Published on Feb 07, 2017 Updated 0 Hours ago
उ0प्र0 विधान सभा चुनाव : एक अनन्तिम आकलन

उ0प्र0 समेत पांच राज्‍यों में चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। उ0प्र0 के चुनाव 7 चरणों में हैं। पहला चरण प्रदेश के पश्चिमी भाग से प्रारम्‍भ होगा एवं आखिरी चरण प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में जाकर समाप्‍त होगा। 4 जनवरी को चुनाव आयोग ने पांचों राज्‍यों का चुनाव कार्यक्रम जारी किया था, परन्‍तु उ0प्र0 की सत्‍तारूढ़ समाजवादी पार्टी की असली लड़ाई तो अपनो से थी। 16 जनवरी 2017 को चुनाव आयोग ने अखिलेश को साइकिल चुनाव चिन्‍ह का तोहफा क्‍या दिया, प्रदेश राजनीति के महारथी एवं समाजवादी संघर्ष गाथा के एक महानयक मुलायम सिंह एक झटके में ही राजनीति में हाशिये पर चले गये। यह राजनीति की बिडम्‍बना ही कही जायेगी कि मुलायम सिंह को यह रिटर्न गिफ्ट अपने पुत्र से उस वर्ष मिला जो उनकी बनाई समाजवादी पार्टी का एक ओर रजत जयंती वर्ष रहा है तो दूसरी ओर उनके अपने राजनैतिक जीवन-यात्रा का स्‍वर्ण जयंती वर्ष।

मुलायम सिंह के बारे में कुछ और सत्‍य हो या न हो, इतना तो निर्विवाद सत्‍य है कि वे खांटी समाजवादी हैं एवं उन्‍होने उत्‍तर भारत में कांग्रेस विरोध की अलख को जगाए रखनें में बड़ी कामयाबी हासिल की है। बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद वे चाहे-अनचाहे उ0प्र0 एवं देश में भाजपा के प्रबल विरोधियों में गिने-जाने लगे हैं, एवं शायद इसी कारण से उ0प्र0 के करोड़ो  मुसलमानों को विशेषरूप से भाते हैं। बाबरी विध्‍वंस के बाद मुलायम सिंह प्रदेश के मुलसमानों को यह बताने में सफल रहे कि हिंदू सांम्‍प्रदायिकता बढ़ाने में भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस भी समान रूप से दोषी है। यह श्रेय बहुत कुछ मलायम सिंह को ही जाता है कि उ0प्र0 के मुसलमानों के बीच कांग्रेस की साख न के बराबर है।

सपा-कांग्रेस का बहुचर्चित एवं बहुप्रतीक्षित गठबंधन भी हो गया। 105 विधानसभा सीटें कांग्रेस को देकर अखिलेश यादव ने गठबंधन धर्म  निभाने  के  बड़प्‍पन का  परिचय दिया है अथवा गठबंधन करने की

आतुरता, यह  तो समय ही बतायेगा। इतना तो तय है कि  इससे आधे से

भी कम में मुलायम एवं शिवपाल का साथ मिल जाता। जैसी उम्‍मीद थी, शिवपाल समर्थक या तो बसपा में जा रहे हैं या विद्रोही उम्‍मीदवार के तौर पर खड़े है। मुलायम के लोग के बैनर तले वे बागी सुर एकत्र हो रहे हैं जिनका  एकमात्र एजेंडा है अखिलेश की सपा को हराना। मुलायम सिंह ने भी इस विरोधी मुहिम को समर्थन दे डाला है। वे न तो घोषणा-पत्र के कार्यक्रम में गये एवं ना ही वे अखिलेश-कांग्रेस गठबंधन हेतु प्रचार ही करेगें।

