Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jul 26, 2024 Updated 2 Hours ago

बीजिंग को उम्मीद है कि गाज़ा पर उसके स्पष्ट रुख़ के चलते उसे तेजी से शक्तिशाली बनते जा रहे वैश्विक दक्षिण के भीतर अधिक समर्थन हासिल होगा. इसका कारण यह है कि US-चीन के बीच बढ़ रही प्रतिद्वंद्विता के बीच दो ध्रुवीय व्यवस्था विखंडित हो रही है.

पश्चिम एशिया: हमास और फ़तह के बीच सुलह के लिए चीन का नया कदम

चीन को लगता है कि उसने मध्य पूर्व (पश्चिम एशिया) में ईरान और सऊदी अरब के बीच संबंधों को सुधारने में मध्यस्थता करते हुए सामंजस्यपूर्ण भूमिका अदा की है. बीजिंग की सोच है कि यह करते हुए उसने एक ऐसा कदम उठाया है जो भविष्य में उसकी भूमिका की दिशा तय करेगा. चीन के नेता शी जिनपिंग के लिए यह उनके देश और नेतृत्व को वैश्विक प्रशासन और संघर्षों का समाधान ख़ोजने वाली एक सकारात्मक शक्ति के रूप में स्थापित करने का सुनहरा अवसर है, क्योंकि यूनाइटेड स्टेट्‌स (US) संघर्षों का समाधान ख़ोजने में लगातार विफ़ल हो रहा है. 

 

अक्टूबर 2023 में गाज़ा में इजराइल-हमास युद्ध शुरू होने के बाद अपनी पहली US यात्रा के लिए बेंजामिन नेतन्याहू ने जैसे ही तेल अवीव से उड़ान भरी, वैसे ही 14 फिलिस्तीनी गुटों एवं समूह, जिसमें हमास, फ़तह और फिलिस्तीनी इस्लामिक ज़िहाद (PIJ) शामिल हैं, चीन की राजधानी बीजिंग में एकत्रित हुए. इसमें से हमास और PIJ को विभिन्न देशों ने आतंकी समूह घोषित कर रखा है. इस बातचीत को लेकर विस्तार से खबरें आई, लेकिन व्यापक रूप से बातचीत के मुद्दों को उस वक़्त तक गोपनीय ही रखा गया, जब तक कि चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने बीजिंग में एकत्रित लोगों के साथ छायाचित्र और बयान जारी नहीं किया था. 

 

वांग ने इस ‘नए’ मिलाप अथवा सुलह अभियान के पीछे बेहद मजबूत समर्थन खड़ा किया था. उन्होंने उन तीन अहम मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित किया, जिसे चीन किसी भी चल रहे युद्ध का समाधान ख़ोजने की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानता है. सबसे पहला मुद्दा मानवीय सहायता के सुगम प्रवेश और युद्ध के पश्चात पुनर्निर्माण की योजना से जुड़ा है. दूसरा मुद्दा है ‘फिलिस्तीनी पर फिलिस्तीनियों का राज’ सिद्धांत की केंद्रीयता और अंत में दो-देश समाधान पर अमल के साथ फिलिस्तीन की संयुक्त राष्ट्र में एंट्री यानी प्रवेश से जुड़ा मुद्दा था. पूर्व वाले मुद्दे में इजराइल को उन देशों की ओर से मान्यता दी जानी है, जिन्होंने अब तक ऐसा नहीं किया है. यह मुद्दा ही अपने-आप में बेहद विवादास्पद मुद्दा है.

 कहा जाता है कि इन बातचीत के बाद जारी किए गए एक संयुक्त बयान में फिलिस्तीनी समूहों ने इस बात पर सहमति बना ली है कि वे सभी फिलिस्तीनी गुटों के बीच समग्र राष्ट्रीय एकता हासिल करेंगे. यह एकता फिलिस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (PLO) के ढांचे के तहत बनाने की कोशिश होगी.

