ये लेख हमारी सीरीज़- विश्व जनसंख्या दिवस का एक हिस्सा है.
2016 में संयुक्त राष्ट्र बाल आपात कोष (UNICEF) ने संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) ने मिलकर पूरी दुनिया में एक अभियान शुरू किया था. इसका मक़सद सबसे ज़्यादा बाल विवाह वाले दुनिया के 12 देशों: बांग्लादेश, बर्किना फासो, इथियोपिया, घाना, भारत, मोज़ांबीक़, नेपाल, नाइजर, सियरा लियोन, युगांडा, यमन और ज़ांबिया में बाल विवाह की दर में कमी लाना था. इस योजना का मक़सद लड़कियों की शादी की उम्र में सुधार लाने के लिए शिक्षा, बाल संरक्षण, सामाजिक संरक्षण, सामाजिक और व्यवहारिक बदलाव, लैंगिक समानता, स्वास्थ्य और अन्य क्षेत्रों के भागीदारों के साथ मिलकर काम करना था. UNFPA- UNICEF के बाल विवाह ख़त्म करने के इस वैश्विक कार्यक्रम के तहत सरकारी और ग़ैरसरकारी संगठनों के बीच तालमेल बढ़ाने और जवाबदेही तय करने के साथ साथ उनकी क्षमता में भी इज़ाफ़ा करना था.
UNFPA- UNICEF के बाल विवाह ख़त्म करने के इस वैश्विक कार्यक्रम के तहत सरकारी और ग़ैरसरकारी संगठनों के बीच तालमेल बढ़ाने और जवाबदेही तय करने के साथ साथ उनकी क्षमता में भी इज़ाफ़ा करना था.
11 जुलाई 2022 को जब विश्व जनसंख्या दिवस मनाया गया- तो इसके आयोजकों यानी संयुक्त राष्ट्र (UN) ने दुनिया को याद दिलाया कि हर कार्यक्रम का ज़ोर जनता पर होना चाहिए, आबादी पर नहीं. लोगों को सिर्फ़ संख्या में तब्दील करना कतई मंज़ूर नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ये उनसे उनकी इंसानियत को छीनने जैसा होगा. निश्चित रूप से, जैसा कि UNFPA ने कहा भी कि, व्यवस्था के लिए आंकड़े जुटाने के बजाय लोगों की सेहत और उनकी बेहतरी के लिए काम करके व्यवस्था को लोगों के लिए काम करना होगा. इससे संख्या में अपने आप बदलाव आएगा. महामारी के दौरान ऐसी मांग उठी थी कि चूंकि इससे प्रजनन दर में बदलाव आने की संभावना है, तो तमाम नेताओं को महिलाओं के बच्चे पैदा करने के अधिकार और उनके चुनाव के हक़ को तुरंत बढ़ावा देने की ज़रूरत है.
इस रिपोर्ट में कहा गया कि पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा नाटकीय सुधार मध्य और दक्षिणी पूर्वी एशिया में कम उम्र में मां बनने के स्तर में देखा गया है और इस गिरावट में सबसे ज़्यादा योगदान भारत में हुए सुधार का रहा है.
इसी व्यापक संदर्भ के तहत, UNFPA द्वारा तैयार की गई एक नई रिपोर्ट जिसका शीर्षक, ‘बचपन में मातृत्व: एक अनकही कहानी’ को 27 जून 2022 को जारी किया गया. इस रिपोर्ट में दुनिया भर में कम उम्र में गर्भ धारण की स्थिति पर एक नज़र इस लिहाज़ से डाली गई थी, जिसमें सबसे कमज़ोर वर्ग की लड़कियों, जैसे कि कम उम्र में मां बनने वाली लड़कियों, बार बार गर्भवती होने वाली किशोर उम्र लड़कियों और बेहद ख़तरनाक स्थिति में बच्चे पैदा होने की घटनाओं पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया था. दिलचस्प बाद ये है कि इस रिपोर्ट में कहा गया कि पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा नाटकीय सुधार मध्य और दक्षिणी पूर्वी एशिया में कम उम्र में मां बनने के स्तर में देखा गया है और इस गिरावट में सबसे ज़्यादा योगदान भारत में हुए सुधार का रहा है. जैसा कि ग्राफ 1 से स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में पहले बच्चे की जन्म के वक़्त मां की औसत उम्र धीरे धीरे विश्व के औसत के क़रीब आती जा रही है. इसकी बड़ी वजह भारत में किशोर उम्र में लड़कियों के मां बनने की दर में भारी कमी आना है. भारत के साथ साथ, जिन और देशों में बचपन में लड़कियों के मां बनने की दर में गिरावट आई है, उनमे बांग्लादेश, मिस्र, इस्वातिनि , इंडोनेशिया और मालदीव शामिल हैं.
