Expert Speak Raisina Debates
Published on Dec 27, 2022 Updated 0 Hours ago

चिकित्सकीय उपायों और जांच-पड़ताल को TRIPS छूट के विस्तारित दायरे में लाने से जुड़ी क़वायद के लिए भारत को अपने प्रयास दोगुने कर देने चाहिए. वित्तीय और व्यावहारिक अर्थों में इस मोर्चे पर कामयाबी हासिल करने के लिए भारत को G20 की अध्यक्षता और IBSA फ़ोरम का इस्तेमाल करना चाहिए.

WTO & COVID: क्या विश्व व्यापार संगठन कोविड से जुड़े ‘इम्तिहान’ में खरा उतर पायेगा?
WTO & COVID: क्या विश्व व्यापार संगठन कोविड से जुड़े ‘इम्तिहान’ में खरा उतर पायेगा?

वैश्विक संदर्भ

गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा तक सार्वभौम पहुंच, आज के दौर की सबसे बड़ी और तात्कालिक वैश्विक चुनौती है. इसपर व्यापक रूप से सबकी सहमति है. ख़ासकर कोविड-19 की आमद के बाद मानवता के सामने ये सबसे बड़ा प्रश्न बन गया है. इस कड़ी में विश्व व्यापार संगठन (WTO) के तहत बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार से संबंधित पहलुओं (TRIPS) की नए नज़रिए से समीक्षा ज़रूरी हो जाती है. इस लेख में TRIPS समझौते पर तवज्जो देते हुए सार्वजनिक स्वास्थ्य और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा तक सार्वभौम पहुंच पर उसके प्रभावों की पड़ताल की जाएगी. 

TRIPS समझौते का लक्ष्य बौद्धिक संपदा अधिकारों के न्यूनतम मानक स्थापित करना है. सभी उत्पाद और सभी प्रौद्योगिकियों की प्रक्रियाएं इसके दायरे में शामिल हैं. पेटेंट सुरक्षा की मियाद 20 सालों की है और केवल कुछ ख़ास मामलों में ही इसके अपवाद तय किए गए हैं.

TRIPS समझौते का लक्ष्य बौद्धिक संपदा अधिकारों के न्यूनतम मानक स्थापित करना है. सभी उत्पाद और सभी प्रौद्योगिकियों की प्रक्रियाएं इसके दायरे में शामिल हैं. पेटेंट सुरक्षा की मियाद 20 सालों की है और केवल कुछ ख़ास मामलों में ही इसके अपवाद तय किए गए हैं. इस क़रार में बौद्धिक संपदा की हिफ़ाज़त करने वाले प्रावधान विशिष्ट, बाध्यकारी और कार्रवाई के अनुकूल हैं.  

ये समझौता शुरुआत से ही विवादों (ख़ासतौर से स्वास्थ्य के संदर्भ में) में घिरा रहा है. दरअसल, प्राथमिक रूप से इसकी संरचना फ़ार्मा क्षेत्र की बड़ी कंपनियों, दूसरे उद्योगों और पेटेंट से जुड़े उनके निज़ामों को फ़ायदा पहुंचाने के हिसाब से तय की गई. सस्ती दवाइयों और मेडिकल साज़ोसामानों तक पहुंच की क़ीमत पर इस क़वायद को अंजाम दिया गया. सस्ते उत्पादों तक पहुंच की बजाए महंगी क़ीमतों वाली दवाइयां परोसी गईं. पेटेंट की गई दवाइयों के जेनेरिक संस्करण के उत्पादन की क्षमता रखने वाले देशों और कंपनियों द्वारा रिवर्स इंजीनियरिंग की क़वायद पर भी TRIPS लगाम लगाता है. पेटेंट की गई दवाइयों की सस्ती लागतों वाले जेनेरिक संस्करणों की उपलब्धता को लेकर भी प्रतीक्षा का वक़्त बहुत ज़्यादा है. समझौते में दी गई पेटेंट सुरक्षा की मियाद ताक़तवर कंपनियों को बेज़ा फ़ायदा पहुंचाती है. इन कंपनियों की शोध क्षमता प्राथमिक रूप से अमेरिका और यूरोप में केंद्रित है. ज़ाहिर है, इससे विकासशील देश और उनकी जनता को नुक़सान उठाना पड़ता है. जेनेरिक दवाइयों के क्षेत्र में विनिर्माण की ज़बरदस्त क्षमता रखने वाले और ताज़ा तौर पर औद्योगिकीरण की ओर बढ़ते देशों (जैसे भारत) पर भी इसका नकारात्मक असर हुआ है. साथ ही वैसे मुल्क (ख़ासतौर से अफ़्रीका और अन्य इलाक़ों के कमज़ोर और निम्न-आय वाले देश), जो सस्ती दवाइयों तक पहुंच के लिए भारत जैसे राष्ट्रों पर निर्भर करते हैं, उनपर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा है. 

