ऐसा लगता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन प्रशासन की पश्चिम एशिया (मध्य पूर्व) नीति में एक असामान्य आपाधापी मची है. मुख्य रूप से इज़राइल और सऊदी अरब के बीच रिश्तों में सामान्यीकरण हासिल करने की जल्दबाज़ी से ऐसी जद्दोजहद उभर कर सामने आती है. अमेरिका के लिए बाहरी और आंतरिक, दोनों कारक, एक कामयाब सौदे को अंजाम देने के इस जल्दबाज़ी भरे दृष्टिकोण में रुकावट डालते हैं. क्षेत्रीय रूप से, सऊदी-इज़राइल रिश्तों का सामान्यीकरण, ईरान और सऊदी अरब के बीच चीन की मध्यस्थता वाले समझौते के बराबर कूटनीतिक और धारणात्मक रूप से एक आवश्यक क़वायद हो सकती है. हक़ीक़त ये है कि चीन द्वारा इस क्षेत्रीय तनाव को कम करने को लेकर मध्यस्थता किए जाने से बाइडेन को सऊदी अरब में अपनी चाल चलने के लिए ज़्यादा जगह मिल गई है. दूसरे शब्दों में पिछले दो वर्षों में किसी भी समय की तुलना में आज के हालात अमेरिका के लिए ज़्यादा अनुकूल हैं. हालांकि इस बदलाव के बावजूद अमेरिका के रुख़ में हड़बड़ाहट नज़र आ रही है.
नई दिल्ली में हाल ही में आयोजित G20 शिखर सम्मेलन के दौरान बाइडेन और सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (MbS) की मुलाक़ात हुई.
सऊदी अरब और इज़राइल के बीच कामयाब सौदा, बाइडेन प्रशासन के लिए सही संकेत भेज सकता है. इस लक्ष्य को हासिल करने की तमाम क़वायदों के बीच आख़िरकार नई दिल्ली में हाल ही में आयोजित G20 शिखर सम्मेलन के दौरान बाइडेन और सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (MbS) की मुलाक़ात हुई. द्विपक्षीय स्तर पर, ये क़वायद सऊदी अरब के साथ कूटनीतिक जमा-पूंजी तैयार कर अमेरिका के लिए अधिक जगह बना सकती है. ग़ौरतलब है कि रूस, क़ीमतों को प्रभावित करने के लिए ऊर्जा के उत्पादन पर स्वतंत्र रूप से कार्य कर रहा है, लिहाज़ा सऊदी अरब के साथ संबंध सुधारना, अमेरिका के लिए बुद्धिमानी भरा उपाय हो सकता है. यूरोप की परिधि में जारी युद्ध के मद्देनज़र वैश्विक ऊर्जा लागत को विनियमित करने में ये क़वायद उपयोगी साबित हो सकती है. अन्य चिंताओं की बात करें तो ये सौदा निकट भविष्य में न केवल वेस्ट बैंक में इज़राइल के विस्तारवादी एजेंडे (जिसकी क्षेत्रीय स्तर पर व्यापक आशंकाएं हैं) पर लगाम लगा सकता है, बल्कि घरेलू मोर्चे पर राष्ट्रपति बाइडेन को सियासी लाभ भी दिला सकता है.
घरेलू सियासी गणित
इज़राइल के समर्थन को लेकर आंतरिक मतभेदों के चलते डेमोक्रेटिक पार्टी को लगातार बढ़ते दबाव का सामना करना पड़ा है. इसके अलावा, अमेरिका में इज़राइल समर्थक सांसदों का इज़राइल सहयोगी कॉकस कई मसलों पर अमेरिकी संसद में दोनों दलों (रिपब्लिकन और डेमोक्रेट) के बीच सहमति बना रहा है. इन मसलों में अविभाज्य येरूशलम, BDS आंदोलन और यहूदी विरोधी भावनाओं (एंटी-सेमिटिज़्म) से मुक़ाबला करने और संरक्षित और सुरक्षित सीमाओं पर इज़राइल के अधिकार का समर्थन करने जैसे मुद्दे शामिल हैं. अमेरिकी सियासी दायरे के धुर दक्षिणपंथी गुट, जैसे इज़राइल विक्ट्री कॉकस और अमेरिकी कांग्रेस में सक्रिय इज़राइल समर्थक अन्य समूह, अरब दुनिया के प्रति बाइडेन प्रशासन के स्पष्ट रूप से ऐसे किसी भी नरम रुख़ के ख़िलाफ़ दबाव बढ़ा रहे हैं, जिसकी व्याख्या इज़राइल के ख़िलाफ़ की जा सकती हो.
