Author : Sushant Sareen

Published on Aug 05, 2021 Updated 0 Hours ago

अगर तालिबान कट्टरपंथी रवैया बनाए रखता है और सुधरता नहीं है तो भारत को सिर्फ़ नुक़सान होगा और उसके साथ बातचीत से उसे कुछ हासिल नहीं होगा.

तालिबान से सामाजिक दूरी क्यों है ज़रूरी?

जून की शुरुआत में पहली बार ऐसी ख़बर आई कि भारतीय अधिकारियों ने दोहा में तालिबान के साथ संपर्क स्थापित किया है. विदेश मंत्रालय से जब ख़बर की पुष्टि करने के बारे में पूछा गया तो अस्पष्ट जवाब मिला. विदेश मंत्रालय ने सिर्फ़ इतना कहा कि भारत “अलग-अलग हिस्सेदारों के साथ संपर्क में है.” लेकिन कुछ दिनों के बाद क़तर के एक वरिष्ठ अधिकारी ने पुष्टि की कि भारतीय अधिकारियों ने वास्तव में तालिबान के साथ संपर्क साधा है. अभी तक ये साफ़ नहीं है कि किस स्तर पर बातचीत का ये दरवाज़ा खोला गया था और क्या ये बातचीत आगे बढ़ी या रुक गई है. कुछ सूत्र दावा करते हैं कि आधिकारिक स्तर पर सिर्फ़ शुरुआती संपर्क स्थापित हुआ है, एक तरह की बातचीत का रास्ता खोला गया है और अभी तक राजनीतिक स्तर पर संपर्क स्थापित नहीं हुआ है. कुछ अटकलें थीं कि विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने दोहा में तालिबान नेतृत्व के साथ मुलाक़ात की है लेकिन विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इससे साफ़ तौर पर इनकार किया. वास्तव में इस अटकल के कुछ ही समय बाद विदेश मंत्री ने अफ़ग़ानिस्तान को लेकर शंघाई सहयोग संगठन  (एससीओ) के संपर्क समूह की बैठक के लिए दुशांबे की अपनी यात्रा के दौरान अफ़ग़ानिस्तान पर भारत का रुख़ बिल्कुल साफ़ कर दिया. 3 सूत्रीय खाका पेश करते हुए डॉ. जयशंकर ने कहा कि दुनिया “हिंसा और ताक़त के दम पर सत्ता हथियाने के ख़िलाफ़” थी और “इस तरह की कार्रवाई को मान्यता नहीं देगी.” 

वैसे तो दुनिया क्या करेगी या नहीं करेगी को लेकर डॉ. जयशंकर ने जो भरोसा जताया है, वो  संभवत: वास्तवकिता से दूर था क्योंकि इस बात की पूरी संभावना है कि ‘दुनिया’ या कम-से-कम बड़ी शक्तियां तालिबान के द्वारा हिंसा और ज़ुल्म के दम पर सत्ता हथियाने को लेकर आंख मूंद लेगी. लेकिन डॉ. जयशंकर ने जो रुख़ अपनाया है उससे भारत के मामले में तालिबान के साथ बातचीत को लेकर कुछ हद तक फिर से विचार की राय लगती है. दुशांबे की बैठक से पहले तक ऐसा लग रहा था कि भारत तालिबान को अछूत मानने को लेकर अपनी पुरानी और बेहद सैद्धांतिक रुख़ को कमज़ोर कर रहा है. तालिबान से शुरुआती संपर्क साधने के समय से संकेत मिला कि भारत उस स्थिति की तैयारी कर रहा था जब मध्यकाल जैसे ये लड़ाके अफ़ग़ानिस्तान पर निकट भविष्य में कब्ज़ा कर लेंगे क्योंकि इस रिपोर्ट से कुछ हफ़्ते पहले तक तालिबान काफ़ी तेज़ी से अफ़गानिस्तान में आगे बढ़ रहा था. ऐसी स्थिति के मद्देनज़र ये एक हद तक मायूसी थी कि तालिबान के क्षेत्र में कम-से-कम कुछ हद तक दखल हो. लेकिन दुशांबे बैठक के बाद ये साफ़ नहीं है कि क्या भारत अभी भी तालिबान से बातचीत के पक्ष में है या नहीं. क्या ये पुनर्विचार इसलिए हुआ क्योंकि शुरुआती संपर्क से भारत को पता चल गया कि तालिबान के साथ बातचीत का कोई फ़ायदा नहीं है या भारत को तालिबान ने ज़्यादा भाव नहीं दिया? इस पर सिर्फ़ अटकलें लगाई जा सकती हैं. 

