ये लेख हमारी- विश्व जनसंख्या दिवस, सीरीज़ का एक हिस्सा है.
ये बात दोहराने में कोई नुक़सान नहीं है कि आधुनिक सभ्यता के दौर में आबादी में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा होता देखा गया है: आज दुनिया की जो जनसंख्या है, वो 12 हज़ार साल पहले से 1860 गुना अधिक है- तब दुनिया की आबादी मोटे तौर पर चालीस लाख थी, जो आज के लंदन की आधी से भी कम, बीजिंग की जनसंख्या का पांचवां हिस्सा और दिल्ली की आज की जनसंख्या का महज़ आठवां हिस्सा थी. सन् 1850 के बाद से विश्व की जनसंख्या में हुए इस विस्फोट के चलते विकास संबंधी कई ऐसी चुनौतियां पैदा हुई हैं, जिन्हें हम थॉमस रॉबर्ट माल्थस और उनके अनुयायियों के सिद्धांत के ज़रिए समझ सकते हैं. माल्थस और उनके समर्थकों ने भविष्यवाणी की थी कि जिस तेज़ी से दुनिया की आबादी बढ़ रही है, उस हिसाब से खाद्यान्न और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की व्यवस्थाओं में बढ़ोत्तरी लाने में हम नाकाम रहेंगे. हालांकि माल्थस और उनके अनुयायियों के इस सिद्धांत को कई कोनों से चुनौती दी गई है.
माल्थस और उनके समर्थकों ने भविष्यवाणी की थी कि जिस तेज़ी से दुनिया की आबादी बढ़ रही है, उस हिसाब से खाद्यान्न और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की व्यवस्थाओं में बढ़ोत्तरी लाने में हम नाकाम रहेंगे. हालांकि माल्थस और उनके अनुयायियों के इस सिद्धांत को कई कोनों से चुनौती दी गई है.
जहां एक तरफ़ अधिक आबादी ने विकास संबंधी तमाम चुनौतियों को जन्म दिया है, और इससे न सिर्फ़ माल्थस के उपरोक्त सिद्धांत को मज़बूती मिली है, बल्कि एक सम्मानजनक जीवन जीने की इंसान की ज़रूरतें पूरी कर पाने में व्यवस्था की क्षमता में लगातार गिरावट भी आती दिखी है. आज दुनिया में ऐसी कई अर्थव्यवस्थाएं हैं, जो आबादी के अलग तरह के असंतुलन की चुनौती का सामना कर रही हैं (मतलब ये कि उनकी आबादी में बुज़ुर्गों की तादाद ज़्यादा है. मिसाल के तौर पर जापान, दक्षिण कोरिया, अमेरिका वग़ैरह…). जनसंख्या में बुज़ुर्गों (65 बरस से अधिक उम्र वाले) की बढ़ती हिस्सेदारी के चलते इन देशों के सामने अलग ही समस्या है. कमाऊ लोगों पर निर्भर ऐसी जनता ये अधिक अनुपात (मतलब 15 से 64 साल तक के लोगों पर निर्भर 0 से 14 और 65 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों की संख्या), किसी भी देश की दूसरों पर निर्भर आबादी के लिए संसाधन उपलब्ध कराने की क्षमता को चुनौती देने वाली है. इससे उस देश के विकास के भविष्य को लेकर भी चिंताएं पैदा होती हैं, क्योंकि भविष्य में उत्पादक श्रमिक तबक़े की तादाद में गिरावट आती जाती है. आबादी कम होने के अनुपात में उतने ही लोग जोड़ने की प्रजनन दर में ये गिरावट (जिसका नतीजा भविष्य की पीढ़ी के पहले की तुलना में कम आबादी वाला होने के तौर पर निकलता है) आज कई विकसित देशों के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गई है. इनमें यूरोपीय संघ (EU) और अमेरिका ख़ास तौर से शामिल हैं.
आज विश्व जनसंख्या दिवस 2022 पर हम एक लचीले भविष्य की चर्चा कर रहे हैं, तो हमें मानव के अस्तितव के तमाम आयामों को भी समझने की ज़रूरत है. इसका अर्थ ये है कि हमें सबसे पहले तो ये समझ लेना चाहिए कि जनसंख्या महज़ एक आंकड़ा नहीं है, बल्कि इससे देश की अर्थव्यवस्था, समाज और प्राकृतिक संसाधनों की व्यवस्था से उनका संबंध, सम्मान के साथ जीवन, जज़्बात, आकांक्षाएं और सांस्कृतिक मूल्य जैसी तमाम बातें जुड़ी हुई हैं. जनसंख्या इन सभी अलग अलग पैमानों का जोड़ है, जो इस मानवीय व्यवस्था का निर्माण करती हैं.
