Published on Dec 09, 2021 Updated 0 Hours ago

जैसे-जैसे भारत की अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी गहरी हो रही है, तो यह ज़रूरी नहीं कि भारत को अमेरिका और रूस के आपसी तनाव के बीच फंसाया जाए.

CAATSA प्रतिबंध भारत-अमेरिका की रणनीतिक साझेदारी के लिए विपरीत नतीजे देने वाले क्यों होंगे

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उड़ने वाली सभी चीज़ों को जवाब देने में सक्षम, एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम (S-400 missile defense system) जल्द ही भारत में आ जायेगा. रूसी न्यूज़ एजेंसियों (Russian News Agencies) ने रूसी सैन्य (Russian Military) सहयोग एजेंसी के प्रमुख दमित्री शुगायेव (Dmitry Shugayev) को उद्धृत किया है, जिन्होंने कहा कि एस-400 (S-400 Missile in India) की पहली यूनिट इस साल के अंत तक भारतीय जमीन पर पहुंच जायेगी.

बीजिंग को संयमित रखने के मकसद से, सतह-से-हवा में मार करने वाली लंबी दूरी की मिसाइलों से लैस पांच डिफेंस सिस्टम की ख़रीद के लिए नई दिल्ली और मॉस्को के बीच 5.5 अरब अमेरिकी डॉलर का सौदा हुआ है. 

बीजिंग को संयमित रखने के मकसद से, सतह-से-हवा में मार करने वाली लंबी दूरी की मिसाइलों से लैस पांच डिफेंस सिस्टम की ख़रीद के लिए नई दिल्ली और मॉस्को के बीच 5.5 अरब अमेरिकी डॉलर का सौदा हुआ है. लेकिन इस सौदे का एक और घटक है वाशिंगटन डीसी, क्योंकि वहां इस बात पर मंथन जारी है कि क्या भारत को Countering American Adversaries Through Sanctions Act (CAATSA) से छूट दी जाए.

छूट दें कि नहीं दें

हाल में, अमेरिकी सीनेटरों और इंडिया कॉकस के सह-अध्यक्षों (Co-Chairs) जॉन कॉर्निन और मार्क वॉर्नर की ओर से हुए द्विदलीय प्रयास में राष्ट्रपति जो बाइडन (US President Joe Biden) से अनुरोध किया गया कि रूस से सैन्य साजो-सामान खरीदने के लिए भारत को CAATSA प्रतिबंधों से छूट दी जाए.

इस बीच, रिपब्लिकन पार्टी के सीनेटर एवं सीनेट की विदेश संबंध समिति के सदस्य टेड क्रूज़ के साथ टॉड यंग और रोजर मार्शेल ने लंबा-चौड़ा CRUCIAL Act पेश किया, जो क्वॉड के सदस्य देशों के लिए 10 साल की छूट (exemption) का प्रावधान करता है. इसे ख़ास तौर पर भारत को CAATSA के तहत अमेरिकी प्रतिबंधों से बचाने के लिए डिजाइन किया गया, क्योंकि 2017 में पारित CAATSA चीन के खिलाफ एकजुटता को शायद क्षीण करेगा.

अगर CAATSA को असल-राजनीति (realpolitik) की व्यावहारिकता के बजाय, क़ानूनों की सख्ती के जरिये लागू किया गया था, तो ऐसे में प्रतिबंधों की प्रामाणिकता पर सवाल उठेंगे. इतना ही नहीं, ये वॉशिंगटन और नई दिल्ली के बीच बढ़ते मज़बूत संबंधों पर भी असर डालेंगे.

