Author : Harsh V. Pant

Published on Oct 12, 2021 Updated 0 Hours ago

तकनीक बदल रही है, और अब तो नेशनल सिक्योरिटी एनवायरनमेंट भी बदल गया. अब हम सारा बौद्धिक ढांचा बदलने की तरफ़ जा रहे हैं कि कैसे हम इन नए युद्धों की तकनीक समझें और कैसे इनका हल निकालें.

बहुत बड़ा हो चुका है युद्ध का कैनवास …!

अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य तेजी से बदल रहा है. खासकर अगर हम हिंद-प्रशांत इलाके की बात करें, तो यहां बहुत हलचल मची हुई है. चीन का आक्रामक रुख तो सब देख ही रहे हैं, साथ ही यहां पश्चिमी देश भी अपनी उपस्थिति बढ़ा रहे हैं. यहां ऑस्ट्रेलिया, भारत और जापान हैं, जो अपनी रणनीति में बदलाव ला रहे हैं. इसे देखते हुए अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के ढांचे में भी बड़ी तेजी से बदलाव आ रहे हैं. परंपरागत हथियारों की जो होड़ होती है, उसमें अंदरूनी राजनीति अंतरराष्ट्रीय राजनीति से काफी-कुछ जुड़ी हुई होती है.

दौर नए शीतयुद्ध का

आज चीन ने अपने आक्रामक रवैये से शीत युद्ध जैसी स्थिति पैदा कर दी है. ताइवान में जो हो रहा है, उस पर हलचल मची हुई है. इसे देखते हुए लगभग सारे ही देश रक्षा तकनीक और हथियारों पर बहुत ध्यान दे रहे हैं. ऑकस डील को ही देखें तो अभी ऑस्ट्रेलिया ने परमाणु क्षमता से लैस पनडुब्बी की डील की है. भारत ने भी काफ़ी रक्षा ख़रीद करने की कोशिश की है. इसी का नतीज़ा हम देख रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में और द्विध्रुवीय सहभागिता में हथियारों की तकनीक बड़ा मुद्दा बन गई है.

भारत की सेना भी चाहेगी कि उसके पास नई तकनीक हो. चीन या पाकिस्तान जिस तरह की हरकतें करते हैं, और जिस तरह से इन दोनों देशों की सीमाओं पर सेनाएं आमने-सामने हैं, उसे देखते हुए भारत के लिए यह स्वाभाविक है कि वह रक्षा तकनीक पर फ़ोकस करे.   भारत की सेना भी चाहेगी कि उसके पास नई तकनीक हो. चीन या पाकिस्तान जिस तरह की हरकतें करते हैं, और जिस तरह से इन दोनों देशों की सीमाओं पर सेनाएं आमने-सामने हैं, उसे देखते हुए भारत के लिए यह स्वाभाविक है कि वह रक्षा तकनीक पर फ़ोकस करे.   

इसमें भारत जापान, रूस, अमेरिका और फ्रांस के साथ समझौते कर रहा है. भारत की सेना भी चाहेगी कि उसके पास नई तकनीक हो. चीन या पाकिस्तान जिस तरह की हरकतें करते हैं, और जिस तरह से इन दोनों देशों की सीमाओं पर सेनाएं आमने-सामने हैं, उसे देखते हुए भारत के लिए यह स्वाभाविक है कि वह रक्षा तकनीक पर फ़ोकस करे. भारत अपनी पॉलिसी उस तरफ ले जाएगा, जहां वह रक्षा तकनीक ख़ुद भी बना सके और दूसरों से भी ख़रीद सके.

मगर जब लंबी दूरी के इंगेजमेंट की बात करें तो आज तकनीक इस स्तर पर पहुंच चुकी है, जब हम पुराने दायरे से चीज़ों को नहीं देख सकते. जिस तरह की टकराव भरी स्थिति की संभावना व्यक्त की जा रही है, वह परंपरागत टकराव की तरह नहीं है कि आमने-सामने दो सेनाएं खड़ी हुई हैं और एक-दूसरे को निशाना बना रही हैं. अब युद्ध क्षेत्र अब बदल गया है. अब तो जो अर्थव्यवस्था है, वह भी युद्ध क्षेत्र है. उसमें परंपरागत रक्षा तकनीक पर तो फोकस है ही, लेकिन साइबर तकनीक और जगह-जगह अपने अड्डे बनाने जैसे गैर परंपरागत उपायों पर भी फ़ोकस हो रहा है.

