Author : Sunaina Kumar

Published on Jun 24, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत में महिला उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय संस्थानों द्वारा ज़्यादा लैंगिक-समावेशी रवैया अपनाने की ज़रूरत है.

#Gender Issues: भारत में महिला उद्यमियों की कर्ज़ तक पहुंच और सरकारी वित्तीय मदद में लैंगिक अंतर

भारत ने अपनी महिला उद्यमियों को लगातार निराश किया है. एक ऐसे देश में जहां महिलाएं औपचारिक अर्थव्यवस्था में प्रवेश के लिए अवरोधों का सामना करती हैं, उद्यमिता ही अकेला व्यवहारिक तरीक़ा है जो महिलाओं के बीच रोज़गार के अवसर पैदा कर सकता है. उद्यमी गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देना बेहद ज़रूरी है, ख़ासकर वैश्विक महामारी के बाद से महिला रोज़गार में आयी तेज़ गिरावट को देखते हुए. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) का ताज़ा आंकड़ा दिखाता है कि 2021-22 में शहरी महिलाओं के बीच ‘श्रम बल में महिला भागीदारी दर’ 7 फ़ीसद गिरी है.

.उद्यमिता के लिए मददगार स्थितियों के अभाव ने भारतीय महिलाओं की प्रगति को बहुत ज़्यादा बाधित किया है. कारोबार में महिलाओं की प्रगति पर ग़ौर करने वाले Mastercard Index of Women Entrepreneurs 2021 के मुताबिक़, भारत दुनिया के सबसे निचले पायदान पर मौजूद देशों में था.

उद्यमिता के लिए मददगार स्थितियों के अभाव ने भारतीय महिलाओं की प्रगति को बहुत ज़्यादा बाधित किया है. कारोबार में महिलाओं की प्रगति पर ग़ौर करने वाले Mastercard Index of Women Entrepreneurs 2021 के मुताबिक़, भारत दुनिया के सबसे निचले पायदान पर मौजूद देशों में था (65 देशों के बीच 57वें स्थान पर). इंडेक्स में शामिल नाइजीरिया, युगांडा, वियतनाम और फिलीपीन्स जैसे देशों में महिलाएं, इन देशों में सामाजिक-सांस्कृतिक अवरोधों और अवसंरचनात्मक अभावों का सामना करने के बावजूद, उद्यमी गतिविधियों में पुरुषों से ज़्यादा तेज़ गति से लगी हुई थीं.

महिला उद्यमियों द्वारा सामना किये जाने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक अवरोध दुनिया के हर हिस्से में मौजूद हैं, लेकिन भारत में महिलाओं पर बिना-भुगतान देखभाल कार्य का बोझ (जो दुनिया में सबसे ज़्यादा है) इन अवरोधों को और भारी बना देता है. राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण कार्यालय के 2019 के सर्वेक्षण के मुताबिक़, भारत में 91.8 फ़ीसद महिलाओं ने परिवार के लिए बिना-भुगतान घरेलू कार्य में हिस्सा लिया.        

हालांकि, यह लेख वित्तपोषण के मामले में महिला उद्यमियों द्वारा सामना किये जाने वाले अंतर पर केंद्रित है. इंटरनेशनल फाइनेंस कॉरपोरेशन द्वारा 2015 में किये गये एक अध्ययन के मुताबिक़, भारत में महिला स्वामित्व वाले एमएसएमई ने वित्तपोषण में 70.37 फ़ीसद के बड़े अंतर का सामना किया. वित्तपोषण का अभाव सबसे बड़ी चिंता है – देश में 90 फ़ीसद महिलाएं वित्तपोषण के अनौपचारिक स्रोतों पर भरोसा करती हैं. यह हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री जनधन योजना के चलते बैंक खातों तक महिलाओं की पहुंच में बड़ा सुधार होने के बावजूद है.

