Published on Sep 13, 2021 Updated 0 Hours ago

खाद्य आपातकाल की घोषणा करने के बाद श्रीलंका को मुश्किल स्थिति से गुजरने की चुनौती होगी

अनाज और विदेशी मुद्रा का संकट श्रीलंका के किस भविष्य की ओर इशारा कर रहा है ?

श्रीलंका एक कठिन आर्थिक संकट से जूझ रहा है. श्रीलंका ने खाद्य संकट को लेकर आपातकाल का ऐलान किया है, क्योंकि प्राइवेट बैंकों के पास आयात के लिए विदेशी मुद्रा की कमी है. श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबया राजपक्षे का देश की गिरती विदेशी मुद्रा भंडार को देखते हुए ‘खाद्य आपातकाल’ की घोषणा करना स्थानीय लोगों के साथ-साथ मुल्क के दोस्त और दुश्मन सभी को चौंका दिया है. सिविल सोसाइटी कार्यकर्ता भी उनके द्वारा एक सैन्य अधिकारी मेजर जनरल एनडीएसपी निवुन्हेला को आवश्यक सेवाओं का कमिश्नर जनरल बनाने को लेकर, जिससे देश में ज़रूरी वस्तुओं का आसानी और तेजी से आपूर्ति सुनिश्चित हो सके, उनका नाम लेने से नहीं चूक रहे हैं. दरअसल यह उनके राष्ट्रपति शासन के दौरान नागरिक प्रशासन के सैन्यीकरण करने की दूसरी मिसाल है.

वर्षों से देश की आर्थिक दुर्दशा की स्थिति जगजाहिर थी जिसकी शुरुआत ‘नेशनल युनिटी की सरकार’ (जीएनयू) से पहले के दौर से शुरू हुई, जब देश का नेतृत्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के हाथों में थी. उनकी सरकार ने अपने से पहले राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे, जो अब प्रधानमंत्री हैं, उनसे जो आर्थिक संकट विरासत में ली थी, उसे बदलने और उसमें सुधार करने का वादा किया था. विशेष रूप से, विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार गिरावट दर्ज़ की गई क्योंकि पिछले लगभग दो दशकों से श्रीलंकाई रुपये में लगातार गिरावट जारी रही है. लेकिन मौजूदा गोटाबाया सरकार इसे लेकर अपने पूर्ववर्ती सरकार पर जिम्मेदारी नहीं थोप सकती है क्योंकि इसमें सुधार करने के लिए मौजूदा सरकार के पास करीब दो साल का वक्त था. इस दौरान मौजूदा सरकार ने कोरोना की पहली लहर की तरह ही दूसरी और तीसरी लहर को काबू करने में नाकामी दिखाई जिससे स्थितियां और खराब होती चली गई.

वर्षों से देश की आर्थिक दुर्दशा की स्थिति जगजाहिर थी जिसकी शुरुआत ‘नेशनल युनिटी की सरकार’ (जीएनयू) से पहले के दौर से शुरू हुई, जब देश का नेतृत्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के हाथों में थी. 

कोरोना से पहले देश ने पूर्ववर्ती सरकार की फ़िज़ूलखर्ची की मार झेली जिससे देश में ज़बर्दस्त राजनीतिक अस्थिरता पैदा हुई, जिसका नतीजा यह हुआ कि निवेशक यहां निवेश करने से बचते रहे. ऐसे हालात से देश गुजर ही रहा था कि इसके बाद साल 2019 में ‘ईस्टर सीरियल ब्लास्ट’ से श्रीलंका थर्रा उठा जिसका परिणाम यह हुआ कि इसने पर्यटन सेक्टर को बुरी तरह प्रभावित किया जो देश की अर्थव्यवस्था का एक मजबूत आधार था. कोरोना महामारी की वजह से भी निर्यात समेत विदेशों में जो श्रीलंकाई नागरिक नौकरी कर रहे थे उनकी भागीदारी में ज़बर्दस्त गिरावट दर्ज़ की गई, जिसकी श्रीलंका के विदेशी मुद्रा भंडार में अहम हिस्सेदारी थी.