भारतीय रणनीतिक विश्लेषकों की राय 

फिर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो इस बात की वक़ालत करते हैं कि भारत को अपना विरोध ख़त्म करने की ज़रूरत है और उसे तालिबान से बातचीत करनी चाहिए, भले ही ऐसा करने से भारत को अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़े. एक तरफ़ जहां कुछ लोग इस बात को लेकर दुख मना रहे हैं कि भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में एक मौक़ा गंवा दिया वहीं दूसरी तरफ़ कुछ लोग ये दलील दे रहे हैं कि अपने सुरक्षा हितों को देखते हुए भारत को अफ़ग़ानिस्तान के बदलते हालात के मुताबिक़ ढलना चाहिए. ये भी कहा जाता है कि भारत “पवित्र भावनाओं” और “नीतिगत भ्रम जाल” में बंध कर नहीं रह सकता. कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने तालिबान से खुले संपर्क का पक्ष लिया है और ये दलील दी है कि ऐसा करने से न सिर्फ़ भारत के हितों को नुक़सान पहुंचने से रोका जा सकता है बल्कि “तालिबान के साथ पाकिस्तान के रिश्तों को भी जटिल” बनाया जा सकता है. विशुद्ध व्यावहारिक राजनीति के नज़रिए से इन सभी दलीलों में दम है. अलग-अलग देशों को जैसी दुनिया है वैसे ही हालात से निपटना है, न कि अपने हिसाब से. ये माना जाता है कि कूटनीति और विदेश नीति का मतलब पूरी तरह राष्ट्रीय हित को आगे बढ़ाना, उसका बचाव करना है चाहे वो कुछ भी हो और कैसे भी उसको परिभाषित किया जाए. पिछली कुछ शताब्दियों के दौरान अंतर्राष्ट्रीय मामलों में पश्चिमी देशों के दबदबे का ये मतलब निकला है कि कोई भी दोस्त या दुश्मन स्थायी नहीं होता बल्कि सिर्फ़ अपना हित स्थायी होता है, की कहावत कूटनीति का सिद्धांत है. 

एक तरफ़ जहां कुछ लोग इस बात को लेकर दुख मना रहे हैं कि भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में एक मौक़ा गंवा दिया वहीं दूसरी तरफ़ कुछ लोग ये दलील दे रहे हैं कि अपने सुरक्षा हितों को देखते हुए भारत को अफ़ग़ानिस्तान के बदलते हालात के मुताबिक़ ढलना चाहिए.

लेकिन क्या विदेश नीति को पूरी तरह शिष्टाचार, नैतिकता और सिद्धांतों से विहीन होना चाहिए? क्या हित और नैतिकता पारस्परिक तौर पर साझा करने के लिए नहीं हैं? ये सुनिश्चित करना चाहिए कि कूटनीति में हठधर्मिता नहीं हो सकती और होनी भी नहीं चाहिए. ये आम तौर पर अस्पष्ट स्थिति में काम करती है. लेकिन इसके बावजूद कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिन पर कोई समझौता नहीं हो सकता. अफ़ग़ानिस्तान के मामले में क्या कोई भी सभ्य देश इस बात से आंख मूंद सकता है/मूंदना चाहिए कि तालिबान किस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है? अगर आज तालिबान मंज़ूर है तो कल आईएसआईएस को स्वीकार करने में क्या समस्या थी? निश्चित तौर पर सत्ता और जीत की अपनी दलीलें हैं. मानव इतिहास में तालिबान ने एकमात्र महाशक्ति और सबसे ताक़तवर सैन्य गठबंधन (कम-से-कम दस्तावेज़ों में) को परास्त किया है. ऐसे में इस वास्तविकता को मंज़ूर करने और उससे लेन-देन की समझ तो बनती है. शायद, अगर आईएसआईएस को मात नहीं मिलती तो कई देश उससे लेन-देन कर रहे होते. वास्तव में कुछ देशों ने चुपके-चुपके आईएसआईएस से लेन-देन भी किया और स्थानीय स्तर पर कुछ समझौते भी किए लेकिन दुनिया के सामने उसे कबूल करने में उन्हें शर्म आती थी. लेकिन अगर हित ही सब कुछ हैं तो शैतान के साथ जुड़ने में शर्म कैसी? 

