एक ‘अच्छाई के लिए युद्ध’ का बुरा अंत हुआ. अव्यवस्थित वापसी के लिए राष्ट्रपति बाइडेन की आलोचना की गई, लेकिन इस बात को मानना होगा कि एक ‘अजेय युद्ध’ से बाहर निकलने का नतीजा, जिसका कोई स्पष्ट और सीमित लक्ष्य नहीं था, अप्रिय ही होना था. जिन लोगों को वियतनाम से अमेरिकी सेना की वापसी याद है, वो ज़रूर सहमत होंगे, भले ही वो उत्तर वियतनाम के साथ कई सालों तक शांति प्रक्रिया को लेकर बातचीत के बाद वापस लौटे थे. इतिहासकार को इस बात का विश्लेषण करने का मौका अवश्य मिलेगा कि किस तरह 2003 की शुरुआत में डोनाल्ड रम्सफेल्ड का विचारहीन “मिशन पूरा हुआ” का ऐलान, तालिबान के साथ स्वीकार्य शर्तों पर सामंजस्य बैठाने के अवसरों को खोने के साथ ही अफ़गान सरकार और अफ़गान सेना के कमज़ोर होने की बात मानने से इनकार करने की वजह से, एक ‘चिरकालीन युद्ध’ में बदल गया.
अफ़ग़ानिस्तान की संस्कृति की समझ न होना, पाकिस्तान की दोहरी भूमिका पर पंगु अकर्मण्यता, व्यापक और गहराई तक जमी भ्रष्टाचार की जड़ों के कारण अफ़ग़ानिस्तान सरकार की अलोकप्रियता सहित कई अन्य मसलों ने हालात को और भी बदतर कर दिया. 2006 से, तालिबान ने अपने हमले शुरू किये और दक्षिणी और पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान के प्रांतों को कब्ज़े में लेना शुरू कर दिया. संख्या बल में अधिक होने के बावजूद अफ़ग़ान सेना का तालिबान के सामने कोई मुक़ाबला नहीं था, क्योंकि उसमें विदेशी शक्ति द्वारा शुरू किये गए युद्ध को लड़ने का कोई जज़्बा नहीं था.
अफ़ग़ानिस्तान की संस्कृति की समझ न होना, पाकिस्तान की दोहरी भूमिका पर पंगु अकर्मण्यता, व्यापक और गहराई तक जमी भ्रष्टाचार की जड़ों के कारण अफ़ग़ानिस्तान सरकार की अलोकप्रियता सहित कई अन्य मसलों ने हालात को और भी बदतर कर दिया.
जॉर्ज डब्ल्यू बुश के बाद आये राष्ट्रपतियों की इच्छा अफ़गानिस्तान में ‘असाध्य युद्ध’ से बाहर निकलने की थी, लेकिन ‘आतंक के ख़िलाफ युद्ध’ खिंचता गया और सही मायने में उनकी निगरानी में चलने वाला अजेय आतंकवाद विरोधी अभियान बन गया. अनिष्ट के संकेत मिल चुके थे. अमेरिका की अधिकांश जनता (55 प्रतिशत) ने 2010 में ही, सीएनएन/ओपीनियन रिसर्च पोल के अनुसार युद्ध का विरोध किया था. 2019 तक, वॉशिंगटन पोस्ट में छपे अफगानिस्तान पेपर्स के मुताबिक, कई अमेरिकी अधिकारी इस नतीजे पर पहुंचे थे कि यह युद्ध अजेय है. ओसामा बिन लादेन को कैद करने और मौत के साथ ही युद्ध के अंत पर विचार करने को लेकर अमेरिकी जनता ज़्यादा यथार्थवादी प्रतीत हुई. जैसे की उम्मीद थी, इस साल अगस्त में किये गए अमेरिकी व्यस्कों के Pew Research survey में यह बात सामने आयी कि अधिकांश लोग (54 प्रतिशत) अमेरिकी सेना की वापसी को सही फैसला मानते हैं.
इसलिए खुद को यह कहकर दिलासा देना कि विजेता तालिबान काबुल के द्वार पर बातचीत के ज़रिए अफ़गान सरकार से समझौते का इंतज़ार करेगा अनावश्यक है. हालांकि, Pew सर्वे में पाया गया कि एक बड़े वर्ग ने, करीब 70 प्रतिशत, यह महसूस किया कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका अपना लक्ष्य हासिल करने में विफल रहा; बल्कि यह तो वक्त ही बताएगा कि अफ़ग़ानिस्तान में 20 सालों तक अमेरिका की सहभागिता पूरी तरह से निरर्थक रही या नहीं.