अड्डे की बात करें तो चीन ने भारत के आसपास कई जगह अपने पोर्ट बना लिए हैं. इससे वह भारत को भी कंट्रोल कर सकता है, दूसरी तरफ़ अपनी ताकत भी बढ़ा सकता है. ऐसे ही भारत भी अपने अलग-अलग पोर्ट बना रहा है. मॉरीशस और अन्य द्वीपों की बात होती है, जहां से कि भारत उपयुक्त प्रतिक्रिया दे सकता है. ऐसे ही अमेरिका की कोशिश है कि अफगानिस्तान से निकलने के बाद भी वह नज़र बनाए रखें. सैटेलाइट तो होते ही हैं, लेकिन उसे जमीन भी चाहिए. बात ड्रोन की ही करें, तो ड्रोन का अटैक क्षेत्र सीमित है. अमेरिका भले अपने कमांड सेंटर में बैठकर ड्रोन ऑपरेट कर ले, लेकिन ड्रोन को उड़ाने के लिए एक बेस चाहिए होता है. इसी तरह भारत-पाक सीमा पर पाकिस्तान बहुत सारे ड्रोन का प्रयोग कर रहा है, तो भारत के सामने चुनौती है कि कैसे वह उसे बंद करे. ऐसे में परंपरागत चीजें उतनी काम नहीं आने की.

 आज अगर अमेरिका और चीन शीतयुद्ध की ओर जा रहे हैं तो यह ऐसा युद्ध होगा, जिसमें दोनों देश एक दूसरे के व्यापारिक साझेदार तो रहेंगे ही, साथ ही यह भी नहीं चाहेंगे कि दोनों की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचे. ऐसे में किस तरह से आप यह युद्ध लड़ें कि एक-दूसरे को लिमिटेड नुक़सान पहुंचा सकें, इसी पर सोचा जा रहा है.

तकनीक के विकास के साथ युद्ध पर लगे राजनीतिक प्रतिबंध बताते हैं कि अब शीतयुद्ध वाला समय नहीं रहा. आज अगर अमेरिका और चीन शीतयुद्ध की ओर जा रहे हैं तो यह ऐसा युद्ध होगा, जिसमें दोनों देश एक दूसरे के व्यापारिक साझेदार तो रहेंगे ही, साथ ही यह भी नहीं चाहेंगे कि दोनों की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचे. ऐसे में किस तरह से आप यह युद्ध लड़ें कि एक-दूसरे को लिमिटेड नुक़सान पहुंचा सकें, इसी पर सोचा जा रहा है.

इसका एक कोण सैन्य गतिविधियां हैं तो दूसरा है चीन और रूस का नया तरीका. ये दोनों अब साइबर अटैक कर रहे हैं.इसमें इन पर कोई उंगली भी नहीं उठा सकता क्योंकि इसमें जल्दी सबूत नहीं मिलते. अगर मिलते भी हैं तो अगला कह देता है कि इसमें उसका कोई रोल नहीं है क्योंकि इंटरनेट का कोई भी प्रयोग कर सकता है. इसका रूस और चीन बहुत फ़ायदा उठा रहे हैं. वे यूरोप, अमेरिका, भारत और पश्चिमी देशों के खुले लोकतांत्रिक समाजों पर अटैक कर रहे हैं. भारत में भी मुंबई पावर फेलियर के पीछे चीन के साइबर अटैक की चर्चा हुई थी. इसे रोकने या कम करने के लिए हम यह दिखा सकते हैं कि हमारे पास भी साइबर अटैक की क्षमता है और हम अटैक भी कर सकते हैं.

पहले सिर्फ हथियारों से लड़े जाने वाले युद्ध से बचना था तो दूसरे के हथियारों से अच्छे हथियार ले आए तो युद्ध की संभावना कम हो जाती थी. लेकिन अब यह कैनवास बड़ा हो चुका है क्योंकि अब सिर्फ़ बम या बंदूक से ही नहीं बचना है.

एक बड़ी चुनौती लोकतंत्र के लिए यह है कि लोकतांत्रिक देश खुले होते हैं. जबकि चीन और रूस को वहां की सरकारें कंट्रोल करती हैं. ये लोग लोकतांत्रिक देशों में सोशल मीडिया पर अफवाहबाजी की कैंपेन चला सकते हैं. चीन और रूस की ये हरकतें युद्ध जैसी स्थिति पैदा कर रही हैं. पहले सिर्फ हथियारों से लड़े जाने वाले युद्ध से बचना था तो दूसरे के हथियारों से अच्छे हथियार ले आए तो युद्ध की संभावना कम हो जाती थी. लेकिन अब यह कैनवास बड़ा हो चुका है क्योंकि अब सिर्फ़ बम या बंदूक से ही नहीं बचना है.

बदलता बौद्धिक ढांचा

इसी तरह से बाकी देश भी अलग-अलग तकनीक का इस्तेमाल करके दुश्मन देश को नुकसान पहुंचाते हैं. चाहे वे उसके महत्वपूर्ण ढांचे को टारगेट करें, या फिर करेंसी और अर्थव्यवस्था को, इन सारे संघर्षों में युद्ध जैसे ही हालात बनते हैं. इसमें आपको यह सोचना पड़ता है कि आप कैसे रिएक्ट करें, आपकी पॉलिसी क्या होगी. परंपरागत तरीक़ा बदल रहा है, तकनीक बदल रही है, और अब तो नेशनल सिक्योरिटी एनवायरनमेंट भी बदल गया. अब हम सारा बौद्धिक ढांचा बदलने की तरफ जा रहे हैं कि कैसे हम इन नए युद्धों की तकनीक समझें और कैसे इनका हल निकालें.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.