Published on Nov 22, 2019 Updated 0 Hours ago

डिजिटल आईडी का कॉन्सेप्ट तैयार करते वक्त और प्लेटफ़ॉर्म पर अमल को लेकर सरकारों के पास कई आजादियां होती हैं, वे तय कर सकते हैं कि आइडेंटिटी किसे दी जाए और उसके साथ कौन से विशेषाधिकार जोड़े जाएं.

डिजिटल आईडी प्लेटफ़ॉर्म का गवर्नेंस पर क्या असर होगा?

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था  राष्ट्र-राज्यों के राजनीतिक पहचान पर आधारित थी, लेकिन डिजिटल आइडेंटिटी प्लेटफ़ॉर्म के आने और उसके विस्तार से अंतरराष्ट्रीय संबंधों के इस पवित्र माने जाने वाले सिद्धांत को चुनौती मिल रही है. डिजिटल आईडी की लोकप्रियता ऐसे वक्त में बढ़ रही है, जो इतिहास की नज़र से बेहद दिलचस्प है. 20वीं सदी में ‘उदारवादी, अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था’ ने अपना ज़्यादातरसमय किसी भी युद्ध की आशंका को ख़त्म करने की कोशिशों में लगाया, जबकि 21वीं सदी के ग्लोबल गवर्नेंस का मकसद इंडिविजुअल यानी व्यक्ति की सेवा करना है. मिसाल के लिए, 17 सस्टेनेबल डिवेलपमेंट गोल्स (SDG) में से कम से कम 10 तो व्यक्तिगत स्तर पर सुधार से जुड़े हैं. डिजिटल आईडी प्लेटफ़ॉर्म ख़ुद को इनमें से कुछ लक्ष्यों को पूरा करने के ज़रिये के तौर पर पेश कर रहे हैं और इसके ज़रिये वे ख़ुद को बतौर SDG ‘कानूनी पहचान’ देने की कोशिश कर रहे हैं. मोटे तौर पर, आज किसी इंडिविजुअल की ज़रूरतें सिर्फ़ सरकारें ही पूरी नहीं कर रही हैं. अक्सर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की भी उनमें भूमिका रहती है, जो मानवीय सहायता या इंसाफ दिलाने की कोशिश के रूप में हो सकती है.

सच तो यह है कि इंसानी गतिविधियों पर अंतरराष्ट्रीय संगठनों का प्रभाव इतना अधिक हो गया है कि यूरोप के लीगल स्कॉलर यान क्लेबर्स (Jan Klabbers) ने अलग-अलग देशों के साथ उनके संबंधों की तुलना फ्रैकेंस्टाइन और उसके राक्षस से की, ‘भले ही तुमने मुझे बनाया हो, लेकिन तुम्हारा स्वामी मैं हूं. अब मेरा कहा मानो.’ मिसाल के लिए, इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट के प्रॉसिक्यूटर के पास ‘अंतरराष्ट्रीय समुदाय’ से जुड़े अपराधों के मामले में मुक़दमा करने का अधिकार है, न कि संबंधित देशों के पास. अभी तक किसी गतिविधि को अपराध करार देने और इंडिविजुअल फ़्रीडम से संबंधित राष्ट्र के अधिकार पर सवालिया निशान लग जाता है. संक्षेप में कहें तो ‘इंसान’ आज वाल्जियन संदर्भ में किए गए विश्लेषण की तीसरी ‘इमेज’ नहीं रह गया है, बल्कि वह ऐसी भूमिका में है जिसके अधिकार और जवाबदेही सीधे अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से जुड़े हुए हैं.

इस लेख में यह बताया गया है कि डिजिटल आईडी ने इंडिविजुअल और इंटरनेशनल ऑर्डर को सीधे जोड़ दिया है और इसमें संबंधित देश के संस्थानों के असर डालने की आशंका भी नहीं बची है. कई डिजिटल आईडी प्लेटफॉर्म तो ख़ुद सरकारों ने बनाए हैं, लेकिन शायद उनकी वजह से उसके यूनीक स्टेटस और राजनीतिक पहचान धुंधली हो रही है. इस लेख पर आगे बढ़ने से पहले कुछ बातें स्पष्ट करना जरूरी है. पहली बात तो यह है कि डिजिटल आईडी प्लेटफ़ॉर्मग्लोबल गवर्नेंस में देशों की जगह नहीं लेने जा रहे. बहुपक्षीय व्यवस्था भले ही परिष्कृत, महत्वाकांक्षी और दख़ल देने वाली हो गई हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में राष्ट्र की भूमिका सर्वोच्च बनी हुई है और इसे बनाए रखने के लिहाज़ से उसका प्रदर्शन शानदार रहा है. देशों से संबंधित मामलों को मैनेज करने के लिए आज जो नेटवर्क है, उससे तीन स्पष्ट और महत्वपूर्ण तरीकों से उनकी राजनीतिक पहचान ख़ास बनी हुई है.

