Expert Speak Raisina Debates
Published on Jan 02, 2023 Updated 0 Hours ago

यूक्रेन में युद्ध के मैदान में रूस की सेना के प्रदर्शन को देखते हुए भारतीय सेना को हथियारों को लेकर मौजूदा बहस को समझने की आवश्यकता है. 

यूक्रेन का युद्ध और टैंक को लेकर भारतीय सेना की चुप्पी

यूक्रेन पर रूस के हमले की वजह से युद्धक टैंक को लेकर विश्लेषणों और समीक्षा की भरमार लग गई है. युद्धक टैंक को लेकर ज़्यादातर बहस के केंद्र में ये बात है कि क्या युद्धक टैंक पुराने पड़ गए हैं. इसका कारण है यूक्रेन युद्ध में रूस के टैंक की बर्बादी. ये अनुमान लगाया जा रहा है कि यूक्रेन और रूस के बीच चल रहे युद्ध में रूस की सेना के 1,400 टैंक बर्बाद हो गए हैं. इसी विश्लेषण में ये भी स्वीकार किया गया है कि रूस के ज़्यादातर टैंक को नुक़सान आंशिक टूट-फूट और उन्हें छोड़ देने या दुश्मन के कब्ज़े में जाने की वजह से हुआ है. भारतीय थलसेना ने रूस की सेना के बख्तरबंद बलों के प्रदर्शन को देखते हुए युद्धक टैंक की प्रासंगिकता या अप्रासंगिकता को लेकर कोई विश्लेषण जारी करना तो दूर इस मामले में अपनी तरफ़ से कोई बयान भी नहीं जारी किया है.

टैंक के प्रदर्शन को लेकर सवाल 

केवल एक संघर्ष में युद्धक टैंक के प्रदर्शन को लेकर बहुत ज़्यादा निष्कर्ष निकालना बड़ी ग़लती होगी. एक भारतीय विश्लेषक ने कहा कि मौजूदा युद्ध में रूस के हथियारों के ख़राब प्रदर्शन को देखते हुए भारतीय सेना के लिए ये समझदारी भरा क़दम होगा कि वो इन टैंक का इस्तेमाल छोड़ दे जबकि ये भारतीय सेना के पास 90 प्रतिशत तक हैं. इस दावे को भारतीय सेना की उत्तरी कमान के पूर्व कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल दीपेंद्र हुड्डा ने मज़बूत किया. उन्होंने तो ये तक कह दिया कि: "एक एंटी-टैंक गाइडेड मिसाइल हिमालय के तंग दर्रे में टैंक की पूरी रेजिमेंट को रोक सकती है." भारतीय सेना की स्पष्ट चुप्पी को देखते हुए युद्धक टैंक के पुराने पड़ने और उनको अलविदा कहने को लेकर इस तरह के बयान पर सावधानीपूर्वक समीक्षा करने और जवाब देने की ज़रूरत है. भारतीय सेना को दो बातों पर विचार करना होगा- पहली बात, क्या रूस की सेना के ख़राब प्रदर्शन की वजह टी-72 और टी-90 टैंक की तकनीकी कमज़ोरी है क्योंकि ये रूस के साथ-साथ भारतीय सेना में टैंक के बेड़े के मुख्य आधार हैं. दूसरी बात, कहीं ऐसा तो नहीं कि यूक्रेन पर हमले के दौरान रूस ने ग़लत ढंग से टैंक का इस्तेमाल किया है. ड्रोन और एंटी-टैंक हथियारों जैसे कि जैवलिन आने के बाद भी टैंक और एंटी-टैंक गाइडेड मिसाइल के बीच मुक़ाबला नया नहीं है. वास्तव में निगरानी और टोह लेने के लिए ड्रोन को टैंक से भी समान रूप से तैनात किया जा सकता है. 

सबसे पहले, ये अनुमान लगाना कि टी-72 और टी-90 युद्धक टैंक की तकनीकी कमज़ोरी की वजह से रूस के टैंक की बर्बादी हो रही है और इसलिए भारतीय सेना को अपने बेड़े में इनकी भूमिका पर फिर से विचार करना चाहिए, इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है. यूक्रेन पर रूस के आक्रमण और उस युद्ध में रूस का प्रदर्शन अभी तक इस बात का पर्याप्त प्रमाण नहीं देता कि युद्धक टैंक को पूरी तरह बदल दिया जाए. भारत के दोनों प्रमुख विरोधियों- पाकिस्तान और चीन के पास भी रूसी मूल के टैंक या उनका बदला हुआ रूप है. भारत के विरोधी जो टैंक तैनात करते हैं, उन्हीं में से कई टैंक भारतीय सेना के पास भी हैं. ऐसे में पूरी तरह तकनीकी दृष्टिकोण से देखें तो ये स्पष्ट नहीं है कि किस तरह भारतीय सेना के टी-90 और टी-72 टैंक के मुक़ाबले चीन या पाकिस्तान की सेना को महत्वपूर्ण बढ़त हासिल है. टी-72 और टी-90 के अलावा रूस ने टी-80 टैंक का भी इस्तेमाल किया जिसको ज़्यादा ईंधन की ख़पत या ईंधन के प्रकार के कारण युद्ध के मैदान में छोड़ने या दुश्मनों के कब्ज़े में जाने की वजह से सबसे ज़्यादा नुक़सान हुआ लेकिन उनकी बर्बादी नहीं हुई जो कि दूसरे टी टाइप के वेरिएंट से अलग है. 

