Published on Mar 23, 2021 Updated 0 Hours ago

इस संदर्भ में जो दस्तावेज़ अमेरिका ने सार्वजनिक किया है, वो बाइडेन प्रशासन के नई शुरुआत करने में काफ़ी मददगार हो सकता है.

अमेरिका ने किया हिंद-प्रशांत क्षेत्र संबंधी फाइलों को सार्वजनिक; नीतिगत निरंतरता के संकेत
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हाल ही में अमेरिका ने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े प्रमुख दस्तावेज़ों में से एक फाइल को सार्वजनिक किया था. ये दस्तावेज़ वर्ष 2018 में अमेरिका की हिंद-प्रशांत क्षेत्र के सामरिक फ्रेमवर्क है. इस फ्रेमवर्क को अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद ने 2017 में लगभग पूरे साल चलती रही परिचर्चा के बाद तैयार किया था. नीतिगत क्षेत्रों में इस दस्तावेज़ को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रिया जताई गई है. कुछ लोगों ने इसे बेहद साधारण और घिसा-पिटा रणनीतिक दस्तावेज़ कहा, तो कुछ जानकारों ने इसे भरोसा दिलाने वाला और ट्रंप प्रशासन के कार्यकाल में हुए कामों का प्रतीक बताया. ताज्जुब की बात ये है कि अमेरिकी सरकार ने इस गोपनीय दस्तावेज़ को सार्वजनिक करने में काफ़ी जल्दी दिखाई है. ट्रंप प्रशासन ने इस फ्रेमवर्क को वर्ष 2018 में ही स्वीकार किया था और दो साल के अंदर इसे सार्वजनिक भी कर दिया गया. आम तौर पर ऐसे गोपनीय दस्तावेज़, अमेरिका कम से कम 25 बरस बाद सार्वजनिक करता है. यानी हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सामरिक नीति से जुड़ी इस फाइल को असल में वर्ष 2043 में सार्वजनिक किया जाना चाहिए था. लेकिन, ट्रंप प्रशासन ने अपने आख़िरी दिनों में इसे जारी कर दिया. इससे चीन और हिंद-प्रशांत क्षेत्र से जुड़ी अमेरिकी नीति को मज़बूती मिली है.

बदलाव के साथ निरंतरता

अमेरिका ने 1 जून 2019 को शांग्री-ला डायलॉग के दौरान अपनी हिंद-प्रशांत सामरिक रिपोर्ट जारी की थी. अमेरिका की इस रणनीति की परिकल्पना कूटनीतिक होने से ज़्यादा सैन्य नीति के रूप में की गई थी. इसमें चीन को साफ़ तौर पर ‘संशोधनवादी शक्ति’ कहा गया था. ऐसे में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति, दुश्मन के लिए भय और युद्ध के दौरान बेहतर तालमेल के लिए ‘इस क्षेत्र में समान विचारधारा वाले देशों के साथ साझेदारी बनाने के विकल्प पर ज़ोर दिया गया था. अमेरिका ने चीन को सख़्त संदेश देने के लिए यहां अन्य देशों के साथ साझा सैन्य बल तैनात करने और अपने सैन्य बलों की मज़बूत उपस्थिति के साथ-साथ अपने सहयोगियों और साझेदार देशों के साथ आक्रामक तैनाती पर ज़ोर दिया गया था. इसका मक़सद क्षेत्र में टकराव की किसी भी स्थिति में जीत हासिल करना था.’ इस रणनीति से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका न सिर्फ़ एक अग्रणी देश की भूमिका में नज़र आता, बल्कि इसमें ट्रंप के ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नारे को भी बल मिलता दिखता है. सार्वजनिक किए गए गोपनीय दस्तावेज़ में भी, ‘चीन की बढ़ती आक्रामकता को स्वीकार किया गया था.’ विश्व बाज़ार और ‘अमेरिका की प्रतिद्वंदिता को चोट पहुंचाने वाली चीन की औद्योगिक नीतियों और अनुचित व्यापारिक नीतियों’ को रोकने के लिए काम करने की बात भी इस दस्तावेज़ में कही गई थी. इन तल्ख़ बातों के बावजूद, अमेरिका के इस सामरिक दस्तावेज़ को हम उतना सख़्त नहीं कह सकते, जितना ट्रंप प्रशासन के अधिकारियों द्वारा जारी एक अन्य दस्तावेज़ों के बारे में कहा जाता है. इस सामरिक फाइल के ज़रिए अमेरिका ने अपना ध्यान, अपने जैसी विचारधारा वाले देशों पर केंद्रित करके उनके साथ काम करने पर लगाया है. साथ ही साथ अमेरिका ये भी चाहता है कि अन्य देश भी उसके साथ मिलकर चीन की आक्रामकता को चुनौती दें और उस पर पड़ने वाला बोझ साझा करें. अमेरिका के अनुसंधान और विकास के फ़ायदों को अपने साझेदारों और समान विचारधारा वाले देशों के साथ साझा करके, अमेरिका, ‘चीन के ख़िलाफ़ सामूहिक सैन्य बढ़त बनाए रखने का इच्छुक है.’ अन्य देशों के साथ रक्षा और सैन्य क्षेत्र में साझेदारी मज़बूत करने पर ही ज़ोर देने के बजाय, अमेरिका इस दस्तावेज़ के ज़रिए, ‘आपसी सहयोग के अन्य क्षेत्रों में संभावनाएं तलाशने’ पर ज़ोर देने की बात करता है. ये क्षेत्र सूचना संबंधी अभियान, उन्नत तकनीकी अनुसंधान और बुनियादी ढांचे के विकास में निवेश जैसे सेक्टर हो सकते हैं.

