भारत के बड़े शहरी इलाक़ों में एक साथ कई बीमारियों का शिकार होने की समस्या बढ़ती जा रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) मल्टीमोरबिडिटी यानी एक साथ कई बीमारियों से ग्रस्त होने को इस तरह से परिभाषित करता है कि जब किसी इंसान को दो या उससे ज़्यादा गंभीर बीमारियां हो जाएं, जिससे उसकी सेहत और बेहतरी पर बहुत दबाव बढ़ जाए. भारत के शहरी इलाक़ों में एनीमिया, अस्थमा, डायबिटीज़, हाइपरटेंशन और मोटापे की बीमारियां सबसे आम हैं. कम और मध्यम आमदनी वाले जिन देशों में आम तौर पर बड़े पैमाने पर गांवों के शहरों की ओर प्रवास होता है, उन देशों में सेहत की समस्या बहुत बढ़ जाती है. इसकी प्रमुख वजह ये है कि गांवों से शहरों में आकर रहने वाले लोगों के रहन-सहन में बहुत बड़ा बदलाव आता है. जलवायु परिवर्तन की भयंकर घटनाओं जैसे कि शहरों में भयंकर गर्मी, बाढ़ और सूखे के असर से कम आमदनी वाले समूह के लोगों को बहुत सी बीमारियां होने का ख़तरा बढ़ जाता है, जिसका सीधा असर उनकी सेहत पर पड़ता है.
भारत के शहरों में एक साथ कई बीमारियां होने का पैटर्न
तेज़ी से हो रहे शहरीकरण और शहरों की ओर प्रवास ने शहरों में अलग अलग तबक़ों की मिली जुली आबादी की रफ़्तार तेज़ कर दी है. शहरी इलाक़ों में लोगों के कई बीमारियों के एक साथ शिकार बनने की समस्या को बढ़ा दिया है. तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे दक्षिण के राज्यों ने देखा है कि विशाखापट्टनम और हैदराबाद जैसे बड़े शहरों में अनेक बीमारियां एक साथ होने की दर बहुत बढ़ गई है. भारत में ‘पैटर्न्स ऑफ मल्टी मोरबिडिटी’ नाम से की गई एक स्टडी में पाया गया है कि महिलाओं और पुरुषों की स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच में असमानता, और महिलाओं के हाशिए पर पड़े तबक़े का होने की वजह से उनमें कई बीमारियां होने का जोखिम बढ़ जाता है.
Figure 1: भारत में सबसे आम बीमारियां (Multimorbidity)
स्रोत: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-21)
तेज़ी से बढ़ती आबादी और बीमारियों को लेकर हो रहा ये बदलाव, भारत के लिए स्वास्थ्य की बड़ी चुनौती खड़ी कर रहा है. मल्टीमोरबिडिटी की समस्या गांवों (5.7 प्रतिशत) की तुलना में शहरों में (9.7 प्रतिशत) कहीं ज़्यादा है. शहरों में 40 से 49 साल के वयस्कों के बीच कम से कम एक मल्टीमोरबिडिटी 56 से 64 प्रतिशत लोगों को होती है. जबकि गांवों में इसका प्रतिशत 39 से 50 के बीच है.
Figure 2: भारत के शहरी बनाम ग्रामीण इलाक़ों में मल्टीमॉर्बिडिटी की स्थिति
स्रोत: भारत में बहुरुग्णता के पैटर्न: 15 से 49 वर्ष की आयु के व्यक्तियों का एक राष्ट्रीय प्रतिनिधि क्रॉस-सेक्शनल अध्ययन
ये समस्या इसलिए और बिगड़ जाती है, क्योंकि शहरों में आमदनी की असमानताओं ने स्वास्थ्य व्यवस्था तक पहुंच में बहुत अंतर पैदा कर दिया है. आम तौर पर मल्टीमोरबिडिटी का सीधा ताल्लुक़ अपनी जेब से पैसे ख़र्च करके इलाज कराने से जुड़ा है. शहरों में कम आमदनी वाले लोगों पर इस अनुपात का गहरा असल पड़ता है. इससे स्वास्थ्य व्यवस्था की लागत भी बढ़ जाती है. शहरों में जो सबसे ग़रीब लोग होते हैं, उनमें मल्टीमोरबिडिटी की मात्रा (47.88 प्रतिशत), ग़रीब लोगों की तुलना में (41.44 फ़ीसद) अधिक होती है. कम आमदनी वाले लोग आम तौर पर पर्याप्त स्वास्थ्य सेवा हासिल करने में अधिक बाधाओं जैसे कि सस्ती न होने, स्वास्थ्य केंद्रों में पर्याप्त कर्मचारी न होने और यहां तक कि अपनी सेहत को लेकर सही जानकारी न होने का सामना करते हैं. इसके अलावा पीने के साफ़ पानी और सैनिटेशन (शौच और नहाने की उचित व्यवस्था) की सुविधाएं न होने से उनके मल्टीमोरबिडिटी का शिकार होने का जोखिम और बढ़ जाता है.