कहां से आये ये प्रतिबंध

1996 में, अमेरिकी कांग्रेस ने द्वितीयक प्रतिबंधों (secondary sanctions) को स्पष्ट करता हुआ एक क़ानून पारित किया, जिसके जरिये तृतीय पक्ष को महज़ इसलिए प्रतिबंधों के विपरीत असर का सामना करना पड़ता सकता था, क्योंकि वह उस प्रथम पक्ष के साथ संलग्न है जो प्रतिबंधों का असल निशाना है. क्यूबा को लक्ष्य करके बना हेम्स-बर्टन एक्ट (Helms-Burton Act)  और ईरान को लक्ष्य करके बना ईरान सैंक्शन्स एक्ट (Iran Sanctions Act) इसके कुछ बिल्कुल उपयुक्त उदाहरण हैं.

अगस्त 2017 में, ट्रंप प्रशासन के आठवें महीने में ही, कांग्रेस (अमेरिकी संसद) ने CAATSA को पारित किया. इसकी शुरुआत रूस को निशाना बनाने की एक कोशिश के बतौर हुई, क्योंकि मॉस्को के अमेरिकी चुनावों में दख़लंदाज़ी करने और 2014 में क्रीमिया पर उसके क़ब्जे को लेकर दोनों पार्टियों में निराशा थी. इन प्रतिबंधों ने केवल मॉस्को को निशाना नहीं बनाया, बल्कि तेहरान, प्योंगयांग और दमिश्क में दूसरे विरोधियों को भी शामिल कर लिया.

CAATSA दिल्ली के साथ साझेदारी को परेशानी में क्यों डालेगा :

अमेरिका के भारत में पूर्व राजदूत डेविड सी. मलफोर्ड कहते हैं, ‘इन प्रतिबंधों को प्रबंधित करना मुश्किल है, हटाना तो कठिन है ही, उससे भी ज्यादा कठिन है रिश्ते सामान्य हो जाने पर बाद में माफ़ कर देना या भूल जाना’.

अगर CAATSA को असल-राजनीति (realpolitik) की व्यावहारिकता के बजाय, क़ानूनों की सख्ती के जरिये लागू किया गया था, तो ऐसे में प्रतिबंधों की प्रामाणिकता पर सवाल उठेंगे. इतना ही नहीं, ये वॉशिंगटन और नई दिल्ली के बीच बढ़ते मज़बूत संबंधों पर भी असर डालेंगे.

भारत न तो अमेरिका का विरोधी है, न ही उसके साथ किसी औपचारिक गठबंधन में है, और तुर्की की तरह भारत ने नाटो पर दस्तख़त भी नहीं किये हुए हैं. एक रणनीतिक साझेदार के रूप में भारत अमेरिका से उस तरह नहीं बंधा हुआ है जैसे कि अंकारा है.

अमेरिका को लेकर भारत में मौजूद संशयवादियों की वह धारा जो अमेरिका के साथ संबंध प्रगाढ़ करने की पूर्व प्रधानमंत्रियों- अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की कोशिशों को पीछे धकेल चुकी है. 

यहां तक कि सोवियत संघ के विघटन के बाद भी, रूस भारत का सबसे बड़ा रक्षा आपूर्तिकर्ता बना हुआ है. करीब 50 फ़ीसदी आपूर्ति वही करता है. इसके बाद फ्रांस, इस्राइल और अमेरिका का नंबर आता है.

भारत की रणनीतिक स्वायत्तता उसके विदे श नीति लक्ष्यों और इस विश्व व्यवस्था में बहुध्रुवीयता के विचार के लिए परमपवित्र है. भारत ने एस-400 को लेकर अपनी ज़रूरत की बात बार-बार दोहरायी थी, और अमेरिकी रक्षा मंत्री जिम मैटिस (Jim Mattis) इस रणनीतिक चिंता को समझते थे, लेकिन जहां तक बात थी पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (Ex Pressident Donald Trump, America) की, तो उन्होंने अपने कान इस ओर से बंद ही रखे.

