Expert Speak Raisina Debates
Published on Sep 23, 2024 Updated 0 Hours ago

लेबर पार्टी की नवनिर्वाचित सरकार का यूरोप समर्थक रुख़ ही यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के रिश्तों की दशा दिशा के संकेत दे रहा है, जो दोनों के बीच भरोसे के पुनर्निर्माण के नज़रिए से एक सरकारात्मक बदलाव है.

कंज़रवेटिव पार्टी की विदाई के बाद ब्रिटेन और EU का रिश्ता क्या नया रुख़ लेगा?

चुनाव में जीत के बाद ब्रिटेन की नवनिर्वाचित लेबर सरकार ने अपना सबसे ज़्यादा ध्यान प्रगति पर केंद्रित किया हुआ है, और नई सरकार स्थिरता और विकास को लेकर अपनी प्रतिबद्धता पर काफ़ी ज़ोर दे रही है. हालांकि, प्रगति की रफ़्तार को बढ़ाने यानी GDP में 1.5 प्रतिशत सालाना से अधिक की विकास दर हासिल करने के लिए राजनीतिक स्थिरता देने के वादे के अलावा भी कई और क़दम उठाने होंगे. ब्रिटेन की उत्पादकता तो वित्तीय संकट के बाद से ही सुस्त चली रही है और ब्रेक्जिट का ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला गहरा असर अब तक दिख रहा है, जिसने ब्रिटेन की GDP कम से कम 3 प्रतिशत कम कर दी थी. इस वजह से बिना अपनी कूटनीतिक और राजनीतिक लोकप्रियता को दांव पर लगाए हुए, ब्रिटेन की किसी भी सरकार के लिए यूरोपीय संघ (EU) से दोबारा संवाद स्थापित करने के प्रयास और भी जटिल होते जा रहे हैं.

 इस साल जुलाई में हुए आम चुनावों के दौरान ये मुद्दा साफ़ तौर पर प्रचार अभियान से नदारद दिखा. पुराने ज़ख़्मों को कुरेदने से नुक़सान होने की आशंका को देखते हुए लेबर पार्टी ने इस मुद्दे पर बहुत सावधानी से आगे बढ़ने का फ़ैसला किया था.

पिछले एक दशक से ब्रिटेन की सियासत ब्रेक्जिट और यूरोपीय संघ के ख़ौफ़नाक साये तले जी रही है. हालांकि, इस साल जुलाई में हुए आम चुनावों के दौरान ये मुद्दा साफ़ तौर पर प्रचार अभियान से नदारद दिखा. पुराने ज़ख़्मों को कुरेदने से नुक़सान होने की आशंका को देखते हुए लेबर पार्टी ने इस मुद्दे पर बहुत सावधानी से आगे बढ़ने का फ़ैसला किया था. पार्टी ने अतीत की विभाजनकारी परिचर्चाओं के बजाय क़ाबिलियत और स्थिरता पर ज़ोर देने का फ़ैसला किया था. इस दौरान, कंज़रवेटिव पार्टी के नेता ब्रेक्जिट की अस्त-व्यस्त कर देने वाली विरासत की यादों को दोबारा ज़िंदा करने के बजाय, विपक्ष विरोधी बयानबाज़ी करते रहे, जिसकी वजह से टोरी नेताओं ने कभी ब्रिटेन का सबसे बड़ा एजेंडा रहे ब्रेक्जिट के मसले पर किसी तरह की गंभीर परिचर्चा से किनारा कर लिया. अब ऐसे में सवाल ये है कि लेबर पार्टी को मिले विशाल बहुमत के बाद यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के रिश्तों को लेकर दुविधा अब किस दिशा में आगे बढ़ेगी?

 

लेबर पार्टी की विदेश नीति

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कियर स्टार्मर के नेतृत्व में लेबर पार्टी का सबसे ज़्यादा ज़ोर आर्थिक स्थिरता और विश्व मंच पर ब्रिटेन की पुरानी हैसियत को दोबारा बहाल करने पर है. इसमेंयूरोप, जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल साउथ के साथरिश्तों को दोबारा बहाल करना भी शामिल है.

