G20 19 देशों और यूरोपीय संघ की सदस्यता वाला एक अनौपचारिक संगठन है, जो सितंबर 1999 में वित्त मंत्रियों के स्तर पर अस्तित्व में आया था. हालांकि 2008 में G20 राज्य प्रमुखों के स्तर का संगठन बन गया. दुनिया में तेज़ी से बदलती आर्थिक स्थितियों को देखते हुए G20 में G7 भी समाहित हो गया और उससे बड़ी जगह ले ली. आज G20 के सम्मेलन से पहले होने वाली बैठकों में संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय मज़दूर संगठन, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) और विश्व व्यापार संगठन (WTO) और वित्तीय स्थिरता परिषद को भी बुलाया जाता है. इसके अलावा, G20 के झंडे तले नागरिक संगठन, थिंक टैंक, श्रमिक और कारोबारियों के समूह जैसे कि C20, T20, L20 और B20 के रूप में अपनी अलग समानांतर बैठकें करते हैं.
पिछले कुछ महीनों से G20 की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए जा रहे हैं, क्योंकि ये समूह अपने अंदरूनी संकटों का सामना कर रहा है. अपनी तरफ़ से जारी होने वाले बयानों पर G20 आपस में सहमति नहीं बना पा रहा है.
भले ही G20 का स्वरूप सलाह देने वाला हो, लेकिन 21वीं सदी में इसकी अहमियत और इसके फ़ैसलों का असर बहुत बढ़ गया है. आज दुनिया के आर्थिक प्रशासन के मामलों में G20 को वही हैसियत हासिल है, जो विश्व शांति और सुरक्षा के मामले में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की है.
संकट में है G20
पिछले कुछ महीनों से G20 की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए जा रहे हैं, क्योंकि ये समूह अपने अंदरूनी संकटों का सामना कर रहा है. अपनी तरफ़ से जारी होने वाले बयानों पर G20 आपस में सहमति नहीं बना पा रहा है. इसका असर G20 के काम करने और इसके एजेंडे को व्यापक बनाने की कोशिशों पर पड़ रहा है. अब जबकि दिसंबर 2022 में G20 की अध्यक्षता भारत को मिलने वाली है, तो उसके सामने नेतृत्व का अनूठा अवसर खड़ा है. इसका फ़ायदा उठाकर भारत आज G20 के सामने खड़ी कुछ बेहद अहम चुनौतियों का नया समाधान सुझाने की स्थिति में होगा.
हालांकि, G20 की चुनौतियां बहुत बड़ी हैं. मौजूदा दुविधाओं को देखकर अंदाज़ा लगता है कि G20 को तुरंत ही अंदरूनी प्रशासन के सुधार करने होंगे. क्योंकि इनका असर ही ये तय करेगा कि क्या G20 उन वैश्विक आर्थिक और वित्तीय चुनौतियों से पार पाने वाले समाधान सुझा पाएगा, जिनसे निपटने के लिए उसका गठन हुआ था. अगर ऐसा होता है, तो विश्व व्यवस्था में G20 की भूमिका विश्वसनीय और प्रासंगिक बनी रहेगी. इसके लिए G20 को दुनिया के सामने खड़ी कई अहम और आपातकालीन चुनौतियों से निपटने के लिए आपसी सहमति न बना पाने की हालिया नाकामी से पार पाना ही होगा.
आज G20 को जिन पांच बड़ी व्यापक चुनौतियों से पार पाना है उनमें मध्यम और कम आमदनी वाले देशों पर क़र्ज़ के बढ़ता बोझ को कम करना; जलवायु परिवर्तन में तुलनात्मक, ऐतिहासिक और लंबे समय से ज़्यादा योगदान देने वाले अमीर देशों द्वारा ख़ुद किए गए वादे के मुताबिक़, विकासशील देशों को आर्थिक मदद देने में नाकाम रहना; हरित ऊर्जा की ओर परिवर्तन की राह में आने वाली वित्तीय और अन्य चुनौतियों से पार पाना; विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में उचित सुधार लाना; और विश्व की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना शामिल है.
G20 के सदस्यों में अफ्रीकी संघ जैसे संगठनों को भी शामिल किया जाना चाहिए, जिन्हें फिलहाल पर्यवेक्षक का ही दर्जा हासिल है. ऐसे समूह और उनके सदस्य देशों के पास वैश्विक आर्थिक प्रशासनिक ढांचे में अपनी बात कहने का कोई मंच नहीं होता है.
