Published on Dec 18, 2023 Updated 1 Days ago
वर्ष 2024 में भू-राजनीति: क्या उम्मीद करें?

भौगोलिक क्षेत्र भले ही स्थिर हों, मगर उनके नीचे की ज़मीन लगातार खिसक रही है. 2024 में इन अस्थिरताओं की रफ़्तार और तेज़ होगी. यूक्रेन की सीधी सपाट सरहदों पर रूस के हमले से लेकर, इज़राइल और हमास के संघर्ष की ज़मीनी और मनोवैज्ञानिक सुरंगों के जाल तक, ये साल जंग की शतरंज का मैदान बना रहने वाला है. इनमें से कुछ का ख़तरा होगा, तो कुछ टकराव वाक़ई में होते दिखेंगे. बमबारी और सर क़लम करने से लेकर नए युद्ध सियासी मनोविज्ञान के मोर्चे पर भी लड़े जाएंगे. आम नागरिक और उनके नेताओं से अपेक्षा की जाएगी कि वो अपने हितों को बॉक्सिंग रिंग के दो में से किसी एक कोने में सुरक्षित करें. एक तरफ़ यूक्रेन पर रूस का हमला है, तो दूसरी ओर इज़राइल पर आतंकवाद की बर्बरता है. आने वाले साल में भू-राजनीति मौजूदा हालात से और भी ध्रुवीकृत होती दिखेगी. वैचारिक संघर्षों का अक्स हमें संयुक्त राष्ट्र (UN) में दिखेगा. तेल, तकनीक व्यापार और धर्म, जिनको हथियार बनाने की रफ़्तार पिछले पांच साल से बढ़ती जा रही थी, आने वाले साल में उसमें और तेज़ी आती दिखेगी.

आने वाले साल में भू-राजनीति मौजूदा हालात से और भी ध्रुवीकृत होती दिखेगी. वैचारिक संघर्षों का अक्स हमें संयुक्त राष्ट्र (UN) में दिखेगा.

लेकिन, पिछले कुछ वर्षों  की तुलना में आने वाले बारह महीने जिन मायनों में ख़ास तौर से अलग दिखेंगे, वो ये तथ्य है कि हम बनाम वो को अलग करने वाली लक़ीर मद्धम पड़ेगी. पर, उसका नतीजा हमें हमेशा आपसी समझ बढ़ने या वैचारिक स्तर पर और गहराई से संपर्क के तौर पर नहीं दिखेगा. जैसे जैसे हिंसा को बौद्धिक और शारीरिक तौर पर जायज़ ठहराने का सिलसिला  बढ़ रहा है, वैसे वैसे उसका प्रतिउत्तर भी बढ़ेगा. निजी तकलीफ़ों को अगर सही धार्मिक और राजनीतिक विचारधारा के खांचे में फिट करके पेश किया जाए, तो दुनिया उसके प्रति अंधी और बहरी होती जा रही है. ऐसे में इन इंसानी तकलीफ़ों से निपटने के लिए और तगड़े मानवीय जज़्बात और हमदर्दी भरी निगाह की दरकार होगी. इसके लिए नए नेताओं की ज़रूरत होगी जो आकांक्षाओं की भावना से लबरेज़ हों. ये 2024 में नहीं होगा. ऐसी तमाम चर्चाओं के बावजूद आने वाला साल बदला लेने वाला रहने वाला है.

वर्तमान परिदृश्य

अमेरिका और चीन जैसी बड़ी शक्तियों और भारत जैसी उभरती हुई ताक़तों के गहरे हित, घरेलू ज़रूरतों के हिसाब से बदलते रहेंगे; अंतरराष्ट्रीय राजनीति की चौपड़ पर मूल्य मोहरों की तरह जगह और चेहरे बदलते रहेंगे. संयुक्त राष्ट्र, G21 या फिर ब्रिक्स (BRICS) जैसे बहुपक्षीय संगठन, शांति, हरित और टिकाऊ भविष्य जैसे नरम मुद्दों पर सामूहिक तालमेल तो करेंगे. लेकिन ये मंच टिकाऊ सीमाओं और घुसपैठों को भौतिक और डिजिटल दोनों को लेकर कड़े द्विपक्षीय मोल-भाव का मंच बन जाएंगे. ऐसी वार्ताओं पर संकीर्ण हित हावी रहेंगे.