अच्छे इरादे वाली नीतियां साबित हो रहीं अपर्याप्त

IWWAGE के एक आकलन के अनुसार, भारत में 20 से 30 साल की उम्र के बीच कारोबार शुरू करने वाली लगभग 58 फ़ीसद महिला उद्यमी स्व-वित्तपोषण, मोटे तौर पर अपनी बचत, या विरासत में मिली परिसंपत्ति या भौतिक संपत्ति जिसे गिरवी रखा जा सके, पर भरोसा करती हैं. यह महिलाओं के नेतृत्व वाले उद्यमों की ऋण-योग्यता को लेकर बैंकों और वित्तीय संस्थानों के सामाजिक पूर्वाग्रहों के चलते है. महिलाओं के स्वामित्व वाले उद्यमों को जोखिम भरा माना जाता है और विकासशील देशों में महिला उद्यमियों के ऋण आवेदनों को नामंज़ूर किये जाने की दर ज़्यादा है. परिसंपत्तियों और ज़मीन-जायदाद तक सीमित पहुंच के चलते, उधार के लिए जमानत (कोलेटरल) का अभाव, महिलाओं की राह में और रोड़े अटकाता है. यह महिलाओं को ऋण के लिए आवेदन करने से रोकता है और इस तरह एक स्वत: क़ायम चक्र बनता है. यह तब है जब ज़्यादातर शोध पुष्टि करते हैं कि पुरुष क़र्ज़दारों के मुक़ाबले महिलाएं ज़्यादा अनुशासित हैं और बेहतर क्रेडिट प्रोफाइल रखती हैं.

छोटे और सूक्ष्म उद्योगों के वास्ते 10 लाख रुपये तक के जमानत-मुक्त क़र्ज़ मुहैया कराने के लिए, 2015 में प्रधानमंत्री मुद्रा योजना शुरू की गयी. इस योजना के नतीजे मिलेजुले रहे हैं. इसके तहत क़र्ज़दारों में महिलाओं की प्रधानता है, वित्त मंत्रालय द्वारा साझा किया गया आंकड़ा दिखाता है कि 2021 में क़रीब 68 फ़ीसद क़र्ज़ महिला उद्यमियों को बांटे गये.

इस खाई को पाटने के लिए, कई सारी सरकारी योजनाएं रही हैं. छोटे और सूक्ष्म उद्योगों के वास्ते 10 लाख रुपये तक के जमानत-मुक्त क़र्ज़ मुहैया कराने के लिए, 2015 में प्रधानमंत्री मुद्रा योजना शुरू की गयी. इस योजना के नतीजे मिलेजुले रहे हैं. इसके तहत क़र्ज़दारों में महिलाओं की प्रधानता है, वित्त मंत्रालय द्वारा साझा किया गया आंकड़ा दिखाता है कि 2021 में क़रीब 68 फ़ीसद क़र्ज़ महिला उद्यमियों को बांटे गये. मगर, इन क़र्ज़ों में से 88 फ़ीसद ‘शिशु’ श्रेणी (मुद्रा योजना के तहत आने वाले 50,000 रुपये तक के क़र्ज़) के हैं. इस योजना से महिलाओं को स्पष्ट रूप से लाभ हुआ, लेकिन यह छोटे क़र्ज़ों तक सीमित रहा है.

इसी तरह, 2016 में ‘स्टैंड अप इंडिया’ का आरंभ हुआ. इसके तहत समाज के कम लाभान्वित तबकों जैसे महिला उद्यमियों और सामाजिक रूप से पिछड़े समूहों के लिए 10 लाख से लेकर 1 करोड़ रुपये तक के क़र्ज़ों की पेशकश की गयी. स्टैंड अप इंडिया के तहत 81 फ़ीसद से ज़्यादा क़र्ज़ महिला उद्यमियों के लिए मंज़ूर किये गये. इसके अलावा, नीति आयोग ने 2018 में महिला उद्यमिता मंच स्थापित किया, जो नि:शुल्क क्रेडिट रेटिंग, मेंटरशिप, वित्तपोषण समर्थन, अप्रेंटिसशिप और कॉरपोरेट साझेदारी के ज़रिये, देश भर की नयी व मौजूदा महिला उद्यमियों को समर्थन देने के लिए एक इकोसिस्टम है. महिलाओं द्वारा सामना किये जाने वाले अवरोधों के ख़िलाफ़ इन योजनाओं के असर पर सीमित प्रकाशित सामग्री उपलब्ध है.