ट्रंप प्रशासन ने बीते साल एस-400 खरीदने के लिए तुर्की पर प्रतिबंध लगाये. और, रणनीतिक जानकार इसे न्यायोचित मानते हैं, क्योंकि अंकारा का यह कदम नाटो की एकजुटता  को कमज़ोर करेगा. हालांकि, भारत एस-400 को आक्रामक चीन के जवाब के बतौर अहम मानता है. चूंकि हिंद-प्रशांत (Indo-Pacific) एक शब्द के रूप में संहिताबद्ध (codified) हो चुका है, इसलिए एक ‘मुक्त और खुले हिंद-प्रशांत’ और ‘नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय सीमा’ (जैसा कि क्वॉड शिखर बैठक में सामने आया था) को सुनिश्चित करने के लिए  वॉशिंगटन और नई दिल्ली के दृष्टिकोण में बड़ी रणनीतिक एकजुटता की भावना नजर आती है.

भारत के लिए अमेरिका ने पहली बार अपने परमाणु ऊर्जा कानून में एक अपवाद बनाया था, जिसने भारत को यह अनुमति दी कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखते हुए असैन्य परमाणु तकनीक तक पूरी पहुंच हासिल कर सके. 

भारत को CAATSA से छूट न मिलना सीमाओं पर भारत के रक्षा इंतज़ाम को आवश्यक रूप से उतनी चोट नहीं पहुंचायेगा जितना कि यह इस क्षेत्र में अमेरिकी रणनीतिक हितों पर असर डालेगा. इतना ही नहीं, वॉशिंगटन यह भलीभांति जानता है कि मॉस्को द्वारा आपूर्ति किया जाने वाला एस-400 भारत द्वारा उस पाकिस्तान के ख़िलाफ़ इस्तेमाल के नहीं है, जो कि एक बड़ा ‘गैर-नाटो अमेरिकी सहयोगी’ है. बल्कि, यह उस चीन को संयमित रखने के लिए है, जो कि अमेरिका का रणनीतिक विरोधी है. कुछ की नज़रों में यह वॉशिंगटन की निकट-दृष्टिता है, जो वह भारत को एक ऐसे मिसाइल डिफेंस सिस्टम के लिए प्रतिबंधों की धमकी दे रहा है, जिसका वह प्रतिस्पर्धात्मक ढंग से उत्पादन नहीं करता.

राजदूत मलफोर्ड के साथ मौजूद, Carnegie Endowment for International Peace में सीनियर फेलो एश्ले जे. टेलिस (Ashley J. Tellis) अपनी बात रखते हुए कहते हैं, ‘किसी को भी भारत और CAATSA को अलग तरीक़े से देखना चाहिए. रूस ने यूरोप में, और अमेरिका की घरेलू राजनीति में जो किया है उसे देखते हुए (वह) CAATSA क़ानून से सहानुभूति रखते हैं, लेकिन इसके साथ ही कोई यह राय रख सकता है कि CAATSA न्यायोचित है, लेकिन भारत पर इसे लागू करना मूलत: विपरीत नतीजे देने वाला (counterproductive) है.’

कई लोगों को लगता है कि नयी दिल्ली की हालत रूस और भारत के बड़े मसले में बेवजह फंस गये तमाशाई राहगीर जैसी है.

दूरियों से नज़दीकियों तक

अतीत में, वॉशिंगटन को लेकर नयी दिल्ली के मन में एक ख़ास तरह का संदेह था- जो शीत युद्ध (Cold War) के दौरान अपने चरम पर पहुंचा और हितों व मूल्यों के मेल खाने पर भी सहयोग में रोड़े अटकाता रहा. नई दिल्ली ने वॉशिंगटन को नव-औपनिवेशिक (neo-colonialist) ताक़त के रूप में देखा और घरेलू व अंतरराष्ट्रीय मामलों में उसके अवांछित हस्तक्षेप का डर पाले रखा.

ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन में में ‘द इंडिया प्रोजेक्ट’ की निदेशक तन्वी मदान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) के उस बयान से असहमत हैं कि भारत और अमेरिका इतिहास की हिचकिचाहट से उबर चुके हैं. वह कहती हैं, ‘वो हिचकिचाहटें अब भी छिपी बैठी हैं और CAATSA उनको फिर से सामने ले आयेगा.’

