Published on May 20, 2023 Updated 0 Hours ago
वॉशिंगटन घोषणा: प्रशांत क्षेत्र में संतुलन बहाल करने की कोशिश

26 अप्रैल से 1 मई के बीच दक्षिणी कोरिया (ROK) के राष्ट्रपति यून सुक-इयोल, अमेरिका के दौरे पर थे.  आपसी रिश्तों के लिहाज़ से उनकी ये यात्रा बेहद प्रतीकात्मक थी. यही नहीं, हिंद प्रशांत क्षेत्र में आने वाले दशक में अमेरिका और दक्षिणी कोरिया के रिश्तों का क्या मतलब होगा, उस लिहाज़ से भी यून सुक-इयोल की ये यात्रा बहुत सी संभावनाओं से भरी हुई थी. सियासी तौर पर दक्षिणी कोरियाई राष्ट्रपति का ये दौरा, अमेरिका और ROK के बीच गठबंधन की 70वीं सालगिरह के जश्न के मौक़े पर हुआ था. जो बाइडेन और यून सुक-इयोल की मुलाक़ात पिछले एक साल से भी कम समय में दोनों नेताओं की पांचवीं मुलाक़ात और दूसरी शिखर वार्ता थी. अपने वॉशिंगटन दौरे के दौरान दक्षिणी कोरिया के राष्ट्रपति ने अमेरिकी संसद के साझा सत्र को संबोधित किया और नासा (NASA) का भी दौरा किया. उनके साथ कारोबारियों का एक प्रतिनिधिमंडल भी था, जिसकी मेज़बानी अमेरिका के चैंबर ऑफ़ कॉमर्स ने की थी. यानी इस दौरे में दक्षिणी कोरिया के राष्ट्रपति ने सियासत और कारोबार से लेकर तकनीक जैसे क्षेत्रों पर अपना ध्यान लगाया था. हालांकि, उनके इस दौरे का सबसे महत्वपूर्ण नतीजा, वॉशिंगटन घोषणापत्र के रूप में सामने आया. इस घोषणा ने अमेरिका और रिपब्लिक ऑफ कोरिया (ROK) के आपसी रिश्तों कों एक वैश्विक गठबंधन में बदलने का काम किया है. दोनों देशों के रिश्ते लोकतांत्रिक सिद्धांतों, आर्थिक सहयोग और तकनीकी सहयोग की बुनियाद पर आधारित होंगे. इसके साथ साथ, जो सबसे अहम बात हुई है कि इस घोषणा ने कोरियाई प्रायद्वीप और व्यापक हिंद प्रशांत क्षेत्र के उन ख़तरों के बदलते स्वरूप को भी अपने साथ जोड़ा है, जिनका सामना दोनों देश कर रहे हैं.

वॉशिंगटन घोषणा करने के पीछे का तर्क, हिंद प्रशांत क्षेत्र की नई सामरिक हक़ीक़तों के मुताबिक़ ख़ुद को ढालने की अमेरिका और दक्षिणी कोरिया की प्रतिबद्धताएं भी हैं, जिसके चार प्रमुख तत्व हैं: अस्थिर कोरियाई प्रायद्वीप; चीन का ख़तरा; हिंद प्रशांत क्षेत्र में शक्ति का एक अनुकूल और व्यापक संतुलन; और, नई तकनीकों के दौर में अग्रणी बने रहने को सुनिश्चित करना.

अमेरिका ने ये घोषणा क्यों जारी की?