सितंबर 2022 में बाली में हुए सम्मेलन के बाद G20 देशों द्वारा एक साझा बयान जारी करने पर सहमत होने में नाकामी ने 2015 में पेरिस और 2021 में ग्लासगो में हुए जलवायु सम्मेलनों में वित्त उपलब्ध कराने के लिए किए गए वादों से पीछे हटने की चिंताएं भी खड़ी कर दी हैं.
अंदरूनी प्रशासन की चुनौतियां
-सबको शामिल करना: हालांकि G20 की परिकल्पना, G7 से ज़्यादा समावेशी समूह के रूप में की गई थी. लेकिन अभी भी इसमें सभी क्षेत्रों और वर्गों को पर्याप्त रूप से शामिल नहीं किया गया है. वैसे तो G20 का सदस्य बनने का कोई औपचारिक पैमाना नहीं है. लेकिन इसके सदस्य बनने की बुनियादी शर्त उस देश की वैश्विक वित्तीय बाज़ार में संस्थागत अहमियत और दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) और विश्व व्यापार में उसकी हिस्सेदारी पर निर्भर होती है. G20 के मौजूदा सदस्य देशों की कुल GDP मिलकर दुनिया की 80 फ़ीसद से अधिक है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार में इन देशों की हिस्सेदारी 75 प्रतिशत और आबादी में 60 फ़ीसद है. इन पैमानों का दायरा बढ़ाने की ज़रूरत है, ताकि संयुक्त राष्ट्र से मान्यता प्राप्त बड़े समूहों जैसे कि सबसे कम विकसित देशों (LDCs), और छोटे द्वीपीय विकासशील देशों (SIDS) को शामिल किया जाना चाहिए. क्योंकि दुनिया के वित्ती प्रशासन में होने वाले बदलावों और फ़ैसलों का सबसे बुरा असर इन्हीं देशों पर पड़ता है. G20 के सदस्यों में अफ्रीकी संघ जैसे संगठनों को भी शामिल किया जाना चाहिए, जिन्हें फिलहाल पर्यवेक्षक का ही दर्जा हासिल है. ऐसे समूह और उनके सदस्य देशों के पास वैश्विक आर्थिक प्रशासनिक ढांचे में अपनी बात कहने का कोई मंच नहीं होता है. हालांकि इससे जुड़े फ़ैसलों, चुनौतियों और गतिविधियों का इन देशों पर भी गहरा असर पड़ता है. जबकि ऐसे हालात से जुड़ी परिस्थितियां बनाने में इन संगठनों की कोई भूमिका भी नहीं होती. इसके अलावा G20 में V20 जैसे उन देशों को भी कम से कम पर्यवेक्षक की भूमिका दी जानी चाहिए, जिन पर G20 देशों द्वारा लिए गए फ़ैसलों का सीधा असर पड़ता है. इन देशों को तब तक पर्यवेक्षक बनाए रखा जाना चाहिए, जब तक उनकी चिंताएं वैश्विक आर्थिक प्रशासन के एजेंडे में अहम बनी रहती हैं.
विश्व बैंक द्वारा क़र्ज़ के भारी बोझ तले दबे देशों (HIPC) की मदद के लिए पहले लाई गई योजना के उलट, मौजूदा क़र्ज़ में निजी कर्ज़दाताओं की हिस्सेदारी काफ़ी अधिक है और उन्हें भागीदार बनाए बग़ैर, इस समस्या का कोई ठोस समाधान नहीं निकाला जा सकता है.
-एक आचार संहिता बने: यूक्रेन पर रूस के हमले ने G20 के सदस्य देशों के लिए एक आचार संहिता की ज़रूरत को बेहद ज़रूरी बना दिया है. ये आचार संहिता ऐसी होनी चाहिए, जिनके ख़िलाफ़ जाने वाले देश पर लागू होने वाले नियम बिल्कुल स्पष्ट होने चाहिए. यूक्रेन युद्ध के चलते कोई बयान जारी करने के लिए आपसी सहमति के न बन पाने की हालिया घटना इस बात की स्पष्ट मिसाल है कि आज G20 अपने अंदरूनी प्रशासन के मामले में किन चुनौतियों से जूझ रहा है. ख़ास तौर से तब और जब एक वैश्विक नेतृत्व की पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरत है. वैसे तो G20 और OECD के कॉरपोरेट प्रशासन से जुड़े सिद्धांत 2023 तक तैयार होने की संभावना है. लेकिन, G20 को तुरंत ही अपने अंदर झांकने की ज़रूरत है, जिससे वो अपने सदस्य देशों के बर्ताव के लिए आपसी सहमति से जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी एक आचार संहिता लागू कर ले.