ऐसा लगता है कि दो दिवसीय लंबी बैठकों का कुछ सकारात्मक परिणाम निकला है. कहा जाता है कि इन बातचीत के बाद जारी किए गए एक संयुक्त बयान में फिलिस्तीनी समूहों ने इस बात पर सहमति बना ली है कि वे सभी फिलिस्तीनी गुटों के बीच समग्र राष्ट्रीय एकता हासिल करेंगे. यह एकता फिलिस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (PLO) के ढांचे के तहत बनाने की कोशिश होगी. इसमें शामिल हुए फिलिस्तीनी समूहों में से हमास और फ़तह के बीच बहुत व्यापक मतभेद परेशानी बनकर खड़े हुए हैं. इन मतभेदों को कैसे दूर किया गया, यदि किया भी गया है तो, यह बात फ़िलहाल अस्पष्ट है. जून 2007 में हमास और फ़तह दोनों ने एक गृह युद्ध लड़ा था. यह गृह युद्ध फ़तह को 2006 के संसदीय चुनाव में मिली शिकस्त के बाद हुआ था. ‘बदलाव और सुधार’ का वादा करने वाले हमास को मिली जीत न केवल फ़तह पचा नहीं पाया, बल्कि इस जीत के कारण अन्य क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों को भी तगड़ा झटका लगा था.

 

ख़ैर, फिलिस्तीन के भीतरी संघर्षों में रुचि से जुड़ा मुद्दा नया नहीं है. लेकिन इसमें चीन ने ख़ुद को शांतिदूत के रूप में पेश करते हुए इस मामले में एंट्री की है. इसी बीच आठ अक्टूबर के आतंकी हमलों के बाद हमास राजनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ गया है. इस स्थिति के कारण ही इन समूह और गुटों की बातचीत संभव हो सकी है. फिलिस्तीनी समूहों की मेज़बानी करने का बीजिंग के लिए यह पहला मौका नहीं था. इसके पहले भी अप्रैल में फ़तह और हमास के बीच चीनी सरकार की मेज़बानी में एक बैठक हो चुकी है. लेकिन चीन की हमास, फ़तह, PIJ और अन्य समूहों के साथ बातचीत उसकी ख़ुद को एक महान शक्ति के रूप में देखने की लंबे समय से चली आ रही इच्छा का परिणाम है. वह ख़ुद को गैर हस्तक्षेपकर्ता के रूप में स्थापित करना चाहता है. वह ख़ुद को एक ऐसी महान शक्ति दर्शाना चाहता है जो हस्तक्षेप किए बगैर शांति और समाधान के साथ खड़ी दिखाई देगी.

 

ख़ुद को US से विपरीत साबित करने की चीनी पैंतरेबाजी

 

यह चीन की ख़ुद को विशेषत: US और आमतौर पर पश्चिम से विपरीत साबित करने की कोशिश है. उसने अक्सर ईराक और अफ़गानिस्तान का उदाहरण देकर यह बताने की कोशिश की है कि सैन्य-आधारित नीतियों की वजह से गहरी राजनीतिक समस्याएं पैदा होती हैं. आठ अक्टूबर को हुए हमलों के बाद मध्यपूर्व के लिए चीन के विशेष दूत झाई जून को काफ़ी सक्रिय देखा गया था. झाई ने अनेक क्षेत्रीय और वैश्विक दक्षिण के नेताओं से फोन पर बातचीत करते हुए दो-राष्ट्र समाधान को स्वीकारते हुए सभी पक्षों से युद्ध को रोकने की वकालत की थी. 14 अक्टूबर 2023 को सऊदी अरब के विदेश मंत्री से बात करते हुए वांग ने इजराइल की ओर से किए गए जवाबी हमले की आलोचना की थी. उन्होंने तत्काल इजराइल से अपने ‘‘समूह सजा’’ को रोकने की मांग करते हुए कहा था कि फिलिस्तीन के साथ ‘‘ऐतिहासिक अन्याय’’ हुआ है, जिसे आगे जारी रहने नहीं दिया जा सकता. चीन अपने इसी निर्णय पर आज भी कायम है. 

 इस तरह के मुखर रुख़ और मध्यस्थता को लेकर कड़े फैसले लेने की तैयारी के कारण बीजिंग की अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में काफ़ी चर्चा हो रही है. यह बात ख़ासतौर पर मुस्लिम विश्व और वैश्विक दक्षिण के मामले में सही साबित होती है.

