Published on Jul 12, 2023 Updated 0 Hours ago
क्या भारत के बौद्धिक परिदृश्य में बदलाव उसके सफर को आकार देने में मदद करेगा?

भारत को लेकर उम्मीदें हर जगह हैंमशहूर कॉलमनिस्ट नोआ स्मिथ ने हाल ही में एक लेख में लिखा, “दुनिया के मंच पर भारत बड़े पैमाने पर उभर चुका है.” भारत में आश्चर्यजनक बदलाव की बात करने वाले स्मिथ अकेले व्यक्ति नहीं हैंएपल के CEO टिम कुक से लेकर नोमुरा जैसे ग्लोबल इन्वेस्टमेंट बैंक का भारत और उसकी अर्थव्यवस्था को लेकर बहुत ज्यादा उत्साह है

क्या इस उत्साह की जरूरत हैक्या आंकड़े उम्मीदों को सही ठहराते हैंभारत में निराशावादी लोग ये सवाल उठाते हैंवो कई तरह की स्थायी चुनौतियों जैसे कि शिक्षा के मामले में भारत के खराब रिकॉर्डतथाकथित बेरोजगारी की समस्या और अपेक्षाकृत कमजोर प्रदर्शन वाले दूसरे क्षेत्रों का जिक्र करते हैंवहीं उम्मीद रखने वाले लोग इन बातों का मुकाबला करने के लिए तेज रफ्तार से इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण और केंद्र सरकार के द्वारा पूंजीगत खर्च पर जोर– दोनों ही तेज विकास की पूर्व सूचना हैं– जैसे संकेतों को पेश करते हैंइसके अलावा वो चरम स्तर की गरीबी में कमीदूरदर्शी राजकोषीय प्रबंधन और अनुकूल डेमोग्राफी का भी उदाहरण देते हैं

आर्थिक आंकड़े आर्थिक गतिविधियों का संकेत देते हैं और इस गतिविधि का स्वरूप और सीमा काफी हद तक आर्थिक किरदारों के खुद को लेकर भरोसे, उनकी संपत्ति, उनके इर्द-गिर्द के साथ-साथ भविष्य से प्रभावित होती है.

ये बहस जोरदार और अनंत हैआखिरकारआर्थिक आंकड़े कितने भी महत्वपूर्ण क्यों  हो लेकिन वो कहानी के केवल एक हिस्से के बारे में बताते हैंआर्थिक आंकड़े आर्थिक गतिविधियों का संकेत देते हैं और इस गतिविधि का स्वरूप और सीमा काफी हद तक आर्थिक किरदारों के खुद को लेकर भरोसेउनकी संपत्तिउनके इर्दगिर्द के साथसाथ भविष्य से प्रभावित होती है. इस तरह आंकड़े खुद एक कमजोर संकेतक हैंजो चीज सबसे पहले आती है और मापने में मुश्किल की वजह से इस बहस में जो साफ तौर पर लापता हैवो है देश और उसकी अर्थव्यवस्था को लेकर सामान्य विश्वास और मौजूदा सोचलोगों की सोच में बुनियादी बदलाव को समझने के लिएजिसकी रफ्तार हाल के समय में तेज हुई हैकिसी को भारतीय शहरों के कुछ बाजारों के इर्दगिर्द केवल कुछ दिन घूमने की जरूरत हैभारत अतीत की बेड़ियों– कम उम्मीदों की हल्की जिद का अतीत– को तोड़ने के कगार पर है (अगर उसने पहले ही ऐसा नहीं किया है तो). इस बदलाव के बारे में बात करते हुए टाटा ग्रुप के चेयरमैन एनचंद्रशेखरनजो 120 अरब अमेरिकी डॉलर के विशाल टाटा ग्रुप के प्रमुख के तौर पर भारतीय कारोबार और आर्थिक परिदृश्य को अच्छी तरह समझते हैंने कहा, “जिस चीज में मूलभूत रूप से बदलाव हुआ है वो है हर भारतीय और हर नागरिक के भरोसे और उम्मीदों में बदलावहम इसे शहरों में महसूस कर सकते हैंहम इसे गांवों में समझ सकते हैंहम इसे गरीबों मेंअमीरों मेंशिक्षित लोगों मेंअशिक्षित लोगों में महसूस कर सकते हैंये हर जगह मौजूद है.”

