Author : Nilanjan Ghosh

Published on May 12, 2021 Updated 0 Hours ago

इस लेख में साफ़ तौर पर सदियों पुराने संरक्षण और विकास के बीच संघर्ष को सामने रखा गया है जिसकी वजह से अक्सर अलग-अलग देशों में नीति निर्माण में दिक़्क़त आती है.

विश्व बैंक को ईज़ ऑफ़ डुइंग बीजिंग रैंकिंग क्यों नहीं करनी चाहिए?

पिछले दिनों एक लेख में फ्लोरा सोनकिन और भूमिका मुछाला ने विश्व बैंक के डूइंग बिज़नेस रैंकिंग की तीखी आलोचना की. उनका लेख साफ़ तौर पर इस संस्था के दो चेहरों को दिखाता है. एक तरफ़ तो विश्व बैंक कोविड-19 या “असमानता की महामारी” से निपटने के लिए “हरित, समावेशी और लचीले विकास” की बात करता है और दूसरी तरफ़ कहता है “पक्षपातपूर्ण नीतिगत निर्देश विकासशील देशों में महामारी से उबरने की कोशिशों में बाधा डालते हैं और भविष्य के संकटों से उबरने में उनकी क्षमता को सीमित करते हैं.” वास्तव में सोनकिन और मुछाला के इस लेख में साफ़ तौर पर सदियों पुराने संरक्षण और विकास के बीच संघर्ष को सामने रखा गया है जिसकी वजह से अक्सर अलग-अलग देशों में नीति निर्माण में दिक़्क़त आती है.  

वास्तव में सोनकिन और मुछाला के इस लेख में साफ़ तौर पर सदियों पुराने संरक्षण और विकास के बीच संघर्ष को सामने रखा गया है जिसकी वजह से अक्सर अलग-अलग देशों में नीति निर्माण में दिक़्क़त आती है.  

2004 में पहली बार विश्व बैंक के सालाना डूइंग बिज़नेस रैंकिंग के प्रकाशन के बाद ये दुनिया भर में राजनीतिक व्यवस्थाओं और नीति निर्माताओं के लिए रिपोर्ट कार्ड की तरह समझा जाने लगा है. इस रैंकिंग में दुनिया भर की क़रीब 190 अर्थव्यवस्थाओं के बारे में बताया जाता है कि वहां कितनी आसानी और सहजता से कोई कारोबार शुरू किया जा सकता है. साफ़ तौर पर कम रेगुलेटरी पाबंदी (सामाजिक सुरक्षा, पर्यावरण, इत्यादि) वाले देश इस रैंकिंग में अच्छा स्कोर लाते हैं और इस तरह विदेशी निवेशकों को आकर्षित करते हैं. सोनकिन और मुछाला के मुताबिक़ इस रैंकिंग की बुनियाद दो पूर्वधारणाएं लगती हैं. पहली पूर्वधारणा है कि विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) की वजह से विकास होगा. दूसरी पूर्वधारणा ये है कि विकास का असर निचले स्तर तक होगा जिसकी वजह से ग़रीबी दूर होगी. अनुभवों के आधार पर जहां पहली पूर्वधारणा का निश्चित तौर पर पर्याप्त आधार है, वहीं दूसरी पूर्वधारणा दो आधार पर साफ़ तौर पर खारिज हो जाती है: 1. विकास की सोच का नया दृष्टिकोण जो विकास को समानता और वितरण से अलग करता है, 2. अनुभव के आधार पर, ख़ास तौर पर कम विकासशील देशों का तजुर्बा. ये बेहद हैरानी की बात है कि विश्व बैंक जैसा संस्थान किसी सिद्धांत को ऐसी पूर्वधारणा के आधार पर तय करता है जिसकी निरर्थकता क़रीब आधी सदी पहले साबित हो चुकी है. 