भारत के विरोधी जो टैंक तैनात करते हैं, उन्हीं में से कई टैंक भारतीय सेना के पास भी हैं. ऐसे में पूरी तरह तकनीकी दृष्टिकोण से देखें तो ये स्पष्ट नहीं है कि किस तरह भारतीय सेना के टी-90 और टी-72 टैंक के मुक़ाबले चीन या पाकिस्तान की सेना को महत्वपूर्ण बढ़त हासिल है.

दूसरी बात, रूस ने उम्मीद की थी कि उसे यूक्रेन पर आक्रमण के दौरान कम विरोध का सामना करना पड़ेगा. ऐसे में तेज़ रफ़्तार से कीव पर कब्ज़ा करने के रूस के मक़सद की वजह से युद्ध के शुरुआती चरण में रूस के हथियारों को नुक़सान का सामना करना पड़ा. रूस ने अन्य चीज़ों के ऊपर गति और गोपनीयता को सबसे ज़्यादा प्राथमिकता दी थी जिसका खामियाजा उसे उठाना पड़ा. रूस के टैंक को सबसे ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ा. अतीत के युद्धों में इस तरह की घटनाएं हो चुकी हैं. सबसे ज़्वलंत उदाहरण भारत-पाकिस्तान के बीच 1965 का युद्ध है जिसमें पाकिस्तानी टैंक को काफ़ी हद तक इसलिए नुक़सान झेलना पड़ा क्योंकि पाकिस्तान हैरान करने वाली गोपनीयता को बनाए रखना चाहता था. इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि 1965 के युद्ध को लेकर कम-से-कम भारतीय और पाकिस्तानी विशेषज्ञों में आम राय है कि दोनों देशों की सेनाओं ने शुरुआती जोश के बावजूद ख़राब सैन्य नेतृत्व की वजह से अपने मज़बूत होने पर ज़ोर नहीं दिया. 

इस तरह, ये नाकामी युद्ध टैंक के ख़राब प्रदर्शन की वजह से नहीं बल्कि ख़राब सैन्य नेतृत्व या कमान की वजह से थी. यहां तक कि 1965 के युद्ध में विशेष रूप से टैंक की लड़ाई के दौरान भी, ख़ास तौर पर असल उत्तर की लड़ाई में, अमेरिका में बने पाकिस्तान के पैटन टैंक तकनीकी तौर पर भारतीय सेना के पुराने सेंचुरियन टैंक के मुक़ाबले बेहतर थे लेकिन पाकिस्तान की सेना के पहले बख्तरबंद डिवीज़न के द्वारा उन्हें ग़लत रूप से तैनात करना पाकिस्तान को भारी पड़ा. 9 सितंबर को भारतीय सेना की तरफ़ से एक नहर को तोड़कर जान-बूझकर पूरे इलाक़े में पानी भर कर उसे दलदली इलाक़े में तब्दील कर दिया गया जिसकी वजह से पाकिस्तान के टैंक आगे नहीं बढ़ सके और 10 सितंबर को वो आसान शिकार बन गए. पाकिस्तान के एक मशहूर विश्लेषक ने कहा: “कई टैंक को उसके क्रू ने चलते हुए इंजन के साथ छोड़ दिया. पाकिस्तान की चौथी कैवेलरी रेजिमेंट के मुख्य अधिकारी, 12 अधिकारियों और कई अन्य रैंक (सैनिक) के जवानों को 11 सितंबर को गिरफ़्त में ले लिया गया. भारत ने असल उत्तर की लड़ाई में लगभग 75 पाकिस्तानी टैंक को तबाह करने का दावा किया जबकि उसने सिर्फ़ एक सेंचुरियन और चार शेरमन टैंक ही गंवाया. जिस तरह पाकिस्तान ने उस वक़्त किया, उसी तरह रूस ने भी आज के समय में अपने टैंक को छोड़ दिया. हालांकि पाकिस्तान के मुक़ाबले रूस ने ज़्यादा संख्या में टैंक छोड़े जिसकी वजह ख़राब रणनीति और रूसी सेना के दूसरे अंगों जैसे कि इन्फैंट्री, आर्टिलरी और वायुसेना के साथ ख़राब तालमेल है. इस तरह पाकिस्तानी सेना के द्वारा इन्फैंट्री एवं बख्तरबंद के मिले-जुले इस्तेमाल की कमी और आज जो हम यूक्रेन में रूसी सेना के पास सम्मिलित हथियारों की सामान्य कमी को देख रहे हैं, वो युद्धक टैंक के ख़राब प्रदर्शन के पीछे महत्वपूर्ण कारण हैं. लेकिन रूस के टैंक को नुक़सान के पीछे सबसे निर्णायक कारण साजो-सामान है. टैंक साजो-सामान पर निर्भर रहते हैं और उनको नुक़सान इसलिए हुआ क्योंकि रूस की सेना ने कई जगह हमले किए जिसकी वजह से लंबी और असुरक्षित सप्लाई लाइन बनी जो यूक्रेनी पाबंदियों के द्वारा बुरी तरह से उजागर हो गए.