आइडियाआइडियोलॉजीविश्वास और तकनीकी इनोवेशन पर उनका असर

आर्थिक इतिहासकारों ने लगातार विकास के दौर में देशों को प्रेरित करने में विचारों और विश्वास के महत्व के बारे में लिखा हैउदाहरण के तौर पर नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के मशहूर आर्थिक इतिहासकार जोएल मोकीर ने शुरुआती आधुनिक युग (लगभग 16वीं-19वीं शताब्दीमें विकास को लेकर कई किताबें लिखी हैंअपनी किताब दी इनलाइटेंड इकोनॉमी में वो उन कारणों की पड़ताल करते हैं जिनकी वजह से ग्रेट ब्रिटेन में 19वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति संभव हो पाईजैसा कि नाम से पता चलता हैमोकीर के लेख की मुख्य बात ये थी कि तकनीकी बदलाव से ज्यादा यूरोप के भीतर बौद्धिक कायापलट ने लंबे समय तक ज्यादा विकास का रास्ता तैयार कियाइनलाइटमेंट (ज्ञानोदयके बारे में बात करते हुए मोकीर कहते हैं,  

ये लंबे समय में अर्थव्यवस्था के विकास के लिए मायने क्यों रखता हैये एक आंदोलन था जिसका सामाजिक प्रगति और मानवता के सुधार में भरोसा थाये इस कारण पर आधारित है कि इस तरह का भरोसा कई मायनों में तकनीकी आधुनिकता और संस्थागत बदलावों– दोनों ढंग से जमीनी वास्तविक तथ्यों के साथ कई तरह से मेल खाता है.[1] 

वो कहते हैं

एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक विश्वास जो आर्थिक विकास को आगे ले जाता है और “तकनीक की अच्छाई” में भरोसे को बढ़ाता हैवो है प्रगति में विश्वास और विशेष रूप से आर्थिक प्रगति में विश्वास[2].

यानी भौतिक प्रगति की संभावना में विश्वास ने तकनीकी आधुनिकता के अच्छे सिलसिले का निर्माण किया जिससे भौतिक प्रगति हुई हैइस तरह उम्मीद बढ़ी जिसने और अधिक प्रगति को संभव बनाया

ऐसा विचार रखने वाले मोकीर अकेले विद्वान नहीं हैंअर्थशास्त्र और इतिहास की प्रतिष्ठित विद्वान डीर्डर मैक्लोस्की अपनी प्रसिद्ध किताब बॉर्जियस ट्रायलॉजी में इसी तरह की भावना को जाहिर करती हैंमैक्लोस्की जोर देकर बताती हैं कि किस तरह विचार (और उनमें बदलावऐतिहासिक तौर पर ब्रिटेन और पश्चिम यूरोप को काफी संपन्नता की ओर ले गए हैं

बात ये है कि विचार एवं विचारधारा और नैतिकता बदल गई हैलेकिन संस्थाएं नहींलेकिन मैं फिर  से दोहराती हूं कि ये सोचना पूरी तरह गलत है कि 1800 में ब्रिटेन के उद्यमियों (एंटरप्रेन्योरको जिन संस्थानों का सामना करना पड़ा वो 1685 में उनके द्वारा सामना किए गए संस्थानों से पूरी तरह से अलग थेलेकिन सम्मानजनकउचितसही सोच वाले लोगों के बीच अनुमति प्राप्त विचार बिल्कुल बदल गएआर्थिक बात ये है कि विचार मूलभूत तरीके से बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्था के तहत होते हैं और इसलिए गतिशील असर पैदा कर सकते हैं जो 30 या 100 के कारणों के बारे में बताने में सक्षम होते हैं लेकिन संस्थान अक्सर उतने गहरे रूढ़िवादी नहीं होते हैं और केवल स्थिर असर डालने में सक्षम होते हैं जिनका उत्साह कम होता है[3].

