Published on Jan 16, 2024 Updated 0 Hours ago

G20 में अफ्रीकी संघ की सदस्यता अफ्रीका महादेश को काफ़ी कुछ देती है, लेकिन क्या इसके ठोस परिणाम सामने आएंगे, ये ग्लोबल साउथ के अन्य देशों के साथ साझेदारियां तैयार करने की उसकी क़ाबिलियत पर निर्भर करेगा

G20 में अफ्रीकी संघ का सफ़र- सधी हुई शुरुआत लेकिन आगे बड़ी चुनौती!

स्थायी सदस्य के तौर पर अफ्रीकी संघ (AU) को G20 में शामिल करना भारत की G20 अध्यक्षता की पहचान थी. एक ऐसे महादेश के रूप में जिसे ऐतिहासिक तौर पर वैश्विक शासन संबंधी संवादों में हाशिए पर रखा गया है, G20 के पूर्ण सदस्य के तौर पर शामिल किया जाना एक स्वागतयोग्य क़दम है. वहीं दूसरी ओर, अफ्रीकी संघ के प्रवेश ने G20 को एक विशिष्ट क्लब से समावेशी मंच में बदल डाला है, और समूह की वैधता में सुधार किया है जो अब बहुपक्षीयवाद का ज़्यादा प्रभावी साधन बन सकता है. AU आयोग के अध्यक्ष मौसा फाकी महामत जैसे अधिकांश अफ्रीकी नेताओं का विचार है कि G20 में अफ्रीकी संघ के प्रवेश से अफ्रीका के पक्ष में विमर्श खड़ा करने में सहायता मिलेगी, साथ ही जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौतियों में अफ्रीका को सकारात्मक योगदान देने में भी मदद मिलेगी. 

G20 जैसा मंच, जिसने अफ्रीकी देशों से बिना कोई इनपुट लिए अब तक कई अहम फ़ैसले लिए हैं, जिनमें ऋण सेवाएं निलंबन कार्यक्रम (DSSI) और साझा रूपरेखा शामिल हैं, क्या उसके सभी ताक़तवर देश तत्काल अफ्रीका को एक बराबर के भागीदार के तौर पर देखने लगेंगे?

हालांकि, ऐसे प्रतिष्ठित समूह में स्थान मिल जाने से ही क्या अफ्रीका की स्थिति एक निष्क्रिय प्राप्तकर्ता से वैश्विक निर्णयों को आकार देने वाली शक्ति के तौर पर बदलना सुनिश्चित हो जाएगा? G20 जैसा मंच, जिसने अफ्रीकी देशों से बिना कोई इनपुट लिए अब तक कई अहम फ़ैसले लिए हैं, जिनमें ऋण सेवाएं निलंबन कार्यक्रम (DSSI) और साझा रूपरेखा (ऐसी पहलें जिन्होंने अफ्रीकी देशों की क़ीमत पर ऋणदाता राष्ट्रों का पक्ष लिया है) शामिल हैं, क्या उसके सभी ताक़तवर देश तत्काल अफ्रीका को एक बराबर के भागीदार के तौर पर देखने लगेंगे? इन सवालों का जवाब है नहीं. लिहाज़ा, उत्साह और उत्सव का प्रारंभिक चरण बीतने के बाद अब इस पर विचार करने का समय है कि G20 में AU की प्रभावी सदस्यता के ज़रिए अफ्रीका, वैश्विक मामलों में हाशिए पर जाने की स्थिति को कैसे पलट सकता है. G20 में अफ्रीकी संघ का समावेश तब तक एक प्रतीकात्मक संकेत ही बना रहेगा जब तक वो अफ्रीकी हितों की रक्षा नहीं कर सकता, अपने खुद के तर्क नहीं पेश कर सकता और विकास के लिए महादेश के रणनीतिक मास्टरप्लान (एजेंडा 2063) को ज़मीन पर उतारने के लिए इस मंच का उपयोग नहीं कर सकता. हालांकि, AU के रास्ते में तमाम अड़चनें हैं. 