सोनकिन और मुछाला लिखती हैं “डूइंग बिज़नेस इंडेक्स के साथ विश्व बैंक ने ख़ुद को वैश्विक बेंचमार्क और निवेशक के लिए दोस्ताना नीतिगत सुधार की कवायद में रेफरी और नियम बनाने वाला- दोनों बना लिया. सरकारें विश्व को संकेत देना चाहती हैं कि वो अंतर्राष्ट्रीय कारोबार के लिए खुली हैं, लाल फीता शाही ख़त्म करने के लिए दौड़ में हैं और बैंक की “टॉप 10 सुधारकों” की सूची में आना चाहती हैं. लेकिन इस दौड़ की वजह से कामगारों और पर्यावरणीय संरक्षण को नुक़सान होता है. विकासशील देशों में रिपोर्ट की सिफ़ारिशों का नीति बनाने पर ठोस असर होता है.” भारत समेत कई विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का उदाहरण देते हुए सोनकिन और मुछाला ने स्पष्ट रूप से ज़िक्र किया “डूइंग बिज़नेस रिपोर्ट सामाजिक कल्याण और पर्यावरणीय सुरक्षा को हतोत्साहित करता है.” इन सभी बातों को मिलाकर ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि डूइंग बिज़नेस रिपोर्ट अलग-अलग देशों को विकास का बेहद आसान आधार अपनाने के लिए कहता है. इसकी वजह से विकासशील देश कारोबार के बारे में पूरी तरह से किराया वसूली के दृष्टिकोण से सोचते हैं और ये “कल्याणकारी देश” की सोच के पूरी तरह ख़िलाफ़ है. महामारी के शिकार विश्व के लिए ऐसी सोच की ज़रूरत नहीं है. 

ये बेहद हैरानी की बात है कि विश्व बैंक जैसा संस्थान किसी सिद्धांत को ऐसी पूर्वधारणा के आधार पर तय करता है जिसकी निरर्थकता क़रीब आधी सदी पहले साबित हो चुकी है. 

इससे भी आगे बढ़कर, क्या कारोबार व्यापक सामाजिक और पर्यावरणीय चिंताओं के बिना कामयाब हो सकते हैं? इसका जवाब है बिल्कुल नहीं. ये पोर्टर और क्रैमर की क्रिएटिंग शेयर्ड वैल्यू (सीएसवी) के सिद्धांत में दिखाई देता है. इस सिद्धांत के मुताबिक़ कंपनियां कारोबार और समाज को एक साथ लाने के लिए इस तरीक़े से आर्थिक मूल्य उत्पन्न करें जो समाज के लिए भी मूल्य का निर्माण करे. इसके लिए समाज की चुनौतियों का समाधान करना होगा. शेयर्ड वैल्यू दृष्टिकोण कंपनियों की सफलता को सामाजिक प्रगति के साथ जोड़ता है. इसमें कंपनियों की दीर्घकालीन लाभ-हानि की चिंताएं भी शामिल हैं. 

भारत का मामला: एक पीड़ित या दोषी

एक के बाद एक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकारों ने भारतीय राज्यों के बीच “प्रतिस्पर्धी संघवाद” को बढ़ावा दिया. इसका मक़सद साफ़ तौर पर विश्व बैंक की ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस (ईओडीबी) की रैंकिंग में भारत के रैंक को सुधारना है. 2014 में प्रधानमंत्री कार्यालय से सुधार के लिए 98 क़दमों की शुरुआती सिफ़ारिशें की गई थीं. ये सिफ़ारिशें विश्व बैंक की डूइंग बिज़नेस रिपोर्ट द्वारा निगरानी किए जाने वाले 10 कारोबारी विषयों पर आधारित थीं. बाद में इन सिफ़ारिशों की संख्या बढ़ाकर 340 कर दी गई जो भारतीय राज्यों के लिए बिज़नेस रिफॉर्म एक्शन प्लान (बीआरएपी) बन गया. इसको “किसी कारोबार के पूरे जीवन चक्र को शामिल करने वाले 10 सुधार के क्षेत्रों की 58 रेगुलेटरी प्रक्रिया” से सरोकार रखने वाला समझा गया.