पहला, अंतरराष्ट्रीय कानून में देशों की प्रमुख भूमिका बनी हुई है. ख़ासतौर पर प्रवास या व्यापार के नियम वही तय करते हैं. मिसाल के लिए, विश्व व्यापार संगठन (WTO) लंबे समय से व्यापार में सीमा शुल्क संबंधी बाधाओं को ख़त्म करने की पहल करता आया है, ताकि दो या उससे अधिक देशों के बीच व्यापार में राजनीतिक दख़लअंदाज़ी बंद हो.[2] हालांकि, जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड से देशों को संरक्षणवादी कदम उठाने से नहीं रोका जा सका, जो अक्सर तत्कालीन सरकार की राजनीतिक, यहां तक कि वैचारिक पसंद से निर्देशित होते है.[3] यूरोपियन यूनियन शायद ‘सुपरा-नेशनल’ गवर्नेंस का सबसे सच्चा और वास्तविक प्रतीक है, लेकिन हाल ही में उसने भी माना है कि उसके सदस्य देश विदेश नीति और सुरक्षा मामलों में अपने मन की करते हैं. 2007 के लिस्बन समझौते के तहत यूरोपियन काउंसिल का गठन हुआ था, जो यूरोप के देशों और सरकारों का स्वतंत्र राजनीतिक संगठन था. 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट[4] के बाद से इसे जो प्रमुखता मिली है, उसे देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि देशों और उनके राजनीतिक हितों की अनदेखी करना संभव नहीं है.

दूसरी, 1945 के बाद से हिंसा और दूसरे देशों की हिंसा से बचाने के एकाधिकार से उनकी राजनीतिक स्वायत्तता और पहचान पर मुहर लग जाती है. अंतरराष्ट्रीय संबंधों में सिर्फ़ यही वो इकाइयां हैं, जिनके पास सीमा की सुरक्षा के लिए सैन्य बल के इस्तेमाल का अधिकार है. किसी देश को जब संभावित हमले से बचाने का वादा किया जाता है तो उसका आधार यह नहीं होता कि वहां की सरकार अच्छी है या बुरी. संयुक्त राष्ट्रसंघ चार्टर का आर्टिकल 2(4) सिर्फ़ किसी देश की सीमा को बलपूर्वक लांघने पर ही रोक नहीं लगता, इसमें संबंधित देश की राजनीतिक स्वायत्तता के उल्लंघन से भी रोक लगाई गई है. इसी तरह, चार्टर के आर्टिकल 2(7) में उन बातों का ज़िक्र है, जिनमें संस्था को दख़ल नहीं देना है. इसमें कहा गया है कि किसी देश के घरेलू मामलों से संयुक्त राष्ट्रसंघ दूरी बनाए रखेगा. संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर में जहां ताकत के इस्तेमाल के नियम सभी पर एक तरह से लागू किए जाने थे, लेकिन समय की मांग को देखते हुए ख़ास राजनीतिक और देश के मामले में इसमें बदलाव किया गया. 1973 में यूएन जनरल असेंबली ने माना कि अगर किसी देश के अंदर आज़ादी की लड़ाई लड़ी जा रही है तो उसके लिए सभी संभावित तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है. इसमें सशस्त्र संघर्ष भी शामिल है, जिसकी मदद से औपनिवेशिक सरकारों को हटाया जा सकता है. [5] हालांकि, ऐसे संघर्ष करने वालों को क्षेत्रीय अस्मिता और राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य पूरे करने होंगे, तभी उन्हें संयुक्त राष्ट्रसंघ की मान्यता मिलेगी.[6] 9/11 और अफगानिस्तान पर अमेरिका के हमले के बाद जानकारों और देशों के अंदर यह समझ बनी कि आत्मरक्षा का अधिकार सिर्फ़ विदेशी सरकार से बचाव तक सीमित नहीं है बल्कि इसके दायरे में दूसरे देश की धरती से संचालित कोई गतिविधि या संस्थाएं भी आएंगी, भले ही उनका वहां की सरकार से कोई लेना-देना न हो.[7] देशों और गैर-सरकारी ताक़तों के बीच सत्ता के संतुलन (जहां तक ताकत के इस्तेमाल की बात है) के मामले में देशों का पलड़ा भारी है.

तीसरी, अगर आप अंतरराष्ट्रीय इंस्टूमेंट्स पर सरसरी निगाह डालेंगे तो पाएंगे कि इंडिविजुअल के नागरिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को यूनिवर्सल यानी सार्वभौम घोषित किया गया है, लेकिन आख़िर में उन्हें लागू करने का ज़िम्मेदारी देशों पर डाली गई है. यूं तो मानवाधिकारों की निगरानी और रिपोर्टिंग एजेंसियों की संख्या में समय के साथ बढ़ोतरी हुई है, लेकिन उनका इस्तेमाल राजनीतिक हितों के लिए किया जाता रहा है. मिसाल के लिए, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद, ICT पर गवर्नमेंटल एक्सपर्ट्स का ग्रुप या ग्लोबल क्लाइमेट फंड के लिए होने वाले इलेक्शन आज भी पॉलिटिकल कैलकुलेशन पर आधारित होते हैं, उनका क्रमशः मानवाधिकार रिकॉर्ड, डिजिटल इकनॉमी के साइज या प्रदूषण कम करने की देशों की कोशिशों से कोई लेना-देना नहीं होता. इसलिए डिजिटल आईडी प्लेटफॉर्म से इनमें से कोई भी सचाई ख़त्म नहीं होगी. इसके बावज़ूद यह कहना गलत नहीं होगा कि डिजिटल आईडी किसी देश की संप्रभुता, अयोग्यता या राज-काजकरने में असमर्थता पर सीधे निशाना साधती है.

