यह The China Chroniclesसीरीज की 65वीं कड़ी है।
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भारत को हाल की इन खबरों पर कतई हैरानगी नहीं होनी चाहिए कि चीन विश्व के सबसे महत्वाकांक्षी क्लाउड-सीडिंग प्रोग्राम (या बादल-बीजरोपण कार्यक्रम) की शुरुआत करने जा रहा है। दरअसल, चीन पिछले दशक भर से मौसम नियंत्रण तथा रूपांतरण कार्यक्रमों का सफल संचालन करता आ रहा है। 2008 में बीजिंग में आयोजित ग्रीष्मकालीन ओलिम्पिक खेलों में चीन ने पहली बार शाम के समय 1,110 अत्याधुनिक चीनी रॉकेट बादलों में दागे थे, ताकि उद्घाटन समारोह के दौरान वर्षा न होने पाए। हालांकि तिब्बत के पठार पर स्पेन से तिगुने आकार के क्षेत्र में हाल ही में घोषित कृत्रिम वर्षा कराने के लक्ष्य वाली परियोजना से भारत को सचेत रहने की जरूरत है।
तिब्बत, सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, इरावदी,सालवीन और मेकांग सहित एशिया की सबसे महत्वपूर्ण नदियों का उद्गम स्थल है। चीन, लाओस, नेपाल, भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश से होकर बहने वाली ये नदियां लगभग 3.4 बिलियन या विश्व की 7.06 बिलियन आबादी के 46 फीसदी लोगों की जीवन रेखा हैं।
चूंकि पठार को साझी पारिस्थितिकीय सीमा समझा जा सकता है,ऐसे में इसकी नाजुक पारिस्थितिकी में किसी भी तरह के मानवजनित बदलावों के गंभीर परिणाम केवल नदी के निचले भाग में स्थित भारत को ही नहीं, बल्कि अन्य दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों को भी भुगतने पड़ सकते हैं।
साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट के अनुसार, ‘क्लाउड सीडिंग’ या वर्षण में सहायता करने के लिए बादलों के भीतर विमानों के जरिए सिल्वर आयोडाइड, पोटाशियम क्लोराइड और सोडियम क्लोराइड जैसे रसायनों का छिड़काव करने वाले वैज्ञानिक हस्तक्षेप पर चीन की आश्रितता, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने की उसकी कार्यनीति का अंग है। इसका कारण यह है कि चीन में क्लाइमेट मॉडल्स का अनुमान है कि तापमान बढ़ने तथा क्षेत्र में वर्षा में कमी होने के कारण इस पठार में भयानक सूखा पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन के मौजूदा परिदृश्य पर गौर करें, तो यह अनुमान सही भी हो सकता है, हालांकि तिब्बत क्षेत्र के लिए कृत्रिम वर्षा कराने की प्रणाली सहित इस प्रकार की तकनीकों पर निर्भरता की जरूरत संदेहास्पद है। क्योंकि तिब्बत का पठार उत्तरी ध्रुव के बाहर ताजे पानी का विशालतम सुगम भंडार है और इसे अक्सर एशिया का वॉटर टॉवर भी कहा जाता है और जल की दृष्टि से कहीं ज्यादा संतुष्ट है।इसलिए भारत को सटीक मौसम पूर्वानुमानों और आंकड़ों के संग्रह के लिए पूर्वोत्तर और सीमावर्ती क्षेत्रों में ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) और भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) तथा रिमोट सेंसिंग प्रौद्योगिकियों सहित भू-स्थानिक प्रौद्योगिकी के माध्यम से अपनी निगरानी क्षमताओं को सशक्त बनाने की जरूरत है। ऐसा करके भारत चीन की गतिविधियों पर पैनी नजर रख सकेगा और खुद को प्रभावी जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार कर सकेगा। इतना ही नहीं, तिब्बत के पठार से निकलने वाली नदियों के जल की मात्रा में वृद्धि नदी की धारा के निचले हिस्से में बसे देशों के लिए विनाशकारी हो सकती है।