ग्राफ 1: पहले जन्म के समय मां की औसत आयु
स्त्रोत – https://www.unfpa.org/publications/motherhood-childhood-untold-story
भारत में पहले बच्चे के जन्म के वक़्त मां की औसत उम्र में सुधार के साथ साथ देश में महिलाओं की प्रजनन दर में भी व्यापक कमी आई है. अगर हम ताज़ा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS 2019-21) के आंकड़ों पर नज़र डालते हैं, तो पता चलता है, 90 के दशक में महिलाओं के बच्चे पैदा करने की औसत दर 3.4 थी, वो अब घटकर प्रति महिला महज़ 2.0 रह गई है, जो आबादी घटने के अनुपात में उतने ही बच्चे पैदा करने के लिए हर महिला के लिए ज़रूरी प्रजनन दर 2.1 से भी कम है. इस दौरान ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं की प्रजनन दर में आया सुधार तो और भी बेहतर है- जो प्रति महिला 3.7 बच्चों से से घटकर 2.1 रह गया है. (ग्राफ 2). NFHS 1 से 5 के आंकड़े, क्रमश: वर्ष 1992-93, 1998-99, 2005-06, 2015-16 और 2019-21 के हैं.
ग्राफ 2 – स्थान के अनुसार प्रजनन दर में रुझान
स्त्रोत – NFHS-5 राष्ट्रीय रिपोर्ट
ये उपलब्धि तब और शानदार मालूम होती है, जब हम इस हक़ीक़त पर ग़ौर करते हैं कि 1960 के दशक में भारत बड़ी तेज़ी से बढ़ रही जनसंख्या की चुनौती का सामना कर रहा है. उस वक़्त देश में प्रति महिला औसतन 6 बच्चों की दर थी. चीन ने आबादी के रिप्लेसमेंट की दर को हासिल कर लिया था तो इसकी बड़ी वजह उसकी, 90 के दशक की विवादास्पद जनसंख्या नियंत्रण की नीति थी, जिसमें एक दंपति को सिर्फ़ एक बच्चा पैदा करने की इजाज़त थी. आज की तारीख़ में चीन जनसंख्या में गिरावट की चुनौती के कगार पर खड़ा है और लगातार अपनी जनसंख्या नीति में बदलाव कर रहा है. बल्कि चीन ने तो प्रजनन की बेहद कम मौजूदा दर में सुधार के लिए अब तीन बच्चों की नीति भी लागू कर दी है. हालांकि, भारत अपनी युवा आबादी और जनसंख्या में इज़ाफ़े की अच्छी रफ़्तार को देखते हुए शायद अभी ऐसे नीतिगत उलटफेर से कुछ दशक की दूरी पर है. ख़बर तो ये है कि भारत में जनसंख्या के विशेषज्ञ अब इस बात की चर्चा नहीं कर रहे हैं कि देश की आबादी कितनी अधिक हो सकती है. बल्कि अब तो उनकी चर्चा का विषय ये है कि ये जनसंख्या कितनी नीचे गिर सकती है.
भारत में जनसंख्या के विशेषज्ञ अब इस बात की चर्चा नहीं कर रहे हैं कि देश की आबादी कितनी अधिक हो सकती है. बल्कि अब तो उनकी चर्चा का विषय ये है कि ये जनसंख्या कितनी नीचे गिर सकती है.