अध्ययनों से ये भी पता चला है कि भले ही लोग किसी भी सामाजिक आर्थिक समूह से ताल्लुक़ रखते हों, ज़्यादातर लोग फ़ौरी तौर पर ठीक हो जाने वाली छोटी मोटी बीमारियों जैसे कि सर्दी, ज़ुकाम और बुखार का इलाज कराते हैं. वो आम तौर पर भयंकर और लंबे समय तक इलाज की ज़रूरत वाली बीमारियों की अनदेखी करते हैं. हालांकि, सामाजिक आर्थिक समूहों के भीतर भी लंबी और भयंकर बीमारियों जैसे कि डायबिटीज़ और हाइपरटेंशन के इलाज को लेकर असमानताएं साफ़ दिखती हैं. इन्हें आम तौर पर प्रमुख को-मोरबिडिटी माना जाता है. चूंकि इनका इलाज लंबा चलता है. उसका ख़र्च ज़्यादा आता है. इसलिए इनके इलाज में भी अलग अलग वर्गों में काफ़ी असमान स्थिति देखने को मिलती है. भयंकर को-मोरबिडिटी की जांच और फिर उसके इलाज का ख़र्च जैसे जैसे बढ़ता जाता है, वैसे वैसे ‘इनवर्स केयर का नियम’ लागू होता जाता है. क्योंकि, ख़र्च बढ़ने पर कम आमदनी वाले समूहों के लोग इन बीमारियों का इलाज कराने से गुरेज़ करने लगते हैं, जिससे स्वास्थ्य सेवा तक उनकी पहुंच, डॉक्टर से कम सलाह मशविरा और फ़िजिशियन पर दबाव बढ़ने जैसी समस्याएं पैदा हो जाती हैं.
मल्टीमोरबिडिटी का पता लगाने की ज़रूरत कोविड-19 महामारी के दौरान साफ़ तौर पर नज़र आई थी. क्योंकि, जिन लोगों को पहले से दूसरी बीमारियां थीं, उनके इस वायरस से संक्रमित होने का ख़तरा दूसरों की तुलना में बहुत अधिक था. तमाम अस्पतालों ने कोरोना के मरीज़ों का जो आंकड़ा जुटाया था, उससे पता चलता है कि गांवों की तुलना में शहरों में कोविड-19 के मरीज़ों की तादाद अधिक थी, क्योंकि शहरों में लोग पहले से दूसरी बीमारियों के शिकार थे.
Table 1: भारत के शहरों में कोविड-19 के मरीज़ों में मल्टीमोरबिडिटी की स्थिति
City |
Prevalence of Multimorbidity in COVID-19 Patients (30-49 age group) |
Bangalore |
40.7% |
Delhi |
38% |
Chandigarh |
29.8% |
Mumbai |
18.72% |
Chennai |
17.7% |
संदर्भ: भारतीय सीओवीआईडी -19 रोगियों में सह-रुग्णताओं की व्यापकता और मृत्यु दर के साथ इसका संबंध: एक मेटा-विश्लेषण
शहरों का माहौल और सेहत पर इसका असर
जलवायु परिवर्तन की वजह से दुनिया भर के शहरों में भयंकर मौसम, जैसे कि शहरों में बेतहाशा गर्मी वाले इलाक़े (UHIE) बनने और अचानक भयंकर बाढ़ आने की समस्याएं देखने को मिल रही हैं. भयंकर गर्मी वाले इलाक़े (UHIE) से शहरों का तापमान बहुत बढ़ जाता है. इसकी बड़ी वजह ये है कि शहरों में कंक्रीट के घने जंगल, आधुनिक मूलभूत ढांचे जैसे कि सड़कों और इमारतों का घनत्व अधिक होता है, जो गर्मी को बाहर निकालने के बजाय उसे सोख लेते हैं. UHIE से बिजली की खपत बढ़ती है और ग्रीन हाउस गैसों और दूसरे प्रदूषक तत्वों का उत्सर्जन भी, जिससे इंसान की सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ता है. मिसाल के तौर पर हीट आइलैंड से हीट वेव का असर और बढ़ जाता है, जिससे लोगों के लू लगने का ख़तरा और बढ़ जाता है.
मौसम के दूसरे भयानक स्वरूपों जैसे कि बाढ़, सूखा और चक्रवात भी कम आमदनी वाले समूहों की सेहत पर बुरा असर डालते हैं. भयंकर गर्मी से सूखे की समस्या बढ़ जाती है, जिससे खाने और पानी की क़िल्लत में इज़ाफ़ा होता है और फिर इससे खाद्य असुरक्षा, पोषक तत्वों का अभाव और हैजे जैसी पेट की बीमारियां बढ़ जाती हैं. शहरों में ख़ास तौर से बाढ़ की समस्या बारिश का पानी निकालने की व्यवस्था में कमी की वजह से पैदा होती है. इससे पानी से और संक्रामक बीमारियां फैलने का ख़तरा बढ़ जाता है. इसके अलावा पानी में डूबकर गहरी चोट लगने और सांस के संक्रमण भी बाढ़ की वजह से हो सकते हैं. चूंकि कम आमदनी वाले समूहों के रहन सहन का स्तर अच्छा नहीं होता, इसलिए उनके इन मौसमी समस्याओं के शिकार होने का ख़तरा ज़्यादा रहता है.