अफ़गानिस्तान में साक्षर और जागरूक महिलाओं की संख्या में इज़ाफ़ा होना इस बात का साक्ष्य है. एक अफगान सिविल सोसायटी भी उभरकर सामने आयी जो धीरे ही सही लेकिन निश्चित रूप से तालिबान 2.0 को प्रभावित कर रही है. विश्व को नज़दीक से नज़र रखनी होगी कि इन घटनाक्रमों को सीमित करने के लिए तालिबान सरकार द्वारा उठाये गए तत्काल कदम आगामी महीनों में भी कायम रहते हैं या नहीं.
Pew सर्वे में पाया गया कि एक बड़े वर्ग ने, करीब 70 प्रतिशत, यह महसूस किया कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका अपना लक्ष्य हासिल करने में विफल रहा
भारत और तालिबान के साथ उसकी बातचीत
नि:संदेह, अफगानिस्तान के हालात भारत के लिए अच्छी ख़बर नहीं है. लेकिन इसकी आहट पहले ही सुनाई देने लगी थी. अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बाइडेन ने 2019 में दिये अपने संबोधन में इस बात को साफ़ कर दिया था, “अंतहीन युद्धों को ख़त्म करने का समय आ चुका है जिसकी कीमत अमेरिका को असीमित रक्त और संपत्ति देकर चुकानी पड़ी .” उनकी प्राथमिकताएं तय थी क्योंकि उन्होंने अपने देश के लोकतंत्र की मज़बूती पर ध्यान केंद्रित करते हुए जलवायु परिवर्तन, वैश्विक स्वास्थ्य और ‘चीन के साथ सख्त़ी’ बरतने जैसे मामलों को महत्व दिया. यक़ीनन, अफ़ग़ानिस्तान का घटनाक्रम दक्षिण एशिया के सुरक्षा वातावरण पर दबाव डालेगा. भारत को इसे पाकिस्तान के साथ अपने संबंध और सीमाओं पर चीन के विस्तार के संदर्भ में देखना होगा. भारत को इसका भी ध्यान रखना होगा कि उसने तालिबान 2.0 को लेकर “रुको और देखो” की नीति अपनाई है, लेकिन रूस और चीन दोनों ने तालिबान के साथ व्यापार करने की इच्छा ज़ाहिर की है. इसलिए अगर क्षेत्र के विभिन्न देशों ने तालिबान सरकार के प्रति अपना नज़रिया ज़ाहिर किया है या कर रहे हैं, तालिबान का अपने पड़ोसियों के प्रति अपनी नीतियों को स्पष्ट करना अभी बाकी है.
यहां ध्यान देने वाली यह है कि जहां तक अपनी प्रतिबद्धता को निभाने का सवाल है, अफ़गानिस्तान में अमेरिका की निर्भरता को झटका पहुंचा है. और इससे इनकार करना मुश्किल होगा कि हाल ही में संपन्न हुए ऑकस (ऑस्ट्रेलिया-यूनाइटेड किंग्डम-यूनाइटेड स्टेट्स) ने क्वॉड (क्वाडिलेट्रल सिक्योरिटी डायलॉग) से कुछ हद तक ध्यान हटाया है. ऑकस एक त्रिपक्षीय सुरक्षा समझौता है जो इंडो-पैसिफिक में चीन का सामना करने के लिए निर्मित किया गया है, जबकि क्वॉड को- जिसके केंद्र में ‘सुरक्षा’ शब्द का उल्लेख होने के बावजूद- चार लोकतांत्रिक देशों के बीच वैश्विक हित को बढ़ावा देने के लिए एक अनौपचारिक व्यवस्था के तौर पर देखा जा रहा है, जो एक अनिश्चित अवधारणा बनी हुई है.
भारत को इसका भी ध्यान रखना होगा कि उसने तालिबान 2.0 को लेकर “रुको और देखो” की नीति अपनाई है, लेकिन रूस और चीन दोनों ने तालिबान के साथ व्यापार करने की इच्छा ज़ाहिर की है.
हाल ही में व्हाइट हाउस में हुए क्वॉड शिखर सम्मेलन में भी इस पर विचार नहीं किया गया क्योंकि राष्ट्रपति बाइडेन ने इसे, “कोविड से लेकर जलवायु और उभरती प्रौद्योगिकी जैसी मुख्य चुनौतियों से निपटने के लिए” लोकतांत्रिक भागीदारों का एकसाथ आना करार दिया था. दक्षिण एशिया और इंडो पैसिफिक में इस अस्थिर हालात ने भारत को एक ऐसी जटिल स्थिति पर खड़ा कर दिया है, जहां उसे गहराई से रणनीतिक पुनर्विचार की ज़रूरत है. जैसा कि जॉन मेनार्ड कीन्स ने चेताया था कि जब हम सच्चाई बदल नहीं सकते तो हमें उसको लेकर अपने नज़रिए की दोबारा संकल्पना करनी होगी. और जॉर्ज केनन का नीति निर्माताओं को दिया एक सुझाव बहुत मशहूर है कि “अपव्ययी और निराशात्मक लक्ष्यों” को हासिल करने की ज़िद से ज़्यादा सम्मानजनक “निर्बल स्थिति को दृढ़ता और साहस के साथ खत्म करना” है.