पहले के दशकों में भारत की आबादी की विकास की दर इसलिए बहुत तेज़ थी क्योंकि लड़कियों की शादी की औसत उम्र बहुत कम थी. हालांकि, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5 (2019-21) के आंकड़े इशारा करते हैं कि NFHS 1 और NFHS 5 के बीच, प्रजनन दर में सबसे ज़्यादा कमी 15 से 19 साल के बीच की आयु वालों में आई है. आबादी के इस वर्ग की प्रजनन दर 116 प्रति हज़ार से घटकर 43 प्रति हज़ार रह गई है (ग्राफ 3). किशोर उम्र में प्रजनन दर, भारत के तमाम राज्यों के बीच अलग अलग है. त्रिपुरा में ये दर 91 है तो लद्दाख और लक्षद्वीप में 2 है.
ग्राफ 3 – महान गिरावट: भारत में किशोर प्रजनन क्षमता में रुझान
स्त्रोत – विभिन्न एनएफएचएस रिपोर्ट से लेखक द्वारा संकलित
हालांकि, तुलनात्मक रूप से ग़रीब सशक्त कार्यान्वयन समूह (EAG) वाले राज्यों (बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, और उत्तराखंड) के बीच उत्तराखंड (19), छत्तीसगढ़ (24) और यूपी (22) ने प्रजजन दर को हैरान कर देने वाली निचली दर तक लाने में कामयाबी हासिल की है. ये ऐसी उपलब्धि है, जिसका भारत में शायद ही जश्न मनाया जाता हो. ग्राफ 4 में दिखाया गया है कि बिहार को छोड़ दें, तो पिछले एक दशक के दौरान बाक़ी के सभी EAG राज्यों में प्रजनन दर में तेज़ गिरावट आई है. इसके साथ साथ, किशोरियों की प्रजनन दर को 2005-06 की बेहद ऊंची दरों से भारत के औसत के आधे के क़रीब लाने के लिए यूपी और छत्तीसगढ़ की तारीफ़ की जानी चाहिए. क्योंकि उनकी ये उपलब्धि दक्षिण के अधिकतर राज्यों से बेहतर है.
ग्राफ 4 – किशोर प्रजनन क्षमता : ईएजी राज्यों में रुझान
स्त्रोत – विभिन्न एनएफएचएस रिपोर्ट से लेखक द्वारा संकलित
इसके बावजूद, भारत के लिए ये जीत अभी अधूरी ही है. हालिया आंकड़े बताते हैं कि भारत में 15 से 19 वर्ष उम्र की 7 प्रतिशत लड़कियां पहले ही गर्भवती हैं. इस उम्र के वर्ग में पांच फ़ीसद ने अपने पहले बच्चे को जन्म दे दिया है और बाक़ी की 2 फ़ीसद पहली बार गर्भधारण कर चुकी हैं. शहरी इलाक़ों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में किशोर उम्र में गर्भधारण की दर अधिक है. ग्रामीण क्षेत्रों की 15 से 19 वर्ष उम्र की लड़कियों में से 8 प्रतिशत पहले ही मां बन चुकी हैं. NHFS के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि जैसे जैसे पढ़ाई का स्तर बढ़ता है, वैसे वैसे किशोर उम्र में मां बनने की दर में गिरावट आती है. आंकड़े बताते हैं कि 15 से 19 वर्ष उम्र की 18 फ़ीसद लड़कियां जो स्कूल नहीं गईं, वो पहले ही अपने बच्चे पाल रही हैं. जबकि, इसी आयु वर्ग की जिन लड़कियों ने 12 या इससे ज़्यादा साल तक पढ़ाई की है, उनमें से केवल 4 फ़ीसद ही गर्भवती हुई हैं. 15 से 19 साल उम्र की लड़कियों के गर्भधारण की दर में अंतर उनकी संपत्ति के स्तर से भी आ जाता है. सबसे ज़्यादा संपत्ति वर्ग वाली केवल 2 प्रतिशत लड़कियों ने गर्भधारण किया है. जबकि सबसे ग़रीब तबक़े की इसी उम्र की 10 फ़ीसद लड़कियां मां बनने की राह पर हैं. आदिवासी और मुस्लिम लड़कियों के बीच किशोर उम्र में गर्भ धारण करने की दर कहीं अधिक है.