व्यापार समझौते और TRIPS

अन्य कारकों के साथ-साथ इन वजहों से 2 दशक से भी ज़्यादा अर्सा पहले TRIPS को WTO में शामिल किए जाने को लेकर अनेक आलोचनाएं और विरोध-प्रदर्शन देखने को मिले थे. ख़ासतौर से 1999 में सिएटल के नाकाम मंत्रिस्तरीय सम्मेलन और 2001 में WTO वार्ताओं के दोहा दौर में ऐसा मंज़र दिखाई दिया था. इसके बावजूद अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि और यूरोपीय संघ की कई सरकारों के साथ-साथ स्विट्ज़रलैंड की नुमाइंदगी वाली ताक़तवर वैश्विक फ़ॉर्मा लॉबी TRIPS के एक संस्करण पर समझौते पर रज़ामंदी क़ायम करने में कामयाब रही. बहरहाल, ये क़रार ना तो सस्ती दवाइयों तक पहुंच के नज़रिए से अच्छा था और ना ही स्वास्थ्य तक सार्वभौम पहुंच से जुड़े मानव अधिकार के लिहाज़ से. 

पहले से ज़्यादा मानवीय, विकासोन्मुख और लोचदार समझौतों के लिए विरोध-प्रदर्शनों और दवाबों ने TRIPS और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर दोहा घोषणापत्र की राह दिखाई. इस तरह सार्वजनिक स्वास्थ्य के नज़रिए से समझौते की दोबारा व्याख्या करने को लेकर विकासशील देशों के अधिकार दोबारा उभरकर सामने आए.

पहले से ज़्यादा मानवीय, विकासोन्मुख और लोचदार समझौतों के लिए विरोध-प्रदर्शनों और दवाबों ने TRIPS और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर दोहा घोषणापत्र की राह दिखाई. इस तरह सार्वजनिक स्वास्थ्य के नज़रिए से समझौते की दोबारा व्याख्या करने को लेकर विकासशील देशों के अधिकार दोबारा उभरकर सामने आए. बहरहाल, TRIPS से जुड़ी बहस का एक अहम पड़ाव होने के बावजूद ये क़रार ग़ैर-बराबरी वाला है. कोविड-19 ने TRIPS के इर्द-गिर्द विवादों को वैश्विक मंच के केंद्र में ला दिया है. साथ ही व्यापार सौदेबाज़ी और वार्ता संदर्भों (जैसे WTO या उससे भी बदतर हालात वाले FTAs या मुक्त व्यापार समझौतों) में बौद्धिक संपदा (IP) को शामिल करने की नामुनासिब क़वायद को भी उभार दिया है. दरअसल ऐसे FTAs (ख़ासतौर से अमेरिकी अगुवाई वाले) WTO के दायरे से भी आगे निकल गए हैं. इनके प्रावधान TRIPS से भी ज़्यादा भारी-भरकम हैं, जो 2001 में दोहा मंत्रिस्तरीय बैठक में तय सहमतियों को भी कुंद कर देते हैं. 

TRIPS और कोविड-19 का “इम्तिहान” 

WTO के दोहा राउंड के 2 दशक से भी ज़्यादा बीत जाने के बाद अब TRIPS समझौता अल्पविकसित देशों के लिए भी प्रभाव में आ गया है. इन देशों को उस वक़्त इससे छूट दी गई थी. एक दशक की रियायती मियाद के क्रियान्वयन के दौरान उन्हें ये सहूलितय दी गई थी.