हर साल, मॉनसून के दौरान होने वाली वर्षा के कारण ब्रह्मपुत्र या चीन में यार्लंग त्सांगपो के नाम से ज्ञात नदी का जलस्तर बढ़ जाता है, जिसके कारण भारत के पूर्वोत्तर में भीषण बाढ़ आती है। राज्य सरकार के अनुमानों के अनुसार, बाढ़ और भूमि कटाव से असम में 2,753 लोगों की मौत की मौत हो चुकी है और लगभग 4659.472 करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान हुआ है । पिछले साल, 2017 में आई बाढ़ के कारण असम में 157 लोगों की मौत हो गई थी और राज्य के 29 जिलों में तबाही हुई थी। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में बाढ़ के कारण लगभग 500 लोगों की मौत हुई ।
तिब्बत में चीन की क्लाउड सीडिंग महत्वाकांक्षा के मद्देनजर, ब्रह्मपुत्र की नाजुक पारिस्थितिकी में रहने वाली 3.5 मिलियन आबादी के जीवन को सुरक्षित बनाने के लिए भारत को बाढ़ के पूर्वानुमान के लिए अपने जलविज्ञान संबंधी मॉडल्स तैयार करने होंगे, क्योंकि हम अभी तक बाढ़ की चेतावनी संबंधी आंकड़े चीन से ही प्राप्त करते हैं। भारत को अपने जल-मौसमविज्ञान-संबंधी स्टेशनों से बाढ़ के दोनों सीज़न, साथ ही साथ गैर-मॉनसून प्रवाह के आंकड़ों सहित नदी के प्रवाह की नियमित रूप से पड़ताल करनी होगी। इससे नदी की धारा के ऊपरी हिस्से में होने वाली किस भी ऐसी संदिग्ध गतिविधि, जो भारत में प्राकृतिक आपदा का सबब बन सकती हो, का पता लगाने की भारत की क्षमता में वृद्धि होगी।
चीन की नई परियोजना में तिब्बत के पठार पर सिल्वर आयोडाइड तैयार करने के लिए ठोस ईंधन के हजारों जलते हुए चैम्बर्स लगाया जाना शामिल होगा। आयोडाइड पानी के अणुओं को हवा में घनीभूत करने का कार्य करता है, जो धरती पर बारिश की बूंदों या बर्फ के रूप में गिरते हैं।
कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में वायुमंडलीय वतिलन या ऐट्मस्फेरिक एरोसॉल का अध्ययन कर रहे एक केमिकल इंजीनियर के अनुसार, सिल्वर आयोडाइड में अपने गैर-विषाक्त रूप में भी, धरती पर बारिश की बूंदों के रूप में गिरते ही भूजल में दाखिल होकर जलीय पारिस्थितिकी को अस्त-व्यस्त करने की महत्वपूर्ण क्षमता होती है। 2016 में व्योमिंग वेदर मॉडिफिकेशन पायलट प्रोग्राम द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि क्लाउड सीडिंग का परिणाम वर्षा में गतिरोध, बाढ़, बवंडर और सिल्वर आयोडाइड विषाक्तता में हो सकता है। इतना ही नहीं, यह प्रणाली दीर्घावधि या बड़े पैमाने पर विश्वसनीय नहीं है। इस दिशा में हो रहे शोधों में कहा गया कि क्लाउड सीडिंग न सिर्फ वांछित प्रभाव हासिल करने में विफल रहती है, बल्कि इसके घातक परिणाम भी हो सकते हैं।