वैसे तो G20 में अफ्रीकी संघ को यूरोपीय संघ (EU) के समान दर्जा दिया गया है, लेकिन दोनों संस्थानों की संरचना में उल्लेखनीय अंतर, मामले को पेचीदा बना देते हैं. मिसाल के तौर पर, यूरोपीय संघ के विपरीत अफ्रीकी संघ सुपरनैशनल संगठन नहीं है और मौद्रिक स्तर पर अफ्रीकी क्षेत्रीय सहयोग लचर है. लिहाज़ा, EU सदस्य राष्ट्रों के विपरीत AU के सदस्य राष्ट्र अफ्रीकी संघ को कम प्राधिकार सौंपते हैं और तकनीकी कार्यकारी समूहों के साथ-साथ केंद्रीय बैंक गवर्नरों और वित्त मंत्रियों की बैठकों में उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना चुनौतियों से भरा होगा. पहली चुनौती प्रतिनिधित्व से संबंधित है. AU के सामने दो तात्कालिक सवाल हैं कि वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक गवर्नरों की बैठक में AU का प्रतिनिधित्व किसे करना चाहिए और शेरपा ट्रैक में उचित भागीदारी कैसे सुनिश्चित की जाए. नीति विश्लेषक आइवरी कायरो के मुताबिक AU आयोग के व्यापार और उद्योग आयुक्त और AU चेयर के वित्त मंत्री को वित्त मंत्रियों के स्तर पर AU का प्रतिनिधित्व करना चाहिए और AU चेयर या अफ्रीकी विकास बैंक या अफ्रेक्सिम बैंक के प्रमुख को केंद्रीय बैंक गवर्नरों की बैठक में अफ्रीकी संघ का प्रतिनिधित्व करना चाहिए. दूसरी ओर, खाद्य प्रणालियों के लिए अफ्रीकी संघ के विशेष दूत इब्राहिम मायकी, और अफ्रीकैटेलिस्ट के मैनेजिंग पार्टनर दाउदा सेमबेने जैसे विशेषज्ञ एक विशेष दूत की नियुक्ति का आह्वान करते हैं, जो AU चेयर वित्त मंत्री और केंद्रीय बैंक गवर्नर के साथ जाएगा.

प्रभावी साझेदारी

ये देखते हुए कि अफ्रीकी विकास बैंक एक स्वायत्त संस्था नहीं है क्योंकि यूनाइटेड किंगडम (UK), जापान और अमेरिका जैसे G20 के कुछ शक्तिशाली सदस्य राष्ट्र इसके सबसे बड़े स्टेकहोल्डर्स हैं, अफ्रेक्सिम बैक के प्रमुख, G20 में AU का प्रतिनिधित्व करने के लिहाज़ से ज़्यादा उपयुक्त हो सकते हैं. साथ ही, ये देखते हुए कि, EU अध्यक्ष के विपरीत AU चेयर को अपने देश पर शासन करना होता है, मायाकी और सेमबेने का विशेष दूतों वाला सुझाव ज़्यादा उपयुक्त लगता है.

शेरपा की नियुक्ति के संबंध में, कायरो का AU आयोग के व्यापार और उद्योग आयुक्त के साथ-साथ AU चेयर के विदेश मंत्री/कूटनीतिक सलाहकार या AU आयोग के अध्यक्ष द्वारा नियुक्त एक विशेष दूत का सुझाव उचित है. शेरपा ट्रैक में प्रभावी साझेदारी के लिए AU को अपने मौजूदा विभागों का पूरी तरह से लाभ उठाना चाहिए. इन विभागों में कृषि, ग्रामीण विकास, ब्लू इकोनॉमी, और सतत पर्यावरण (ARBE) आर्थिक विकास, पर्यटन, व्यापार, उद्योग, खनन (ETTIM) बुनियादी ढांचा और ऊर्जा, और शिक्षा, विज्ञान, टेक्नोलॉजी और नवाचार (ESIT) शामिल हैं.