आज बड़ा सवाल ये है कि क्या WTO कोविड-19 से जुड़े इम्तिहान में “खरा” उतर सकेगा. अगर पूरी गंभीरता से कहें तो वो इसमें अबतक नाकाम रहा है. भारत-दक्षिण अफ्रीका TRIPS छूट से जुड़े साझा प्रस्तावों (अक्टूबर 2020) के कमज़ोर पड़ने से ये बात स्पष्ट तौर पर प्रमाणित हुई है. इस क़वायद में WTO समझौते के आर्टिकल 9 के हिसाब से कोविड-19 की रोकथाम, नियंत्रण और इलाज के लिए ज़रूरी उत्पादों की किल्लत के निपटारे के लिए निर्भरता दिखाई गई थी. WTO TRIPS परिषद को दिए गए इस प्रस्ताव में महामारी के दौरान TRIPS समझौते के कुछ प्रावधानों के अमल से छूट देने की बात कही गई थी. इससे टीकों और दवाइयों के उत्पादन के लिए ज़रूरी प्रौद्योगिकियों तक व्यापक पहुंच सुनिश्चित की जा सकती थी. WTO के 105 से भी ज़्यादा सदस्यों ने इसका समर्थन किया और इसके 63 सह-प्रायोजक थे. अचरज की बात है कि TRIPS की सबसे ज़ोरदार वक़ालत करने वाले अमेरिका की ओर से इस प्रस्ताव को मई 2021 में सीमित समर्थन ही हासिल हो सका. नतीजतन दुनिया के दूसरे दौलतमंद देशों (ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और नॉर्वे) की ओर से इसे अतिरिक्त समर्थन मिला और भारत-दक्षिण अफ़्रीका के मूल प्रस्ताव का संशोधित संस्करण सामने आया. इसके बावजूद छूट से जुड़े इस प्रस्ताव को यूनाइडेट किंगडम, यूरोपीय संघ (EU) और स्विट्ज़रलैंड ने महीनों तक परिषद में अटकाए रखा.

जून समझौते की मियाद एक और रुकावट है, जिसपर जल्द से जल्द पुनर्विचार किया जाना लाज़िमी है. टीकों के लिए सीमित छूट की व्यवस्था जून के मध्य से केवल पांच वर्षों के लिए वैध है. कोविड-19 के नए-नए स्वरूपों के निरंतर उभार के संदर्भ में कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया के कोविड-19 से मुक्त होने के कोई आसार नहीं हैं.   

वैश्विक स्तर पर कोविड-19 से जुड़े स्वास्थ्य संकट की तात्कालिकता के बावजूद इन देशों ने ऐसा रुख़ दिखाया. नतीजतन एक और साल इसपर वार्ताओं का दौर चलता रहा. जून 2022 में 18 महीने की वार्ताओं के बाद WTO के 12वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में इस संस्करण पर रज़ामंदी हुई. हालांकि, सहमति का ये स्वरूप भारत-दक्षिण अफ़्रीका के मौलिक प्रस्ताव से काफ़ी जुदा था. ताज़ा क़वायद कतई संतोषजनक नहीं थी क्योंकि इसमें TRIPS समझौते के केवल एक प्रावधान में छूट दी गई थी. वो रियायत थी अनिवार्य लाइसेंसिंग के तहत टीके के निर्यात को मंज़ूरी देना. मौलिक प्रस्ताव में सदस्यों को ना सिर्फ़ वैक्सीन बल्कि कोविड-19 से निपटने के सभी औज़ारों में IP से जुड़ी बाधाएं दूर करने की पूरी आज़ादी मुहैया कराई गई थी. कोविड-19 की रोकथाम के नज़रिए से अहमियत रखने वाले नियंत्रण और इलाज संबंधी चिकित्सकीय उपायों और जांच पड़ताल को समझौते से बाहर रखा गया. लिहाज़ा ऐसे आरोप लग रहे हैं कि भारत और दक्षिण अफ़्रीका ने EU के दबाव में अपने ही प्रस्ताव का त्याग कर दिया. 

हालांकि, जून में इस बात पर सहमति बनी थी कि चिकित्सकीय उपायों और जांच-पड़ताल को समझौते के दायरे में लाने के लिए वार्ता प्रक्रिया जारी रखी जाएगी. साथ ही ये भी कहा गया था कि 17 जून 2022 को छूट पर हुए फ़ैसले से 6 महीनों के भीतर इस मसले पर भी किसी तरह का निर्णय ले लिया जाएगा. इस क़वायद से WTO TRIPS समझौते को एक और मौक़ा मिला है. तार्किक और लोक-केंद्रित मानव विकास चिंताओं के प्रति अपनी जवाबदेही का इज़हार करने का उसके पास ये दूसरा अवसर है. हालांकि इन प्रयासों के लिए वक़्त तेज़ी से बीत रहा है. जून में मिली छूट को विस्तार देने से जुड़ा फ़ैसला (जिसमें सभी चिकित्सकीय उपायों और जांच-पड़ताल को शामिल करने की बात है) 17 दिसंबर 2022 से पहले ले लिया जाना चाहिए. इस छूट को पूरी व्यापकता के साथ लागू किए जाने की दरकार होगी. अगर WTO को कोविड-19 के “इम्तिहान” में खरा उतरना है तो उसे मेडिकल और स्वास्थ्य सेवा से जुड़े औज़ारों और उत्पादों के सबसे व्यापक दायरे को इस क़वायद में शामिल करना होगा.  