आम तौर पर ऐसे गोपनीय दस्तावेज़, अमेरिका कम से कम 25 बरस बाद सार्वजनिक करता है. यानी हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सामरिक नीति से जुड़ी इस फाइल को असल में वर्ष 2043 में सार्वजनिक किया जाना चाहिए था. 

सार्वजनिक किया गया ये दस्तावेज़ ये दिखाता है कि अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति पर उसके इस क्षेत्र में स्थित सहयोगी देशों जैसे कि भारत, ऑस्ट्रेलिया और जापान का काफ़ी प्रभाव पड़ रहा है. ऑस्ट्रेलिया की नेशनल यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञ रोरी मैडकॉफ इस दिशा में बिल्कुल सही इशारा करते हुए कहते हैं कि, ‘इस रणनीति की स्पष्ट तौर पर दिखने वाली सफलता ये है कि अमेरिका इसके ज़रिए भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर आपसी सहयोग के चतुर्भुज सुरक्षा गठबंधन (QUAD) को आकार देने का लक्ष्य पाने में सफल रहा है. इसके अंतर्गत आज हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के साथ भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया भी प्रमुख केंद्र बन गए हैं.’

भारत की भूमिका

अमेरिका ने जो दस्तावेज़ सार्वजनिक किया है, उसमें हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत को एक सक्षम और भरोसेमंद साझीदार कहा गया है. अमेरिका के भू-सामरिक दृष्टिकोण में भारत की गिनती एक, ‘समान विचाधारा वाला देश’ के रूप में की गई है. बिल क्लिंटन के शासन काल से ही अमेरिका और भारत के संबंध लगातार प्रगाढ़ होते आ रहे हैं. इस दस्तावेज़ के मुताबिक़, क्लिंटन के बाद, बुश, ओबामा और पिछले चार वर्षों के ट्रंप प्रशासन के दौरान, भारत, अमेरिका के लिए एक ‘प्राथमिकता वाला साझीदार’ और सामूहिक सुरक्षा प्रदाता देश बन गया है.

हालांकि, भारत और अमेरिका के रिश्तों की बुनियाद रक्षा और व्यापार पर आधारित है. लेकिन, पिछले एक दशक के दौरान अमेरिका ने दक्षिण एशिया और व्यापक हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत को विविध क्षेत्रों में सहयोगी के तौर पर अपनाया है. इसमें आपसी संपर्क बढ़ाने से लेकर साझा भू-सामरिक चिंताओं से निपटने के लिए आवश्यक सुरक्षा के विषय शामिल हैं. ज़ाहिर है, सार्वजनिक किए गए काग़ज़ात में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है, जिसके अनुसार चीन पर लगाम लगाने के लिए अमेरिका द्वारा हिंद-प्रशांत क्षेत्र में किए जा रहे बहुपक्षीय प्रयासों में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण है.