मुलायम की कमी को राहुल गांधी ने पूरा करने का भरोसा दिया है। 29 जनवरी को लखनऊ में आयोजित गठबंधन की संयुक्‍त प्रेस वार्ता में कांग्रेस के चुनाव चिन्‍ह हाथ को दरकिनार करते हुए उन्‍होनें कांग्रेस को साइकिल का दूसरा पहिया तक बता  डाला। गठबंधन गंगा-यमुना की तरह स्‍वाभाविक या पवित्र है तथा यह इस गठबंधन से विकास की सरस्‍वती निकलेगी। जहॉ राहुल ने हमले के लिए भाजपा की विघटनकारी नीतियों एवं हिंसा की राजनीति को चुना, वहीं अखिलेश ने मोदी के योगा पर कटाक्ष किया। गठबंधन के रोड़-शो को देखने के  लिए जनता का हुजूम उमड़ा। यह समर्थक थे या महज़ तमाशबीन, इसका उत्‍तर तो 11 मार्च को ही मिलेगा।

अखिलेश ने यह गठबंधन क्‍यों चुना, यह चुनाव विश्‍लेषकों के समझ से परे है। समीक्षकों के एक वर्ग का मत है कि सपा के 22 प्रतिशत मत एवं कांग्रेस के 7 प्रतिशत गठबंधन को विजय दिला सकते हैं।                  काश ! चुनावी गणित इतना आसान होती। समीक्षकों का यह विश्‍लेषण कुछ मिथकों पर आधारित है। पहला मिथक यह है कि कांग्रेस का एक ब्राहमण वोट बैंक है, जो हस्‍तान्‍तरणीय है, दूसरा सपा-कांग्रेस गठबंधन भाजपा विरोधी विश्‍वसनीय विकल्‍प प्रस्‍तुत करेगा, जिसके चलते मुस्लिम मतदाता  एक  मुश्‍त  गठबंधन से जुडे़ रहेगें।  दोनों ही  मिथक  सिरे से

खारिज़ होने लायक है। जहॉ तक ब्राहमण मतदाताओं का प्रश्‍न है पिछले कई चुनावों से वे एंटी-इन्‍कमबेंसी के आधार पर उ0प्र0 विधान सभा चुनावों में सत्‍ता परिवर्तन के झंडाबरदार रहे हैं। अन्‍य कारणों के अलावा, अपने वृद्ध पिता को उन्‍हीं की पार्टी से इस प्रकार बेदखल करने जैसे कृत्‍य ने मध्‍यम-वर्गीय नैतिकता के हिमायती ब्राहमण मतदाताओं में अच्‍छा संदेश नहीं छोड़ा है। दूसरे, मोदी के चमकदार राष्‍ट्रीय नेतृत्‍व में विकास के नारों के बीच ब्राहमण मतदाताओं का वह वर्ग भी भाजपा के साथ खड़ा है, जो पूर्व में कांग्रेस अथवा बसपा से जुड़ता था।

मुस्लिम मतदाता प्राय: उसी उम्‍मीदवार अथवा दल  को वोट देना  पसंद करता है जो भाजपा को हराने में सक्षम हो। अखिलेश को कांग्रेस से गठबंधन इतना जरूर राहत देता दीख रहा है कि बसपा एवं मुलायम खेमे का यह प्रचार कि सपा में टूट भाजपा के इशारे पर हुई है, फिलहाल थम सा गया है। सब कुछ होते हुए भी मुलायम सिंह की मुस्लिम मतदाताओं में जो साख थी, वो साइकिल चुनाव-चिन्‍ह के साथ अखिलेश यादव को विरासत में मिलेगी, इसमें गहरा संशय है। सपा-कांग्रेस गठबंधन की सफलता इसलिए और भी संदिग्‍ध है कि मुलायम सिंह ने कांग्रेस के खाते में गयी सीटों पर सपाईयों को कांग्रेस विरोध की खुली छूट भी दे डाली है। अत: सपा-कांग्रेस गठबंधन को पूरे प्रदेश में बागियों के विद्रोह एवं कार्यकर्ताओं के भितर-घात से दो-चार होना पड़ सकता है।