स्वास्थ्य सेवा में कमियां और उनके प्रस्तावित समाधान
भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था मुख्य रूप से सीधी सेवा उपलब्ध कराती है, जिसमें सिर्फ़ एक बीमारी पर ध्यान दिया जाता है. वहीं दूसरी ओर, मल्टीमोरबिडिटी से जूझ रहे करोड़ों लोगों को एक साथ कई बीमारियों का इलाज कर सकने वाली स्वास्थ्य सेवा की ज़रूरत होती है, न कि किसी एक बीमारी का इलाज कराने की. प्रति एक हज़ार लोगों पर केवल 0.7 डॉक्टर होने का औसत और निजी अस्पतालों और क्लीनिक में जाने का चलन ग़रीबों के लिए स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच को और दूर कर देता है. बीमा योजनाएं और कम आमदनी वाले समूहों को सरकारी मदद की व्यवस्थाएं होने के बावजूद, स्वास्थ्य को लेकर सीमित समझ जैसी चुनौतियों के कारण ही देश में स्वास्थ्य के मामले में इतनी असमानता है.
इसीलिए, सरकार को मरीज़ों का ख़याल रखने पर केंद्रित एक एकीकृत और चहुंमुखी स्वास्थ्य व्यवस्था को प्राथमिकता के आधार पर लागू करना चाहिए. मौजूदा सरकारी कार्यक्रमों जैसे कि नेशनल प्रोग्राम फॉर प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ कैंसर, डायबिटीज़, कार्डियोवैस्कुलर डिज़ीज़ेज ऐंड स्ट्रोक्स (NCDCS) की स्क्रीनिंग बढ़ाकर ऐसा एकीकरण हासिल किया जा सकता है. लोगों की ज़्यादा से ज़्यादा जांच करने से मल्टीमोरबिडिटी का पता जल्दी लगाकर उनका इलाज शुरू किया जा सकेगा. इसके अलावा सरकार को अधिक व्यापक कार्यक्रम भी शुरू करने चाहिए, जो हाइपरटेंशन, मोटापे और एनीमिया जैसी बीमारियों का सामूहिक रूप से इलाज कर सकें.
आयुष्मान भारत या प्रधानमंत्री जन-आरोग्य योजना एक अनूठी और पूरी तरह सरकारी पैसे से चलने वाली योजना है, जो जनता और ख़ास तौर से ग़रीब तबक़े के लोगों को को दुनिया का सबसे बड़ा स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम और उसके ज़रिए सुलभ और सस्ती स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराती है. हर परिवार को पांच लाख रुपए का बीमा देकर, ये कार्यक्रम चुनी हुई स्वास्थ्य सेवाओं के बजाय स्वास्थ्य की एक बहुआयामी और व्यापक सुविधा उपलब्ध कराती है. हाल ही में विकसित किए गए कार्यक्रम जैसे कि आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन (ABDM) का मक़सद भारत में एकीकृत डिजिटल स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करना है. ये कार्यक्रम ग़रीबों के लिए स्वास्थ्य सेवा की उपलब्धता आसान बनाकर मल्टीमोरबिडिटी और दूसरी बीमारियों की रोकथाम के लिए काम कर रहा है. एक बहुआयी स्वास्थ्य व्यवस्था खड़ी करने की दिशा में ये एक सकारात्मक क़दम है. हालांकि, शहरी मलिन बस्तियों के आस-पास ‘हेल्थ ऐंड वेलनेस सेंटर’ खोलकर आयुष्मान भारत को और असरदार बनाया जा सकता है, जिससे शहरी ग़रीबों को सेहत की सुविधा ज़्यादा आसानी से उपलब्ध हो सके और उनको इलाज के लिए अपनी जेब से ज़्यादा पैसे भी न ख़र्च करने पड़े . सरकार को चाहिए कि वो ABDM का अधिक व्यापक उपयोग करने के लिए सामुदायिक स्तर पर जागरूकता के बड़े कार्यक्रम चलाए और प्रशिक्षण देने के लिए वर्कशॉप भी आयोजित करें .
निष्कर्ष
ये समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि शहरी इलाक़ों में रहने और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच वाली सामाजिक आर्थिक हैसियत के बीच एक मज़बूत संबंध है. कई अध्ययनों ने दिखाया है कि भारत में तेज़ी से हो रहे शहरीकरण और शहरों की ओर प्रवास ने ऊंची आमदनी वाले लोगों और ग़रीबों के बीच स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच के मामले में बड़ी असमानताओं को जन्म दिया है. एक साथ अनेक बीमारियां होने की समस्या (Multimorbidity) और स्वास्थ्य की दूसरी समस्याओं से निपटने के लिए ज़रूरी है कि इस फ़ासले को और बढ़ने से रोकने के लिए तेज़ी से काम किया जाए.
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