जून समझौते की मियाद एक और रुकावट है, जिसपर जल्द से जल्द पुनर्विचार किया जाना लाज़िमी है. टीकों के लिए सीमित छूट की व्यवस्था जून के मध्य से केवल पांच वर्षों के लिए वैध है. कोविड-19 के नए-नए स्वरूपों के निरंतर उभार के संदर्भ में कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया के कोविड-19 से मुक्त होने के कोई आसार नहीं हैं.   

WTO और दूसरे प्रासंगिक वैश्विक मंचों में भारत की क़वायदों में दोगुनी रफ़्तार भरना ज़रूरी

ऐसा लगता है कि चिकित्सकीय उपायों और जांच-पड़ताल के क्षेत्र में छूट को विस्तार देने के लिए भारत बेहद नरमी के साथ दलीलें रख रहा है. इस दिशा में भारत को तत्काल अपने प्रयासों की रफ़्तार बढ़ानी होगी. मध्य दिसंबर की समयसीमा से पहले कोविड-19 की रोकथाम, नियंत्रण और इलाज से जुड़े औज़ारों के उत्पादन और आपूर्ति को WTO छूट के दायरे में लाने के लिए भारत को ज़ोरदार क़वायद करनी चाहिए. इस दिशा में भारत 2023 में G20 की अपनी अध्यक्षता और भारत, ब्राज़ील, दक्षिण अफ़्रीका (IBSA) मंच, दोनों के ज़रिए अपनी बात रख सकता है. इसका मक़सद वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े इस मसले को प्राथमिकता में शुमार करना है. 

साल 2023 से 2025 के बीच दक्षिण-दक्षिण सहयोग से संबंधित IBSA साझेदारी केंद्र में आनी चाहिए. दरअसल, इस मियाद में G20 की अध्यक्षता क्रमश: भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ़्रीका के पास रहने वाली है. इससे दोनों मंचों में इस मसले पर साझा कार्यसूची तैयार करने की दुर्लभ संभावना मिल रही है. इस तरह कोविड-19 की आपदा को एक अवसर में बदला जा सकता है. ज़ाहिर है, ये पूरी क़वायद अल्पविकसित और विकासशील दुनिया (Global South) की मौजूदा और भावी चुनौतियों के लिहाज़ से ज़्यादा प्रासंगिक हो सकती है. भारत और दक्षिण अफ़्रीका तो पहले ही WTO में TRIPS पर छूट को लेकर साझा तौर पर आवाज़ उठा चुके हैं. राष्ट्रपति लूला डी सिल्वा की अगुवाई में उभरता ब्राज़ील भी लगभग निश्चित रूप से इन तीनों मंचों पर भावी क़वायदों का सक्रिय सह-प्रायोजक बनने की ओर आगे बढ़ेगा.

स्वास्थ्य सेवाओं में बराबरी से जुड़े कोविड-19 के एजेंडे में अल्पविकसित और विकासशील दुनिया को ठोस मदद मुहैया कराने के लिए शायद भारत के पास ही सबसे ज़्यादा औज़ार मौजूद हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी ढांचे में मौजूद कई ख़ामियों के बावजूद स्वास्थ्य सेवा से जुड़े तीन अहम क्षेत्रों में भारत अगुवा भूमिका निभाने के लिए मशहूर है.