वैसे तो इस दृष्टिकोण को लेकर बहस हो सकती है कि 1685 और 1800 में संस्थान बहुत हद तक अलग नहीं थे लेकिन हम व्यापक तौर पर सोचते हैं कि ये कम महत्व की बात हैहमारे लिए काम की बात ये है कि इनोवेशन और समृद्धि के एक अच्छे दौर को पैदा करने में विचार और विश्वास बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं

समाज का विश्वास या जिन विचारों में उनका भरोसा है, उसे इच्छा के अनुसार नहीं बदला जा सकता. किसी समाज में मजबूती से स्थापित विश्वास में बदलाव उन विचारों से होता है जिनके बारे में लोगों को पता लगता है. 

लेकिन ये विश्वास कैसे आता है और उतनी ही महत्वपूर्ण बात ये है कि पहले से स्थापित विश्वास कैसे बदल जाता हैसमाज का विश्वास या जिन विचारों में उनका भरोसा हैउसे इच्छा के अनुसार नहीं बदला जा सकताकिसी समाज में मजबूती से स्थापित विश्वास में बदलाव उन विचारों से होता है जिनके बारे में लोगों को पता लगता है. इस संबंध में ये विचारों की एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा थी जो,  मोकीर के अनुसारभौतिक प्रगति की बुनियाद रखने वाले प्रमुख आर्थिक मुद्दों में से कुछ को लेकर ब्रिटेन के लोगों की सोच को तय करने के लिए जिम्मेदार थीवो कहते हैं, “ब्रिटेन का बौद्धिक क्षेत्र विचारों के लिए एक प्रतिस्पर्धी बाजार में बदल गया थाविचारों की जगह में मांग और आपूर्ति– दोनों पक्षों में आर्थिक कारण एक भूमिका निभाते हैं[4]

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भारत और विचारों पर चर्चा करने की उसकी जगह 

प्राचीन समय में भारत अपने तत्कालीन शास्त्र विरुद्ध चार्वाक विचारों से लेकर मुख्यधारा के वेदांत दर्शन तक तार्किक मामलों में अलगअलग विचारों का एक क्षेत्र थालेकिन स्वतंत्रता के बाद से ज्यादातर समय में विचारों के लिए जगह मौजूद नहीं थीकेंद्रीय योजना का विचारों में दबदबा था और आर्थिक विकास के दूसरे विचार एवं दर्शन हाशिये पर थे1991 के आर्थिक उदारीकरण ने घरेलू उद्योगों को प्रतिस्पर्धा के सामने ला तो दिया लेकिन विचारों के लिए जमीन लगभग बंजर बनी रहीइंटरनेट और उसके बाद सोशल मीडिया जैसे नये माध्यमों के उदय से एक बड़ा बदलाव संभव हुआ जिसने पुराने वितरण के एकाधिकार को खत्म कर दिया है और उन विचारों को व्यापक बना दिया है जिन तक भारत के लाखोंकरोड़ों लोगों की पहुंच है70 करोड़ से ज्यादा भारतीय अब सक्रिय तौर पर इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और 2025 तक ये आंकड़ा बढ़कर 90 करोड़ हो जाएगाखुद को जताने और बातचीत के नये तरीकों की वजह से बड़ी संख्या में भारतीयों को बाजार समर्थक विचारों का पता लगाइसके परिणामस्वरूप भारत एक बौद्धिक मंथन के दौर से गुजर रहा है और मौजूदा उल्लास आंशिक रूप से इस नियमित मुहिम की ऊंचाई है जो केवल कुछ दशक पहले ही शुरू हुई थी.  

इंटरनेट और सोशल मीडिया के असर से जानकारी हर किसी तक पहुंच रही है और प्रतिस्पर्धी विचारों की जगह का निर्माण हो रहा हैये असर ठीक उसी तरह है जिस तरह गुटेनबर्ग के द्वारा प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के बाद यूरोप विचारों के लिए अभूतपूर्व प्रतिस्पर्धा लाकर एक वैज्ञानिक क्रांति की तरफ बढ़ गया थालेकिन जैसा कि मैक्लोस्की कहती हैंये थमने वाला नहीं है,  

हैरानी की बात है कि उत्तरपश्चिमी यूरोप और बाद में दूसरी जगह घरेलू और विदेश व्यापार से परखी हुई बेहतरीन– वैज्ञानिककलात्मकखेलकूद से जुड़ीपत्रकारिता से संबंधित और साथ में राजनीतिक भी– को शानदार बहादुरी के तौर पर देखा जाने लगा[5].”