ये हित साधारण भी हो सकते हैं, जैसे कि युद्धरत देशों से ऊर्जा संसाधन हासिल करना. या फिर ये हित ज़्यादा परतदार भी हो सकते हैं, जैसे कि चीन से होने वाले विदेशी निवेश और तकनीकी घुसपैठ की बाज़ार में गहराई तक. मूल्य आधारित निरंतरता तो 2022 में ही इस दुनिया से विदा ले चुकी है और उसने ख़ुद को ख़ोखले नैतिक पाठ पढ़ाने का रूप धर लिया है. जैसे कि रूस से तेल और गैस ख़रीदने पर यूरोप द्वारा भारत को शर्मिंदा करने की कोशिश. यहां तक कि सरकार के एक रूप के तौर पर लोकतंत्र या फिर लोकतंत्र के एक औज़ार के रूप में बोलने की आज़ादी भी छिछले राजनीतिक हित साधने तक सीमित रह जाएगी. जैसा कि 2023 में कनाडा ने ख़ुद को पाकिस्तान के साथ खड़ा करके दिखाया था, जब उसने अपनी धरती से भारत के ख़िलाफ़ खालिस्तानी आतंकवाद का समर्थन, बोलने की आज़ादी की खोखले दावों के साथ किया था. ये सब तब हो रहा है, जब दुनिया का सबसे बड़ा दुश्मन और उसके तानाशाही साथी देश लोकतंत्र को लोकतांत्रिक देशों के ख़िलाफ़ हथियार बनाकर इस्तेमाल कर रहे हैं.

2023 में कनाडा ने ख़ुद को पाकिस्तान के साथ खड़ा करके दिखाया था, जब उसने अपनी धरती से भारत के ख़िलाफ़ खालिस्तानी आतंकवाद का समर्थन, बोलने की आज़ादी की खोखले दावों के साथ किया था.

एक तरफ़ तेल, गैस और दुर्लभ खनिजों जैसे  क्रिटिकल मिनरल्स जैसे भौगोलिक संसाधन, वहीं दूसरी ओर डेटा, तकनीक और नैरेटिव जैसे नापे जा सकने वाले संसाधनों पर नियंत्रण और उनके संरक्षण की कोशिशें 2024 में तेज़ होंगी. इस साल सभी की निगाहें, लैटिन अमेरिकी देश वेनेज़ुएला पर रहेंगी, जिसके ख़िलाफ़ लगे प्रतिबंधों में रियायत देने की शुरुआत अमेरिका ने अक्टूबर 2023 में की थी. वैसे तो अमेरिका के इस क़दम से दुनिया में तेल और गैस की आपूर्ति की स्थिति बेहतर तो होगी. लेकिन, सबसे अहम बात तो ये होगी कि वेनेज़ुएला के ये संसाधन  कितनी तेज़ी से बाज़ार में दाखिल होते हैं. ये साल वैसा भी रहने वाला है, जब वेनेज़ुएला एक तरफ़ तो ऊर्जा का आपूर्तिकर्ता बनेगा, वहीं दूसरी ओर वो पूरी दुनिया में भू-राजनीतिक समझौते भी करेगा. उसके सबसे बड़े बाज़ार अमेरिका, चीन और भारत रहने वाले हैं. अगर वेनेज़ुएला ने समझदारी दिखाई, तो वो अपनी अर्थव्यवस्था का विस्तार अन्य क्षेत्रों में भी कर सकता है, जैसा इन दिनों सऊदी अरब कर रहा है, ताकि वो वैश्विक निवेश आकर्षित कर सके और अपने तेल और गैस के संसाधनों का इस्तेमाल करके अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में तरक़्क़ी कर सके.

2019 में कोरोना वायरस के साथ ही जो भू-राजनीतिक समीकरण बनने शुरू हुए थे, 2024 में उनकी अगुवाई अमेरिका करता रहेगा और वो चीन के इर्द-गिर्द घूमते रहेंगे. क्योंकि, चीन ने ही इस महामारी को पहले पैदा किया और फिर भौतिक और आर्थिक रूप से पूरी दुनिया में फैलाया था. अपने आर्थिक, सैन्य और सामरिक दबदबे का इस्तेमाल करके अमेरिका लगातार चीन का मुक़ाबला करने में जुटा है. फिर चाहे वो स्वयं और अपने साथी देशों द्वारा चीन की कंपनियों को अपने 5G नेटवर्क के विस्तार से प्रतिबंधित करना हो या फिर चीन को सेमीकंडक्टर और उन्नत चिप बेचने पर प्रतिबंध लगाना. अमेरिका के इन क़दमों को पूरी दुनिया से समर्थन मिलता दिख रहा है. मिसाल के तौर पर चीन की टेक्नोलॉजी कंपनी हुआवेई को प्रतिबंधित करने की शुरुआत ऑस्ट्रेलिया से हुई थी. इसके बाद भारत ने भी यही किया और अपने यहां 5G तकनीक लागू करने से हुआवेई को दूर रखा. इसके बाद जर्मनी और फ्रांस को छोड़कर यूरोप के ज़्यादातर देशों ने भी यही क़दम उठाया. उधर चीन ने भी पलटवार करते हुए गैलियम जैसे दुर्लभ खनिज के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया, जिसकी ज़रूरत सेमीकंडक्टर बनाने में होती है. 2024 में दुनिया को भू-राजनीतिक डिस्कनेक्टिविटी  के ये दर्द और भी झेलने पड़ेंगे.