हाल के वर्षों में देशों की संप्रभुता के लिए यह चुनौती बढ़ी है. मिसाल के लिए, सुरक्षा की ज़िम्मेदारी (रिस्पॉन्सिबिलिटी टू प्रोटेक्ट यानी R2P) का नियम कहता है कि अगर कोई देश अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करता है तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को जनसंहार, युद्ध अपराध, मानवता के ख़िलाफ़ अपराध या ख़ास नस्ल या वर्ग के लोगों को निशाना बनाए जाने पर जनता की रक्षा करनी होगी. इसी तरह से, आतंकवाद के ख़िलाफ़ बने ‘ग्लोबल एडमिनिस्ट्रेटिव लॉ’ (GAL) के ज़रिये संकेत दिया गया है कि कमजोर और छोटे देशों की रक्षा में अंतरराष्ट्रीय संस्थान भूमिका निभा सकते हैं.[8] GAL को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की उस सैक्शंस रिजीम से जोड़ा गया है, जिसे रिजॉल्यूशंस 1373 और 1267 के ज़रिये बनाया गया था. यह व्यवस्था संयुक्त राष्ट्र के सभी 193 देशों के लिए सुरक्षा परिषद के 15 देशों ने बनाई है और सदस्यों के लिए इनमें शामिल नहीं होने या इस पर ऐतराज़ करने की गुंजाईश न के बराबर है. सुरक्षा परिषद की समिति जो फैसले लेती है, सैक्शंस रिजीम के ज़रिये उसका असर इंडिविजुअल पर पड़ता है. भले ही इन कदमों का मकसद और नीयत जो भी हो, उनसे देशों और ख़ासतौर पर कमजोर मुल्कों के अपने कानून के मुताबिक अपनी जनता पर शासन चलाने में बाधा खड़ी होती है.[9] इसके साथ ‘रेप्यूटेशनल डेटाबेस’, जैसे फ्रैजिल स्टेट इंडेक्स, फ़्रीडमफ़्रीडम इन द वर्ल्ड इंडेक्स, द डेमोक्रेसी इंडेक्स को कई देशों की पॉलिटिकल इकनॉमी में ढांचागत बदलाव का आधार बनाया जाता है. अभी तक किसी देश के मामलों में ऐसी दख़लअंदाज़ी का आधार राजनीति से प्रेरित रहा है और इन्हें अनियमित तौर पर लागू किया गया है. इसके अलावा, इनमें से कुछ- जैसे R2P जैसे नियम- असामान्य परिस्थितियों के लिए बनाए गए हैं, जब कोई देश अपने दायित्वों का निर्वाह नहीं करता और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने सैन्य दख़लअंदाज़ी के अलावा कोई रास्ता नहीं बच जाता. बदकिस्मती से किसी देश की राजनीतिक संप्रभुता को लेकर इस अप्रोच के कारण इस बात की गंभीर समीक्षा नहीं हो पाई है कि किसी देश के बने रहने के लिए आबादी, क्षेत्र, सरकार जैसी सामान्य शर्तों के अलावा और क्या योग्यताएं होनी चाहिए. ख़ासतौर पर तब, जब सॉवरिन ऑटोनॉमी यानी किसी देश की स्वायत्तता की योग्यता और इसी आधार पर अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में उसे शामिल करने की अनदेखी हुई हो. किसी देश की अपने नागरिकों की सेवा का अधिकार इक्का-दुक्का असामान्य परिस्थितियों को छोड़ दें तो रातों-रात ख़त्म नहीं होता. अक्सर ऐसी स्थिति गवर्नेंस करने के लिए बनाए गए सरकारी संस्थानों के धीरे-धीरे कमजोर होने से बनती है. इसके बावज़ूद अगर किसी देश के अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का हिस्सा होने की शर्तों पर दोबारा ग़ौर नहीं किया गया है तो उसकी अपनी वजहें हैं. पिछले 60 वर्षों में तीन लहरों में कई सोसायटी ने औपनिवेशिक राज को उखाड़ फेंका और स्वायत्तता हासिल की. उन्होंने यह काम राष्ट्र निर्माण के साथ किया. अगर नए देशों को अपनी इकॉनमी में सुधार करने या जनता के जीवनस्तर को बेहतर बनाने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है तो उस आधार पर उनकी स्वायत्तता पर सवाल करना जल्दबाज़ी होगी. साथ ही, ऐतिहासिक आधार पर यह अन्याय भी होगा. कोई देश इन पैमानों पर कितने कारगर ढंग से काम कर रहा है, इसके स्पष्ट मानदंड नहीं हैं. इसलिए इस आधार पर किसी भी देश के प्रदर्शन को मापने में दिक्कत होती है. डिजिटल आईडी से यह परेशानी शायद दूर हो सकती है.

डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म की भूमिका

दुनिया के हर बड़े देश में आज डिजिटल आईडी व्यवस्था है. पहली नज़र में देखने पर लगता है कि ये देश या वहां की सरकार के वर्चस्व के लिए खतरा नहीं हैं. आख़िर, डिजिटल आईडी का इस्तेमाल देश की सीमा के अंदर ही होना है. ऐसे में कायदे से इनसे जनता के जुड़े मामलों को नियंत्रित करने की सरकार की क्षमता बेहतर होनी चाहिए. हालांकि, हाल में इन्हें संयुक्त राष्ट्र के इकोसिस्टम और ब्रेटन वुड्स मशीनरी (जैसे- वर्ल्ड बैंक की आइडेंटिफिकेशन फॉर डिवेलपमेंट इनिशिएटिव) से जोड़े जाने के राजनीतिक मतलब भी लगाए जा रहे हैं. यूनिवर्सल डिक्लेयरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स या द कन्वेंशन ऑन द राइट्स ऑफ द चाइल्ड जैसे माध्यम कुछ वर्गों के इंडिविजुअल या इंडिविजुअल को कई अधिकार देते हैं. यूएन रिफ्यूजी कन्वेंशन के तहत हर जगह स्वीकार करने लायक मानकों के आधार पर ‘स्टेटस’ दिया जाता है. इस अधिकार को लागू करने और स्टेटस देने के कई बार राजनीतिक संदर्भ होते हैं. सरकारें यह कह सकती हैं कि उसके यहां के ख़ास समूह को रिफ्यूजी का दर्जा देना गलत है क्योंकि उसके निशाना बनाए जाने की आशंका बेबुनियाद है. ऐसा कई बार हो भी चुका है. इस आधार पर सरकारें संबंधित समूह को रिफ्यूजी का दर्जा दिए जाने की बुनियाद पर सवाल खड़े कर सकती हैं.[10]