दक्षिणी कोरिया के साथ वॉशिंगटन घोषणापत्र जारी करने के पीछे दोहरी अमेरिकी मंशा है. पहले का ताल्लुक़ तो प्रशांत क्षेत्र में अपने सबसे अहम सहयोगियों में से एक देश को सुरक्षा का भरोसा देना है कि किसी बाहरी ख़तरे की सूरत में अमेरिका, दक्षिणी कोरिया के साथ पूरी मज़बूती के साथ खड़े होने का भरोसा देता है. चूंकि इस क्षेत्र के देशों का अमेरिका पर भरोसा कम हो रहा है और उन्हें अमेरिका और चीन के बीच किसी एक का चुनाव करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. ऐसे में दक्षिणी कोरिया को ये विश्वास दिलाना, अमेरिका के लिए बेहद अहम है. अमेरिका के लिए घोषणापत्र जारी करने की दूसरी वजह, ये थी कि चीन के बढ़ते ख़तरे को देखते हुए बाइडेन प्रशासन, यूरोप में युद्ध जारी रहने और उधर काफ़ी संसाधन लगाने और सामरिक रूप से ध्यान केंद्रित करने के बाद भी हिंद प्रशांत क्षेत्र को दोबारा अमेरिकी नीति के केंद्र में लाना चाहता है. बाइडेन प्रशासन की हिंद प्रशांत रणनीति पर ताइवान के सवाल का साया साफ़ तौर पर मंडराता दिखता है. भविष्य में ताइवान पर चीन के संभावित हमले से निपटने के लिए अमेरिका को अगले एक दशक के भीतर मज़बूत मोर्चेबंदी करनी होगी. अमेरिकी ख़ुफ़िया तंत्र के मूल्यांकन के मुताबिक़, चीन अगले एक दशक के भीतर ताइवान पर हमला करके उसे अपने में मिलाने का प्रयास करने वाला है. इसीलिए, प्रशांत क्षेत्र में गठबंधनों का एक मज़बूत ढांचा खड़ा करना, हिंद प्रशांत को लेकर अमेरिकी रणनीति का अटूट अंग है. अगर ऑकस (AUKUS) समझौते ने अमेरिका को परमाणु शक्ति से चलने वाली पनडुब्बियां उपलब्ध कराने का वादा करके, प्रशांत क्षेत्र में अपनी उपस्थिति में नई जान डालने का ग़ैर घातक तर्क मुहैया कराया है. वहीं, वॉशिंगटन घोषणा के ज़रिए अमेरिका ने अपनी डराने की व्यापक क्षमता को ‘पूर्ण रूप से विश्वसनीय’ एटमी ताक़त वाला ठोस स्वरूप दिया है.

वॉशिंगटन घोषणा करने के पीछे का तर्क, हिंद प्रशांत क्षेत्र की नई सामरिक हक़ीक़तों के मुताबिक़ ख़ुद को ढालने की अमेरिका और दक्षिणी कोरिया की प्रतिबद्धताएं भी हैं, जिसके चार प्रमुख तत्व हैं: अस्थिर कोरियाई प्रायद्वीप; चीन का ख़तरा; हिंद प्रशांत क्षेत्र में शक्ति का एक अनुकूल और व्यापक संतुलन; और, नई तकनीकों के दौर में अग्रणी बने रहने को सुनिश्चित करना.  

बाइडेन प्रशासन के लिए प्रशांत क्षेत्र के सामरिक लचीलेपन को मज़बूत बनाना उनकी नीतिगत मजबूरियों और विकल्पों के एजेंडे में सबसे ऊपर है. ये बात, हाल के दिनों में राष्ट्रपति बाइडेन द्वारा अपने प्रशांत क्षेत्र के सहयोगियों को बार बार भरोसा दिलाने के प्रयासों में ही नहीं, बल्कि इस क्षेत्र में अपने गठबंधनों और साझेदारियों में नई जान डालने की कोशिशों के तौर पर भी दिखाई देती रही है. प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की इन कोशिशों को ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के साथ ऑकस समझौते से भी सामरिक रफ़्तार मिली है. इसके अलावा अमेरिका, प्रशांत क्षेत्र में ख़ास तौर पर और व्यापक हिंद प्रशांत में आम तौर पर संतुलन को अपने हक़ में करने के लिए ऑकस समझौते के पूरक के तौर पर द्विपक्षीय और बहुपक्षीय प्रयास कर रहा है. 2014 के एनहैंस्ड डिफेंस को-ऑपरेशन एग्रीमेंट (EDCA) के तहत अमेरिकी सेनाओं पांच सैनिक अड्डे बनाने देने के अलावा फिलीपींस ने हाल ही में अमेरिका को चार और सैनिक अड्डे बनाने की इजाज़त दे दी है; वियतनाम के साथ सामरिक साझेदारी की संभावना लंबे समय से दिख रही है. इसके अलावा जापान और दक्षिण कोरिया के बहुत स्वागतयोग्य मेल-मिलाप को मिलाकर देखें, तो ये सब प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी सुरक्षा तंत्र को मज़बूती देने के लिए ही हो रहा है. इसके अलावा, जापान के साथ अमेरिका के सुरक्षा संबंधों में नई जान डालने के लिए भी प्रयास किए जा रहे हैं. अगर ऐसा होता है तो चीन के उभार के साथ प्रशांत क्षेत्र में जो सामरिक संतुलन तेज़ी से बदल रहा है, उसे अमेरिका के पक्ष में फिर से बहाल किया जा सकता है.