इसके अलावा घरेलू मोर्चे पर कुछ अन्य विचार भी हैं कि आख़िर बाइडेन प्रशासन मध्य पूर्व में कूटनीतिक विजय हासिल करने के लिए इतना दबाव क्यों बना रहा है. पश्चिम एशिया में अमेरिकी प्रयास इस तथ्य से भी प्रेरित हो सकते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान से जुड़े तजुर्बे के बाद उस क्षेत्र में अमेरिकी मौजूदगी के लिए एक संशोधित तर्क की दरकार है. ग़ौरतलब है कि मध्य पूर्व में चीन के साथ आर्थिक प्रतिस्पर्धा, अमेरिका की परंपरागत सैन्य-नेतृत्व वाली नीतियों पर हावी हो जाती है. इस बदलाव के लिए अमेरिका द्वारा इस क्षेत्र में ख़ुद के समायोजन और सामंजस्य की ज़रूरत हो सकती है. रिपब्लिकन पार्टी में कई लोगों को ऐसा लगता है कि अरब दुनिया के प्रति बाइडेन का दृष्टिकोण बहुत अधिक रियायती हो सकता है, लेकिन इस रणनीतिक सौदेबाज़ी में अमेरिका को बहुत कम फ़ायदा होने वाला है.
सऊदी अरब पर अमेरिकी राजनीतिक वर्ग बंटा हुआ है. पिछली बार, 2021 में सऊदी अरब को हथियारों की बिक्री को लेकर सीनेट में मतदान हुआ था, जिसमें डेमोक्रेट्स और डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर झुकाव रखने वाले निर्दलीय सांसदों के बीच खुला विभाजन देखने को मिला था.
आख़िरकार, राष्ट्रपति बाइडेन के सामने अमेरिकी कांग्रेस में विधायी तौर पर बाधाएं खड़ी हैं, जहां कम से कम 67 सीनेटरों (दो-तिहाई बहुमत) के समर्थन की दरकार होगी. दरअसल, सऊदी अरब पर अमेरिकी राजनीतिक वर्ग बंटा हुआ है. पिछली बार, 2021 में सऊदी अरब को हथियारों की बिक्री को लेकर सीनेट में मतदान हुआ था, जिसमें डेमोक्रेट्स और डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर झुकाव रखने वाले निर्दलीय सांसदों के बीच खुला विभाजन देखने को मिला था.
सऊदी अरब और इज़राइल क्या सोच रहे हैं
सऊदी-इज़राइल सामान्यीकरण को लेकर जारी बहस का एक अहम घटक ये है कि दोनों ही देशों ने वर्षों से एक-दूसरे के साथ पर्दे के पीछे से संचार किया है. ज़ाहिर है, पिछले कुछ समय से बंद दरवाज़ों के पीछे जो खिचड़ी पक रही है, उसके लिए संबंधों का सामान्यीकरण सोने पर सुहागा जैसा होगा. हालांकि, स्थिति सामान्य होने से जुड़े ख़तरे इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की तुलना में सऊदी क्राउन प्रिंस MbS के लिए ज़्यादा हैं. इन जोख़िमों को कम करने के लिए सऊदी क्राउन प्रिंस ने अमेरिका के सामने भारी-भरकम मांगें रख दी हैं. अगर बाइडेन के नेतृत्व में इस कूटनीतिक कारनामे को पुख़्ता किया जाना है, तो उसे सऊदी अरब की मांगें पूरी करनी होगी.
पहली मांग निश्चित रूप से आसान है. दरअसल, सऊदी राजशाही, देश की रक्षा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अत्याधुनिक और उन्नत हथियारों की बिक्री की गारंटी चाहती है. एक ओर, अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध को लेकर अमेरिका का अनुभव बुरा रहा और आख़िरकार उसे वापस लौटना पड़ा, तो दूसरी ओर, यमन ने, छोटे लेकिन क्षेत्रीय रूप से बराबर हद तक, ख़ुद से बहुत बड़े सऊदी सशस्त्र बलों के लिए सामरिक सफलता की अप्रत्याशित कमी को सतह पर ला दिया है. बहरहाल, MbS द्वारा रखी गई बाक़ी दो मांगें कठिन हैं. सऊदी अरब चाहता है कि अमेरिका उसके साथ ‘नेटो-जैसी’ सुरक्षा संधि पर सहमत हो जाए, जिसका असल मतलब ये है कि सऊदी अरब के ख़तरों की धारणाओं के हिसाब से अमेरिका को क़दम उठाने होंगे (नेटो के आर्टिकल 5 से मिलती-जुलती संरचना). और, अंत में, आती है सबसे विवादास्पद मांग- दरअसल सऊदी अरब, अमेरिका के साथ एक असैनिक परमाणु समझौता चाहता है, जिससे उसे घरेलू स्तर पर यूरेनियम के संवर्धन की छूट मिल जाए. सऊदी अरब की ये मांगें उन मौजूदा सुरक्षा इंतज़ामों से कहीं आगे जाती हैं जैसी अमेरिका की इज़राइल (जो इस क्षेत्र में उसका सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार है) के साथ भी नहीं हैं. हालांकि, विभाजनकारी मुद्दों (जैसे परमाणु क्षमताओं के सवाल) पर भी, ख़बरों से संकेत मिले हैं कि इज़राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू, अमेरिका के साथ सऊदी क्राउन प्रिंस के परमाणु संपर्कों को स्वीकार कर सकते हैं. बताया जाता है कि अगर इस क़वायद से सामान्यीकरण होता है और नेतन्याहू के ख़ुद के राजनीतिक क़द और विरासत को लाभ पहुंचने की संभावना रहती है तो वो इसपर रज़ामंद हो सकते हैं.
