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मार्को रुबियो की हाल की पनामा यात्रा का उद्देश्य पूरे लैटिन अमेरिकी क्षेत्र के देशों को संकेत देना था. अमेरिका अपना ‘बैकयार्ड’ माने जाने वाले इस क्षेत्र के देशों पर फिर से पुराना प्रभाव हासिल करना चाहता है.
Image Source: Getty
अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने पिछले दिनों मध्य अमेरिका और कई कैरिबियन देशों का दौरा किया. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कार्यकाल शुरू होने के दो हफ्ते के भीतर किए गए ये दौरे दो प्रमुख मुद्दों पर आधारित हैं. पहला, ये अवैध प्रवासन (इलीगल इमीग्रेशन) पर ध्यान केंद्रित करता है. ये अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के मुख्य चुनावी मुद्दों में से एक है. अमेरिका में जितने भी अवैध अप्रवासी हैं, उनमें 22 प्रतिशत हिस्सा मध्य अमेरिका और कैरेबियाई द्वीप के देश के लोगों का है. मार्को रूबियो जिस भी देश के दौरे पर गए, उनकी यात्रा का एक प्रमुख मुद्दा इल्लीगल इमीग्रेशन रहा. रूबियो इस दौरान पनामा, अल साल्वाडोर, कोस्टारिका, ग्वाटेमाला और डोमिनिकन गणराज्य गए. इसके ज़रिए ट्रंप प्रशासन अपने घरेलू मतदाता वर्ग को स्पष्ट संदेश देना चाहता है. वो ये दिखाना चाहते हैं कि अवैध अप्रवासियों की समस्या ख़त्म करने के लिए जितना दबाव डालना ज़रूरी है, ट्रंप प्रशासन उसके लिए तैयार है. अमेरिका का मक़सद इन देशों के साथ अवैध अप्रवास को रोकने का समझौता है. मार्को रूबियो के दौरे का दूसरा मुख्य मुद्दा था चीन. अमेरिका के लिए आजकल चीन को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है. चीन ने पिछले दो दशकों में लैटिन अमेरिकी क्षेत्र में अपनी शक्ति को तेज़ी से बढ़ाया है. पिछले साल, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पेरू के चांके में एक मेगापोर्ट का उद्घाटन किया. इस एयरपोर्ट का संचालन चीन की एक सरकारी कंपनी करती है. इससे दक्षिण अमेरिका और एशिया के बीच संबंधों को बढ़ावा मिला. चीन पिछले कुछ वर्षों में दक्षिण अमेरिका का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बनने की दिशा में बढ़ रहा है. इतना ही नहीं वो इस क्षेत्र के सबसे महत्वपूर्ण उधारदाताओं और निवेशकों में से एक है. ऐसे में ये सिर्फ संयोग नहीं है कि रूबियो की यात्रा मध्य अमेरिका और कैरेबियन तक सीमित रही, जहां अमेरिका अभी भी सबसे बड़ा व्यापारी और निवेशक के रूप में प्रमुख स्थान रखता है. अमेरिका की कोशिश मध्य अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्र में अपनी शक्ति बनाए रखने की होगी. वो लैटिन अमेरिकी क्षेत्र को संकेत देना चाहता है कि ये सभी देश एक दौर में अमेरिका के ‘बैकयार्ड’ (घर के पीछे का आंगन) माने जाते थे और अमेरिका इन देशों पर अपना वही पुराना प्रभाव हासिल करना चाहता है.