इस बात की प्रबल आशंका है कि AU को अहम मसलों पर साझा रुख़ तैयार करने में संघर्ष करना पड़ेगा क्योंकि अब तक AU के भीतर साझा रुख़ तैयार करने का कोई तंत्र नहीं है. पामला गोपाल जैसे विशेषज्ञों के अनुसार अफ्रीकी देशों के विविध औपनिवेशिक और ऐतिहासिक गठजोड़ हालात को बदतर बना सकते हैं.

दूसरे, इस बात की प्रबल आशंका है कि AU को अहम मसलों पर साझा रुख़ तैयार करने में संघर्ष करना पड़ेगा क्योंकि अब तक AU के भीतर साझा रुख़ तैयार करने का कोई तंत्र नहीं है. पामला गोपाल जैसे विशेषज्ञों के अनुसार अफ्रीकी देशों के विविध औपनिवेशिक और ऐतिहासिक गठजोड़ हालात को बदतर बना सकते हैं. लिहाज़ा, अहम मसलों पर साझा रुख़ तैयार करने के लिए AU को सावधानीपूर्वक तैयार की गई रणनीति विकसित करने की दरकार है ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि उसे महत्वपूर्ण समूह में स्थान मिलने के संभावित फ़ायदे हासिल हो सकें. 

तीसरे, वार्ताओं के रुख़ में निरंतरता बनाए रखना भी अफ्रीकी संघ के लिए बड़ी चुनौती साबित होगा क्योंकि EU परिषद के अध्यक्ष (जिनका कार्यकाल ढाई साल का होता है) के विपरीत AU की अध्यक्षता हर साल बदलती रहती है. इसके अलावा, जैसा कि पहले ज़िक्र किया गया है, AU के अध्यक्ष को अपने देश का भी शासन करना होता है. अफ्रीका के कई छोटे देशों के लिए, जिनके पास इन दोहरे दबावों से निपटने के लिए प्रभावी अफ़सरशाही नहीं है, ये काफ़ी मुश्किल साबित होगी. 

AU अध्यक्ष के पास फ़िलहाल पूर्ण सदस्य के रूप में प्रभावी योगदान देने के लिए संस्थागत समर्थन का भी अभाव है. यहीं पर G20 के अन्य देशों, ख़ासतौर से भारत जैसे ग्लोबल साउथ के राष्ट्रों के साथ साझेदारियां तैयार करने में AU की प्रभावशीलता काम आएगी.  

अंत में, AU अध्यक्ष के पास फ़िलहाल पूर्ण सदस्य के रूप में प्रभावी योगदान देने के लिए संस्थागत समर्थन का भी अभाव है. यहीं पर G20 के अन्य देशों, ख़ासतौर से भारत जैसे ग्लोबल साउथ के राष्ट्रों के साथ साझेदारियां तैयार करने में AU की प्रभावशीलता काम आएगी. G20 के भीतर अपना प्रभाव जमाने और G20 की सदस्यता से भरपूर लाभ उठाने के लिए AU को ग्लोबल साउथ के देशों के साथ साझेदारी तैयार करने की कोशिश करनी चाहिए. ग्लोबल साउथ (अल्प-विकसित और विकासशील दुनिया) के प्रति भारत की वचनबद्धता और अफ्रीका के साथ इसकी दीर्घकालिक साझेदारी को देखते हुए भारत और AU को साझा हित वाले क्षेत्रों में सहयोग को आगे बढ़ाना चाहिए. इनमें अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचे का सुधार, जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ शिक्षा और कौशल शामिल हैं. 

संक्षेप में, G20 में AU की सदस्यता अफ्रीका को काफ़ी कुछ प्रदान करती है, लेकिन क्या इसके ठोस नतीजे मिलेंगे, ये संस्था द्वारा फ़िलहाल सामने खड़ी चुनौतियों का समाधान करने की क्षमता और भारत समेत ग्लोबल साउथ के अन्य देशों के साथ साझेदारियां तैयार करने की उसकी क़ाबिलियत पर निर्भर करेगा. क्या अफ्रीकी संघ इस कार्य के लिए तैयार है? ये आने वाला समय ही बताएगा.  


मलांचा चक्रबर्ती ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो और डिप्टी डायरेक्टर (रिसर्च) हैं.

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