लेबर पार्टी की सरकार द्वारा उठाए गए कुछ शुरुआती क़दमों से उसकी ये प्राथमिकताएं स्पष्ट हो जाती हैं. लेबर पार्टी के राज में ब्रिटेन ने यूरोपीय राजनीतिक समुदाय (EPC) के शिखर सम्मेलन की मेज़बानी करना शामिल है. इसका सम्मेलन की सबसे चर्चित तस्वीर वो थी जब फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों और प्रधानमंत्री कियर स्टार्मर ब्लेनहाइम पैलेस के 18वीं सदी वाले बाग़ीचे में एक साथ सैर करते दिखे थे. इससे पहले ब्रिटेन के विदेश सचिव डेविड लैमी जर्मनी, पोलैंड और स्वीडन जाकर अपने समकक्षों से मुलाक़ातें कर चुके थे. फिर भी, यूरोप समर्थक लेबर पार्टी की सरकार के इन गर्मजोशी भरे संकेतों के बावजूद, ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के रिश्तों में कोई बड़ा बुनियादी बदलाव आने की उम्मीद कम ही है.

 

विवादों का पुराना पिटारा

यूरोपीय संघ के साथ ब्रिटेन के रिश्तों का मुद्दा राजनीतिक तौर पर ध्रुवीकृत करने वाला है. देश की जनता ब्रेक्जिट के दौर के विभाजनकारी बयानों के क़हर से आज तक नहीं उबर सकी है. EU और ब्रिटेन के रिश्ते व्यापार और सहयोग के समझौते से संचालित होते हैं, जो 2020 में बोरिस जॉनसन के कार्यकाल में हुआ था. लेबर सरकार ने इस मामले में बहुत सावधानी भरा रुख़ अपनाया हुआ है. पार्टी ने एकीकरण के बजाय अंतर्राष्ट्रीयवाद का चुनाव करते हुए ब्रेक्जिट का फ़ैसला नहीं उलटने या फिर यूरोपीय संघ के बाज़ार या कस्टम यूनियन में दोबारा शामिल नहीं होने का वादा किया है

 लेबर पार्टी के नेतृत्व को बख़ूबी एहसास है कि EU के साथ नज़दीकी बढ़ाने के छोटे मोटे क़दमों का भी ज़बरदस्त राजनीतिक विरोध देखने को मिल सकता है, ख़ास तौर से उन तबक़ों से, जिनकी वजह से ब्रेक्जिट कामयाब हुआ

वैसे तो ये वादा व्यवहारिक है, क्योंकि अभी दोबारा यूरोपीय संघ का हिस्सा बनने की वकालत के सुर नहीं सुनाई दे रहे हैं. पर, इस रुख़ ने लेबर पार्टी को एक ऐसी स्थिति में जकड़ दिया है, जहां EU और ब्रिटेन के रिश्तों में किसी भी तरह के संभावित बदलाव क्रांतिकारी या व्यापक होने के बजाय बहुत सीमित और तकनीकी ही होंगे. लेबर पार्टी के नेतृत्व को बख़ूबी एहसास है कि EU के साथ नज़दीकी बढ़ाने के छोटे मोटे क़दमों का भी ज़बरदस्त राजनीतिक विरोध देखने को मिल सकता है, ख़ास तौर से उन तबक़ों से, जिनकी वजह से ब्रेक्जिट कामयाब हुआ था. इस वजह से लेबर पार्टी के पास सीमित और व्यावहारिक तालमेल के क़दम उठाने के सिवा बहुत गुंजाइश बची नहीं है. मसलन, सीमा पर वस्तुओं की आवाजाही की प्रक्रिया को सुगम बनाना, कारोबारी यात्रा को आसान करना या फिर रिसर्च और शिक्षा के मामले में सहयोग को बढ़ावा देना. वैसे तो ये तकनीकी उपाय भी अहम हैं. लेकिन, इनसे व्यापक आर्थिक तस्वीर में कोई क्रांतिकारी बदलाव ला पाना संभव नहीं है.