राष्ट्रपति ट्रंप ने हाल ही में पनामा को धमकियां देकर डराने-धमकाने की कोशिश की थी. इसका मूल उद्देश्य भी यही है कि लैटिन अमेरिकी देशों पर एक बार फिर अमेरिकी प्रभुत्व स्थापित किया जा सके. अपने उद्घाटन भाषण के दौरान ट्रंप ने पनामा नहर को लेकर काफ़ी सख्त बयान दिए थे. ट्रंप ने कहा था कि "चीन पनामा नहर का संचालन कर रहा है, और हमने इसे चीन को नहीं दिया है. हमने इसे पनामा को दिया, और हम इसे वापस ले रहे हैं" इस तरह की स्पष्ट धमकी से सभी लैटिन अमेरिकी देशों को एक कड़ा संदेश गया और इसने पनामा पर पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया. कई देशों ने पनामा को अपना समर्थन दिया. पनामा के राष्ट्रपति ने भी तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए ट्रंप के इस दावे को 'बकवास' बताया. उन्होंने कहा कि पनामा नहर में "बिल्कुल भी चीनी हस्तक्षेप" नहीं है.
ये सिर्फ संयोग नहीं है कि रूबियो की यात्रा मध्य अमेरिका और कैरेबियन तक सीमित रही, जहां अमेरिका अभी भी सबसे बड़ा व्यापारी और निवेशक के रूप में प्रमुख स्थान रखता है. अमेरिका की कोशिश मध्य अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्र में अपनी शक्ति बनाए रखने की होगी.
ट्रंप ने पनामा नहर पर कब्जा करने के धमकी है. उन्होंने इसके लिए सैनिक शक्ति के इस्तेमाल की संभावना से इनकार भी नहीं किया है. इसके बावजूद ये कहा जा सकता है कि पनामा नहर को लेकर अमेरिकी हमले की कोई संभावना नहीं है. हालांकि इस पूरे घटनाक्रम ने पनामा के लोगों को अपने देश के पीछे खड़े होने के लिए एकजुट कर दिया है. पनामा को लंबे समय से इस नहर के आधार पर ही परिभाषित किया जाता रहा है. इसके अलावा, किसी भी तरह की सैन्य कार्रवाई इस नहर को ही ख़तरे में डाल देगी और ये पूरी तरह से परिचालन विफलता होगी. पनामा 1999 से ही इस जलमार्ग का संचालन कर रहा है, इसे रातोंरात बदलना एक असंभव काम होगा. पनामा नहर ज़्यादा चौड़ी नहीं है. ऐसे में जहाजों के लिए इस संकीर्ण नहरों को पार करते समय गलती की कोई गुंजाइश नहीं है. दशकों से, सिर्फ पानामाई पायलटों ने नहर के माध्यम से जहाजों का मार्गदर्शन किया है. नए पायलटों को प्रशिक्षित करने में कई साल लगते हैं.
हालांकि ऐसा लगता है कि अमेरिका के लिए विवाद का मुख्य मुद्दा पनामा नहर नहीं बल्कि बाल्बोआ और क्रिस्टोबल बंदरगाह हैं. ये दोनों बंदरगाह प्रशांत और अटलांटिक सागर के छोर पर स्थित हैं. इनका संचालन हचिसन पोर्ट होल्डिंग्स द्वारा किया जाता है. ये हांगकांग स्थित निजी कंपनी है, जो सिंगापुर स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध है. ट्रंप ने इन्हें लेकर भी कई दावे किए हैं लेकिन हकीक़त ये है कि इन बंदरगाहों का कोई रणनीतिक अहमियत नहीं है. ज़्यादातर पर्यवेक्षक इस बात से अनजान हैं कि हचिसन कंपनी की जिम्मेदारी सिर्फ माल को उतारने और चढ़ाने तक ही सीमित है. पनामा को ट्रांसशिपमेंट और लॉजिस्टिक हब के रूप में इस्तेमाल करने वाले जहाज इन बंदरगाहों पर सामान चढ़ाने और उतारने के लिए ही करते हैं. हचिसन कंपनी के पास इस नहर से गुज़रने वाले जहाजों पर कोई अधिकार नहीं है. ये शक्ति पनामा नहर प्राधिकरण (एसीपी) के पास है. 1999 में पनामा नहर के संरक्षक की जिम्मेदारी संभालने के बाद एसपी ने काफ़ी सराहनीय काम किया है. नहर की क्षमता को दोगुना किया है. बड़े और लंबे जहाजों के लिए इस नहर से आना-जाना आसान बनाया है. एसीपी एक पेशेवर और स्वायत्त निकाय है और इसका ध्यान संचालन की दक्षता और सुरक्षा पर है.