जियो-इंजीनियरिंग विशेषज्ञों ने सचेत किया है कि किसी एक क्षेत्र में वर्षा कराने के लिए मौसम में की जाने वाली कृत्रिम छेड़छाड़ के किसी अन्य स्थान पर कम वर्षा जैसे — अनियोजित परिणाम हो सकते हैं। इसलिए चीन और भारत के हित में यही होगा कि वे क्षेत्र से विश्वसनीय आंकड़े जुटाने के लिए मिलजुल कर,परिपूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन करें। चीन और भारत को सीडिंग परीक्षण कराने होंगे, जो तिब्बत के पठार पर 1.6 मिलियन वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इस परियोजना को लागू करने के लिए लाखों अतिरिक्त चैम्बरों का निर्माण करने से पहले इस प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल, संचालन की रूपरेखा तथा पर्यावरणीय प्रभाव आकलन(ईआईए) की दिशा में मार्गदर्शन कर सकें।
हालांकि, यह महज पर्यावरणीय खतरा भर ही नहीं है, बल्कि इसके महत्वपूर्ण सामरिक निहितार्थ भी हो सकते हैं, जिनकी भारत को चिंता करनी चाहिए। सीमा विवाद, व्यापार संतुलनों से संबंधित असंतोष और हिमालयी पठार डोकलाम पर सैन्य गतिरोध सहित हाल के वर्षों में भारत-चीन द्विपक्षीय संबंध तनावपूर्ण रहे हैं। ऐसी अटकलें लगाई जा रही हैं कि चीन अपनी मौसम रूपांतरण प्रौद्योगिकी भारत के खिलाफ सामरिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हुए संघर्ष के दौरान मौसम को बिगाड़ेगा और बाढ़ तथा सूखे जैसी आपदा लाएगा। ऐसी रणनीति नयी नहीं है। वियतनाम युद्ध के दौरान ऑपरेशन पॉपआई के नाम से इस्तेमाल की गई इस रणनीति से मॉनसून के सीजन में वर्षा की मात्रा बढ़ा दी गई थी, ताकि वहां कीचड़ बढ़ जाए और दुश्मन के लड़ाकों के लिए सफर कर पाना मुश्किल हो जाए। हालांकि भारत-चीन के सदंर्भ में, भारत के हाल के अनुभव को देखते हुए, ऐसी अटकलें अब तक केवल किताबी ही रही हैं, लेकिन इनके व्यवहारिक इस्तेमाल की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
चीन ने पहले से ही गैर-पारम्परिक हथकंडे के रूप में दबाव वाली जल कूटनीति का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। उसने डोकलाम गतिरोध के दौरान ब्रह्मपुत्र नदी का बाढ़ की चेतावनी से संबंधित डेटा भारत के साथ साझा न करके भारत को असहाय बना दिया था।
जहां तक मौसम रूपांतरण के सामरिक निहितार्थों का प्रश्न है, भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि चीन संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण रूपांतरण समझौते (ईएनएमओडी) का उल्लंघन न करने पाए। यह समझौता देशों को ऐसी पर्यावरण रूपांतरण तकनीकों का सैन्य या किसी अन्य शत्रुतापूर्ण उपयोग करने से रोकता है, जिनसे किसी अन्य देश में तबाही, हानि या चोट जैसे व्यापक, टिकाऊ या गम्भीर प्रभाव हो सकते हैं।
भारत के लिए सफलता की महत्वपूर्ण राह यह हो सकती है कि वह अपनी पर्यावरणीय आसूचना क्षमताओं पर निर्भर करे। किसी भी तरह का निर्णय लेने के लिए समग्र दृष्टिकोण, क्लाउड सीडिंग के सभी संघटकों से सम्बंधित शोध का एकीकरण, साथ ही साथ क्षेत्रों के साथ और उसके बाद पारिस्थितिकी प्रणाली के साथ उसको सम्बद्ध करना अनिवार्य होगा। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को ऐसे मंच की स्थापना करने की पहल करनी चाहिए, जो सभी स्तरों पर निगरानी, मॉडलिंग और आंकड़ों का प्रबंधन कर सकें।
चीन द्वारा पूरे क्षेत्र में कूटनीति के ऐसे गैर पारम्परिक तरीके अपनाने में तेजी लाने के मद्देनजर, भारत को भी अपने ढांचे इसी तरह तैयार करने चाहिए।
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