डिजिटल आईडी प्लेटफ़ॉर्म कोई स्टेटस नहीं देते, लेकिन इंडिविजुअल की पहचान के सत्यापन की प्रक्रिया में वे सरकारों की मनमानी करने की आशंका घटा देते हैं. किसी भी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में सदस्य देशों के लिए इस तरह के मामलों में कई जिम्मेदारियां भी होती हैं. डिजिटल आईडी प्लेटफ़ॉर्मकिसी देश की योग्यता को परखने के लिए निष्पक्ष और पारदर्शी आधार देते हैं. किसी शख़्स को डिजिटल पहचान देने का मकसद कानूनी रूप से उसके वजूद की पुष्टि करना है और फिर उसे नागरिकों को मिलने वाले अन्य अधिकार दिए जाते हैं. इनमें मतदान का अधिकार या वंचित तबके का होने के नाते सरकार से मिलने वाले लाभ शामिल हो सकते हैं. डिजिटल आईडी का कॉन्सेप्ट तैयार करते वक्त और प्लेटफॉर्म पर अमल को लेकर सरकारों के पास कई आजादियां होती हैं. मसलन, वे तय कर सकते हैं कि आइडेंटिटी किसे दी जाए और उसके साथ कौन से विशेषाधिकार जोड़े जाएं. हालांकि, एक बार जब सरकार डिजिटल आइडेंटिटी दे देती है, तब उसे प्रदर्शन को किए गए वादों के आधार पर मापा जाता है. इस तरह से यह एक तकनीकी पैमाना बन जाता है. इसके बाद राजनीतिक संदर्भ में उसका अलग मतलब निकाले जाने की गुंजाईश कम हो जाती है. कहने का मतलब यह है कि राज्य की क्षमता अब सिर्फ़ औपचारिक मानकों के हिसाब से निर्धारित नहीं होगी, जिनमें प्रक्रिया संबंधी कई ख़ामियां होती हैं.[11] डिजिटल आईडी प्लेटफॉर्म इसका पता तकनीकी मानकों के आधार पर लगाएगा, जिससे यह बात सामने आएगी कि फलां शख़्स को सरकार से वह मदद मिली या नहीं, जिसका वह दावा कर रही है. इससे ग्लोबल गवर्नेंस के आयाम में बड़ा बदलाव आ सकता है.

इस मामले में कई देशों की अयोग्यता जाहिर होने और उनके खराब प्रदर्शन के बावज़ूद उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया है. अभी तक ऐसा होता आया है कि जब तक सरकारों का प्रदर्शन बहुत खराब नहीं होता था, तब तक उन पर प्रतिबंध लगाने जैसे सख़्त कदम नहीं उठाए जाते थे. मिसाल के लिए, सरकारों के अपनी जनता पर ज़ुल्म करने या अकाल रोकने में नाकाम रहने जैसे मामलों में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ऐसे कदम उठाया करता है, लेकिन ऐसा भी बहुत कम ही होता है. डिजिटल आईडी से ‘लिबरल और इंटरनेशनल ऑर्डर’ की पहुंच सीधे इंडिविजुअल तक होगी. इसमें नस्ल, समुदाय, लिंग या व्यक्ति किस मूल का है, ऐसी चीजें नहीं जुड़ेंगी. हालांकि, अभी तक इन्हीं आधार पर भेदभाव को किसी देश के अधिकार में सीमित दख़ल का आधार बनाया जाता रहा है. कुछ मामलों में डिजिटल आईडी से सुनियोजित तरीके से किसी समुदाय के सामाजिक या आर्थिक अधिकार छीने जाने का पता चल सकता है. ऐसा होने पर संबंधित सरकार जांच के घेरे में आ सकती है. हालांकि, इससे भी बड़ी बात यह है कि इनके ज़रियेअंतरराष्ट्रीय समुदाय की नज़रों में वैसे मुद्दे आ सकते हैं, जो राजनीतिक तौर पर भले ही कम विजिबल हों, लेकिन वे महत्वपूर्ण होते हैं. SDG फ्रेमवर्क में शामिल किए जाने (16.9 लक्ष्य में सबके लिए वैध पहचान का वादा किया गया है) के बाद संयुक्त राष्ट्र ने सभी विकासशील देशों से पायलट डिजिटल आईडी प्रोजेक्ट में मदद का वादा किया है. हालांकि, वही फ्रेमवर्क संयुक्त राष्ट्र और अन्य एजेंसियों को डिजिटल आधारित आंकड़ों की पड़ताल के ज़रियेअन्य SDG को लेकर किस देश ने कितनी तरक्की की है, इसका पता लगाने का जरिया भी मुहैया कराता है. मिसाल के लिए, कानून तक पहुंच, साफ पानी, स्वास्थ्य सेवाएं और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में किसी देश की प्रगति का पता लगाने के लिए डिजिटल आईडी का इस्तेमाल किया जा सकता है. अगर किसी देश की सरकार ऐसे इंडिविजुअल की ज़रूरतें पूरी नहीं कर पाती है, जिसे उसने डिजिटल आइडेंटिटी दी हुई है तो क्या उन्हें पूरा करने के लिए अंतरराष्ट्रीय रेगुलेशंस[12] की मदद ली जा सकती है? शायद नहीं. अगर इस तरह के नियम पर विचार शुरू भी होता है तो उसे लागू करने में वर्षों और यहां तक कि दशकों लग सकते हैं. असल में सरकारें इसे इसलिए इजाज़त नहीं देना चाहेंगी क्योंकि इससे उन्हें अपनी ताकत और सत्ता में दख़लअंदाज़ी का अहसास होगा. हालांकि, डिजिटल आईडी के ज़रिये गवर्नेंस की तकनीकी समीक्षा की जा सकती है, लेकिन यह अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार समझौतों, SDG या किसी अन्य नॉर्म्स के मुताबिक संबंधित सरकार के उसे सही ठहराने की क्षमता को सीमित करता है.[13]

