यूक्रेन (Ukraine) में रूस के युद्ध (Russia) का वैश्विक भू-राजनीति (Global Geopolitics) पर व्यापक असर पड़ा है. इस युद्ध के बाद उपजे हालातों ने कोरोना महामारी के बाद नाजुक दौर से गुजर रही विश्व व्यवस्था को एक प्रकार से अनिश्चितताओं के दलदल में धकेल दिया है. इस तनाव का एक सबसे अच्छा क्षेत्रीय उदाहरण पश्चिम एशिया है. पश्चिम एशिया अमेरिका का एक पारंपरिक सुरक्षा ‘बैकयार्ड’ है, जहां रूस ने पिछले एक दशक में लगातार रणनीतिक और सामरिक बढ़त बनाई है. संकट के इस दौर में रूस की इस बढ़त के प्रभाव स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि पश्चिमी देश मास्को को वैश्विक मंच से अलग-थलग करने के लिए तेज़ी से लामबंद हो रहे हैं.
पश्चिम एशिया में रूस
इसके बारे में बात करने से पहले बता दें कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि यूक्रेन के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने की वजह से रूस आज पश्चिम एशिया में पहले से कहीं बेहतर स्थिति में है. मास्को OPEC+ का हिस्सा है, जो तेल उत्पादकों के संगठन का एक विस्तारित संस्करण है, जिसे वर्ष 2018 में सऊदी अरब के उत्तराधिकारी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) द्वारा डिज़ाइन किया गया था. इसका उद्देश्य वैश्विक तेल मूल्य निर्धारण तंत्र पर बेहतर पकड़ बनाना था, क्योंकि अमेरिका भी एक प्रमुख ऊर्जा उत्पादक और निर्यातक के रूप आगे आ रहा है. रूस के इस संगठन से जुड़ने के क़दम ने भू-राजनीतिक गणित को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया. इतना ही नहीं तेल एक बार फिर सभी की दिलचस्पी का एक प्रमुख केंद्र बन गया है, क्योंकि मुद्रास्फ़ीति, खाद्य सुरक्षा और ऊर्जा सुरक्षा जैसी सभी चीज़ें दुनिया भर में तेज़ी से एक संकट की ओर बढने लगी हैं.
रणनीतिक तौर पर अपनी उपस्थिति और सामरिक दृष्टि से सीरिया में परिस्थितियों को संभालने के साथ, मास्को ने पश्चिम एशिया में शिया और सुन्नी शक्ति समूहों के बीच अपने संबंधों और मौज़ूदगी को बखूबी संतुलित किया है. हालांकि, इस क्षेत्र में इस संतुलन को बनाए रखने की दीर्घकालिक संभावना भी तेज़ी से एक अनिश्चित आधार पर खड़ी हो रही है.
पिछले कुछ वर्षों में घटित हुईं बेशुमार वैश्विक घटनाओं के बीच, यह याद रखना बेहद अहम है कि रूस ने पिछले एक दशक में सीरिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. रूस ने ईरान के साथ गठजोड़ कर सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद के शासन की रक्षा करके ना सिर्फ़ दमिश्क में अपने मज़बूत पैर जमाने के लक्ष्य को हासिल किया है, बल्कि भूमध्य सागर के तट पर क्रेमलिन की सैन्य उपस्थिति दर्ज़ कराने में भी क़ामयाब रहा है. रणनीतिक तौर पर OPEC+ में अपनी उपस्थिति और सामरिक दृष्टि से सीरिया में परिस्थितियों को संभालने के साथ, मास्को ने पश्चिम एशिया में शिया और सुन्नी शक्ति समूहों के बीच अपने संबंधों और मौज़ूदगी को बखूबी संतुलित किया है. हालांकि, इस क्षेत्र में इस संतुलन को बनाए रखने की दीर्घकालिक संभावना भी तेज़ी से एक अनिश्चित आधार पर खड़ी हो रही है. जैसे कि तेहरान की तरफ से राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को सैन्य उपकरण, विशेष रूप से सशस्त्र ड्रोन प्रदान करने के माध्यम से प्रत्यक्ष मदद के रूप में, क्योंकि मास्को को सैनिकों और सैन्य उपकरणों, मशीनों दोनों का नुकसान उठाना पड़ा है. यदि रूस और पुतिन इस आत्म-संघर्ष से बाहर निकलते हैं और तमाम तरह के विवादों से होने वाले नुकसान की भरपाई करने में सफल रहते हैं, देखा जाए तो फिलहाल उनके समक्ष ऐसी कोई भी विपरीत स्थिति नहीं है, तो ऐसे में ईरान क्रेमलिन पर दबाव डालेगा कि क्षेत्र में अपने गल्फ भागीदारों की तुलना में OPEC+ समेत अन्य ईरानी हितों को प्राथमिकता दे. इसके बावज़ूद भी कि तेहरान 1960 के दशक की क्रांति के पहले से ही ओपेक के मूल एसोसिएशन का सदस्य है. इस तर्क को और मज़बूती देने के लिए रूस द्वारा ईरान को अत्याधुनिक सुखोई 35 लड़ाकू जेट विमानों की संभावित बिक्री मास्को और अरब देशों के मध्य तनाव को और बढ़ा सकती है.