G20 के अनसुलझे व्यापक वैश्विक एजेंडे के अहम पहलू
दुनिया के व्यापक एजेंडे में बढ़ता और बर्दाश्त न किया जाने वाला क़र्ज़ का बोझ; जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ज़रूरी पूंजी की कमी; स्वच्छ ऊर्जा की ओर परिवर्तन की राह में खड़ी कई चुनौतियां; और, वैश्विक खाद्य सुरक्षा की चुनौतियां शामिल हैं. इनमें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में ज़रूरी सुधार करना और जलवायु परिवर्तन से निपटने और हरित ऊर्जा परिवर्तन के लिए उठाए जा रहे क़दमें की कामयाबी सुनिश्चित करना भी शामिल है.
-क़र्ज़ पर: कोविड-19 महामारी की चुनौतियों से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने डेट सर्विस सस्पेंशन इनिशिएटिव (DSS) की शुरुआत की थी. जो क़र्ज़ की समस्या के लिए पर्याप्त नहीं है. ये सुविधा पाने के योग्य 78 में से 43 देश ही इस योजना में शामिल हुए. जिन्होंने कुल 12.9 अरब डॉलर के क़र्ज़ को चुकाने में मिलाकर मई 2020 से दिसंबर 2021 के बीच की रियायत दी. G20 द्वारा निजी क़र्ज़दाताओं से भी इस योजना में शामिल होने की अपील की गई थी. लेकिन केवल एक निजी क़र्ज़दाता इस योजना का हिस्सा बना. इस योजना में निजी क़र्ज़दाताओं को सकारात्मक रूप से भागीदार बनाने के लिए उचित प्रोत्साहन और दंड की व्यवस्था करने की ज़रूरत है. ये बहुत ज़रूरी है क्योंकि विश्व बैंक द्वारा क़र्ज़ के भारी बोझ तले दबे देशों (HIPC) की मदद के लिए पहले लाई गई योजना के उलट, मौजूदा क़र्ज़ में निजी कर्ज़दाताओं की हिस्सेदारी काफ़ी अधिक है और उन्हें भागीदार बनाए बग़ैर, इस समस्या का कोई ठोस समाधान नहीं निकाला जा सकता है.
G20 को चाहिए कि वो V20 देशों से भी सीधे संवाद करे और उनकी चिंताएं समझकर समाधान सुझाए. ख़ास तौर से तब और जब वो क़र्ज़ अदायगी में वास्तविक रियायत को जलवायु परिवर्तन का असर कम करने और उसके हिसाब से ढलने से जुड़ी पूंजी की मदद को आपस में जोड़ने को तैयार हैं.
आज अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में सुधार की सख़्त ज़रूरत है, ताकि देशों को कर्ज़ के मौजूदा संकट से असरदार तरीक़े से निपटने में मदद की जा सके. G20 ये सुधार कर पाने के लिए मज़बूत स्थिति में है. इस मामले में आज ज़रूरत IMF द्वारा लगाए जाने वाले उस सरचार्ज को तुरंत ख़त्म करने की है, जो अधिक क़र्ज़ लेने वाले देशों द्वारा तय समय पर लोन न चुकाने पर लगाया जाता है. जबकि ये देश पहले ही क़र्ज़ के बोझ तले दबे होते हैं और ये सरचार्ज चुकाने की हैसियत नहीं रखते.
– जलवायु परिवर्तन से जुड़ा वित्तीय सहयोग: इस साल मिस्र में होने वाले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP27) को G20 की ओर से ये साफ़, मज़बूत और सकारात्मक संदेश देने की ज़रूरत है कि वो 2015 के पेरिस समझौते 2021 के ग्लासगो जलवायु सम्मेलन (COP26) में किए गए वादों को पूरा करने के प्रति वचनबद्ध है.