इसके ख़िलाफ़ साफ़ तौर पर दो चिंताएं हैं. पहली चिंता ये है कि इस तरह के सूचक न तो शासन व्यवस्था के दृष्टिकोण से कारोबार करने के लिए “लेनदेन की लागत” कम करने को  कहते हैं, न ही कारोबार करने की ज़मीनी स्थिति के बारे में पूरी तरह से बताते हैं. नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के एशिया कंपीटिटिवनेस इंस्टीट्यूट (एसीआई) के द्वारा हाल के प्रकाशन में भी ये बताया गया है. दूसरी चिंता ये है कि इस तरह की स्थिति निवेशकों को आकर्षित करने के हिसाब से संपूर्ण कारोबारी माहौल के बारे में पूरी तरह से नहीं बताती हैं. आम तौर पर कारोबारी माहौल पर ज़बरदस्त असर रखने वाले इतिहास और राजनीतिक स्थिति के बारे में कोई सोच-विचार नहीं किया गया है. उदाहरण के लिए, भारत में राज्य के स्तर पर देखें तो पश्चिम बंगाल में 34 साल के वाम मोर्चा के शासन में जो प्रतिकूल कारोबारी माहौल था, उसकी वजह से पश्चिम बंगाल पीछे रह गया. हालांकि वाम मोर्चा शासन के आख़िरी कुछ वर्षों में तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य ने सुधार की कोशिश की लेकिन इसका असर नहीं दिखा. बीआरएपी लागू करने में वर्तमान पश्चिम बंगाल सरकार के प्रदर्शन के बावजूद स्थिति में बहुत ज़्यादा सुधार नहीं आया है. दूसरी तरफ़ ओडिशा में कठोर प्राकृतिक हालात और कुछ क्षेत्रों में माओवादी ख़तरे के बावजूद स्थिर राज्य सरकार निजी निवेश आकर्षित करने में सफल रही है और इस तरह ओडिशा में अल्पविकसित ज़िलों को विकास के इंजन में बदल दिया गया है. 

 2014 में प्रधानमंत्री कार्यालय से सुधार के लिए 98 क़दमों की शुरुआती सिफ़ारिशें की गई थीं. ये सिफ़ारिशें विश्व बैंक की डूइंग बिज़नेस रिपोर्ट द्वारा निगरानी किए जाने वाले 10 कारोबारी विषयों पर आधारित थीं. बाद में इन सिफ़ारिशों की संख्या बढ़ाकर 340 कर दी गई जो भारतीय राज्यों के लिए बिज़नेस रिफॉर्म एक्शन प्लान (बीआरएपी) बन गया.

इन चीज़ों को देखते हुए नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर का एशियन कंपीटिटिवनेस इंस्टीट्यूट तीन व्यापक मापदंडों- निवेशकों को आकर्षण, कारोबार के लिए दोस्ताना माहौल और प्रतिस्पर्धी नीति- के आधार पर अपनी अलग ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस की रैंकिंग लेकर आया है. ये निश्चित रूप से विश्व बैंक की रैंकिंग के मुक़ाबले बहुत ज़रूरी सुधार है!

ओआरएफ की एक रिसर्च से पता चलता है कि कारोबारी प्रतिस्पर्धा और निवेश के प्रवाह का सीधा शिकार टिकाऊ विकास लक्ष्य (एसडीजी) है. वास्तव में एसडीजी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के द्वारा स्थापित “समावेशी धन” के विचार में काफ़ी हद तक समाहित है. समावेशी धन के ज़रिए ये पता लगाया जाता है कि कोई समाज टिकाऊ विकास के रास्ते पर है कि नहीं. समावेशी धन का मतलब होता है सभी पूंजीगत संपत्ति यानी उत्पादित या भौतिक पूंजी, मानवीय पूंजी, प्राकृतिक पूंजी और सामाजिक पूंजी का कुल मूल्य. इसको एक गतिशील विचार के तौर पर समझने की ज़रूरत है जहां समावेशी धन में बढ़ोतरी भविष्य में जीवन के बेहतर स्टैंडर्ड का समर्थन करने के लिए ज़्यादा सामाजिक-पर्यावरणीय क्षमता का संकेत देती है. 2018 में 140 देशों के समावेशी धन की रिपोर्ट के मुताबिक़ 135 देशों में 1990 के मुक़ाबले 2014 में समावेशी धन ज़्यादा था. इस रिपोर्ट से ये भी पता चला कि समावेशी धन के बढ़ने की वैश्विक दर 1990 से 2014 के बीच 44 प्रतिशत थी. इसका ये मतलब हुआ कि सालाना वृद्धि दर 1.8 प्रतिशत थी. वैश्विक विकास के स्थायी होने में कमी को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 1990 से 2014 के बीच की अवधि में वैश्विक जीडीपी में बढ़ोतरी सालाना 3.4 प्रतिशत की दर से हुई यानी समावेशी धन के सालाना वृद्धि दर के मुक़ाबले क़रीब दोगुनी रफ़्तार से. इसकी एक वजह ये भी है कि प्राकृतिक पूंजी में कमी के नकारात्मक असर की भरपाई मानवीय और भौतिक पूंजी में बढ़ोतरी से की गई है. 