मदान ऐसे तीन समूहों की पहचान करती हैं जो CAATSA प्रतिबंधों का अपने हितों के लिए फ़ायदा चाहेंगे. पहला समूह है, अमेरिका को लेकर भारत में मौजूद संशयवादियों की वह धारा जो अमेरिका के साथ संबंध प्रगाढ़ करने की पूर्व प्रधानमंत्रियों- अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की कोशिशों को पीछे धकेल चुकी है. जिस दूसरे समूह की मदान ने पहचान की है, वह है अमेरिका के प्रतिस्पर्धियों का, ख़ासकर रूस, जो एक साझेदार के रूप में वॉशिंगटन के भरोसेमंद होने को लेकर संदेह को हवा देता रहा है और भारत-अमेरिका संबंधों को सीमित रखना चाहता है. मदान ने दिलचस्प ढंग से जिस तीसरे समूह की पहचान की है, वे फ्रांस जैसे अमेरिका के सहयोगी हैं. आकुस के पचड़े के बावजूद, पेरिस एक बड़े रक्षा साझेदार के रूप में CAATSA प्रतिबंधों के बाद उपजी स्थितियों का फ़ायदा उठाकर अपनी रक्षा बिक्री बढ़ाना चाहेगा और वॉशिंगटन द्वारा छोड़े गये ख़ालीपन को भरेगा.

 भारत और चीन के बीच सीमा पर अब भी तनातनी क़ायम है, और वॉशिंगटन बीजिंग की आक्रामकता के ख़तरे को पहचानाता है, और इस बात की प्रबल संभावना है कि भारत अपने रक्षा उपकरणों के लिए रूस भरोसा करना जारी रखेगा, चाहे अमेरिका एस-400 को लेकर प्रतिबंधों से छूट दे या न दे

वॉशिंगटन ने समय-समय पर उस बारीक लकीर पर चलने के लिए संघर्ष किया है, जो उसके द्वारा परमपवित्र समझ कर वकालत किये जाने मूल्यों और उन्हें माने जाने के बीच खिंची है, जैसा कि प्रोफेसर एस. पॉल कपूर लिखते हैं, ‘भारतीय लोकतंत्र अपने ख़ुद के इतिहास, घरेलू राजनीतिक ज़रूरतों, और बाहरी ख़तरों के संदर्भ में संचालित होता है, और यह कभी भी अमेरिका या पश्चिमी यूरोप के लोकतंत्र की तरह हू-ब-हू नहीं दिखेगा.’

इतिहास की हिचकिचाहट

क्लिंटन प्रशासन के तहत 1998 में लगाये गये प्रतिबंधों का नतीजा व्यापार में गिरावट, संबंधों को नुक़सान और अविश्वास बढ़ने के रूप में हुआ. आख़िरकार प्रतिबंध हटा लिये गये, फिर भी भारत और अमेरिका सहयोगी नहीं, बल्कि अनिश्चित किस्म के रणनीतिक साझेदार थे.

पोखरण परीक्षणों के लिए लगाये गये प्रतिबंधों ने वाणिज्यिक, रक्षा और अंतरिक्ष संबंधों को एक दशक पीछे धकेल दिया. नतीजे में जो आर्थिक नुक़सान हुआ उसने तब केवल आशंका की भावना को ही बढ़ाया. इसलिए, कई लोग आज भी इसे वजह मानते हैं कि भारत और अमेरिका औपचारिक सहयोगी होने की जगह रणनीतिक साझेदार भर हैं.

सरकार में बिताये अपने समय में से, टेलिस उन लम्हों को याद करते हैं जब अमेरिका परमाणु समझौते (nuclear deal) पर मोलभाव कर रहा था. वह कहते हैं कि वॉशिंगटन यह नहीं सोचता था कि भारत रूस के साथ अपने रिश्तों को तोड़ लेगा. ‘रूस और ईरान को लेकर हमारे बीच काफ़ी मुश्किल चर्चा हुई थी. विदेश नीति और स्वायत्तता को लेकर हम आपसी समझदारी तक पहुंचे.’