-स्वच्छ ईंधन की दिशा में परिवर्तन: G20 को ये सुनिश्चित करना होगा कि IMF, जीवाश्म ईंधन की खपत कम होने से विकासशील देशों की आमदनी में होने वाली कमी की निगरानी करे. तभी इन देशों को हरित ऊर्जा परिवर्तन करने के लिए ज़रूरी मदद दी जा सकेगी और इन देशों को स्वच्छ ईंधन पर आधारित अर्थव्यवस्था के लाभ उठाने में सहयोग दिया जा सकेगा.
भारत की 2023 की अध्यक्षता
भारत को इंडोनेशिया से G20 की अध्यक्षता का कांटों भरा ताज मिलने वाला है. इसमें यूक्रेन पर रूस के हमले के चलते एक बुनियादी साझा बयान जारी करने को लेकर सहमति बनाने में नाकामी भी शामिल है. इस वजह से भारत को भयंकर भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक संकटों के मोड़ पर खड़ी दुनिया को एक वैश्विक नेतृत्व देने का मौक़ा मिलेगा. भारत से ये उम्मीद की जाएगी कि वो G20 की अंदरूनी प्रशासन और इंडोनेशिया से विरासत में मिले व्यापक एजेंडे से जुड़ी चुनौतियों का साहसिक और नया समाधान सुझा सकेगा. इसके अलावा भारत से ये अपेक्षा भी रहेगी कि वो उभरते हुए वैश्विक महौल में प्रासंगिक साबित हो रही अपनी ताक़त की नुमाइश करे.
.भारत को दुनिया को ये भी दिखाना चाहिए कि डिजिटल और सूचना प्रौद्योगिकी के मामले में उसका नेतृत्व दुनिया को वैश्विक खाद्य सुरक्षा और उसके सामने खड़ी अन्य भयंकर वैश्विक आर्थिक प्रशासन की चुनौतियों का समाधान दे सकता है
कोविड-19, जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां और स्वच्छ ईंधन की ओर बदलाव की सख़्त ज़रूरत के मामले में भारत को चाहिए कि वो कम लागत में वैक्सीन बनाने की तकनीक, बड़े पैमाने पर लोगों के असरदार टीकाकरण, जेनेरिक दवाएं बनाने के बड़े उद्योग और सौर ऊर्जा से जुड़ी क्षमताओं का प्रदर्शन करे. भारत को दुनिया को ये भी दिखाना चाहिए कि डिजिटल और सूचना प्रौद्योगिकी के मामले में उसका नेतृत्व दुनिया को वैश्विक खाद्य सुरक्षा और उसके सामने खड़ी अन्य भयंकर वैश्विक आर्थिक प्रशासन की चुनौतियों का समाधान दे सकता है.
भारत को इन योगदानों को ठोस प्रस्तावों की शक्ल में दुनिया के सामने रखना होगा. इसमें विकासशील देशों की मदद के लिए एक व्यापक आर्थिक पैकेज को भी शामिल करना चाहिए. ये आर्थिक पैकेज G20 ही नहीं बल्कि IBSA के मंच के ज़रिए भी मुहैया कराया जाना चाहिए. इसके दो अहम कारण हैं. पहला तो ये कि मौजूदा वैश्विक हालात के चलते अभी तो ब्रिक्स (BRICS) कोई भरोसेमंद या आपसी तालमेल वाला सामूह नहीं रह गया है. ख़ास तौर से यूक्रेन में रूस के युद्ध और चीन के इरादों को लेकर क्षेत्रीय और वैश्विक चिंताओं को देखते हुए तो ये और भी मुमकिन नहीं है. दूसरा ये कि चूंकि ये दुनिया के लिए बेहद अहम मोड़ है, जब IBSA की स्थापना करने वाले तीन बड़े विकासशील देश- एक के बाद एक G20 की अध्यक्षता करेंगे- 2023 में भारत, 2024 में ब्राज़ील, और 2025 में दक्षिण अफ्रीका. ऐसे में भारत के पास वो दुर्लभ मौक़ा है जब वो G20 और IBSA के लिए एक साझा एजेंडे की अगुवाई करे. भारत को चाहिए कि वो इस मौक़े को लपक ले और तेज़ी से ऐसे निर्णायक क़दम उठाए जिससे उसकी अध्यक्षता के दौर को कामयाबी के तौर पर गिना जा सके.
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