यहां तक कि भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 के युद्ध के दौरान भी बसंतर के युद्ध, जिसमें पूना हॉर्स रेजिमेंट शामिल थी, में भारतीय सेना की कामयाबी भी मूलभूत रूप से कमांडर हनुत सिंह के द्वारा लड़ाई के दौरान दिखाई गई दिलेरी और पहल का नतीजा थी जब वो अपनी टैंक यूनिट को बारूद से भरे क्षेत्र में ले गए. 1971 में लोंगेवाला की लड़ाई ने हवाई हमले और ज़मीन आधारित क्षमताओं के मिले-जुले इस्तेमाल के महत्व का संदेश दिया. लोंगेवाला पोस्ट पर भारतीय वायु सेना के हंटर हवाई हमले के रूप में आसमानी ताक़त और उसके साथ भारतीय थल सेना के द्वारा मज़बूत रक्षा ने पाकिस्तानी सेना की 22 कैवेलरी के टैंक और 38 बलूच की इन्फैंट्री के ज़्यादातर हिस्से को तबाह कर दिया. इसके कारण पाकिस्तान की बढ़त काफ़ी हद तक कमज़ोर हो गई. युद्ध में तैनात पाकिस्तानी सेना की बख्तरबंद यूनिट को साजो-सामान की अच्छी तरह से मदद नहीं मिली. ये ठीक उसी तरह था जैसा आज यूक्रेन में रूस के सैन्य अभियान के साथ हम देख रहे हैं. 

भारतीय सेना को यूक्रेन में युद्ध के मैदान में रूस की सेना के प्रदर्शन को देखते हुए हथियारों को लेकर मौजूदा बहस को समझने की आवश्यकता है और भारतीय सेना में युद्धक टैंक की भूमिका को लेकर अपनी स्थिति को सार्वजनिक रूप से ज़्यादा स्पष्ट करना चाहिए

अंत में, एक बेहद महत्वपूर्ण लेकिन व्यक्तिपरक और शक्तिशाली कारण है युद्ध में सैनिकों का मनोबल जिसके बारे में अनजान लोगों को भी पता होना चाहिए. ये एक महत्वपूर्ण वजह जिसे समझने में रूस-यूक्रेन युद्ध के कई समीक्षक भी नाकाम हो जाते हैं, वो ये है कि किस तरह कम मनोबल ने रूसी टैंक के कमांडर और क्रू के काम-काजी प्रदर्शन को कम करने में भूमिका हो सकती है. 

टैंक की भूमिका को लेकर भारत की स्थिति

जहां तक बात भारत में युद्धक टैंक के आलोचकों की है तो ये टैंक कहीं जाने वाले नहीं हैं क्योंकि ऐसा लगता है कि भारतीय सेना टी-72 और टी-90 टैंक को हटाने की जल्दबाज़ी में नहीं है. भारतीय सेना ऊंचाई वाले बख्तरबंद अभियान के लिए एक देसी हल्के टैंक को विकसित करने की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रही है. हालांकि भारतीय सेना को यूक्रेन में युद्ध के मैदान में रूस की सेना के प्रदर्शन को देखते हुए हथियारों को लेकर मौजूदा बहस को समझने की आवश्यकता है और भारतीय सेना में युद्धक टैंक की भूमिका को लेकर अपनी स्थिति को सार्वजनिक रूप से ज़्यादा स्पष्ट करना चाहिए. 

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