राष्ट्रपति बनने से पहले 2019 में बाइडेन ने सऊदी अरब को एक अछूत राज्यसत्ता बताकर खूब खरीखोटी सुनाई थी. अगर अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारी बदलाव हक़ीक़त में तब्दील नहीं होते तो बाइडेन के लिए ऐसी स्थिति आज भी कुछ स्तर पर सुखद बनी रहती.
इज़राइल और सऊदी अरब दोनों, बाइडेन की चुनाव-पूर्व जोड़तोड़ का फ़ायदा उठा रहे हैं. ग़ौरतलब है कि राष्ट्रपति बनने से पहले 2019 में बाइडेन ने सऊदी अरब को एक अछूत राज्यसत्ता बताकर खूब खरीखोटी सुनाई थी. अगर अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारी बदलाव हक़ीक़त में तब्दील नहीं होते तो बाइडेन के लिए ऐसी स्थिति (सऊदी के प्रति कड़ा रुख़) आज भी कुछ स्तर पर सुखद बनी रहती. वास्तविकता ये है कि आज विश्व स्तर पर तेज़ी से कई बदलाव हो रहे हैं, जिनमें यूक्रेन में जारी युद्ध और चीन का लड़ाकूपन प्रमुख हैं. चीन का मुक़ाबला करने को लेकर अमेरिका में दोनों दलों के बीच तेज़ी से सहमति बनती जा रही है. फ़िलहाल, सऊदी क्राउन प्रिंस और नेतन्याहू दोनों को, किसी भी निर्णय प्रक्रिया में अमेरिका की तुलना में अपना पलड़ा भारी दिख रहा है.
असमंजस में अमेरिका
अफ़ग़ानिस्तान से वापसी के बाद मध्य पूर्व के व्यापक क्षेत्र में हुए घटनाक्रम, रणनीतिक रूप से अमेरिका के लिए उत्साहजनक नहीं रहे हैं. ईरान के साथ लड़खड़ाती संयुक्त व्यापक कार्य योजना (JCPOA); सऊदी अरब की ओर से ठंडी प्रतिक्रिया और अनदेखी; और ऊर्जा, निवेश और सुरक्षा क्षेत्रों में चीन के साथ क़तर के बढ़ते द्विपक्षीय रिश्तों ने अमेरिकी रणनीतिकारों में अधिक निश्चितता की चाहत भर दी है. इसमें उन अनिश्चितताओं को भी जोड़ना ज़रूरी है जो क्षेत्रीय देशों द्वारा अपने बर्ताव में नए समीकरण बिठाने से पैदा होती हैं. इन घटनाक्रमों ने इलाक़े में किसी भी बड़ी सफलता का रास्ता रोक दिया है. इतना ही नहीं, मध्य पूर्व और दुनिया भर में शांति, सुरक्षा और समृद्धि का जो विचार अब्राहम समझौते ने सामने रखा था, कुल मिलाकर उसके भी मिश्रित परिणाम ही सामने आए.