बसपा का उम्‍मीदवार जातीय एवं आर्थिक सामर्थ्‍य पर चुना जाता है। बसपा अकेली पार्टी है जिसके पास दलितों के उपजाति विशेष का हस्‍तान्‍तरणीय वोट-बैंक है। इसीलिए बसपा के प्रत्‍याशी चयन में लचीलापन मनमानी के हद तक दिखाई देता है। मऊ में मुख्‍तार अंसारी, बलिया में अम्बिका  चौधरी  एवं  नारद राय जैसे  सपा दिग्‍गजों को अंतिम क्षणों में

टिकट बांटना, बसपा सुप्रीमों मायावती के बूते की बात हो सकती है। विधान सभा चुनाव 2007 एवं 2012 के मुकाबले बसपा ने सवर्णो विशेषकर ब्राहमण प्रत्‍याशियों को कम टिकट दिये हैं। बसपा की रणनीति इस बार सपा से मोहभंग हो रहे मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने की है। बसपा ने लगभग एक चौथाई टिकट मुस्लिम प्रत्‍याशियों को इसी रणनीति के तहत दिए भी हैं। बसपा की इस रणनीति में दो मुख्‍य अड़चने हैं,            एक – बसपा का सत्‍ता हासिल करने के लिए बार-बार भाजपा से हाथ मिला लेना, दो  उ0प्र0 का मुस्लिम समाज ब्राहमणों की तरह उदात्‍त नहीं है कि वो सहज रूप से एक दलित महिला की अधीनता स्‍वीकार कर ले। मायावती का सेक्‍यूलरिज्‍़म अल्‍पसंख्‍यकों की सुरक्षा तक सीमित है। अगर मायावती की सरकारों के रिकार्ड का विश्‍लेषण किया जाय तो उसमें कांग्रेस या मुलायम सिंह जैसे मुस्लिम तुष्‍टीकरण का स्‍पष्‍ट अभाव दिखाई देता है। अत: तमाम प्रयासों के बावजूद भी बसपा मुस्लिम मतदाताओं की पहली पंसद शायद ही बने।

पश्चिमी उ0प्र0 में अजित सिंह की राष्‍ट्रीय लोकदल विगत चुनावों में निरन्‍तर कमजोर हुई है। परन्‍तु जाट मतदाताओं में चौधरी चरण सिंह के प्रति अभी भी सम्‍मान है। अजित सिंह को जाट मतदाताओं की  सहानुभूति का लाभ मिल सकता है, खासतौर पर सपा-कांग्रेस गठबंधन द्वारा दिखाई गयी बेरूखी के बाद। अगर अजित सिंह मजबूती से लड़ते हैं तो पश्चिमी उ0प्र0 में नुकसान भाजपा एवं सपा को होना तय है।

भाजपा ने उत्‍तर प्रदेश में सत्‍ता में वापसी के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है। एक सोची-समझी रणनीति के तहत भाजपा ने अपना मुख्‍यमंत्री उम्‍मीदवार नहीं घोषित किया है। 2002 के विधान सभा चुनाव में राजनाथ सिंह को उम्‍मीदवार घो‍षित करके चुनाव लड़ने का परिणाम   भाजपा के लिए सुखद नहीं रहा था। फिर भाजपा मोदी की नोटबंदी से बढ़ी