जैसे कि यूक्रेन संकट जारी है, ऐसे में ना सिर्फ़ चुनौतियां और बढ़ेंगी, बल्कि आगे आने वाले समय में भी यह सिलसिला जारी रहेगा. ज़ाहिर है कि यह एक तरह से “वैश्विक फेरबदल” को बढ़ाने का काम करेगा कि शीत युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को किस प्रकार से समझा जाता है. ऐसे में जो दबाव बढ़ा रहा है, वह सऊदी अरब द्वारा एक स्पष्ट प्रतिरक्षा रणनीति का अनुसरण है. यानी एक निश्चित दूरी बनाते हुए वाशिंगटन और मॉस्को दोनों को शांत करने की और साधने की रणनीति, जो आख़िरकार एक उत्पादक के रूप में उसके अपने ख़ुद के फायदे के लिए है और जिसमें तेल की अच्छी क़ीमतों का विचार भी शामिल है. ऐसे में जबकि तेल की क़ीमतें बाइडेन के घरेलू एजेंडे के लिए एक चुनौती थीं, वे ग्लोबल साउथ के लिए भी एक चुनौती थीं, एक ऐसा क्षेत्र जिसे मास्को ने यूक्रेन के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग के रुझान के दौरान एक अवसर के तौर पर देखा. हालांकि, आज जब अमेरिकी मध्यावधि चुनाव राष्ट्रपति जो बाइडेन और डेमोक्रेट्स के पक्ष में चले गए हैं, तो ऐसे में यह स्पष्ट है कि ईरान परमाणु समझौते का मुद्दा कम से कम निकट भविष्य के लिए महत्वहीन सा हो गया है. इसके साथ ही इराक़ द्वारा आयोजित सऊदी अरब एवं ईरान के मध्य होने वाले अति महत्वपूर्ण, लेकिन सामान्य तौर पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिए जाने वाले क्षेत्रीय संवाद का प्रत्यक्ष पतन हो गया है. इसका मतलब यह हो सकता है कि अमेरिका एक हिसाब से सांस लेने का समय हसिल कर रहा है, यानी वो थोड़ा ठहरकर और फिर आगे की रणनीति बनाने के लिए समय हासिल कर रहा है, विशेष रूप से मध्यावधि चुनाव से ठीक पहले बाइडेन की जेद्दा की असफल यात्रा के बाद, जब तेल की क़ीमतें आसमान छू रही थीं.
एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू, जिसके बारे में पर्याप्त बात नहीं की गई है, वह है यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद से खाड़ी देशों, खासतौर से संयुक्त अरब अमीरात में रूसी धन का निवेश और रूसी व्यापार की ज़बरदस्त उड़ान. पश्चिमी प्रतिबंधों ने रूसी कुलीन वर्गों यानी वहां के अमीर लोगों को अपनी वित्तीय संपत्तियों की रक्षा के लिए रूस और यूरोप दोनों जगह से संपत्तियां स्थानांतरित करने के लिए मज़बूर किया है. रूसी कुलीन वर्ग ने अक्सर सरकार की मदद से ही अपनी संपत्ति बनाई है, चाहे वह ऊर्जा क्षेत्र में हो या निजी सेना चलाने में. हालांकि, आज जो सवाल सबसे अहम हो जाता है, वह यह है कि क्या राजनीतिक आधार की तुलना में आर्थिक आधार के प्रति उनकी वफादारी ज़्यादा है.