 

लेबर सरकार को पता है कि ब्रेक्जिट को लेकर व्यापक परिचर्चा शुरू करने से भारी राजनीतिक नुक़सान हो सकता है. लेबर पार्टी को भारी बहुमत के बावजूद चुनाव के नतीजों में भी इसको लेकर दरारें साफ़ दिखी थीं. लेबर पार्टी को लोकप्रिय मतों का केवल 33.7 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त हुआ था. जबकि सिर्फ़ पांच सीटें जीतने वाली नाइजेल फराज की रिफॉर्म पार्टी को 14.3 फ़ीसद वोट मिले थे. ब्रिटिश मीडिया का जनवादी तबक़ा भीब्रेक्जिट से पीछे हटनेको लेकर चेतावनी दे चुका है, और 650 में से 411 सीटें जीतने के बावजूद, लेबर पार्टी को पता है कि वो अपनी लोकप्रियता को हल्के में नहीं ले सकती है. ऐसे में लेबर पार्टी की रणनीति, व्यवहारिक तौर पर सावधानी बरतने की है. उसका ज़ोर छोटे मोटे व्यापारिक तालमेल करने, औद्योगिक सब्सिडी और छोटी आपूर्ति श्रृंखलाओं के ज़रिएघरेलूअर्थव्यवस्था को विकसित करने और ठोस आर्थिक विकास का लक्ष्य हासिल करने के लिए भारत जैसे देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते करने पर है.

 

यूरोपीय संघ की इच्छा या आशंका

इंग्लिश चैनल के उस पार यूरोपीय संघ के सामने यूक्रेन में युद्ध, आर्थिक संघर्ष, कट्टर दक्षिणपंथ का उभार, खंड खंड होता हरित समझौता और EU के पूरब में विस्तार को लेकर विवाद जैसी अपनी चुनौतियां खड़ी हैं. इनके बीच, EU के लिए एक पूर्व सदस्य ब्रिटेन के साथ रिश्तों को सुधारने का मुद्दा कम गंभीर मालूम देता है. यूरोपीय संघ के पक्ष में झुका ब्रेक्जिट का व्यापार समझौता, अभी भी क़ायम है और वैसे तो 2025 में उसकी समीक्षा होनी है, पर बुनियादी तौर पर किसी बदलाव की ख़्वाहिश बहुत कम ही दिखाई देती है. इसके बावजूद यूरोपीय संघ अभी भी ब्रिटेन का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है और हाल के वर्षों में ब्रिटेन के व्यापार में EU की हिस्सेदारी लगातार बढ़ ही रही है

 

यूरोपीय संघ के लिए चिंता का एक विषय लोगों और विशेष रूप से संगीतकारों, छात्रों और युवा पेशेवरों की आवाजाही का है. क्योंकि ब्रेग्ज़िट के बाद से इनके लिए यात्रा करना ज़्यादा मुश्किल और महंगा हो गया है. इस मामले में लालफीताशाही और वीज़ा की लागत कम करने में दिलचस्पी तो है. लेकिन, ब्रिटेन की तरफ़ से स्वतंत्र रूप से आवाजाही के विकल्प बंद हैं, क्योंकि ये ब्रेक्जिट के बुनियादी तर्क के ही ख़िलाफ़ होंगे. EU को ये उम्मीद भी है कि ब्रिटेन इरास्मस स्टूडेंट एक्सचेंज कार्यक्रम में दोबारा शामिल होगा. हालांकि, इसकी वित्तीय लागत शायद राह में रोड़ा बनें. पेशेवर क़ाबिलियत को दोनों पक्षों द्वारा मान्यता देना भी एक जटिल मसला है, जो एक ही बाज़ार के विषय से नज़दीकी से जुड़ा है.