इन वास्तविकताओं के बावजूद ये लग रहा है कि हचिसन को बाल्बोआ और क्रिस्टोबल बंदरगाह के संचालन का जो अनुबंध मिला है, वो ख़तरे में है. कंपनी पर पहले से ही 16 जनवरी 1997 के कानून संख्या 5 के अनुच्छेद 1 के खिलाफ असंवैधानिकता का मुकदमा चल रहा है. इस केस में ये आरोप लगाया गया है कि हचिसन को दिया गया कॉन्ट्रैक्ट संविधान के कई अनुच्छेदों का उल्लंघन करता है. इसके अलावा, हचिसन ने पनामा को जो भुगतान करना है, उससे संबंधित एक ऑडिट के केस का भी वो सामना कर रहा है. इन सभी परिस्थितियों को देखने से ऐसा लग रहा है कि हचिसन को शायद पनामा के इन दोनों बंदरगाहों पर अपना अनुबंध गंवाना पड़ सकता है. हालांकि इसका मुख्य कारण अमेरिका का दबाव ही होगा.
दबाव डालने की अपनी रणनीति से अमेरिका भले ही अपने लक्ष्य हासिल कर ले लेकिन इससे शायद अमेरिका की वो सॉफ्ट पावर कमज़ोर होगी, जिसे उसने दशकों से विकसित किया था.
इस विवाद का चाहे जो भी अंजाम हो, लेकिन अमेरिका और पनामा के संबंधों में ये तनाव दिखाता है कि लैटिन अमेरिकी देशों पर अमेरिका का प्रभाव कम हुआ है. इसकी एक वजह ये भी रही कि अमेरिका ने इस क्षेत्र की उपेक्षा की, जिसने चीन को इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर प्रदान किया. हालांकि इस क्षेत्र में चीन का असर काफी बढ़ गया है, लेकिन पनामा में ये अभी शुरुआती चरण में ही है. मार्को रुबियो की यात्रा साबित करती है कि पनामा अब भी अमेरिका का एक मज़बूत सहयोगी बना हुआ है. पनामा ने भी कई ऐसे कदम उठाए हैं, जो अमेरिकी हित में है. पनामा ने चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव से पीछे हटने का फैसला किया था. पनामा की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में अमेरिका के संभावित निवेश पर बात हो रही है. इसके अलावा पनामा ने अवैध प्रवासियों का प्रवाह रोकने के लिए अमेरिका का पूरी तरह साथ देने का वादा किया है. अमेरिका के साथ हुए एक समझौते के तहत पनामा ने भारत से अवैध प्रवासियों को अमेरिकी चार्टर फ्लाइट के ज़रिए दिल्ली भेज दिया है. इतना ही नहीं पनामा ने अमेरिका के बॉर्डर कंट्रोल एजेंट्स को अपने डारियन प्रांत में स्थित मेटेटी हवाई अड्डे तक पहुंच देने की पेशकश की है, जिससे वो अवैध अप्रवासियों को वापस ला सकें. दबाव डालने की अपनी रणनीति से अमेरिका भले ही अपने लक्ष्य हासिल कर ले लेकिन इससे शायद अमेरिका की वो सॉफ्ट पावर कमज़ोर होगी, जिसे उसने दशकों से विकसित किया था. हालांकि फिलहाल ऐसा लग रहा है कि अमेरिका का लक्ष्य पनामा में चीन की आर्थिक शक्ति को कमज़ोर करना है. इसकी भरपाई अब अमेरिका के आर्थिक और रणनीतिक प्रभाव से की जाएगी.
हरि सेशाई ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में विजिटिंग फेलो और कॉन्सिलियम ग्रुप के सह-संस्थापक हैं.
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Hari Seshasayee is a visiting fellow at ORF, part of the Strategic Studies Programme, and is a co-founder of Consilium Group. He previously served as ...
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