राष्ट्रपति बाइडेन मध्य पूर्व में बड़ी कामयाबी हासिल करने के लिए बेक़रार हैं. हाल ही में अमेरिका के पांच बंदी नागरिकों को मुक्त कराने के लिए ईरान के साथ किए गए 6 अरब अमेरिकी डॉलर के सौदे से ये बात और स्पष्ट रूप से रेखांकित होती है. दूसरी ओर, वो सऊदी अरब में क्राउन प्रिंस द्वारा वैचारिक और धार्मिक दायरों में किए जा रहे ज़बरदस्त परिवर्तनों को भी चुनौती नहीं देना चाहेंगे. क्राउन प्रिंस ये मान चुके हैं कि उनके देश की परंपरागत रूढ़िवादी पहचान आज की दुनिया के हिसाब से पुरानी पड़ चुकी है. लिहाज़ा वो आर्थिक दायरों से परे इन बदलावों को अंजाम दे रहे हैं. ये परिवर्तन ठीक वैसे ही हैं जो अमेरिकी नीतियां, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में लाना चाहती थीं. सऊदी राजघराने का कोई शख़्स ख़ुद ऐसा कर रहा है, ये बात भी बेहद अनुकूल है.
ऐतिहासिक रूप से अमेरिका में राष्ट्रपति पद की अधिकांश विरासतें नीतिगत निर्णयों से जुड़ी रहीं हैं, जिनका मध्य पूर्व के लिए ज़बरदस्त प्रभाव रहा है. पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उस रुझान के साथ छेड़छाड़ किया. वो अमेरिका को JCPOA से बाहर ले गए, साथ ही साथ क्षेत्रीय संबंधों की आंतरिक पुनर्संरचना में सहायता करने के लिए अब्राहम समझौते को सुगम बना दिया. मध्य पूर्व में विदेश नीति के मोर्चे पर किसी बड़ी कामयाबी के नदारद रहते और राष्ट्रीय चुनाव की उल्टी गिनती के बीच बाइडेन प्रशासन को उम्मीद है कि वो इस साल के अंत तक इज़रायल और सऊदी अरब, दोनों को एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मना सकता है. हालांकि ये वक़्त के साथ दौड़ लगाने की क़वायद साबित हो सकती है.
निष्कर्ष
वैसे अभी ये अनुमान लगाना जल्दबाज़ी होगी, लेकिन कूटनीतिक मोर्चे पर फ़ायदे जुटाने के बाइडेन के प्रयासों पर इस इलाक़े के अपने राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन, पानी फेर सकते हैं. आज की भू-राजनीतिक वास्तविकताएं तेज़ी से अमेरिका के ख़िलाफ़ असंतुलित होती जा रही हैं. दुनिया में मध्यम दर्जे की शक्तियों के रुख़ में स्पष्ट बदलाव देखने को मिल रहा है और वो ‘आर या पार’ के अमेरिका-चीन विमर्श का हिस्सा नहीं बनना चाहते. इसमें कोई शक़ नहीं है कि अमेरिका के ‘मंदी में फंसी महाशक्ति’ होने की कहानी का इस इलाक़े में तेज़ी से और ढीले-ढाले तरीक़े से उपयोग किया जा रहा है. इलाक़े के देश ये जानते हैं कि अमेरिका अब भी आर्थिक मोर्चे पर आगे है. अमेरिका ख़ुद अब हाइड्रोकार्बन का एक प्रमुख निर्यातक बन गया है, लिहाज़ा इस क्षेत्र में उसका प्राथमिक कार्यभार ओपेक (OPEC) जैसे कार्टेल के भीतर निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित करना है.
जैसे-जैसे 2024 क़रीब आता जा रहा है, मध्य पूर्व में अमेरिका की मौजूदगी को एक अस्पष्ट नीतिगत ख़ाके के रूप में छोड़ना, एक महाशक्ति रूप में उसकी प्रतिष्ठा को धूमिल करने वाली घटना के तौर पर देखी जा सकती है.
बहरहाल, बाइडेन अब तक एक काम करने में असमर्थ रहे हैं: मध्य पूर्व के साथ अमेरिका के दीर्घकालिक सामरिक संबंधों पर उनके रणनीतिक विचार क्या हैं, इस पर वो अपनी रणनीतिक सोच सामने नहीं रख पाए हैं. इससे न केवल अमेरिका बल्कि मध्य पूर्व में उसके साझेदारों में भी चिंताएं और घबराहट बढ़ रही है. इस मसले पर अमेरिकी राष्ट्रपति ने कोई भी संबोधन नहीं दिया है, जिससे भ्रम और गहरा हो रहा है. साथ ही अमेरिका की छवि आसानी से प्रभाव में आ जाने वाले देश की बन रही है. जैसे-जैसे 2024 क़रीब आता जा रहा है, मध्य पूर्व में अमेरिका की मौजूदगी को एक अस्पष्ट नीतिगत ख़ाके के रूप में छोड़ना, एक महाशक्ति रूप में उसकी प्रतिष्ठा को धूमिल करने वाली घटना के तौर पर देखी जा सकती है.
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