अड़ियल रवैया

इस तरह प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे, जो तत्कालीन वित्त मंत्री थे, ने जो बज़ट साल 2021 में पेश किया था उसके तहत खाद्य पदार्थों, जिसमें हल्दी भी शामिल है, समेत रासायनिक खाद के आयात पर रोक लगा दी, जिससे स्थानीय किसानों और ऑर्गेनिक खेती को प्रोत्साहन मिल सके. लेकिन सरकार की इस पहल ने और समस्याएं खड़ी कर दी. वास्तविक विचार तो यह था कि विदेशी मुद्रा के ऑउटफ्लो को रोका जा सके, लेकिन जल्दी और अनियोजित तरीके से आयात पर प्रतिबंध लगाने से खेत से लेकर खाने की मेज तक कई स्तरों पर अलग-अलग संकट पैदा हो गए. प्रतिकूल आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद राष्ट्रपति गोटाबाया अपने निर्णय से जरा भी टस से मस नहीं हुए.

सरकार के समर्थकों को उम्मीद थी कि राजपक्षे के भाई बासिल राजपक्षे की पीएम महिंदा की जगह वित्तमंत्री के तौर पर नियुक्ति से संकट टलेगा, लेकिन यह शक्ति स्थानातंरण भी कई स्तर पर लोगों में शक पैदा करने लगा. बतौर राष्ट्रपति महिंदा और आर्थिक सलाहकार  बासिल ने मिलकर जीडीपी को रिकॉर्ड स्तर की ऊंचाई तक पहुंचाया था. यहां तक कि एलटीटीई से युद्ध के दौरान और पिछले दशक के अंत तक यह तेजी बरकरार रही.

कोरोना से पहले देश ने पूर्ववर्ती सरकार की फ़िज़ूलखर्ची की मार झेली जिससे देश में ज़बर्दस्त राजनीतिक अस्थिरता पैदा हुई, जिसका नतीजा यह हुआ कि निवेशक यहां निवेश करने से बचते रहे. 

इस बार यह करिश्मा देखने को नहीं मिल पा रहा है क्योंकि राष्ट्रपति गोटाबाया अपने वैचारिक सहयोगियों द्वारा पिलाई गई वैचारिक घुट्टी के कारण राजनीतिक और आर्थिक हठधर्मिता पर अड़े हुए हैं. लोगों को लगने लगा है कि गोटाबाया भले ही एक काबिल सैन्य रणनीतिकार हो सकते हैं लेकिन वह बेहतर राजनीतिक और आर्थिक प्रशासक नहीं हो सकते हैं. ऐसा तब है जबकि कुछ महीनों पहले ही उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में शानदार जीत हासिल की और उनकी एसएलपीपी पार्टी ने संसदीय चुनावों में ज़बर्दस्त सफलता हासिल की.

चावल के बदले रबर’ समझौता

खाद्य आपातकाल की राष्ट्रपति की घोषणा और उसके साथ जरूरी वस्तुओं जैसे चावल और चीनी की जमाखोरी ख़त्म करने के निर्देश से ठीक पहले वित्त मंत्री बासिल द्वारा कोलंबो बंदरगाह पर बड़े पैमाने पर फंसे स्टॉक को जारी करने की घोषणा, दरअसल कोरोना महामारी और साथ ही आयातकों के बेवजह के दबाव का नतीजा था. दरअसल, आयातक जिस छूट की मांग कर रहे थे वो उसके हकदार नहीं थे.  जमाखोरी और कालाबाज़ारी दोनों का ही व्यावसायिक शोषण और सत्ता में रहने वाली सरकार को शर्मिंदा करने के लिए राजनीतिक टूल की तरह इस्तेमाल किया गया. 2015 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले जिसे वो दूसरे कारणों से हार भी गए, राष्ट्रपति महिंदा ने 25 हज़ार टन बांग्लादेशी चावल का भंडारण बाज़ार में हस्तक्षेप करने के लिए किया था, तो क्या यह राजनीतिक जमाखोरी उनकी उम्मीदवारी को लेकर किसी गड़बड़ी का संकेत थी. हाल ही में सरकार ने दावा किया है कि तीन थोक विक्रेताओं से 10 हज़ार टन से ज़्यादा चीनी ज़ब्त किया है लेकिन इसे लेकर उनका मकसद अभी तक साफ नहीं हो पाया है.