विश्व जनसंख्या दिवस 2022 पर हम एक लचीले भविष्य की चर्चा कर रहे हैं, तो हमें मानव के अस्तितव के तमाम आयामों को भी समझने की ज़रूरत है. इसका अर्थ ये है कि हमें सबसे पहले तो ये समझ लेना चाहिए कि जनसंख्या महज़ एक आंकड़ा नहीं है
मानव सभ्यता का इतिहास तमाम तरह के ख़तरों और झटकों (क़ुदरती आपदाएं, बीमारियों, युद्धों वग़ैरह…) से भरा पड़ा है. इन चुनौतियों के बीच से भी मानव व्यवस्था ने ख़ुद को बचाया है, और नई चुनौतियों के हिसाब से ढाला है. ये मानवीय सभ्यता के बेहद लचीले होने और ऐसे झटकों और लगातार बदलते हालात के हिसाब से ख़ुद को ढाल लेने की इसकी ताक़त की मिसाल है. हालांकि, मानवीय व्यवस्था के सामने जो चुनौतियां आज खड़ी हैं, वो आम तौर पर अभूतपूर्व हैं. यानी ऐसी चुनौतियां पहले कभी नहीं देखी गईं. ऐसा इसलिए भी है कि आज मानव सभ्यता के सामने जो चुनौतियां खड़ी हैं, वो ख़ुद उसके भीतर से पैदा हुई हैं. ऐसा पहले नहीं था. ये बात तब और सच लगती है, जब हम जलवायु परिवर्तन, मानव निर्मित युद्धों या फिर कोविड-19 महामारी को देखते हैं.
आज इंसानी व्यवस्था के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती खड़ी है वो न सिर्फ़ उसकी आबादी के कारण पैदा हुई है, बल्कि, आधुनिक सभ्यता की अपेक्षाएं भी इसकी जड़ में हैं. ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां इंसान की ख़ुद का विकास करने की महत्वाकांक्षा से पैदा हुई है. इसी वजह से, भले ही आम तौर पर लोग ये सोच रखते हों कि जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण की चुनौती है. मगर हक़ीक़त ये है कि हमें इस चुनौती को इस नज़रिए से देखना होगा कि ये इंसान की बेरोक-टोक तरक़्क़ी करने की ज़िद के कारण पैदा हुई विकास संबंधी समस्या है. पर्यावरण औऱ विकास के आपसी संवाद और लेन-देन के बेहद जटिल आयाम से पैदा हुई जलवायु परिवर्तन की समस्या, मानव के विकास के तमाम पैमानों पर असर डालने वाली है. संक्षेप में कहें, तो दुनिया का तापमान बढ़ने और जलवायु परिवर्तन की समस्या इसलिए उत्पन्न हुई, क्योंकि इंसान ने विकास की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए बेहद संकुचित नज़रिया अपनाया. इंसान ने इस ‘विकास की क़ीमत’ के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचा और आख़िर में इसके नकारात्मक प्रभाव हमें विकास की दूरगामी महत्वाकांक्षाओं पर पड़ते हुए दिख रहे हैं. इसी तरह, कोविड-19 और जानवरों से पैदा होने वाली अन्य संक्रामक बीमारियों ने मानवता पर इसलिए असर डाला है, क्योंकि आज इंसान, दुनिया के जैविक चक्र से छेड़-छाड़ कर रहा है. प्राकृतिक व्यवस्था में दख़लंदाज़ी करके बदलाव कर रहा है और इस तरह से जैविक व्यवस्था के बीमारियों पर क़ाबू करने की प्राकृतिक व्यवस्था के काम में बाधा डाल रहा है.
दुनिया का तापमान बढ़ने और जलवायु परिवर्तन की समस्या इसलिए उत्पन्न हुई, क्योंकि इंसान ने विकास की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए बेहद संकुचित नज़रिया अपनाया. इंसान ने इस ‘विकास की क़ीमत’ के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचा और आख़िर में इसके नकारात्मक प्रभाव हमें विकास की दूरगामी महत्वाकांक्षाओं पर पड़ते हुए दिख रहे हैं.