सबसे बड़ी बात यह है कि अगर इंडिविजुअल पर ध्यान दिया जाता है तो डिजिटल आईडी आधारित ग्लोबल गवर्नेंस के पैमानों से डिवेलपमेंट के कई माइक्रो-इंडिकेटर्स मिलेंगे. इसमें उन मोटे मानकों की जगह नहीं होगी, जिनसे कुछ भी पता नहीं चलता. मिसाल के लिए, अगर किसी देश की वर्ल्ड बैंक की ईज ऑफ डुइंग (कारोबारी सुगमता) इंडेक्स में रैंकिंग अच्छी है तो उससे यह पता नहीं चलता कि उस देश ने स्मॉल और मीडियम एंटरप्राइजेज के फ़ाइनेंशियल इनक्लूजन (वित्तीय समावेश यानी अधिक से अधिक लोगों को बैंकिंग सेवाओं के दायरे में लाने) के मामले में कैसा प्रदर्शन किया है या उन्हें बैंकिंग संस्थाओं तक उनकी पहुंच किस स्तर की है. डिजिटल आइडेंटिटी के आधार पर अगर किसी देश में गवर्नेंस की समीक्षा की जाती है और अगर प्रर्दशन खराब पाया जाता है तो वैसी स्थिति में राजनीति से प्रेरित उपायों की घोषणा किए जाने से इनकार नहीं किया जा सकता. इन हालात में इस पर बहस तेज हो सकती है कि विकास का सही रास्ता क्या होना चाहिए. वैसे, यह बहस अभी भी चल रही है.

फ़िलहाल, ग्लोबल गवर्नेंस में देशों की जो भूमिका है, डिजिटल आईडी प्लेटफॉर्म उसकी अक्षमता के अलावा सॉवरिन फंक्शंस (वह काम जो सरकारें करती हैं) के ट्रांसफर के ज़रियेउस मॉडल से अलग हो सकता है. मिसाल के तौर पर एस्टोनिया के डिजिटल आईडी प्रोगराम e-ID कार्ट को लीजिए. इसे इसलिए तैयार किया गया क्योंकि इस देश का भौगोलिक क्षेत्र तुलनात्मक तौर पर बड़ा है, जिसमें छोटी आबादी रहती है. ऐसे में सुरक्षित डिजिटल आईडी इंफ्रास्ट्रक्चर की मदद से पैसा ट्रांसफर करना या वोट डालना कहीं आसान और कम खर्चीला होगा, बजाय इसके कि उसके लिए बैंक और पोलिंग बूथ जैसे फिजिकल स्ट्रक्चर खड़े किए जाएं.[14] हालांकि, e-ID कार्ट को देश को एक सर्विस के मॉडल के आधार पर तैयार किया गया, न कि फिजिकल टेरिटरी मानकर, जो कि अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से तय होता है. एस्टोनिया के पूर्व मुख्य सूचना अधिकारी तावी कोटका ने बताया, ‘कंट्री एज ए सर्विस यानी सेवा के रूप में देश एक नई सचाई है. मिसाल के लिए, अगर ब्रिटेन कहता है कि वह अपने नागरिकों के लिए सरकार समर्थित डिजिटल पहचान जारी नहीं करेगा या देश ब्यूरोक्रेसी की मशीनरी को आसान नहीं बना पाते तो ऐसी स्थिति में दूसरे देश सीमापार के लोगों को ऐसी सेवाएं ऑफर कर सकते हैं.’[15]

E-ID कार्ट के ज़रियेएस्टोनिया के नागरिक दुनिया में कहीं भी होने पर गवर्नेंस के फायदे ले सकते हैं. एस्टोनिया में इस व्यवस्था के ज़रिये जो काम हो रहे हैं, वे दूसरे देशों को भी ऑफर किए जा सकते हैं. मान लीजिए कि आज अगर म्यांमार का कोई नागरिक एस्टोनिया का ‘ई-नागरिक’ बनने की अर्ज़ी देता है तो उसकी पहुंच वहां की बैंकिंग सेवाओं तक हो सकती है. ऐसे में वह दुनिया में कहीं से पैसा भेज या रिसीव कर सकता है. वह डिजिटल लेनदेन को ऑथेंटिकेट कर पाएगा और कहीं से भी बिज़नेस रजिस्टर करके उसे चला सकेगा. एस्टोनिया के डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर के ज़रियेगवर्नेंस के ऐसे फायदे पहुंचाए जा सकते हैं, जो म्यांमार या किसी भी पिछड़े देश में संभव नहीं है. मिसाल के लिए, उन देशों के उद्यमी यूरोपीय संघ से पैसा जुटा सकते हैं, जो सामान्य परिस्थिति में फिजिकल रेजिडेंसी परमिट के बिना मुमकिन नहीं है. इस तरह की सेवा सिर्फ़ उद्यमियों तक ही सीमित नहीं होगी, इनका इस्तेमाल मिसाल के लिए तुर्की के कारोबारियों के लिए भी होगी. वे पेपाल जैसे पेमेंट गेटवे का प्रयोग कर पाएंगे, जिसने तुर्की में कामकाज बंद कर दिया है, लेकिन यूरोपीय संघ में वह सेवा दे रहा है.[16] एस्टोनिया की ई-रेजिडेंसी भी e-ID कार्ट पर आधारित है.[17] आइडेंटिटी आधारित रेजिडेंसी को एक सेवा के रूप में पेश कर e-ID कार्ट (और भविष्य में इस मॉडल पर बनने वाले आईडी प्लेटफॉर्म्स) एक तरह से सरकारों की अपने नागरिकों को गवर्न करने के अधिकार को सीमित कर रही है.