अमेरिका के अनुसंधान और विकास के फ़ायदों को अपने साझेदारों और समान विचारधारा वाले देशों के साथ साझा करके, अमेरिका, ‘चीन के ख़िलाफ़ सामूहिक सैन्य बढ़त बनाए रखने का इच्छुक है.’ अन्य देशों के साथ रक्षा और सैन्य क्षेत्र में साझेदारी मज़बूत करने पर ही ज़ोर देने के बजाय, अमेरिका इस दस्तावेज़ के ज़रिए, ‘आपसी सहयोग के अन्य क्षेत्रों में संभावनाएं तलाशने’ पर ज़ोर देने की बात करता है. 

इसके अलावा, इस दस्तावेज़ में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है कि अपनी उत्तरी सीमा पर भारत जिस तरह चीन की घुसपैठ से अपनी हिफ़ाज़त कर रहा है, और जिस तरह दक्षिण एशिया में प्रभावी भूमिका निभा रहा है, उससे भारत सुरक्षा के नाज़ुक हालात संभालने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. भारत की इस बढ़ती भूमिका से इस क्षेत्र में अमेरिका के अन्य सहयोगियों और साझेदार देशों के साथ भारत के आर्थिक, रक्षा और कूटनीतिक सहयोग करने की गुंजाइश बढ़ जाती है. अपने आस-पास के क्षेत्र में भारत की बढ़ती भूमिका से इस बात का भी संकेत मिलता है कि इस क्षेत्र में अमेरिका के प्रमुख सहयोगी देश-जापान और ऑस्ट्रेलिया भी भारत के क़रीब आ रहे हैं. भारत के साथ बढ़ते सहयोग के मौजूदा क्षेत्रों के साथ-साथ अमेरिका का ये दस्तावेज़ अपनी सरकार से ये गुज़ारिश भी करता है कि वो भारत के साथ साइबर और अंतरिक्ष सुरक्षा जैसे मोर्चों पर भी सहयोग बढ़ाए और समुद्री क्षेत्र में जागरूकता बढ़ाने का भी काम करे. चूंकि पिछले कुछ वर्षों के दौरान किसी क्षेत्र के भीतर कनेक्टिविटी बढ़ाने को काफ़ी अहमियत दी जा रही है. तो, इस दस्तावेज़ में भी ये कहा गया है कि इस क्षेत्र में आपसी संपर्क बढ़ाने के लिए अमेरिका, जापान और भारत के साथ मिलकर ऐसे प्रोजेक्ट को वित्तीय मदद दे. इससे श्रीलंका, मालदीव और बांग्लादेश जैसी उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों की क्षमता को भी मज़बूती मिलेगी.

अमेरिका, भारत के साथ अपने संबंध प्रगाढ़ करके, उसे और प्राथमिकता देकर, इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनाना चाहता है. इसका बड़ा लक्ष्य चीन का प्रतिद्वंदी खड़ा करना है. ये दस्तावेज़ कहता है कि भारत की भूमिका की संभावना को बढ़ाने के अमेरिका को भारत का सैन्य, ख़ुफ़िया जानकारी और कूटनीतिक क्षेत्र में सहयोग करना चाहिए. जिससे कि वो अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के मुक्त एवं स्वतंत्र हिंद-प्रशांत क्षेत्र की परिकल्पना के और क़रीब आ जाए.

अब बाइडेन प्रशासन के दौर में क्या होने वाला है?

अपने चुनाव अभियान के दौरान और यहां तक कि अपनी जीत के बाद भी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने, हिंद-प्रशांत क्षेत्र की परिभाषा का उपयोग करने से परहेज़ किया था. बल्कि, कई बार तो जो बाइडेन ने अमेरिका द्वारा इस क्षेत्र के लिए अपनाए जाने वाले पुरानी परिभाषा, ‘एशिया प्रशांत क्षेत्र’ का प्रयोग किया था. उन्होंने मुक्त एवं स्वतंत्र हिंद-प्रशांत क्षेत्र के जुमले का प्रयोग करने के बजाय अपरिभाषित और अस्पष्ट ‘सुरक्षित और समृद्ध हिंद-प्रशांत क्षेत्र’ की परिभाषा का इस्तेमाल किया था. चूंकि, जो बाइडेन के सत्ता में आने के बाद चीन के प्रति अमेरिका के कम आक्रामक और कमज़ोर नीति अपनाने की आशंका जताई जा रही थी, तो ऐसे में अमेरिका के इस गोपनीय दस्तावेज़ का सार्वजनिक किया जाना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. इससे अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के बावजूद, वहां के अधिकारियों ने नीतिगत निरंतरता का संकेत देने की कोशिश की है. इसके अलावा, जो बाइडेन ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र से संबंधित दस्तावेज़ सार्वजनिक किए जाने के एक दिन बाद ही इस इलाक़े में संयोजक के तौर पर कुर्ट कैंपबेल की नियुक्ति का एलान किया. इसका मक़सद बाइडेन प्रशासन की ओर से उन आशंकाओं को ख़ारिज करना था जो अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के बाद हिंद-प्रशांत क्षेत्र के सहयोगी और साझेदार देशों में हिचक पैदा कर रही थीं. कुर्ट कैंपबेल की नियुक्ति से अमेरिका ने इस क्षेत्र के देशों को संकेत दिया है कि चीन पर लगाम लगाने के लिए अमेरिका ने पिछले वर्षों में जो आक्रामक और मज़बूत नीति अपनाई है, वो नए राष्ट्रपति के शासनकाल में भी जारी रहेगी.