भारत ने अब खुद को सफलतापूर्वक इस व्यापार से परखी हुई बेहतरी के लिए सक्षम बना लिया हैतकनीक और संस्थानों के विकास में एक तेजी है जिसे सभी शामिल पक्षों के द्वारा स्वेच्छा से विचारों और पद्धतियों के आदानप्रदान के द्वारा परखा जाता हैनिम्नलिखित मामले पर विचार कीजिए

स्वतंत्रता के कुछ वर्षों के बाद जवाहरलाल नेहरू के द्वारा जेआरडी टाटा को कही गई ये बात मशहूर है, “मैं लाभ जैसे शब्द के जिक्र से नफरत करता हूं”. ये बात उन्होंने तब कही थी जब टाटा ने नेहरू से अनुरोध किया था कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को लाभ देने वाला बनाना चाहिए[6]. 80 के दशक में जब भारत के पास मोबाइल फोन का नेटवर्क तैनात करने का मौका था तो सैम पित्रोदा ने ये कहते हुए इस विचार को ठुकरा दिया कि, “लग्जरी कार फोन उस देश के लिए घिनौना है जहां लोग भूखे रहते हैं.” वो समय और अब जब लगभग विकसित देशों के साथ 5G तकनीक का इस्तेमाल देखा जा रहा हैभारत ने एक लंबा सफर तय किया हैदो विद्वानों हर्ष मधुसूदन और राजीव मंत्री के द्वारा सभ्यतागत (सिविलाइजेशनलस्थिति में लोगों के व्यक्तिगत अधिकारों को लेकर  न्यू आइडिया ऑफ इंडिया या जे साई दीपक की इंडिया दैट इज भारत जैसे किताबों की जबरदस्त सफलता के बारे में कुछ साल पहले तक सोचा भी नहीं जा सकता थाये साहित्यिक उपलब्धियां बौद्धिक संवाद और भारतीय विमर्श (नैरेटिवको फिर से परिभाषित करने के लिए बढ़ते उत्साह के बारे में बदलते परिदृश्य पर जोर देती हैं

भारत में विश्वास का कायापलट 

वैसे तो भारतीय विश्वास में कायापलट ने भारतीय जीवन के सभी पहलुओं को छुआ है लेकिन ये दो मोर्चों पर सबसे चमकीला दिखाई देता हैपहला है एंटरप्रेन्योरशिप में विश्वास– भौतिक जीवन को सुधारने में जोखिम लेना. UPI जैसी खोज के हर किसी तक पहुंचने और कम खर्चीलेहाईस्पीड इंटरनेट के साथ देश के दूरदराज के हिस्सों के लोग भी किसी प्रोडक्ट को बनाने और ग्राहकों तक पहुंचने का सपना देख सकते हैंइस तरह से लोगों को एक अनूठा समाधान मिलता है और उनके भौतिक जीवन में सुधार आता हैयही वजह है कि कुछ सर्वे बताते हैं कि ग्रामीण भारत में रहने वाले युवा एंटरप्रेन्योर बनने की चाहत रखते हैंइस पर हैरान नहीं होना चाहिएरिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने एक अरब लोगों को सस्ताहाईस्पीड इंटरनेट मुहैया कराकर भारत के डिजिटल भविष्य पर एक बड़ा दांव खेला और ये दांव सफल साबित हुआऐसा करके मुकेश अंबानी ने लाखोंकरोड़ों लोगों और व्यवसायों को अधिकार मुहैया कराया