सोनकिन और मुछाला के प्रस्तावों से सहमति जताते हुए विश्व बैंक के पास डूइंग बिज़नेस रैंकिंग को ख़त्म करने के पर्याप्त कारण हैं या फिर इस सूचकांक में व्यापक सुधार करके इसे ज़्यादा समग्र, ज़मीन से जुड़ा और शासन व्यवस्था के मापदंडों का प्रतिनिधित्व करने वाला बनाया जाए. 

समावेशी धन में जिन चार पूंजियों की बात की गई है वो एसडीजी में भी शामिल हैं. एसडीजी के सूचकांक में सामाजिक समानता, आर्थिक प्रगति और पर्यावरणीय निरंतरता के अलग-अलग क़दम शामिल हैं और इनका असर अच्छे कारोबारी हालात पर पड़ता है. लगभग हर एसडीजी एक या दूसरी तरह की पूंजी में शामिल हैं यानी मानवीय (1-5 तक एसडीजी जो ग़रीबी, भूख, स्वास्थ्य, शिक्षा और लैंगिक समानता पर असर डालते हैं), भौतिक (8वां और 9वां एसडीजी जो रोज़गार, बढ़ोतरी, उद्योग, इनोवेशन और इंफ्रास्ट्रक्चर पर असर डालते हैं), प्राकृतिक (14वां और 15वां एसडीजी जो क्रमश: पानी और ज़मीन के नीचे जीवन पर असर डालते है) और सामाजिक (10वां और 16वां एसडीजी जो सामाजिक संस्थागत परिवर्तनशीलता इत्यादि पर असर डालते हैं). एक तरह से एसडीजी पर आधारित सूचकांक अलग-अलग कारोबारी हालात (जिनमें भौतिक पूंजी, श्रम, भूमि और प्राकृतिक पूंजी और सामाजिक मापदंडों) के बारे में बताते हैं जो कारोबार के आगे बढ़ने में मदद कर सकते हैं. 

सोनकिन और मुछाला के प्रस्तावों से सहमति जताते हुए विश्व बैंक के पास डूइंग बिज़नेस रैंकिंग को ख़त्म करने के पर्याप्त कारण हैं या फिर इस सूचकांक में व्यापक सुधार करके इसे ज़्यादा समग्र, ज़मीन से जुड़ा और शासन व्यवस्था के मापदंडों का प्रतिनिधित्व करने वाला बनाया जाए. ऐसा नहीं होने पर भारत जैसे कई विकासशील देश इसकी वजह से ग़लत रास्ते पर चले जाएंगे. ये देश सिर्फ़ कुछ आर्थिक परिवर्तनों को लेकर चिंतित रहेंगे. उन्हें इस बात का एहसास नहीं होगा कि इसकी वजह से अर्थव्यवस्था को बड़ी सामाजिक और पर्यावरणीय क़ीमत चुकानी पड़ेगी. विकासशील दुनिया की ”विकास के लिए अंधभक्ति” ने समानता, दक्षता और निरंतरता के मापदंडों के आधार पर मानवीय विकास के व्यापक लक्ष्य को काफ़ी हद तक धुंधला कर दिया है. 

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