औपचारिक वित्त में व्यक्तिगत महिला क़र्ज़दारों के साथ नाइंसाफ़ी

भले ही बैंकों में पैसे जमा रखने वाली महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ी है (2019 में अखिल भारतीय ऋण एवं निवेश सर्वेक्षण ने दिखाया कि ग्रामीण भारत में 80.7 फ़ीसद और शहरी भारत में 81.3 फ़ीसद महिलाओं के पैसे बैंकों में जमा हैं), लेकिन यह ऋण तक उनकी पहुंच में रूपांतरित नहीं हुआ है. वित्तीय समावेशन की नीति ने ऋण तक पहुंच से ज़्यादा जमा पर जोर दिया है. तो वह क्या है जो वित्तपोषण में लगातार क़ायम जेंडर गैप की व्याख्या करता है? भारतीय रिजर्व बैंक के पर्यवेक्षण विभाग से संबद्ध, और भारत में महिलाओं की बैंकिंग तक पहुंच का विश्लेषण करने वाले गिने-चुने अध्येताओं में शामिल, पल्लवी चव्हाण के 2020 के एक अध्ययन के मुताबिक़, महिलाएं जमा में जितना योगदान देती हैं उसका 27 फ़ीसद ही उन्हें ऋण मिला, जबकि पुरुषों को उनके जमा का 52 फ़ीसद ऋण मिला.

भारत में महिलाओं की बैंकिंग तक पहुंच का विश्लेषण करने वाले गिने-चुने अध्येताओं में शामिल, पल्लवी चव्हाण के 2020 के एक अध्ययन के मुताबिक़, महिलाएं जमा में जितना योगदान देती हैं उसका 27 फ़ीसद ही उन्हें ऋण मिला, जबकि पुरुषों को उनके जमा का 52 फ़ीसद ऋण मिला

यह अध्ययन महिलाओं को मिले कुल ऋण में से व्यक्तियों को मिले ऋण को अलग कर यह दिखाता है कि व्यक्तिगत रूप में महिलाओं के लिए, बैंकों से ऋण हासिल कर पाना और भी चुनौतीपूर्ण है. ज़्यादातर महिलाएं माइक्रोफाइनेंस संस्थाओं, स्वयं-सहायता समूहों और साझा दायित्व समूहों के ज़रिये ही बैंक ऋण तक पहुंच हासिल करने में सक्षम हैं. 2017 के आंकड़े के मुताबिक़, कुल बैंक ऋण में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 7 फ़ीसद थी, जबकि पुरुषों के मामले में यह 30 फ़ीसद था. कुल ऋण में महिलाओं का हिस्सा 8 फ़ीसद बढ़ा, वह भी जब इसमें माइक्रोफाइनेंस संस्थाओं, स्वयं-सहायता समूहों और साझा दायित्व समूहों को दिये गये ऋण को शामिल किया गया.

ऐतिहासिक रूप से, विकासशील देशों में, महिलाओं के वित्त को सशक्तीकरण के अपने सामाजिक एवं आर्थिक परिणामों के साथ माइक्रोफाइनेंस का पर्याय मान लिया गया है, जो महिलाओं के वित्त के दायरे को सीमित करता है क्योंकि इसमें यह पूर्व-धारणा निहित है कि महिलाओं की ऋण आवश्यकताएं छोटी होती हैं. मुद्रा योजना का आंकड़ा, जहां 88 फ़ीसद क़र्ज़ 50,000 रुपये तक की श्रेणी में थे और ज़्यादातर क़र्ज़दार महिलाएं थीं, इस पूर्व-धारणा को रेखांकित करता है कि महिलाओं की ज़रूरतें छोटे क़र्ज़ों तक सीमित हैं. बीते कुछ सालों में बैंक ऋण में महिलाओं के हिस्से में बढ़ोतरी हुई है, जो अपने आप में एक सकारात्मक संकेत है, लेकिन यह वृद्धि छोटी अवधि की श्रेणी के पर्सनल और कंज्यूमर ड्यूरेबल लोन में रही है.

आम धारणा के विपरीत, पुरुषों के कारोबार के मुक़ाबले महिलाओं के कारोबार ज़्यादा मुनाफ़े वाले हैं, और वित्तीय संस्थानों के लिए महिला उद्यमी एक बड़े अवसर के रूप में मौजूद हैं. इसके अलावा, वित्तीय समावेशन का कार्य तब तक पूरा नहीं होगा जब तक कि महिलाओं की बैंक ऋण तक समतापूर्ण पहुंच नहीं हो जाती. यह होने के लिए, वित्तीय संस्थाओं को लैंगिक पूर्वाग्रहों से बाहर निकलना होगा और ऋण वितरण के लिए एक लैंगिक-संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाना होगा, जिससे कि भारत में कारोबार शुरू करने वाली 58 फ़ीसद युवा महिला उद्यमी स्व-वित्तपोषण से परे देख सकें.

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