दूसरा मोर्चा है दुनिया में भारत की स्थिति को लेकर मजबूत भरोसाभारत के विदेश मंत्री डॉएस जयशंकर ने जब कहा कि “यूरोप को इस सोच से बाहर निकलना होगा कि यूरोप की समस्या दुनिया की समस्या है लेकिन दुनिया की समस्या यूरोप की समस्या नहीं है” तो इससे भारत की स्थिति को लेकर आत्मविश्वास और भरोसे का पता चलाइस विश्वास के विरोधी देश में और देश के बाहर हो सकते हैंआलोचक विश्वास को “अति राष्ट्रवाद” के संकेत के तौर पर देख सकते हैं जैसा कि दूसरे विश्व युद्ध के पहले यूरोप में दिखा थाइस तरह का असमंजस एक आलसीऔपनिवेशिक सोच से पैदा होने की संभावना है जहां राष्ट्रवाद की केवल एक ही परिभाषा है– यूरोपीय परिभाषाये अति राष्ट्रवाद है या विश्वासइसका फैसला भारत के लोग करेंगे

नोबल पुरस्कार विजेता वी एस नायपॉलजो भारत को लेकर सबसे भविष्यदर्शी और अनुभवी ऑब्जर्वर में से एक हैंसंभवतपहले व्यक्ति हैं जिन्होंने बहुत पहले भारत के बौद्धिक कायापलट को दर्ज किया था. 1977 में लिखी गई अपनी दूसरी किताब इंडिया वुंडेड सिविलाइजेशन में उन्होंने गरीबी का गुणगान करने को लेकर भारतीय जुनून के बारे में लिखा था

श्रीमान नेहरू ने एक बार महसूस किया था कि भारत में एक खतरा ये है कि गरीबी को देवता माना जा सकता हैये गांधीवाद का असर थामहात्मा की सरलता गरीबी को पवित्रसभी सच्चाई का आधार और एक अनूठी भारतीय संपत्ति की तरह बनाती दिख रही थी.रही थी.[7]

 

लेकिन 80 के दशक के आखिर में नायपॉल का रवैया हल्का हो गयाशायद इसकी वजह ये थी कि भारत खुद को धीरेधीरे उसी तरह बदल रहा था जिसकी इच्छा नायपॉल ने 1962 में अपनी पहली भारतीय यात्रा के दौरान की थी और उस वक्त एन एरिया ऑफ डार्कनेस नाम की किताब लिखी थी. 1990 में अपनी किताब इंडिया मिलियन म्युटिनीज नाउ में उन्होंने लिखा

मैं अपनी हड्डियों में (भारत कीउस अपमानहार और शर्म का विचार लेकर आया थाये वो विचार था जो 1962 में ट्रेन और जहाज के जरिए उस धीमी यात्रा में लेकर भारत गया थाये मेरी नसों का स्रोत थाजो बात मैं 1962 में समझ नहीं पाया या जिसे मैंने बिल्कुल भी महत्व नहीं दियावो ये थी कि किस हद तक इस देश का फिर से निर्माण हुआ है या फिर वो सीमा जहां तक भारत ने खुद को फिर से स्थापित किया थाविद्रोह जिस चीज को परिभाषित करने में मदद कर रहा थावो थी सामान्य बौद्धिक जीवन की मजबूती और मूल्यों की संपूर्णता एवं मानवतावाद जिसके लिए हर भारतीय अब महसूस कर रहा था कि वो अपील कर सकता हैअजीब विडंबना थी कि विद्रोह को दूर नहीं किया जा सकता थावो लाखों लोगों के लिए नये रास्ते की शुरुआत का हिस्सा थाभारत के विकास का हिस्सा थाउसके फिर से स्थापित होने का हिस्सा था[8].

33 साल बाद दूसरे विद्रोहों पर जीत हासिल करने के बाद और पुराने स्वभाव के कुछ नये विद्रोहों का सामना करने के बाद भारत लगातार बढ़ रहा हैलेकिन बदलाव पूरा महसूस होता हैजैसे कि सभी अराजकताओं के बीचफिर से स्थापित होने के पीछे एक केंद्रीय विषय था. काफी उथलपुथल के समय में रहते हुए परिवर्तन के पैमाने को भूल जाना आसान हैलेकिन यही समय की सुंदरता हैये पीछे मुड़कर देखनेविचार करने और हैरान होने का मौका देता है कि ये कितना बड़ा बदलाव रहा है.