भारत में बायोमीट्रिक आधारित डिजिटल आईडी सिस्टम आधार डिजिटल पहचान पर आधारित गवर्नेंस का एक और मॉडल मुहैया कराता है. इसमें आधार इनेबल्ड सर्विसेज दी जा रही हैं. एप्लिकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस (API) आधार को लेकर ऐप्स बनाए जा रहे हैं. API आधारित प्लेटफॉर्म के काम करने का तरीका यह है कि किसी भी तरह का संस्थान (मुनाफ़ा कमाने की नीयत से बनाया गया या बगैर मुनाफ़े की नीयत से काम करने वाला), उसका कानूनी ढांचा जो भी हो (सरकारी या निजी क्षेत्र से संबंधित), वह किसी इंडिविजुअल की पहचान सुनिश्चित करने के लिए यूनीक, डिजिटल आईडी का इस्तेमाल कर सकता है. इसी बुनियाद पर यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस यानी UPI को भी बनाया गया है. इसके ज़रियेभारतीय नागरिक एक दूसरे को पैसा भेज सकते हैं या मंगा सकते हैं. वे इससे ऑनलाइन वेंडरों को भुगतान कर सकते हैं या अन्य कमर्शियल इकाइयों को पेमेंट कर सकते हैं. UPI यूनीक डिजिटल आईडी पर आधारित होता है, जिसे वर्चुअल पेमेंट एड्रेस कहा जाता है- ‘johndoe@upi’ – जो ऐसे सभी ट्रांजेक्शंस के लिए डेस्टिनेशन एड्रेस का काम करता है. वर्चुअल पेमेंट एड्रेस की वजह से आपको बैंक खाते की डिटेल्स या राउटिंग कोड याद रखने की जरूरत नहीं पड़ती. यहां यह बात स्पष्ट करना जरूरी है कि UPI एप्लिकेशंस में पेमेंट के लिए आधार की जरूरत नहीं है. हालांकि, हाल तक यूजर्स को उनके आधार नंबर के ज़रियेभी पेमेंट की जा सकती थी. UPI की ख़ूबी उसकी इंटर-ऑपरेबिलिटी है. इसके इस्तेमाल के लिए आपके पास सिर्फ़ वर्चुअल पेमेंट एड्रेस होनी चाहिए, जो आपकी यूनीक पहचान होती है. इसके बाद UPI पर चलने वाले किसी पेमेंट्स ऐप के ज़रियेआप किसी अन्य के साथ लेन-देन कर सकते हैं, चाहे वह कितना भी अलग सिस्टम क्यों न हो.

इसलिए, इस व्यवस्था में यूज़र, मनी फ्लो मैनेजर बन जाता है. आमतौर पर बैंक मैनेजर और दूसरे वित्तीय संस्थान इस भूमिका में होते हैं. UPI में बाहरी मनी फ्लो मैनेजर की भूमिका ख़त्म होने से समय बचता है और इसकी लागत भी कम है. इसमें कस्टमर की पहचान और विश्वसनीयता की पुष्टि करने में वक्त जाया नहीं करना पड़ता. अगर इस प्लेटफॉर्म को रीजनल या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस्तेमाल किया गया तो इससे संबंधित देश एक बड़ी सॉवरिन ऑटोनॉमी यानी अपनी सीमा के अंदर पैसों के प्रवाह पर नियंत्रण को गंवा देंगे. अमेरिका में 9/11 आतंकवादी हमलों के बाद पैसों के प्रवाह पर नज़र रखने के लिए कड़ी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बनाई गई ताकि नशीली दवाओं, हथियार और आतंकवादी गतिविधियों में इस्तेमाल की जाने वाली फंडिंग को रोका जा सके.[18] इस व्यवस्था में जिन देशों की कमजोरियां पकड़ी गईं, उनसे अपने यहां मनी फ्लो के सख़्त रेगुलेशंस को कहा गया. जिन देशों के पास इसके लिए सक्षम संस्थान और इच्छाशक्ति थी, उन्होंने ऐसे मनी फ्लो की निगरानी बढ़ाई है, लेकिन जिन देशों के पास इसकी क्षमता नहीं है, वे अभी भी मनी लॉन्ड्रिंग का अड्डा बने हुए हैं. ऐसे में UPI जैसे प्लेटफॉर्म से अंतरराष्ट्रीय संस्थानों और जांच एजेंसियों को बिना अलग-अलग सरकारों की मदद के मनी फ्लो को ट्रैक करने में मदद मिलेगी.[19] (अगर यूनीक आइडेंटिफायर्स किसी एक देश के तैयार किए गए प्लेटफॉर्म पर हों तो भी तालमेल के लिए एक ऐसी संस्था बनाना आसान होगा, जो अंतरराष्ट्रीय ट्रांसफर पर नज़र रखे, बशर्ते ज़्यादातरदेश उस टेक्निकल स्टैंडर्ड को स्वीकार करें). हालांकि, इस तरह के डिजिटल आईडी मॉडल भी देशों की स्वायत्तता में दख़लअंदाज़ी का सबब बन सकते हैं.