इस तरह के मुखर रुख़ और मध्यस्थता को लेकर कड़े फैसले लेने की तैयारी के कारण बीजिंग की अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में काफ़ी चर्चा हो रही है. यह बात ख़ासतौर पर मुस्लिम विश्व और वैश्विक दक्षिण के मामले में सही साबित होती है. लेकिन मध्य पूर्व में लगातार बने रहने की चीन की तैयारी रणनीतिक रूप से दूरी की कौड़ी दिखती है. फिलिस्तीनी समाधान का यह रूप यदि असफ़ल भी हो गया तो बीजिंग को ज़्यादा कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी. इसकी विफ़लता का दोष फिलिस्तीनी गुटों पर ही थोपा जाएगा. लेकिन इसकी वजह से चीन की अरब विश्व में स्थिति मजबूत हो जाएगी. इस क्षेत्र को लेकर लंबे समय से चीन की नीति, ‘हम वहीं करेंगे जो अरब लोगों की इच्छा है,’ वाली रही है. यह बात इस वजह से और भी पुख़्ता हो जाती है कि संतुलन बनाए रखने की कोशिशों के बावजूद इजराइल के साथ द्विपक्षीय संबंधों को स्थापित करने में बीजिंग को कोई दिक्कत नहीं है. चीन ने अब तक हमास का नाम लेकर उसकी आलोचना नहीं की है. ऐसे में इसी मुद्दे को इस विघटन की आधारशिला माना जा रहा है. दीर्घ अवधि में चीनी गणित US के साथ चली आ रही प्रतिस्पर्धा में उसकी अपनी स्थिति को ध्यान में रखकर लगाया गया है.

 

आज यह माना जा रहा है कि चीन तो फिलिस्तीन में शांति को लेकर आम सहमति बनाने की कोशिश कर रहा है, जबकि नेतन्याहू को गाज़ा को सपाट करने के लिए US की ओर से सारे हथियारों की आपूर्ति हो रही है. यह भी सच है कि हमास ने पिछले कुछ महीनों में नैरेटिव के युद्ध में महत्वपूर्ण विजय हासिल की है. यह विजय उसे इसके बावजूद मिली है कि उसने अब तक अनेक इजराइली नागरिकों को बंधक बनाकर रखा है. नैरेटिव के युद्ध में मिली जीत की वजह से इस आतंकी समूह को गाज़ा के भीतर फिलिस्तीनी समाज में अपनी कमज़ोर राजनीतिक स्थिति संभालने का अवसर मिला है. हमास के नेताओं को पता है कि यदि वे किसी भी कीमत पर राजनीतिक रूप से वापसी नहीं करेंगे तो अपने संगठन को खो देंगे और उनका बोरिया-बिस्तर बांधकर वे अतीत का हिस्सा बनकर रह जाएंगे.

क्या चीन इस क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर ख़ुद गहराई से प्रतिबंध होने के लिए तैयार है? क्या चीन रणनीतिक और सामरिक दृष्टि से यहां गारंटर बनने को तैयार है? इस तरह के कड़े सवालों के लिए फिलहाल सभी संभावनाओं को देखते हुए जवाब नहीं ही है. 

मध्य पूर्व में चीन के पास लाभ उठाने के सीमित मौके ही बने हुए है. तालिबान, हमास, हिजबुल्लाह जैसे अन्य समूहों की ओर हाथ बढ़ाने के कारण वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक विकट स्थिति में फंस जाता है. कुछ हिस्सों में बीजिंग को उम्मीद है कि गाज़ा जैसे मुद्दों पर उसका स्पष्ट रुख़ उसे वैश्विक दक्षिण के भीतर ज़्यादा समर्थन हासिल करवाएगा. वैश्विक दक्षिण एक ऐसा समूह है जो बेहद ढ़ीले धागे में जुड़ा हुआ है. यह शक्तिशाली तो होता जा रहा है, लेकिन इसमें विघटन भी हो रहा है. इस विघटन का कारण US-चीन के बीच बढ़ रही प्रतिद्वंद्विता के बीच दो ध्रुवीय व्यवस्था विखंडित होना है. फ़िलहाल चीन संभवत: और निश्चित रूप से इस बात को लेकर गर्वित महसूस करेगा कि उसने फिलिस्तीनी गुटों को सहयोग करने के लिए एक समझौता, भले ही कागजी क्यों न हो, करने के लिए मना लिया है. लेकिन क्या चीन इस क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर ख़ुद गहराई से प्रतिबंध होने के लिए तैयार है? क्या चीन रणनीतिक और सामरिक दृष्टि से यहां गारंटर बनने को तैयार है? इस तरह के कड़े सवालों के लिए फिलहाल सभी संभावनाओं को देखते हुए जवाब नहीं ही है. 


कबीर तनेजा, ऑर्ब्जवर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम में फैलो हैं.

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