सरकार ने जमाखोरों के ख़िलाफ़ भारी पेनाल्टी की घोषणा की है इसके बावजूद फुटकर स्टोर के आगे लगने वाली लंबी कतारें ना तो कम हुई हैं और ना ही लोगों में खाद्य संकट का ख़ौफ़ ख़त्म हुआ है. इस स्थिति में बदलाव तब हो सकता है जब सरकार व्यवस्था में ज़्यादा से ज़्यादा विदेशी मुद्रा भंडार को इस्तेमाल में लाए. क्योंकि निजी बैंकों ने लंबे समय से आयातक-ग्राहकों या फिर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष(आईएमएफ) के फास्ट ट्रैक ऋण के लिए अपने दरवाजे बंद कर लिए हैं.

श्रीलंका समेत तीसरी दुनिया के देशों का मानना है कि आईएमएफ की शर्तों, जिनके लिए राष्ट्रीय स्तर पर सख़्त नीति की ज़रूरत होती है, इन शर्तों से लोगों को ज़्यादा लाभ नहीं हो पाता है, और यही वजह है कि आईएमएफ की शर्तें चुनी हुई सरकारों के लिए असहज स्थिति पैदा कर देती हैं, जिसे वो रोक भी नहीं पाते हैं. श्रीलंका के राजनीतिक, आर्थिक और सिविल सोसाइटी के कई लोगों का मानना है कि देश की आर्थिक दुर्दशा के लिए स्वर्गीय राष्ट्रपति जे आर जयवर्धन का ‘बाजारवादी पूंजीवाद’ कम जिम्मेदार नहीं है. जिसे एक समय में ‘सामाजिक हस्तक्षेप’ से कुछ ज़्यादा ही समझा जाता था.

कोरोना से पहले देश ने पूर्ववर्ती सरकार की फ़िज़ूलखर्ची की मार झेली जिससे देश में ज़बर्दस्त राजनीतिक अस्थिरता पैदा हुई, जिसका नतीजा यह हुआ कि निवेशक यहां निवेश करने से बचते रहे. 

सरकार की ज़्यादा मात्रा में खाद्य सामग्रियों को आयात करने की क्षमता, चावल और चीनी के आयात से शुरुआत करना लेकिन लंबे समय के पुनर्भुगतान व्यवस्था के मुकाबले यह अकेला विकल्प नजर आता है. संभवत: श्रीलंका के ज़्यादातर जरूरी खाद्य सामग्रियां दक्षिण एशिया या फिर पूर्वी और दक्षिण पूर्व एशिया से आती हैं. आखिरी बार देश को सबसे खराब खाद्य संकट से आजादी के बाद 50 के दशक के दौरान गुजरना पड़ा था जब चीन जैसे अनुभवहीन कम्युनिस्ट शासन ने श्रीलंका को “चावल के बदले रबर” समझौता करने का ऑफर दिया था. इस समझौते के तहत चीन सूखाग्रस्त श्रीलंका को चावल निर्यात करता और बदले में सीलोन अंतर्राष्ट्रीय कीमत से कम और वैश्विक बाज़ार के मुकाबले दूसरों से ज़्यादा कीमत पर रबर का आयात करता था. श्रीलंका की सरकार और तमाम नागरिक चीन के इस रूख़ के लिए उसे धन्यवाद देना नहीं भूले. इसलिए हाल के ‘हबनटोटा समझौते’ के साथ चीन के ‘कर्ज-जाल’ में फंसने के बावजूद चीन के साथ श्रीलंका के संबंध निरंतर बने रहे.