व्यावहारिक राजनीति और नैतिकता

तालिबान के मामले में उसे एक दूरी पर रखने के लिए और उसके साथ किसी भी तरह की लेन-लेन नहीं करने के लिए नैतिक दलील और व्यवहारिक राजनीति की दलील- दोनों हैं. वास्तव में ये दलीलें तालिबान का विरोध करने और उसका मुक़ाबला करने के लिए हैं. ये दलीलें उस वक़्त तक के लिए हैं जब तक कि तालिबान ख़ुद को सभ्य समाज में बैठने के लायक साबित नहीं कर पाता है. अभी तक इस बात का कोई सबूत नहीं है कि तालिबान से जुड़े लोग उस बर्बरता और बेरहमी से आगे बढ़ पाए हैं जिसके लिए वो कुख्यात हैं. हर रोज़ तालिबान की तरफ़ से मानवता के ख़िलाफ़ ख़ौफ़नाक अपराध की ख़बरें आती रहती हैं. आत्मसमर्पण करने वाले अफ़ग़ान सेना के जवानों की क्रूरता से हत्या के वीडियो, तालिबान के कब्ज़े वाले इलाक़ों में आम लोगों के नरसंहार की ख़बरें, 15 साल से ज़्यादा उम्र की लड़कियों और 45 साल से कम उम्र की विधवाओं की सूची मांगने वाला आदेश जिनकी शादी तालिबान के लड़ाकों से कराई जा सकती है, और एक कम उम्र की लड़की को ज़बरदस्ती ले जाने का डरावना वीडियो, तालिबान और पाकिस्तान में उसके प्रायोजक और समर्थक किस बात की नुमाइंदगी करते हैं, उसकी एक छोटी सी मिसाल हैं. कैसे कोई व्यक्ति या देश अंतरात्मा से ऐसे ज़ुल्मी शासन को मान्यता दे सकता है? ऐसा बेरहम शासन भारत जैसे देश के राष्ट्रीय हित या सुरक्षा हित के उद्देश्य को कैसे साध सकता है? 

उम्मीद के विपरीत, अफ़ग़ानिस्तान में भारत की सबसे ज़्यादा मदद करने वाला देश पाकिस्तान है. अफ़ग़ानिस्तान में दख़ल देते रहने की पाकिस्तान की प्रवृत्ति और वहां पर अपनी पसंद थोपने की वजह से अफ़ग़ानिस्तान के लोग पाकिस्तान के ख़तरनाक असर को संतुलित करने के लिए भारत के पास आते हैं. 

कई भारतीय रणनीतिक विश्लेषक बार-बार दोहराते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में भविष्य की व्यवस्था से किस तरह भारत को हाशिये पर रखा जा रहा है. वो यहां तक कहते हैं कि भारत को अलग-थलग किया जा रहा है. क्या वाकई ऐसा है? अगर 3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था और 130 करोड़ की आबादी वाले देश के लोग ये महसूस करते हैं कि उन्हें एक ऐसी सत्ता अलग-थलग कर रही है जो सरकार से ज़्यादा हॉरर शो की तरह है तो इस निष्कर्ष पर पहुंचने वाले लोगों के साथ वाकई कुछ गंभीर समस्याएं हैं. सीधा तथ्य ये है कि भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में कभी भी कोई क़ीमती मौक़ा नहीं गंवाया. अफ़ग़ानिस्तान के लोगों, न कि अफ़ग़ानिस्तान के एक समूह से लेन-देन की भारतीय नीति काफ़ी सफल रही है. पिछले 75 वर्षों में 1996-2001 के दौरान एक संक्षिप्त समय, जब काबुल में तालिबान का राज था, को छोड़कर भारत ने हमेशा अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की दोस्ती और सद्भावना हासिल की है. 

भारत-अफ़गानिस्तान सफ़र 

1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत आक्रमण से भारत कभी ख़ुश नहीं रहा लेकिन उस दशक के दौरान अफ़गानिस्तान में भारत का काफ़ी असर था. 1992 में जब मुजाहिदीनों ने एक सरकार बनाई तो भारत अफ़ग़ानिस्तान में बना रहा और वहां की नई हुकूमत को भारत से संपर्क साधने में समय नहीं लगा. जब 1996 में तालिबान ने काबुल पर कब्ज़ा किया तो भारत पांच साल तक (सिर्फ़ आंशिक रूप से) बाहर रहा लेकिन 2001 में भारत फिर से वापस आ गया और इन 20 वर्षों के दौरान अफ़ग़ानिस्तान में भारत की पहुंच पर किसी को भी जलन हो सकती थी. ये अलग मुद्दा है कि इन दो दशकों के दौरान भारत ने सैन्य ताक़त के विकल्पों की जगह विकास पर ज़्यादा ध्यान दिया. लेकिन भारत ने विकास पर ज़्यादा ध्यान देने की वजह से भारत ने बहुत ज़्यादा सद्भावना हासिल की. दूसरी तरफ़ पाकिस्तान ने सैन्य ताक़त के विकल्पों का इस्तेमाल किया जिसकी वजह से उसे अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की नफ़रत का शिकार होना पड़ा. मध्यमकालीन दृष्टिकोण अपनाते हुए पाकिस्तान का “सब कुछ गंवाकर जीत हासिल करना” उसके लिए नुक़सानदेह साबित होने वाला है. उम्मीद के विपरीत, अफ़ग़ानिस्तान में भारत की सबसे ज़्यादा मदद करने वाला देश पाकिस्तान है. अफ़ग़ानिस्तान में दख़ल देते रहने की पाकिस्तान की प्रवृत्ति और वहां पर अपनी पसंद थोपने की वजह से अफ़ग़ानिस्तान के लोग पाकिस्तान के ख़तरनाक असर को संतुलित करने के लिए भारत के पास आते हैं. ये समीकरण एक बार फिर काम आएगा क्योंकि अगर अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का कब्ज़ा हो भी जाता है तो पाकिस्तान की असुरक्षा उसे वहां सब कुछ नियंत्रण में रखने पर मजबूर कर देगी और आज न कल इसकी वजह से पाकिस्तान के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा बढ़ेगा. 