वास्तव में देखा जाए तो चीन ने कहीं ना कहीं रूसी राष्ट्रपति के फैसले पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की है और हाल ही में परमाणु हथियारों के उपयोग के विरुद्ध रूस को ‘चेतावनी‘ देने में जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज़ का चीन ने साथ दिया है.
चीन: पसंदीदा भागीदार
हालांकि, इसको लेकर तमाम विरोधाभास हैं कि रूस इस क्षेत्र तक कैसे अपनी पहुंच स्थापित करता है और यह वैश्विक फेरबदल किस करवट बैठता है. इस क्षेत्र में रूस की ऐतिहासिक उपस्थिति के बावज़ूद, यह चीन ही है, जिसके साथ तमाम देश अपनी नज़दीकियां बढ़ा रहे हैं. यानी स्पष्ट है कि बीजिंग ही वो जगह है, जहां अगली महान शक्ति को लेकर प्रतिस्पर्धा होनी है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग के इस साल के अंत से पहले सऊदी अरब का दौरा करने की उम्मीद है. इन संबंधों के ख़िलाफ़ अमेरिका के मुखर होने के बावज़ूद रियाद और अबू धाबी की चीन के साथ जुड़ने में दिलचस्पी है. यूक्रेन युद्ध को चीन के साथ रूस के लिए गठबंधन नहीं बल्कि भविष्य की निर्भरता के रूप में देखा जा रहा है. जबकि बीजिंग पश्चिमी भू-राजनीतिक युद्धाभ्यास के ख़िलाफ़ खड़े एक बड़े भू-राजनीतिक छत्र के नीचे रूस के साथ काम करने में अपना कुछ फायदा देख सकता है. हालांकि, यह भी सच है कि चीन ने यूक्रेन पर पुतिन के फैसले को अपना आधिकारिक समर्थन देने से इनकार कर दिया है. वास्तव में देखा जाए तो चीन ने कहीं ना कहीं रूसी राष्ट्रपति के फैसले पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की है और हाल ही में परमाणु हथियारों के उपयोग के विरुद्ध रूस को ‘चेतावनी‘ देने में जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज़ का चीन ने साथ दिया है.
रूसी राष्ट्रपति पुतिन की गैरमौज़ूदगी में इस महीने इंडोनेशिया में G20 समूह के देशों का जमावड़ा इस बात पर को उजागर करता है कि यूक्रेन पर रूस के हमले का सवाल कई देशों के लिए राजनीतिक रूप एक ऐसा सौदा या रिश्ता नहीं है, जिसमें एक का लाभ और दूसरे का नुकसान होता है. आम धारणा के विपरीत, एक अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के नज़रिए से अमेरिका, चीन और रूस के बीच शक्ति का संघर्ष तेज़ हो रहा है और यह सबको स्पष्ट तौर पर दिखाई भी दे रहा है. एक और बात है कि भविष्य में बनने वाले नए पावर-ब्लॉक यानी शक्ति के केंद्र के अनुरूप खुद को ढालने और उसके साथ सामंजस्य बैठाने के लिए छोटे और मझोले देशों को अपनी विदेश नीति को बार-बार बदलना पड़ रहा है. यही एक बड़ी वजह है कि गल्फ कैपिटल्स ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ की अवधारणा की ओर आकर्षित होती रही हैं. हालांकि, यह कागज पर तो बेहद आकर्षक है, लेकिन पश्चिम एशिया के लिए यह व्यवहारिक रूप से बहुत चुनौतीपूर्ण है. अंत में, शायद इस क्षेत्र के लिए मास्को के प्रभाव, राजनीति और नीतियों को लेकर यूजीन रूमर का 2019 का दृष्टिकोण सबसे सटीक बैठता है, ‘मिडिल ईस्ट में रूस: जैक ऑफ़ ऑल ट्रेड्स, मास्टर ऑफ़ नन‘ यानी मध्य पूर्व में रूस तमाम अलग-अलग तरह के काम कर रहा, अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज़ करा रहा है, लेकिन उसे किसी भी क्षेत्र में महारत हासिल नहीं हो पाई है और ना ही वह अपना पुख्ता नियंत्रण कर पाया है.
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