दक्षिणी कोरिया और हिंद प्रशांत के लिए वॉशिंगटन घोषणा का क्या मतलब है?

प्राथमिक तौर पर देखें, तो ये फ़ैसला उत्तर कोरिया के आक्रामक बर्ताव को क़ाबू में रखने के लिए किया गया. लेकिन, इस घोषणा से पहले इसी साल जनवरी में राष्ट्रपति यून ने एलान किया था कि उत्तर कोरिया के एटमी हथियारों के बढ़ते ज़खीरे और आक्रामक रवैये को देखते हुए दक्षिणी कोरिया को भी अपने दम पर परमाणु हथियार हासिल करने पड़ सकते हैं. यून का सुझाव ऐसा नहीं है जिसे अमेरिका मंज़ूर करे और वो चाहता है कि दक्षिणी कोरिया परमाणु अप्रसार के अपने वादे पर अमल करना जारी रखे. वॉशिंगटन घोषणा से अमेरिका के लिए तीन बातें सुनिश्चित होती हैं- पहला, इससे ये सुनिश्चित होता है कि दक्षिणी कोरिया अपने परमाणु हथियार विकसित नहीं करेगा और हालात बिगड़ने की सूरत में फ़ैसला करने का अख़्तियार अकेले अमेरिका के पास होगा; दूसरा, परमाणु बम से लैस बेक़ाबू देश के  बिना एटमी ताक़त वाले पड़ोसी देश के तौर पर दक्षिण कोरिया की अपनी कमज़ोरी को लेकर चिंताओं को दूर करना; और तीसरा ये कि इस क्षेत्र में अमेरिका अपनी मज़बूत सामरिक मौजूदगी बरक़रार रखने वाला है.

वॉशिंगटन घोषणा से अमेरिका के लिए तीन बातें सुनिश्चित होती हैं- पहला, इससे ये सुनिश्चित होता है कि दक्षिणी कोरिया अपने परमाणु हथियार विकसित नहीं करेगा और हालात बिगड़ने की सूरत में फ़ैसला करने का अख़्तियार अकेले अमेरिका के पास होगा

उत्तर कोरिया की तरफ़ से एटमी ख़तरा, लंबे समय से दक्षिणी कोरिया और व्यापक हिंद प्रशांत क्षेत्र के लिए चिंता का विषय बना हुआ है. और, हाल के वर्षों में तो हालात और नाज़ुक होते गए हैं, क्योंकि उत्तर कोरिया ने कई उन्नत परमाणु हथियार और उन्हें दाग़ने के लिए मिसाइलें विकसित कर ली हैं. दक्षिण कोरिया, कई दशकों से परमाणु हमले के इस ख़तरे के पहले मोर्चे का देश बना हुआ है और दक्षिण कोरिया के नागरिकों के ज़हन में परमाणु हमले का ख़तरा लगातार बना रहता है. किसी भी संभावित एटमी हमले से निपटने के लिए दक्षिणी कोरिया ने कई आत्मरक्षात्मक उपाय विकसित किए हैं. इनमें हमले की पहले चेतावनी देने का सिस्टम, मिसाइल डिफेंस सिस्टम और आपातकालीन स्थिति से निपटने की योजनाएं शामिल हैं. ऐसे में क़ुदरती तौर पर दक्षिणी कोरिया ने वॉशिंगटन घोषणा का स्वागत किया- लिखित रूप में किया गया ये अपने तरह का पहला वादा है- जिसके तहत परमाणु हमला होने की सूरत में इससे निपटने में सहयोग और इसकी योजना तैयार करने के लिए एक न्यूक्लियर कंसल्टेटिव ग्रुप बनाने की भी व्यवस्था है. इस घोषणा से दक्षिणी कोरिया की तीन ध्रुवों वाली आत्मरक्षा व्यवस्था- यानी किसी बड़े युद्ध की सूरत में उत्तर कोरिया के समूचे नेतृत्व को ख़त्म करने के लिए कार्यकारी योजना कोरिया मैसिव पनिशमेंट ऐंड रिटैलिएशन (KMPR), दुश्मन से पहले हमला करने के मंच किल चेन, और कोरिया का एयर ऐंड मिसाइल डिफेंस सिस्टम (KAMD)- को मज़बूती मिलती है. इसके अलावा, ये घोषणा दिसंबर 2022 में दक्षिणी कोरिया द्वारा अपनी हिंद प्रशांत रणनीति जारी करने के बाद की गई है. ये रणनीति, हिंद प्रशांत क्षेत्र में दक्षिणी कोरिया द्वारा अधिक सक्रिय भूमिका अदा करने के रास्ते खोलती है.