इतना ही नहीं, किसी इंडिविजुअल की डिजिटल आईडी उसकी पर्सनल इंफॉर्मेशन का ख़ज़ाना होती है. पारंपरिक तौर पर नागरिकों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सरकार पर रही है, लेकिन सूचनाओं की रक्षा के लिए यूजर्स चाहें तो सरकारी या प्राइवेट प्लेटफॉर्म की मदद ले सकते हैं, जो हैकरों से उन्हें सुरक्षा मुहैया कराएंगे.[20]

जिस तरह से इन प्लेटफ़ॉर्मका विस्तार हो रहा है, उसे देखते हुए क्या ऐसा लगता है कि किसी शख़्स की डिजिटल पहचान देश से संबंधित उसकी राजनीतिक पहचान को निगल जाएगी या कम से कम उसे धुंधला कर देगी? पहली नज़र में तो यह बात खामख्याली लगती है. अंतरराष्ट्रीय संबंधों के लिहाज़ से देश सबसे पुराने और सबसे मज़बूत स्तंभ रहे हैं. इसलिए यह सोचना नादानी होगी कि उनसे संबंधित राजनीतिक पहचान पर डिजिटल आइडेंटिटी हावी हो जाएगी. इसके बावज़ूद डिजिटल प्लेटफ़ॉर्मकी तरफ से उन्हें मिलने वाली चुनौतियों की अनदेखी नहीं की जा सकती. असल में वे उन देशों में गवर्नेंस का कोई विकल्प नहीं मुहैया करा रहे. इसके उलट डिजिटल आईडी इंडिविजुअल्स की माइक्रो-रिजीम (छोटा समूह) बना रहे हैं. इसकी मदद से ग्लोबल गवर्नेंस के लिए डिवेलपमेंटल गोल तय करना मुमकिन है, वह भी ख़ासतौर पर उन लोगों के लिए जिन्हें उसकी जरूरत है. दिलचस्प बात यह है कि इसमें सरकारों की कोई भूमिका नहीं होगी, भले ही डिजिटल आइडेंटिटी उसी ने क्यों न दी हो. क्या ऐसा मुमकिन है कि भविष्य में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त अपने बनाए डिजिटल प्लेटफॉर्म के मार्फत ‘देशविहीन’ लोगों को नकद पैसा ट्रांसफर करें? इस तरह की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. इसके अलावा, e-ID कार्ट और UPI जैसे प्लेटफॉर्म देश और उसके नागरिकों के बीच के रिश्तों को कमजोर कर दें क्योंकि इनके कई फीचर्स लोगों को संस्थाओं और दूसरे देश में रहने वालों को किसी देश के नागरिक से संपर्क बनाने की सुविधा देते हैं और इसमें सरकार से उनके वजूद की वैधता और चरित्र के बारे में सर्टिफ़िकेट लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इसका मतलब यह है कि सरकार या किसी देश की एक महत्वपूर्ण ताकत उसके हाथ से निकल जाएगी, जिसके आधार पर वह दूसरी सरकारों से संपर्क बनाती है.

अगर डिजिटल आईडी प्लेटफॉर्म राज्य की क्षमता को कमजोर करते हैं या दूसरे मामलों में क्षमता के अभाव की तरफ इशारा करते हैं तो संभव है कि कुछ सरकारें उनका इस्तेमाल अपने नागरिकों को नियंत्रित करने के लिए या आलोचकों की निगरानी की ख़ातिर अधिक पावर हासिल करने की कोशिश कर सकती हैं. ऐसे में अंतराष्ट्रीय समुदाय को डिजिटल आईडी के ज़रियेबड़े पैमाने पर जनता की निगरानी को लेकर सचेत रहना होगा.

बहरहाल, अभी तो डिजिटल आईडी प्लेटफॉर्म का कारवां बेधड़क आगे बढ़ रहा है. यहां तक कि सरकारें ख़ुद अपना प्लेटफॉर्म डिवेलप करने में जुटी हुई हैं. जिन देशों ने अभी तक इसकी पहल नहीं की है, वे भी अपना डिजिटल प्लेटफॉर्म बनाने की लाइन में लगे हैं. हालांकि, शायद ही उन्हें इसका अहसास है कि यही डिजिटल प्लेटफॉर्म आगे चलकर उनकी ताकत कम करेगा. जिस सामाजिक-आर्थिक संदर्भ में उनका इस्तेमाल किया जाता है, वहां डिजिटल आईडी प्लेटफ़ॉर्मका अलग-अलग काम के लिए प्रयोग हो सकता है. हालांकि, इसकी काफी संभावना है कि उन सबको एक साझे और बुनियादी तकनीकी पैमाने पर बनाया जाए, जिससे इंटर-ऑपरेबिलिटी, डेटा प्रोटेक्शन या आसान इस्तेमाल मुमकिन हो.

