तक पहुंचनी चाहिए और इसमें ये ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए कि वो कस्बा और शहर कितना बड़ा है, वहां की आबादी कितनी है. ध्यान देने का एक और प्रमुख विषय है हिस्सेदारी वाली शासन व्यवस्था को मजबूत करना, खास तौर पर शहरों में जहां नागरिकों के द्वारा उठाया गया कदम शहरों को टिकाऊ विकास के लिए उपयुक्त बनाने में एक अहम भूमिका निभा सकता है. इस मामले में भारत न्यूयॉर्क जैसे बड़े शहरों से सीख सकता है जहां रिहायशी इलाकों में नियम बनाने के लिए लोगों की मंजूरी लेना अनिवार्य है, इस तरह ये सुनिश्चित किया जाता है कि आस-पास के इलाकों में बुनियादी ढांचे पर असहनीय बोझ नहीं पड़े. इस तरह के व्यवहार को अपनाने से भारत में शहरी लोकतंत्र मजबूत होगा और इसमें ये क्षमता है कि भारत के डेमोग्राफिक डिविडेंड और शहरीकरण के बीच एक उत्पादक पारस्परिक संबंध (प्रोडक्टिव कोरिलेशन) स्थापित कर सके. 2023 का विश्व जनसंख्या दिवस भारत की आबादी और डेमोग्राफिक डिविडेंड का बेहतर इस्तेमाल करने के लिए रणनीति बनाने के बारे में फिर से विचार करने का एक उचित अवसर था.


स्नेहाशीष मित्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के अर्बन स्टडीज में फेलो हैं.

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