इन तीनों मुल्कों में सबसे पहले भारत दिसंबर 2022 से G20 की अध्यक्षता संभाल रहा है, लिहाज़ा उसे इस मसले पर अगुवा भूमिका निभानी चाहिए. स्वास्थ्य सेवाओं में बराबरी से जुड़े कोविड-19 के एजेंडे में अल्पविकसित और विकासशील दुनिया को ठोस मदद मुहैया कराने के लिए शायद भारत के पास ही सबसे ज़्यादा औज़ार मौजूद हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी ढांचे में मौजूद कई ख़ामियों के बावजूद स्वास्थ्य सेवा से जुड़े तीन अहम क्षेत्रों में भारत अगुवा भूमिका निभाने के लिए मशहूर है. ये क्षेत्र हैं- सस्ती लागत वाली वैक्सीन टेक्नोलॉजी, स्वास्थ्य के मोर्चे पर बड़े पैमाने पर प्रभावी टीकाकरण मुहैया कराना और सस्ती लागत वाली जेनेरिक दवाओं का विनिर्माण. कोविड-19 संकट को लेकर वैश्विक प्रतिक्रिया में तीनों बातें प्रमाणित हुईं हैं और आज भी अहम बनी हुई हैं. डिजिटल और सूचना प्रौद्योगिकी (IT) के क्षेत्र में भारत की विशेषज्ञता का इस्तेमाल भी मददगार साबित हो सकता है. ये स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए नए सिरे से, ज़्यादा व्यवस्थित, निरंतर, क्रमिक स्वरूप वाला और अपनी क़वायदों का पैमाना बढ़ाने के हिसाब से मददगार तौर-तरीक़ा साबित होगा. भारत कोविड-19 टीकों को लेकर TRIPS में दी गई विस्तारित, और ज़्यादा समग्र छूट का प्रयोग कर दवाइयों, चिकित्सकीय उपायों और जांच-पड़ताल तकनीकों का निर्यात कर रहा है. ये क़वायद यहीं तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि इस कड़ी में इन सभी उत्पादों के लिए साझा विनिर्माण सुविधाओं की स्थापना की जानी चाहिए. इस सिलसिले में उपयुक्त स्थानीय कंपनियों या सरकारों द्वारा विचार, प्रौद्योगिकी, सरकारी सहायता वाली नीतियों, नवाचारों, प्रक्रियाओं और प्रणालियां को साझा किया जाना चाहिए. ये सारे उपाय इनकी कामयाबी में योगदान देते हैं और आगे चलकर ऐसी दूसरी क़वायदें भी शुरू की जा सकती हैं.

IBSA साझेदारी में इस क्षेत्र में तीन-वर्षीय साझा एजेंडा विकसित किया जाना चाहिए. इसे ठोस प्रस्तावों का रूप देकर भारी-भरकम वित्तीय पैकेज के ज़रिए आगे बढ़ाया जाना चाहिए. प्राथमिक रूप से IBSA कोष के ज़रिए ग्लोबल साउथ के लिए इसे आगे बढ़ाने की दरकार है. दक्षिण-दक्षिण सहयोग के लिए संयुक्त राष्ट्र की विशेष इकाई इस कोष का प्रबंधन करती है, जो UNDP के भीतर तैनात है. संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिक एजेंसियां (ख़ासतौर से UNDP और WHO) IBSA के दीर्घकालिक विश्वस्त साझेदार हैं. ऐसी एजेंसियां तटस्थ पक्षकारों की तरह इस अहम क़वायद की तामील करवा सकती हैं. 

भविष्य में बार-बार महामारियों की आमद से जुड़ी आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. ऐसे में WTO (और ख़ासतौर से उसकी TRIPS परिषद) को एक अहम मसले को ध्यान में रखना चाहिए, जो ज़्यादा व्यापक है और कोविड-19 में इसके प्रयोग से परे है.

भविष्य में बार-बार महामारियों की आमद से जुड़ी आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. ऐसे में WTO को एक अहम मसले को ध्यान में रखना चाहिए, जो ज़्यादा व्यापक है और कोविड-19 में इसके प्रयोग से परे है.

भविष्य में बार-बार महामारियों की आमद से जुड़ी आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. ऐसे में WTO (और ख़ासतौर से उसकी TRIPS परिषद) को एक अहम मसले को ध्यान में रखना चाहिए, जो ज़्यादा व्यापक है और कोविड-19 में इसके प्रयोग से परे है. वो मसला है- TRIPS को हटाकर होना वाला समझौता, जिससे पेटेंट कवरेज की मियाद और दायरे में भारी कमी आती है. दुनिया की विशाल बहुसंख्यक जनसंख्या (ख़ासतौर से कमज़ोर और निम्न-आय वाले देशों के लोगों) की ज़रूरतों के प्रति ऐसा रुख़ ज़्यादा जवाबदेह होगा.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.