कहने का मतलब यह है कि अलग-अलग देशों में बनने वाले डिजिटल आईडी प्लेटफ़ॉर्ममें बहुत ज्यादा अंतर नहीं होगा. जिस तरह से आज दुनिया भर में हैंडहेल्ड कंज्यूमर डिवाइसेज के फिजिकल फीचर्स और क्षमताएं एक जैसी हैं, उसे देखते हुए यह मानना गलत नहीं होगा कि डिजिटल आईडी प्लेटफ़ॉर्मकी दुनिया भी कुछ ऐसी ही होगी. और वैसे भी इन प्लेटफ़ॉर्मका स्केल काफी बढ़ा किया जा सकता है. ध्यान देने लायक बात यह है कि डिजिटल आईडी प्लेटफ़ॉर्मके लिए सबसे पहले व्यापक तकनीकी मानक वर्ल्ड बैंक ने पब्लिश किए थे. इन मानकों को ISO और इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस यूनियन[21] जैसी संस्थाओं ने तैयार किया था. डिजिटल आईडी प्लेटफ़ॉर्मकी इंटर-ऑपरेबिलिटी से यूज़र बेस में शिफ्ट करने में मदद मिल सकती है, जिससे सरकारों की अपने ‘क्लाइंट बेस’ को बनाए रखने की क्षमता और सीमित होगी.

डिजिटल आइडेंटिटी प्लेटफ़ॉर्मसे सरकारी संस्थाओं, नियमों और ग्लोबल गवर्नेंस की व्यवस्था के वजूद पर संकट खड़ा नहीं होगा, लेकिन इनसे किसी शख़्स के अंतरराष्ट्रीय संबंधों में जरूर बदलाव आएगा. ऐसे संबंध में पारंपरिक और घरेलू संस्थानों की मध्यस्थ की भूमिका ख़त्म हो जाएगी. इसलिए डिजिटल आईडी के ख़िलाफ़ सरकारों की तरफ से कदम उठाए जाने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. इसमें से कुछ कदम पॉजिटिव भी हो सकते हैं. अंतरराष्ट्रीय आलोचना के डर से सरकारें अपने नागरिकों को बेहतर सेवाएं देने की कोशिश कर सकती हैं या इंडिविजुअल किसी अन्य देश के इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेज को चुन सकते हैं. लेकिन यह भी तय है कि सरकारों के कुछ कदम दमनकारी होंगे. वे डिजिटल आईडी प्रोजेक्ट्स से कुछ समुदायों को अलग करने की कोशिश कर सकती हैं या उनकी इंटर-ऑपरेबिलिटी क्षमताओं को सीमित करने की कोशिश या नागरिकों की जासूसी के लिए उनका इस्तेमाल कर सकती हैं. एक बात तो साफ है कि डिजिटल आईडी प्लेटफ़ॉर्मको भले ही आज टेक्नोक्रेटिक दख़लअंदाज़ी माना जा रहा हो, लेकिन उन्हें लॉन्च किए जाने और बड़े पैमाने पर उन्हें स्वीकार किए जाने के राजनीतिक परिणाम भी सामने आएंगे.

यह लेख पहले रायसीना फाइल्स में प्रकाशित हो चुका है


Endnote

[1] The author is a PhD candidate at the Fletcher School, and currently on a sabbatical from ORF. He is grateful to Srinath Raghavan, Urvashi Aneja, and Sanjay Anandaram for inputs and feedback on this article.
[2] Non-tariff barriers: red tape, etc”, WTO.
[3] See generally: Paola Conconi, David DeRemer, Georg Kirchsteiger, Lorenzo Trimarchi, Maurizio Zanardi, “Suspiciously Timed Trade Disputes”, CEPR Discussion Paper 10582, May 42, 2015,
[4] Wolfgang Wessels, “Economic Governance: Towards a ‘gouvernement économique’?” in The European Council (UK: Palgrave Macmillan, 2015), 187-210.
[5] Julio Faundez, “International Law and Wars of National Liberation: Use of Force and Intervention,”African Journal of International and Comparative Law 85 (1989): 85-98.
[6] General Assembly Resolution 3070 (XXVIII).
[7] Christine Gray, International Law and the Use of Force (UK: Oxford University Press), 192-253.
[8] See generally Benedict Kingsbury, Nico Krisch and Richard B. Stewart, “The Emergence of Global Administrative Law,” Law and Contemporary Problems68 (Summer 2005): 15-62.
[9] Stefan Talmon, “The Security Council as World Legislature,”American Journal of International Law 99, no. 1: 175-193.
[10] Barry, Sautman, “The Meaning of “Well-Founded Fear of Persecution” in United States Asylum Law and in International Law,”Fordham International Law Journal 9, no. 3 (1985): 483-539.
[11] Matt Andrews, Lant Pritchett, and Michael Woolcock, Building State Capability: Evidence, Analysis, Action (UK: Oxford University Press, 2017), 30-52
[12] See generally:Melissa A. Waters, “Creeping Monism: The Judicial Trend Toward Interpretive Incorporation of Human Rights Treaties”, Columbia Law Review (April 2007); Washington & Lee Legal Studies Paper No. 2006-12.
[13] Abram Chayes and Antonia Handler Chayes, The New Sovereignty: Compliance with International Regulatory Agreements (Cambridge, MA: Harvard University Press), 1998.
[14] Taavi Kotka, “Country as a Service: Estonia’s New Model”.
[15] Ibid.
[16] PayPal to halt operations in Turkey after losing license, impacts ‘hundreds of thousands’”, TechCrunch.
[17] Estonian eID scheme: e-Residency Digi-ID — Technical specifications and procedures for assurance level high for electronic identification”.
[18] Anne L.Clunan,“The Fight against Terrorist Financing,”Political Science Quarterly 121, no. 4 (2006): 569–596.
[19] NPCI plans international remittance on UPI platform”, The Economic Times, March 30, 2018.
[20] I am grateful to Urvashi Aneja for this argument.
[21] Catalog of Technical Standards for Identification Systems”, The World Bank Group.

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