ग्राफ 5 – राज्य/केंद्र शासित प्रदेश द्वारा किशोर मातृत्व (एनएफएचएस 5) 15-19 आयु वर्ग की गर्भवती लड़कियों का प्रतिशत
स्त्रोत – NFHS-5 देश की रिपोर्ट
ग्राफ 5 से पता चलता है कि भारत में किशोर उम्र में मां बनने की चुनौती से निपटने के मामले में हर राज्य की स्थिति अलग है. जैसा कि आंकड़ों से साफ़ है, उत्तराखंड, यूपी और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य, 15 से 19 साल की उन लड़कियों की संख्या सीमित रखने में सफल रहे हैं, जो मां बन चुकी हैं या अपने पहले बच्चे से गर्भवती हैं. इस बात के पर्याप्त सुबूत हैं कि किशोर उम्र में मां बनने से नवजात बच्चा भी कुपोषित होता है और इसका मां की सेहत पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है, जिससे बच्चे और मां दोनों की सेहत आगे चलकर बिगड़ने का अंदेशा रहता है. भारत द्वारा और ख़ास तौर से EAG वाले राज्यों में नाटकीय ढंग से हासिल की गई किशोर उम्र में मां बनने की दर में गिरावट लाने की उपलब्धि ने पिछले कई वर्षों के दौरान, नवजात बच्चों की मौत की दर (IMR) में गिरावट लाने का भी काम किया है (ग्राफ 6) और इससे मां की मृत्यु दर के सूचकांकों में भी कमी आई है.
यही वजह है कि कम उम्र में शादी और मां बनने के ख़िलाफ़ लड़ाई को भारत को जीतना ही होगा और वो भी जल्दी से जल्दी. इस विश्व जनसंख्या दिवस पर भारत को किशोर उम्र में गर्भधारण के ख़िलाफ़ अपनी शपथ को दोहराना होगा
ग्राफ 6 – एनएफएचएस दौर में शिशु मृत्यु दर
स्त्रोत – डीएचएस कार्यक्रम
यूनीसेफ के रिसर्च से बता चलता है कि जिन लड़कियों के कम उम्र शादी करने का डर होता है, उन तक पहुंच बना पाना सबसे मुश्किल होता है. इससे ये पता चलता कि भारत के कई राज्य क्यों ऐसी स्थिति में हैं, जो ग्राफ 5 से और साफ़ हो जाता है. जिन लड़कियों की शादी कम उम्र में हो जाती है, उनमें से ज़्यादातर ग़रीब परिवारों, कमज़ोर तबक़ों या ग्रामीण इलाक़ों से ताल्लुक़ रखती हैं. इन्हीं लड़कियों के अपनी उम्र की अन्य बच्चियों की तुलना में स्कूल से दूर होने का भी डर अधिक रहता है. इससे ये लड़कियां गर्भवती होने का बोझ उठाती हैं और अपनी क्षमता के हिसाब से पूरा विकास करने का मौक़ा नहीं पाती हैं. यही वजह है कि कम उम्र में शादी और मां बनने के ख़िलाफ़ लड़ाई को भारत को जीतना ही होगा और वो भी जल्दी से जल्दी. इस विश्व जनसंख्या दिवस पर भारत को किशोर उम्र में गर्भधारण के ख़िलाफ़ अपनी शपथ को दोहराना होगा और ऐसे मंच भी तैयार करने होंगे, जहां यूपी और छत्तीसगढ़ जैसे उन राज्यों की इस मामले में कामयाबी से वो राज्य भी सबक़ ले सकें, जो एक जैसे सामाजिक आर्थिक हालात होने के बाद भी, इस मोर्चे पर पिछड़ गए हैं. पिछड़े राज्य, यूपी और छत्तीसगढ़ की उस रणनीति से सीख ले सकते हैं, जिनसे इन राज्यों ने किशोर उम्र में मां बनने की चुनौती पर क़ाबू पाया. एक दशक पहले की किशोरियों की बहुत ऊंची प्रजनन दर में भारी गिरावट लाने में सफलता हासिल की.
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