लोकप्रियता को भुनाना चाहेगी। भाजपा के लिए इस चुनाव में कई अनुकूल बातें हुई हैं। 2002 के बाद सम्‍भवत: पहली बार भाजपा उ0प्र0 में अकेले अपने दम पर सत्‍ता की दावेदारी कर रही है। भाजपा की इस दावेदारी के चलते उसका परंपरागत सवर्ण मतदाता एवं मध्‍यमवर्ग फिर से उसकी तरफ गोलबंद हो सकता है। भाजपा ने सावधानीपूर्वक गैरयादव, पिछड़ों एवं अति पिछड़ों को अपनी ओर आकर्षित किया है। कांशीराम की अनुपस्थिति एवं मुलायम सिंह की अपनी ही पार्टी में हुई उपेक्षा से पिछड़ों एवं अति पिछड़ों की परम्‍परागत एकजुटता प्रभावित हुई। मायावती एवं अखिलेश दोनों ही दलितों, पिछड़ों एवं गरीबों को जोड़े  रखने का वैचारिक चुम्‍बक नहीं प्रदान कर सके हैं। मायावती की यू0एस0पी0 जहॉ वर्गनिरपेक्ष कानून-व्‍यवस्‍था है वहीं अखिलेश का विकासोन्‍मुख युवा नेतृत्‍व। दोनों ही उ0प्र0 के करोड़ों वंचितों, अतिपिछड़ों, गरीबों-किसानों तथा मजदूरों से कोई तादात्‍म्‍य नहीं निभा पाते हैं। बेरोजगारी दूर करने में तो दोनों का ट्रैक-रिकार्ड और भी खराब है। लोक सेवा आयोग की भर्तियों में धांधली तथा बेराजगारी भत्‍ते जैसे सतही उपाय अखिलेश के प्रति बेरोजगार नवयुवकों को शायद ही उत्‍साहित करें। इसी प्रकार सर्वजन हिताय के नारे पर चुनी बी0एस0पी0 सरकार भी दलित उत्‍थान के संकुचित एजेंडें से आगे नहीं जा पाती है।

ऐसे वैचारिक शून्‍य में नोटबंदी भाजपा के लिए मास्‍टर स्‍ट्रोक साबित हो सकता है। अगड़ी-पिछड़ी सभी जातियों में गरीब एवं वंचित हैं। पूरे देश की भांति उ0प्र0 में भी सभी का विकास समान रूप से नहीं हुआ है। विकास भी कुछ परिवारों एवं जातियों तक सीमित रहा है। भ्रष्‍ट नौकरशाही, भ्रष्‍ट नेताओं एवं दलालों-माफियाओं का एक अपवित्र गठबंधन तेजी से पनपा है जिसने ठेका-परमिट एवं घूस की अपसंस्‍कृति के माध्‍यम से सरकारी ध्‍ान एवं संसाधनों का भरपूर दोहन किया है। नोटबंदी ने  निश्चित ही इस वर्ग को गहरी चोट पहुंचायी है। नोटबंदी ने गरीबी एवं वंचितों के चेहरे पर एक विद्रूप एवं विषादयुक्‍त मुस्‍कान जरूर ला दी है। गरीबों के लिए धनपशुओं एवं बाहुबलियों की तिलमिलाहट एवं कसमसाहट की प्रसन्‍नता का बड़ा कारण है।

मोदी की गरीबों के मसीहा की छबि ही भाजपा का सबसे बड़ा अस्‍त्र है। मोदी की एक अति पिछड़े गरीब चाय वाले परिवार से उठकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचना, सर्जिकल स्‍ट्राइक एवं नोटबंदी जैसे जोखिम भरे निर्णय लेने की क्षमता उन्‍हें आम भारतीय मानस में महानायक की तरह समादृत कर रही है। राहुल, केजरीवाल एवं ममता का कद तुलना में काफी बौना साबित हो रहा है। शायद मोदी की लोकप्रियता ही है, जिसके चलते भाजपा ने राममंदिर अथवा हिन्‍दू पलायन के नाम पर साम्‍प्रदायिक ध्रुवीकरण की आवश्‍यकता नहीं समझी। भाजपा में भी प्रत्‍याशियों की सूची को लेकर कुछ सीटों पर विरोध है, किन्‍तु कॉडर-बेस्‍ड पार्टी होने के नाते मान-मनौवल हो ही जायेगा। सपा में जारी अन्‍तर्कलह, बसपा का पिछड़ों एवं सवर्णो में घटता जनाधार तथा मुस्लिम मतदाताओं में विभ्रम की स्थिति, भाजपा को उ0प्र0 की चुनावी दौड़ में बढ़त लेती हुई दिखा रही है। देश का आम बजट भी 1 फरवरी को पेश होना है। नोटबंदी की तार्किक परिणति दिखाने का एक अवसर मोदी सरकार के पास अभी भी है। बजट से उत्‍पन्‍न फील-गुड फैक्‍टर कितना मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में लामबन्‍द करता है, यह देखने की बात होगी।

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