 

लेबर सरकार के प्रस्ताव जिसमें कृषि उत्पादों के व्यापार को आसान करने के लिए वेटरनरी समझौता और ब्रिटेन उत्तरी आयरलैंड के बीच सीमा पर जांच पड़ताल कम करना भी शामिल है. पर, EU इसकी बारीक़ी से पड़ताल करना चाहता है. ब्रेक्जिट के बाद से ब्रिटेन के कृषि खाद्य उत्पादों की आवाजाही को सीमा पर नियंत्रित करने की वजह से 39 करोड़ यूरो का सालाना नुक़सान हो रहा है. हालांकि, उद्योग से जुड़े लोग इस नुक़सान को 3.5 अरब यूरो का बताते हैं. फिर भी, यूरोपीय संघ के अधिकारी EU के बाज़ार से अपनी पसंद के गिने चुने मसलों पर संबंध बनाने की ब्रिटेन की नीति को लेकर सशंकित हैं.

 

जो लोग ये उम्मीद लगाए बैठे हैं कि ब्रिटेन शायद दोबारा EU का हिस्सा बन जाएगा, उनके लिए ये संभावनाएं लगभग के बराबर हैं. इसकी वार्ताएं बहुत लंबी होंगी, शर्तें सख़्त होंगी और ब्रिटेन की जनता को अपना फ़ैसला पलटने के लिए राज़ी करना इस मोड़ पर तो असंभव सा दिखता है. यही नहीं, EU ख़ुद भी विकसित हो रहा है और उसके पूरब की ओर विस्तार करने और अपनी बजट की मांग बढ़ाने की संभावनाएं हैं. इसके बजाय बहुस्तरीय, और अलग अलग रफ़्तार वाला यूरोपीय संघ शायद अधिक उपयोगी विकल्प के तौर पर उभर सकता है, जो केवल पूर्वी यूरोप के सदस्यों के लिए आकर्षक होगा, बल्कि ब्रिटेन, नॉर्वे और स्विट्जरलैंड जैसे देशों को भी पसंद आएगा.

 यही नहीं, EU ख़ुद भी विकसित हो रहा है और उसके पूरब की ओर विस्तार करने और अपनी बजट की मांग बढ़ाने की संभावनाएं हैं. इसके बजाय बहुस्तरीय, और अलग अलग रफ़्तार वाला यूरोपीय संघ शायद अधिक उपयोगी विकल्प के तौर पर उभर सकता है

यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के बीच सहयोग की सबसे ज़्यादा संभावना तो सुरक्षा और रक्षा के क्षेत्र में दिख रही है, क्योंकि लेबर पार्टी के घोषणापत्र में EU और ब्रिटेन के बीच सुरक्षा के समझौते पर ज़ोर दिया गया है. विदेश मंत्री डेविड लैमी के मुताबिक़, इस समझौते में रक्षा, ऊर्जा, जलवायु, अप्रवास और दुर्लभ खनिज जैसे विषय शामिल हो सकते हैं. यूक्रेन को ब्रिटेन का मज़बूत वित्तीय और सैन्य सहयोग और लेबर पार्टी का यूरोप अटलांटिक क्षेत्र को तरज़ीह देने का संकेत भी इस मामले में शुभ मालूम होता है. फ्रांस के साथ लैंकेस्टर हाउस संधि की तरह ब्रिटेन और जर्मनी भी रक्षा साझेदारी की संभावनाएं तलाश रहे हैं. दोनों देश, भारत और अमेरिका के साथ यूरोपीय संघ की व्यापार और तकनीकी परिषदों (TTCs) की तर्ज पर EU और ब्रिटेन के बीच व्यापार और तकनीकी परिषद की शुरुआत पर भी विचार कर सकते हैं. चीन की चुनौती से निपटने और नियमों पर आधारित विश्व व्यवस्था को बनाए रखने जैसे साझा हित भी दोनों पक्षों के बीच सहयोग को आगे बढ़ा सकते हैं.