इससे या तो पूरी दुनिया एक भविष्य को लेकर आपसी समझ विकसित करेगी, जिसे बहुत शानदार तरीक़े से भारत ने एकजुटता जताने वाले अपने प्राचीन विचार, वसुधैव कुटुम्बकम (पूरी दुनिया एक ही परिवार है) और भू-राजनीतिक ज़ख़्मों पर मरहम लगाने वाले ऐसे ही अन्य विचारों से परिभाषित किया है. या फिर, आपसी टकराव का रवैया और बढ़ जाएगा, जिससे दूरियां बढ़ेंगी और एकजुटता की उस मरीचिका की ओर दुनिया लड़खड़ाते हुए बढ़ेगी, जिसे 2024 में हासिल करना मुश्किल होगा. चूंकि अब संयुक्त राष्ट्र ने ख़ुद को दुनिया का सबसे महंगा और बेअसर संगठन साबित कर दिया है, जो अपने सबसे पहले मक़सद- यानी दुनिया में शांति और सुरक्षा क़ायम करना- को हासिल करने में ही नाकाम रहा है, तो दुनिया इस निष्कर्ष पर पहुंच जाएगी कि भले ही संयुक्त राष्ट्र को उसकी ऊंचाइयों से उतार पाना भले ही नामुमकिन हो, मगर ऐसा नहीं है कि वो एक नाकाम संगठन साबित हो. ये संस्थागत बहस इस हक़ीक़त के इर्द-गिर्द चलती रहेगी कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच में से चार देश तो खुलकर और पांचवां चीन दबे छुपे तरीक़े से- शांति के बजाय युद्ध लड़ रहे हैं.

प्रभावी रूप से 2024 में दुनिया अधिक पेंचदार और ख़तरनाक दौर मे दाख़िल होगी, जहां पर तनावों की शुरुआत तो देशों के बीच होगी, मगर उनका सबसे ज़्यादा असर कंपनियों, कामगारों और नागरिकों पर पड़ेगा.

भू-राजनीतिक तनावों की ये बढ़ती जटिलता केवल सरकारों की समस्या नहीं है. वो धीरे धीरे रिसकर नीचे भी आती हैं और सब पर असर डालती हैं. आज शायद ही किसी कंपनी का बोर्डरूम होगा, जहां सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से- भू-राजनीति और इससे जुड़े वित्तीय मसले और प्रतिबंध, एजेंडे का हिस्सा हों. इस मामले में लगातार बाधित हो रहा समीकरणों के भूगोल का शुरुआती आधार बनना एक नई सामान्य बात होगी. लेकिन, इन समीकरणों से संवाद करना कठिन होगा. सामरिक विश्लेषकों द्वारा चीन से दूरी बनाने की मांग करना बिल्कुल वाजिब है. लेकिन, चीन के बाज़ार से पूरी तरह अलग होने के लिए भारी तादाद में निवेश, ऐसे कामगार जो नौकरी के साथ साथ नए कौशल में महारत हासिल करते जाएं, जानकारी के इनपुट का एक संबंधित इकोसिस्टम और ऐसे बाज़ार की भी ज़रूरत होगी, जहां इन उत्पादों की खपत हो, उनसे मुनाफ़ा हो और कंपनियों का मूल्य बढ़े; कंपनियों द्वारा किसी ख़ास देश से दूरी बनाना उतना आसान काम नहीं है, जितना वहां से भाग निकलना. इसके लिए दूरगामी विश्लेषण की ज़रूरत होगी, जिससे वर्तमान और भविष्य के शेयरधारकों और कामगारों के हितों के बीच संतुलन बनाया जा सके.

आगे की राह

एप्पल जैसी कंपनियां अगर चीन से दूरी बना रही हैं और भारत एवं वियतनाम में कारखाने लगा रही हैं, वो शायद आने वाले दौर का ही संकेत है. 2024 में ये दरारें और भी चौड़ी, गहरी और ख़तरनाक होती दिखेंगी. वहीं दूसरी तरफ़, बाज़ार में चीन के उत्पादों की बाढ़ आती रहेगी. सीमा पर भू-राजनीतिक तनाव और लगातार बढ़ते व्यापार घाटे के बावजूद, चीन आज भी भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है; भारत के सैनिकों द्वारा सरहद पर खड़े होकर देश की क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करने का उल्टा असर होता दिखा, क्योंकि भारत के ग्राहक सस्ते सामान की तलाश में रहे.

आने वाले साल में, बड़ी कंपनियों में भू-राजनीतिक विभागों के तौर पर नई महारत की मांग बढ़ती दिखेगी. ‘जोखिमशब्द का असर केवल आम लोगों, उत्पादों और नीतियों पर बढ़ता दिखेगा; बल्कि इसकी चपेट में अंतरराष्ट्रीय गतिविधियां और उनसे जुड़े मामले भी आएंगे. प्रभावी रूप से 2024 में दुनिया अधिक पेंचदार और ख़तरनाक दौर मे दाख़िल होगी, जहां पर तनावों की शुरुआत तो देशों के बीच होगी, मगर उनका सबसे ज़्यादा असर कंपनियों, कामगारों और नागरिकों पर पड़ेगा.

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