भारत, अमेरिका के साथ-साथ रूस को भी दे वरीयता
21वीं सदी ने भारत और अमेरिका के बीच बहुआयामी रिश्तों को बढ़ते देखा है. भारत बाइडेन प्रशासन से अपने देश में लोकतंत्र को ‘सुधारने और पुनर्जीवित’ करने के प्रति प्रतिबद्धता के साथ ही विदेश में भी ‘लोकतांत्रिक देशों के गठबंधन को मज़बूत’ करने की उम्मीद कर सकता है. भारत के अमेरिका के साथ रक्षा, व्यापार और नागरिकों के बीच आपसी संबंध ठोस हैं और बेहतर हो रहे हैं, ऐसे में यह याद रखना ज़रूरी है कि हमारे रिश्तों की नींव हमारे साझा लोकतांत्रिक मूल्य, सहनशीलता और सामाजिक विविधता है. दुनिया में भारत को एक उदाहरण के तौर पर खड़ा करने में यह मददगार हैं और ख़ासकर दक्षिण एशिया में. भारत को, भेदभावपूर्ण अधिनियमों को खत्म करके, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में विकल्पों की विविधता को लेकर सहिष्णुता को बढ़ावा देकर और जाति और धार्मिक समूहों के साथ समान व्यवहार पर दृढ़ता से खड़ा रहकर, इन्हें और मज़बूत करने की आवश्यकता है.
दक्षिण एशिया और इंडो पैसिफिक में इस अस्थिर हालात ने भारत को एक ऐसी जटिल स्थिति पर खड़ा कर दिया है, जहां उसे गहराई से रणनीतिक पुनर्विचार की ज़रूरत है.
भले ही भारत के लिए अमेरिका अत्यंत महत्वपूर्ण बना हुआ है, यह भी ज़रूरी है कि भारत अपने निकट पड़ोसियों को भी देखे. सोवियत दौर में और उसके बाद भी भारत के रूस के साथ गहरे संबंध थे. लेकिन यह रिश्ता पिछले कुछ सालों में कमज़ोर होते हुए आर्थिक मोर्चे पर प्रमुख रूप से ‘खरीदार विक्रेता’ का रह गया है और रक्षा संबंधों में कमी आयी है. विशेषज्ञों का मानना है कि हाल के समय में भारत-रूस व्यापार अपनी क्षमता से काफी नीचे है. इसी तरह, भारत को रूसी हथियार की बिक्री में 2008 और 2012 के बीच 79 प्रतिशत से लेकर 2013 और 2018 के बीच 62 प्रतिशत की कमी आयी है. बेशक 2018 में भारत ने अमेरिका की प्रतिबंध लगाने की धमकी के बावजूद US CAATSA Act को नज़रअंदाज़ करते हुए रूस से सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल रक्षा प्रणाली एस-400 को खरीदने का फ़ैसला किया था. रूस के साथ रिश्ते सुधारने की भारत की इच्छाशक्ति का यह बढ़िया उदाहरण था.
भले ही भारत के लिए अमेरिका अत्यंत महत्वपूर्ण बना हुआ है, यह भी ज़रूरी है कि भारत अपने निकट पड़ोसियों को भी देखे. सोवियत दौर में और उसके बाद भी भारत के रूस के साथ गहरे संबंध थे. लेकिन यह रिश्ता पिछले कुछ सालों में कमज़ोर होते हुए आर्थिक मोर्चे पर प्रमुख रूप से ‘खरीदार विक्रेता’ का रह गया है और रक्षा संबंधों में कमी आयी है.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अमेरिका-रूस के रिश्ते पिछले दो दशकों के दौरान बेहद टकराव भरे रहे हैं, जिसकी वजह अस्पष्ट और अपारदर्शी है. भारत उस रिश्ते को भी बेहतर करने में मदद कर सकता है जो विश्व और इस क्षेत्र के लिए बेहतरीन दूरदर्शी निर्णय साबित होगा. इसी तरह, भारत को सीमा विवाद पर चीन का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए, साथ ही वह जलवायु और आतंकवाद जैसे सहयोग के क्षेत्रों को भी टटोल सकता है. यह सच है कि क्वॉड और ऑकस संभवत: अनावश्यक हो जाता अगर इंडो-पैसिफिक में चीन ने विस्तारवादी भूमिका नहीं अपनाई होती. फिर भी, भारत की नीति चीन के साथ चौतरफा टकराव की धारणा पर आधारित नहीं हो सकती है. भारत का महत्व अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों से कई ज़्यादा है. यह ज़रूरी है कि उस महत्ता का उपयोग कर रूस और चीन के साथ हमारे रिश्ते पुनर्जीवित करने के लिए बातचीत को प्रोत्साहित किया जाए.
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