इसलिए हल कांग्रेस द्वारा क़ानून में संशोधन किये जाने में है. इसके जरिये भारत के लिए अपवाद का प्रावधान किया जाए जैसे कि अतीत में असैन्य परमाणु समझौते के समय किया गया था. भारत के लिए अमेरिका ने पहली बार अपने परमाणु ऊर्जा कानून में एक अपवाद बनाया था, जिसने भारत को यह अनुमति दी कि वह अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखते हुए असैन्य परमाणु तकनीक तक पूरी पहुंच हासिल कर सके.

प्रतिबंधों में अस्पष्टता

प्रतिबंधों के पीछे जो इरादा है क्या असर वैसा ही होगा? यहां विडंबना यह होगी, अगर CAATSA भारत को रूस के और क़रीब धकेल दे, बजाय कि दूर करने के.

प्रतिबंधों के इच्छित लक्ष्य को लेकर स्पष्टता के अभाव और धुंधलेपन को देखते हुए एक अनिश्चितता की भावना है.

पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल का जवाब दिलचस्प है, ‘भारत की अमेरिका के साथ नज़दीकियों को देखते हुए, रूस को भी अपनी तकनीक को अमेरिकी हाथों में जाने का डर सता सकता है, लेकिन मॉस्को ने तो कोई चिंता नहीं दिखायी है.’ अगर किसी अप्रत्याशित घटनाक्रम के तहत रूस, अमेरिका से हथियार ख़रीदने के लिए भारत के ख़िलाफ़ इस तरह का कोई क़ानून अपनाये, तो नयी दिल्ली उन मांगों के आगे नहीं झुकेगी, लिहाज़ा उसी सिद्धांत को लागू करने की ज़रूरत होगी.

क्रेमलिन और व्हाइट हाउस अपने साझेदारों को अलहदा तरीक़े से देखते हैं, लेकिन शायद ही मॉस्को ने कभी ऐसी मांग की हो कि भारत क्या चुनेगा और क्या नहीं, यह वह सार्वजनिक रूप से करे.

एक गुट में बंधे नहीं, पर मजबूत साझेदार

वॉशिंगटन अब तक यह समझ चुका है कि नई दिल्ली एक औपचारिक गठजोड़ नहीं चाहती और वॉशिंगटन को यह करने की ज़रूरत नहीं. भारत तेहरान के साथ अपने कूटनीतिक रिश्ते और मॉस्को के साथ रक्षा संबंध जारी रहेगा, जबकि वॉशिंगटन एक बड़े गैर-नाटो सहयोगी के रूप में इस्लामाबाद के साथ कामकाज जारी रखेगा.

भारत और चीन के बीच सीमा पर अब भी तनातनी क़ायम है, और वॉशिंगटन बीजिंग की आक्रामकता के ख़तरे को पहचानाता है, और इस बात की प्रबल संभावना है कि भारत अपने रक्षा उपकरणों के लिए रूस भरोसा करना जारी रखेगा, चाहे अमेरिका एस-400 को लेकर प्रतिबंधों से छूट दे या न दे, क्योंकि रूस रक्षा उपकरणों का एक मुख्य आपूर्तिकर्ता है.

जैसे-जैसे भारत-रूस के संबंध विस्तारित होंगे, सैन्य अभ्यास बढ़ेंगे, हिंद-प्रशांत सहयोग और समुद्री सुरक्षा ज्यादा मज़बूत होगी और क्वॉड एवं मध्य-पूर्व क्वॉड (Middle East Quad) फलदायी बनेंगे, वॉशिंगटन और नयी दिल्ली को ऐसी किसी लापरवाह नीति की ज़रूरत नहीं होगी जो बड़ी रणनीतिक पहलों को असंभव बना दे.

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