 

छोटे छोटे क़दम और ट्रंप की भूमिका

लेबर पार्टी के पहले कार्यकाल में अभी तो ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के रिश्तों में किसी क्रांतिकारी बदलाव की संभावनाएं बहुत कम दिखाई दे रही हैं. इसके बजाय लेबर पार्टी शायद अन्य जीतों मसलन, भारत और अमेरिका के साथ रिश्तों को मज़बूत बनाने और EU के साथ रिश्तों में छोटे छोटे सुधार लाने पर ज़ोर दे. खाद्य वस्तुओं की चेकिंग और कंपनियों के बीच अंदरूनी तबादले को बढ़ावा देने जैसे लक्ष्य आसानी से हासिल किए जा सकते हैं. हालांकि, विकास पर इनका व्यापक असर पड़ने की संभावनाएं कम ही हैं. लेबर पार्टी के घोषणापत्र में वैसे तोव्यापार की राह के ग़ैरज़रूरी रोड़े हटानेकी महत्वाकांक्षी घोषणा शामिल है. फिर भी यूरोपीय संघ इतनी सतर्कता ज़रूर बरतेगा कि सारा फ़ायदा ब्रिटेन को ही हो. मतलब, वो रहे तो EU के बाहर और रियायतें संघ के सदस्य की तरह हासिल कर ले.

 

हालांकि, अगर 2025 में डोनाल्ड ट्रंप की सत्ता में वापसी होती है, तो भू-राजनीतिक मंज़र में नाटकीय बदलाव देखने को मिल सकता है. इसकी वजह से ब्रिटेन और यूरोपीय संघ दोनों को अपनी सामरिक प्राथमिकताओं पर फिर से पुनर्विचार करने को मजबूर हो सकता है. इससे नैटो के भविष्य और यूरोप को अमेरिका की मदद की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लग सकता है. ऐसे हालात में अमेरिका के साथ अपनेविशेष संबंधपर ब्रिटेन की निर्भरता पर भी दबाव बढ़ेगा और तब शायद ब्रिटेन भी अपनी ज़रूरतों के लिए यूरोप के साथ रिश्तों में नज़दीकी बढ़ाने को मजबूर हो जाए.

 

इसके उलट, ये भी हो सकता है कि अगर डोनाल्ड ट्रंप चुनाव जीते तो ब्रिटेन और EU के बीच वो दोस्ताना ताल्लुक़ फिर बनें, जिसको लेकर अभी दोनों पक्ष आशंकित हैं. यूक्रेन में बढ़ते युद्ध और भयंकर वैश्विक अस्थिरता को देखते हुए दोनों पक्षों को एकजुट होकर क़दम उठाने को मजबूर होना पड़ सकता है. अगर अमेरिका दुनिया से दूरी बनाने की दिशा में आगे बढ़ता है, तो यूरोप और उसके साथ साथ ब्रिटेन भी एक नाज़ुक स्थिति में पहुंच जाएंगे और उन्हें ऐसे नए समीकरण बनाने पड़ेंगे, जहां पुराने विभाजनों को दरकिनार करके सहयोग को बढ़ाना पड़ सकता है. एक अनिश्चित माहौल में ब्रिटेन के सामरिक हित शायद यूरोपीय पड़ोसियों की तरफ़ झुकाव से ही सधेंगे, जिसके लिए सुरक्षा और रक्षा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाना होगा और ब्रेक्जिट के बाद के रिश्ते इसी सहयोग से परिभाषित होंगे.

 एक अनिश्चित माहौल में ब्रिटेन के सामरिक हित शायद यूरोपीय पड़ोसियों की तरफ़ झुकाव से ही सधेंगे, जिसके लिए सुरक्षा और रक्षा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाना होगा और ब्रेक्जिट के बाद के रिश्ते इसी सहयोग से परिभाषित होंगे.

किसी भी सूरत में यूरोपीय संघ से दूरी बनाने वाले कंज़रवेटिव पार्टी के राज के बाद, अब लेबर पार्टी के राज में EU से नज़दीकी बढ़ाने की बयानबाज़ी आपसी विश्वास को बहाल करने और आख़िर में दोनों पक्षों के रिश्तों को ब्रेक्जिट के साये से बाहर निकालने का संकेत देने वाला सकारात्मक बदलाव हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.