भारत के साथ बढ़ते सहयोग के मौजूदा क्षेत्रों के साथ-साथ अमेरिका का ये दस्तावेज़ अपनी सरकार से ये गुज़ारिश भी करता है कि वो भारत के साथ साइबर और अंतरिक्ष सुरक्षा जैसे मोर्चों पर भी सहयोग बढ़ाए और समुद्री क्षेत्र में जागरूकता बढ़ाने का भी काम करे.

जो बाइडेन ने अपनी विदेश नीति की टीम में ज़्यादातर ऐसे अधिकारी शामिल किए हैं जो ओबामा प्रशासन के दौर से जुड़े रहे हैं. ‘हिंद-प्रशांत क्षेत्र के संयोजक’ के रूप में कुर्ट कैंपबेल की नियुक्त भी इसी का संकेत देती है. बराक ओबामा के शासनकाल में कुर्ट कैंपबेल, पूर्वी एशियाई और प्रशांत क्षेत्र के सहायक विदेश सचिव रहे थे. उन्होंने, ओबामा की ‘पिवोट टू एशिया’ नीति के निर्माण में भी अहम भूमिका निभाई थी. ज़ाहिर है, कुर्ट कैंपबेल को नियुक्त करके बाइडेन ने यही संकेत दिया है कि उनकी विदेश नीति में एशिया को काफ़ी अहमियत दी जाएगी. बराक ओबामा के शासनकाल के मशहूर ‘रिबैलेंस टू एशिया’ अथवा ‘पिवोट टू एशिया’ जैसे जुमलों का इस्तेमाल करने के बजाय, ट्रंप ने ‘हिंद-प्रशांत क्षेत्र’ का प्रयोग करना शुरू कर दिया था. हाल के दिनों में यही शब्द अधिक प्रचलित हो गया है. लेकिन, जो बाइडेन के लिए बेहतर होगा कि वो हिंद-प्रशांत क्षेत्र का इस्तेमाल करें, और ‘एशिया-प्रशांत’ और ‘एशिया पिवोट’ जैसे शब्दों का प्रयोग करने से परहेज़ करें. अमेरिका द्वारा ‘हिंद-प्रशांत क्षेत्र’ को बढ़ावा देने से जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के साथ साथ आशियान देशों और यहां तक कि कई यूरोपीय देशों जैसे कि फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन को भी इस बात का हौसला मिला है कि वो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी भूमिका को बढ़ाएं और इस क्षेत्र को लेकर अपनी नीतियों और दृष्टिकोण का निर्माण करें.

चूंकि, जो बाइडेन प्रशासन, डोनाल्ड ट्रंप के शासन काल की इकतरफ़ा ‘अमेरिका फर्स्ट रणनीति’ से हटकर, अमेरिका के ‘गठबंधनों के पुनर्निर्माण’ पर ध्यान केंद्रित करना चाहता है. ऐसे में उसके लिए तार्किक क़दम ही होगा कि वो हिंद-प्रशांत क्षेत्र के जुमले को बार बार दोहराता रहे. तभी इस क्षेत्र में अमेरिका के सहयोगी और साझेदार देशों का विश्वास बनाए रखा जा सकेगा. इस संदर्भ में जो दस्तावेज़ अमेरिका ने सार्वजनिक किया है, वो बाइडेन प्रशासन के नई शुरुआत करने में काफ़ी मददगार हो सकता है. इसके आधार पर जो बाइडेन, हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर अपनी नई रणनीति विकसित कर सकते हैं.

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