कैसे कोई व्यक्ति या देश अंतरात्मा से ऐसे ज़ुल्मी शासन को मान्यता दे सकता है? ऐसा बेरहम शासन भारत जैसे देश के राष्ट्रीय हित या सुरक्षा हित के उद्देश्य को कैसे साध सकता है? 

20 साल तक अफ़ग़ानिस्तान में बेमिसाल पहुंच के बाद अगर आदिम युग का कोई समूह काबुल के दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है और भारत के लिए मौजूदगी बनाए रखना मुश्किल कर रहा है तो भारत को डरने की ज़रूरत नहीं है और जब तक तालिबान ख़ुद को नहीं बदलता है तब तक उसे मान्यता नहीं देने की भारत की नीति में बदलाव को तो छोड़ ही दीजिए. सबसे ख़राब हालत में भारत अफ़ग़ानिस्तान में मुख्य धारा से दूर हो सकता है. लेकिन उस हालत में भारत को कुछ रणनीतिक धैर्य दिखाना चाहिए और चीज़ों के बदलते रहने का इंतज़ार करना चाहिए. अफ़ग़ानिस्तान में कोई भी चीज़ एक जैसी हमेशा नहीं रहती. चीज़ें निश्चित रूप से बदलेंगी. इसकी आंशिक वजह ये है कि पाकिस्तान ग़लती करेगा. पाकिस्तान की ग़लती करने की एक वजह ये हो सकती है कि अगर तालिबान जो कर रहा है वो करता रहेगा तो दुनिया इस पर आंख नहीं मूंदेगी. पाकिस्तान की ग़लती की दूसरी वजह ये हो सकती है कि अगर तालिबान ये दिखाता है कि ऊपर बताई गई क्रूरता भूल थी और वो वाकई बदल गया है तो भारत तालिबान के साथ भागीदारी पर विचार कर सकता है. भारत के तालिबान से संपर्क साधने और इस प्रक्रिया में अपनी छवि ख़राब करने से बेहतर है कि वो इंतज़ार करे और देखे कि तालिबान अपने लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, अफ़ग़ानिस्तान में भारत की विकास परियोजनाओं को लेकर तालिबान का रवैया कैसा है और क्या वो एक बार फिर अफ़ग़ानिस्तान को आतंक का केंद्र बनाता है या वास्तव में अपने उस वादे पर खरा उतरेगा कि वो अफ़ग़ानिस्तान की मिट्टी को किसी दूसरे देश के ख़िलाफ़ इस्तेमाल नहीं करने देगा. 

तालिबान के साथ संबंधों का मूल्यांकन 

ज़मीन पर तालिबान का आकलन किए बिना उससे संपर्क करना शायद ही भारत के हितों की रक्षा करने और संरक्षित रखने का सबसे अच्छा तरीक़ा है. अगर तालिबान कट्टरपंथी रवैया बनाए रखता है और सुधरता नहीं है तो भारत को सिर्फ़ नुक़सान होगा और उसके साथ बातचीत से उसे कुछ हासिल नहीं होगा. ज़्यादा-से-ज़्यादा भारत काबुल में अपना दूतावास बनाए रखने में सफल होगा. यही भारत के लिए बड़ी उपलब्धि होगी. ये दूतावास कुछ नहीं कर पाएगा क्योंकि अगर तालिबान पाकिस्तान की कठपुतली है तो किसी भी सूरत में काबुल का भारतीय दूतावास कोई मक़सद पूरा नहीं कर पाएगा. तालिबान से होने वाले फ़ायदों के निष्कर्ष, जैसा कि कई लोकतांत्रिक देश कर रहे हैं (ख़ासतौर पर वो देश जो उदारवादी मूल्यों को लेकर कभी भी सिद्धांतवादी बात करने से पीछे नहीं हटते और व्यक्तिगत और राजनीतिक स्वतंत्रता को लेकर दूसरे लोकतांत्रिक देशों को धौंस देते हैं), पर पहुंचने के बदले भारत को अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के साथ खड़ा रहना चाहिए. वक़्त के साथ रणनीतिक धैर्य के अपने फ़ायदे होंगे. 

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