उत्तर कोरिया से एटमी ख़तरा हिंद प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा लिए एक बड़ा ख़तरा खड़ा करने के साथ साथ परमाणु प्रसार की चिंताएं भी बढ़ाती है. उत्तर कोरिया के परमाणु हथियारों वाले कार्यक्रम ने जापान और अमेरिका समेत अन्य देशों के साथ भी तनाव को बढ़ा दिया है. इसके जवाब में अमेरिका ने जापान और दक्षिणी कोरिया के साथ साझा सैनिक अभ्यास करके और अपने सबसे उन्नत हथियार तैनात करके इस क्षेत्र में अपनी सेनाओं की मौजूदगी बढ़ा दी है. उत्तर कोरिया से परमाणु हमले का ख़तरा कम करने के प्रयास अब तक मोटे तौर पर नाकाम ही रहे हैं और कूटनीतिक प्रयासों में कोई ख़ास प्रगति नहीं हुई है. उत्तर कोरिया पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का भी सीमित असर ही हुआ है. जबकि, दक्षिण कोरिया के पूर्व राष्ट्रपति मून ने इसके लिए काफ़ी प्रयास किए थे. और पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भी 2018 में किम जोंग उन के साथ इसी सिलसिले में मुलाक़ात की थी.

जैसी कि उम्मीद थी, उत्तर कोरिया ने वॉशिंगटन घोषणा को ख़ारिज किया है और अपनी क्षमताओं का विस्तार जारी रखने की बात दोहराई है. परमाणु शक्ति से चलने वाली और बैलिस्टिक मिसाइलों से लैस पनडुब्बियां भेजने को भी एक प्रतीकात्मक क़दम माना जा रहा है. क्योंकि, आम तौर पर पनडुब्बियों की आवाजाही को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है. ज़ाहिर है इसका मक़सद दुश्मन को भयभीत करना और दोस्तों को विश्वास दिलाना है. ये विडम्बना ही है कि सुरक्षा संबंधी उपायों को अपनाने और उनके विस्तार से असुरक्षा और भी बढ़ेगी. लेकिन, घोषणापत्र जैसे उपाय ऐसे क्षेत्र की तरफ़ इशारा करते हैं, जो अपने द्वारा उठाए जा रहे क़दमों को लेकर सावधान भी है और ये संकेत भी दे रहा है कि वो झुकेगा नहीं. इसीलिए, हिंद प्रशांत के लिए वॉशिंगट घोषणापत्र न केवल उत्तर कोरिया के अप्रत्याशित क़दमों को क़ाबू रखने के लिए है, बल्कि सुरक्षा की मौजूदा व्यवस्थाओं (मिसाल के तौर पर जापान, फिलीपींस और वियतनाम के साथ) को मज़बूती देने वाला एक अतिरिक्त मोर्चा भी है, वो भी ऐसे क्षेत्र में जो भू-राजनीतिक तौर पर बहुत ज़्यादा तनाव का शिकार नहीं रहता है.

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Authors

Pratnashree Basu

Pratnashree Basu

Pratnashree Basu is an Associate Fellow, Indo-Pacific at Observer Research Foundation, Kolkata, with the Strategic Studies Programme and the Centre for New Economic Diplomacy. She ...

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Vivek Mishra

Vivek Mishra

Vivek Mishra is Deputy Director – Strategic Studies Programme at the Observer Research Foundation. His work focuses on US foreign policy, domestic politics in the US, ...

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