33 साल बाद दूसरे विद्रोहों पर जीत हासिल करने के बाद और पुराने स्वभाव के कुछ नये विद्रोहों का सामना करने के बाद भारत लगातार बढ़ रहा है. लेकिन बदलाव पूरा महसूस होता है, जैसे कि सभी अराजकताओं के बीच, फिर से स्थापित होने के पीछे एक केंद्रीय विषय था.

इस बड़े बदलाव का कारण क्या हैये एक ऐसा सवाल है जिसका आसानी से उत्तर नहीं दिया जा सकताबेशक आर्थिक उदारीकरण और इंटरनेट से प्रेरित बौद्धिक कायापलट की एक बड़ी भूमिका रही हैइसके साथसाथ भारत के राजनीतिक नेताओं के एक हिस्से ने बाजार समर्थक उदारीकरण के विचार का बढ़चढ़कर पक्ष लियाकॉर्नेल यूनिवर्सिटी के कौशिक बसुजो मनमोहन सिंह सरकार के दौरान भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे हैंअपनी किताब  रिपब्लिक ऑफ बिलीफ्स में दलील देते हैं कि राजनेता ये निर्धारित करने में केंद्र बिंदु के तौर पर काम करते हैं कि क्या नियम समाज में प्रचलित हो जाते हैं और ये कानूनों की सफलता या असफलता पर असर डालते हैंवो कहते हैं:

ये हमें एक दिलचस्प एहसास की ओर ले जाता है और हमें समझ में आता है कि क्यों कानून के ऊपर हमें एक नेता को साफ तौर पर सामने रखने की जरूरत पड़ सकती हैएक नेता साधारण रूप से एक केंद्रीय किरदार है जो समूह को एक निश्चित नतीजे के लिए निर्देशित करता है जब उसे लगता है कि जो खेल वो खेल रहे हैं वो साफ हैइसके लिए वो लोगों को खास तरीके से व्यवहार करने को कहता है

निस्संदेहइस बदलाव में राजनीतिक नेतृत्व के असर की सीमा और दिशा पर बहस हो सकती हैइससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि ये सवाल हमारे मुख्य बिंदु के लिए कम महत्व का हैएकमात्र सवाल है कि क्या ये उन्माद हमें आत्मसंतुष्टि के दौर की ओर ले जाएगाये ऐसा सवाल है जिसका जवाब सिर्फ समय ही देगालेकिन अगर उम्मीदों का एक हिस्सा इसे संभव बना सकता है तो क्यों नहीं?


आदित्य कुवालेकर UK की यूनिवर्सिटी ऑफ एसेक्स में इकोनॉमिक्स में फैकल्टी हैंवो माइक्रो इकोनॉमिक्स पर काम करते हैं

किशन शास्त्री UK की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स में PhD कैंडिडेट हैंवो इंस्टीट्यूशनल इकोनॉमिक्स के विषय पर काम करते हैं

दोनों लेखक इस लेख के लिए जानकारी देने वाले राजीव मंत्री का शुक्रिया अदा करना चाहते हैं.


[1] Joel Mokyr, The Enlightened Economy: Britain and the Industrial Revolution (London: Penguin, 2011), 33.

[2] Joel Mokyr, A Culture of Growth: The Origins of the Modern Economy (Princeton, NJ: Princeton University Press, 2018), 19.

[3] Deirdre N. McCloskey, “Because Ethics Matters, and Changes, More,” essay, in Bourgeois Equality: How Ideas, Not Capital or Institutions, Enriched the World (Chicago: The University of Chicago Press, 2017), 145.

[4] Mokyr, The Enlightened Economy, 31.

[5] Deirdre McCloskey, Bourgeois Equality, p.34 Exordium

[6] This except is from an interview of J.R.D Tata. R M Lala, Beyond the Last Blue Mountain (Penguin India, 1992), 367.

[7] V. S. Naipaul, India: A Wounded Civilization (London: Deutsch, 1978).

[8] V. S. Naipaul, India: A Million Mutinies Now (London: Heinemann, 1990)

[9] Kaushik Basu, The Republic of Beliefs: A New Approach to Law and Economics (Princeton: Princeton University Press, 2020).

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