वहीं दूसरी तरफ़, तेज़ी से बढ़ती आबादी ने उन प्राकृतिक संसाधनों पर भी दबाव बढ़ा दिया है, जो इंसान के अस्तित्व के लिए ज़रूरी हैं- जैसे खाना, पानी और रोज़गार. प्राकृतिक जल संसाधन व्यवस्थाओं में दख़ल देकर अब तक इस्तेमाल नहीं की गई सिंचाई और पनबिजली की क्षमताओं के दोहन ने ज़मीन पर बहने वाले पानी के बहाव को बाधित कर दिया है. इससे नदियों की व्यवस्था टुकड़ों में टूट गई है. उन पर निर्भर प्राकृतिक इको-सिस्टम भी तबाह हो गया है, और इस इको-सिस्टम की इंसान को सेवाएं देने की क्षमता (जैसे कि प्राकृतिक संसाधनों द्वारा इंसान और समुदायों को मुफ़्त में दिए जाने वाले सामान और सेवाएं) भी बुरी तरह प्रभावित हुई हैं. बढ़ी हुई आबादी और उसकी अलग अग तरह की मांग, इकोसिस्टम के टिकाऊ होने की बुनियाद को ही हिला रही है और इस वजह से प्राकृतिक व्यवस्था के मानवीय अस्तित्व को बनाए रखने में सहयोग की क्षमता पर भी विपरीत दूरगामी प्रभाव पड़ रहा है. ये हालात हम चीन, दक्षिणी एशिया, पश्चिमी अमेरिका और लैटिन अमेरिका में बनते देख रहे हैं.
एक लचीले भविष्य के लिए विकास के नए आयाम की मांग
दूसरे शब्दों में कहें तो विकास को पहले जैसे संकुचित नज़रिए से देखने का नतीजा ये हुआ है कि हम प्रगति को GDP के आंकड़ों से ही मापते हैं, जो अब मानव व्यवस्था के अस्तित्व को बचाए रखने के लिहाज़ से कारगर नहीं रह गया है: विकास का ‘ब्राउन ग्रोथ’ मॉडल जिस पर हम अभी चल रहे हैं, वो पहले ही ख़ुद को तबाह करने की राह पर चल पड़ रहा है, इसे हम प्राकृतिक संसाधनों पर महसूस हो रहे दबाव के रूप में देख सकते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि अब समय आ गया है कि इंसान की प्राथमिकताओं को नए सिरे से परिभाषित किया जाए. सवाल ये है कि: प्राकृतिक व्यवस्था और मानव व्यवस्था के पेचीदा संबंधों को देखते हुए हम आख़िर क़ुदरती इको-सिस्टम से समझौता किए बग़ैर इंसान के विकास की राह सुनिश्चित कर सकते हैं? इसी संदर्भ में विकास के एक व्यापक और एकीकृत आयाम को विकसित करने की आवश्यकता है. ऐसे आयाम को संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास के 17 लक्ष्यों (SDG) में पहले ही शामिल किया गया है, जो पूंजी की चार बुनियादी ताक़तों मतलब कि, भौतिक, सामाजिक, मानवीय और प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित हैं.
मोहन मुनासिंघे का नया नज़रिया, ‘सस्टेनॉमिक्स फ्रेमवर्क’ फॉर रिकंसाइलिंग सस्टेनेबल डेवेलपमेंट ऐंड क्लाइमेट चेंज की गूंज, संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (SDG) में सुनाई देती है, जिनमें विकास के तीन मोटे पैमानों यानी समानता, कुशलसता और टिकाऊपन को एक साथ दुरुस्त करने पर ख़ास तौर से ज़ोर देता है. मानव के विकास के इस नए आयाम का सिद्धांत मोटे तौर पर तीन बातों पर आधारित है: a) सभी के लिए बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा के ज़रिए मानवीय पूंजी को और बढ़ाना; b) लंबी अवधि में प्राकृतिक व्यवस्थाओं की अक्षुण्णता और टिकाऊपन से समझौता किए बग़ैर भौतिक पूंजी में इज़ाफ़ा करना; और c) संपत्ति, आमदनी और सामाजिक असमानता में कमी लाकर सबको न्यायिक तरीक़े से संसाधनों का वितरण करना सुनिश्चित करना.