ये कयास कोई भी लगा सकता है कि राजपक्षे शासन ने आखिर क्यों, वो किया जिसे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय चीन के हाथों बिक जाना मानता है लेकिन, उस रास्ते को नहीं अपनाया जिससे खाद्य भंडार को बढ़ाया जा सके. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि हाल में कई विवादों में से एक चीन की आर्थिक मदद से बने कोलंबो शहर बंदरगाह प्रोजेक्ट के संदर्भ में श्रीलंका सरकार दूसरे देशों से किफायती खाद्य सामग्रियों के आयात से पहले बीजिंग को विचारशील घोषित करती है, क्योंकि 90 के दशक में एलटीटीई से जंग के लिए जेट फाइटर्स बेचने के क्रम में चीन ने ना तो कोई कीमत बताई और ना ही किसी भुगतान की मांग की.

समाधान के लिए दक्षिण की ओर देखना

घरेलू मोर्चे पर खाद्य संकट के साथ-साथ विदेशी मुद्रा भंडार की कमी और कोरोना से निपटने में अव्यवस्था – जैसा कि विपक्ष ने इन मुद्दों पर सरकार को घेरने की कोशिश की है –  निश्चित तौर पर सत्ताधारी राजपक्षे की छवि पर असर डालेगी.

इससे भी ख़ास बात यह है कि सामाजिक और आंतरिक सुरक्षा विशेषज्ञ दक्षिण की ओर देख रहे हैं क्योंकि मौजूदा संकट और पिछले दशकों में निरंतर सरकारों की इसे रोकने की नाकामी कहीं ‘सामाजिक क्रांति’ की शुरुआत ना कर दे, जैसा कि बहुसंख्यक सिंहाला-बौद्ध समाज में हुआ था. याद किया जा सकता है कि सामाजिक आंदोलनों वाले वैश्विक दौर में देश के दक्षिणी हिस्से में बहुसंख्यक सिंहाला युवाओं ने जानाथा विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया था. यह समूह रोहन्ना विजेवीरा द्वारा स्थापित समूह जेवीपी से निकला हुआ अंग था, जो मॉस्को के लुमुंबा यूनिवर्सिटी से मेडिकल की आधी पढ़ाई छोड़ कर लौटे थे.

 सरकार की ज़्यादा मात्रा में खाद्य सामग्रियों को आयात करने की क्षमता, चावल और चीनी के आयात से शुरुआत करना लेकिन लंबे समय के पुनर्भुगतान व्यवस्था के मुकाबले यह अकेला विकल्प नजर आता है. 

1971 और 1989 के ‘जेवीपी उग्रवाद’ के दौरान लोगों ने सुरक्षा बलों को हज़ारों की तादाद में सिंहाला युवक और युवतियों को बर्बरता पूर्वक हत्या करते हुए देखा था. भारत ने सीधे तौर पर पहले(1971 के) उग्रवाद को ख़त्म करने में सरकार की मदद की थी. भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) की मौजूदगी, जिसने उत्तर और पूर्व में एलटीटीई से मुकाबला किया, जिसकी वजह से श्रीलंकाई सेना ने खुल कर दूसरे(1989 के) जेवीपी उग्रवाद का सामना किया.

1971 और 1989 के ‘जेवीपी उग्रवाद’ के दौरान लोगों ने सुरक्षा बलों को हज़ारों की तादाद में सिंहाला युवक और युवतियों को बर्बरता पूर्वक हत्या करते हुए देखा था. भारत ने सीधे तौर पर पहले(1971 के) उग्रवाद को ख़त्म करने में सरकार की मदद की थी. 

उग्रवाद के बाद, एलटीटीई का बतौर अंतर्राष्ट्रीय आतंकी समूह खड़ा होना देश को दक्षिण के मुददों से ध्यान हटाने पर मजबूर कर दिया. हालांकि, निरंतर सरकारों ने इसके बाद आम लोगों की समस्याओं को लेकर ना कभी उन्हें भरोसे में लेने की कोशिश की और ना ही वो खुद को यह विश्वास दिला सके कि दोबारा पहले जैसा कोई सामाजिक विद्रोह नहीं होगा, जिसमें राष्ट्रीय और घरेलू आर्थिक स्थिति पर पूरा ध्यान रहेगा जैसा कि अतीत में जेवीपी के दौरान हुआ था – लेकिन ऐसे युवा नेतृत्व के तहत जिन्हें कोई पहचानता नहीं हो.

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