मूलभूत ढांचे की परियोजनाओं के लिए ज़मीन के इस्तेमाल के तरीक़े में बेलगाम बदलाव से न केवल प्राकृतिक इकोसिस्टम और उनके द्वारा मानवीय सभ्यता को दी जाने वाली स्थानीय सेवाओं पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि इससे पर्यावरण में और कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ता है, जो जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों में इज़ाफ़ा करता है.
ऐसे में सवाल ये है कि इसके काम करने का तरीक़ा क्या होना चाहिए? इसके लिए शुरुआत से ही न सिर्फ़ सरकारी व्यवस्था, बल्कि निजी क्षेत्र की पहल के ज़रिए भी सबको लक्ष्य आधारित तरीक़े से संसाधन उपलब्ध कराने की दरकार होगी. इससे जिनके पास धन और संसाधन की प्रचुर मात्रा है, उनकी अंतरात्मा पर इस बात का दबाव बढ़ेगा कि वो संसाधनों से महरूम लोगों को अपने में से कुछ हिस्सा दें. वहीं दूसरी तरफ़, भविष्य के लिहाज़ से ‘हरित’ भौतिक मूलभूत ढांचे के बारे में सोचकर ही योजना बनानी चाहिए. ये वही क्षेत्र है जिसके नई पीढ़ी के लिए रोज़गार उपलब्ध कराने वाले सेक्टर के तौर पर देखा जा रहा है. हालांकि जिस तरह से भौतिक पूंजी (मूलभूत ढांचा) के निर्माण के बारे में अब तक सोच रही है, वो आगे चलने लायक़ क़तई नहीं है, क्योंकि इससे बड़े पैमाने पर ज़मीन का इस्तेमाल होता है या फिर इससे पानी के बहाव में ख़लल पड़ता है. यहां हमें ये दोहराना होगा कि दुनिया के कई देशों में ये महसूस किया जा रहा है कि केवल जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा के नवीनीकरण योग्य संसाधनों की तरफ़ क़दम बढ़ाने भर से हम ‘हरित परिवर्तन’ का लक्ष्य हासिल कर लेंगे. कोई और बात हक़ीक़त से इतनी परे नहीं हो सकती है! मूलभूत ढांचे की परियोजनाओं के लिए ज़मीन के इस्तेमाल के तरीक़े में बेलगाम बदलाव से न केवल प्राकृतिक इकोसिस्टम और उनके द्वारा मानवीय सभ्यता को दी जाने वाली स्थानीय सेवाओं पर बुरा असर पड़ता है, बल्कि इससे पर्यावरण में और कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ता है, जो जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों में इज़ाफ़ा करता है. फिर हमने हरित ऊर्जा परिवर्तन से जो सकारात्मक नतीजे हासिल किए होते हैं, वो भी बेमानी साबित हो जाते हैं.
इसीलिए विकास के नए आयाम का निर्माण ऐसी परियोजनाओं की शुरुआत से पहले ही प्राकृतिक व्यवस्था को होने वाले नफ़ा- नुक़सान का आकलन करके किया जा सकता है. इसके लिए किसी भी परियोजना के सामाजिक, आर्थिक, पारिस्थितिकी संबंधी, सांस्कृतिक और अन्य सभी तरह के प्रभावों का सामरिक मूल्यांकन किया जाना चाहिए. हमें किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले उसके इकोसिस्टम द्वारा कार्बन सोखने, उनका भंडारण करने, अतिरिक्त कार्बन उत्सर्जन करने, बीमारियों की रोकथाम करने, खाने का सामान उपलब्ध कराने, जैविक नियंत्रण और अन्य सामाजिक सेवाओं पर पड़ने वाले बुरे असर का भी मूल्यांकन करना होगा. इसके साथ, परियोजना से विस्थापित होने वाले लोगों के पुनर्वास की लागत, मानवीय उत्पादकता को नुक़सान, रोज़ी-रोज़गार को क्षति जैसे नुक़सानों के आकलन को भी विकास के व्यापक आयाम में शामिल कर लिया जाना चाहिए. पहले जैसा चलता रहने के बजाय, विकास के इस नए आयाम को अपनाने से मानवीय आबादी के लिए एक लचीले भविष्य की कल्पना की जा सकती है. इस आयाम को अपनाने और नए लचीले भविष्य की ओर क़दम बढ़ाने को हमें 2022 के विश्व जनसंख्या दिवस पर मानवता के अस्तित्व के लिए ली जाने वाली शपथ बनाना चाहिए.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.