अक्सर कहा जाता है कि प्रेम और नृत्य की तरह ही कामयाब विदेश नीति को शक्ल देना पूरी तरह समय पर निर्भर करता है. लेकिन दुर्भाग्यवश मौजूदा वक्त में नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की सरकार अपने आदर्श विलसोनियन दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने में कई वास्तविकताओं की अनदेखी कर रही है. यही वजह है कि इंडो पैसिफिक क्षेत्र के महत्वपूर्ण देशों को इस बात का और इंतज़ार नहीं करना चाहिए कि सुपर–पावर अमेरिका उन चुनौतियों के प्रति सजग हो, जो उसे चीन की तरफ़ से लगातार पेश किए जा रहे हैं, बल्कि चीन की आक्रामकता पर अगर अंकुश लगानी है तो इंडो पैसिफिक क्षेत्र के महत्वपूर्ण देशों को इस दौरान खुद को मज़बूत करने के लिए एक दूसरे का साथ देने के लिए आगे आना चाहिए.
दरअसल, आने वाले वक्त़ में बाइडेन टीम के सामने मुख्य तौर पर दो बौद्धिक समस्याएं होंगी जो इसकी रफ्त़ार को कुंद कर सकती है, पहला तो चीन के संबंध में दो नाव में पैर रखकर सवारी करने की नीति का संभव नहीं हो पाना और दूसरा ऐसी किसी ठोस नीति का अभाव होना जिससे अमेरिका इंडो पैसिफिक क्षेत्र में अपने सहयोगियों के साथ और परस्पर सहयोग के साथ काम कर सके. हालांकि, इस तरह की दोनों विश्लेषण से जुड़ी बाधाओं को पार किया जा सकता है लेकिन ऐसा करने में काफी वक्त़ लगना तय है.
ऐसे में हमलोग संगठनात्मक वास्तविकताओं के साथ शुरुआत कर सकते हैं — जिसमें नए युग के मौजूदा शक्ति संतुलन की वास्तविकताओं में खुद के अस्तित्व की पहचान ज़रूरी है. दरअसल, हम ऐसे वक्त़ में रह रहे हैं जहां दो ध्रुव्रीय दुनिया की अवधारणा कमज़ोर पड़ती जा रही है. क्योंकि अमेरिका और चीन जैसे सुपर–पावर के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा के दौरान भारत, जापान, एंग्लोस्फेयर( ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा, इंग्लैंड) यूरोपियन यूनियन और रूस जैसी महान शक्तियों के पास अब अमेरिका और चीन जैसे सुपर–पावर मुल्क की इच्छा के विरूद्ध भी स्वतंत्र रूप से अपनी विदेश नीति को शक्ल देने की क़ाबिलियत और क्षमता दोनों है.
पूरी दुनिया में यह बेहद साफ़ है कि आख़िर में भू-रणनीतिक साझेदारी के तहत एशिया की प्रजातांत्रिक शक्तियां और एंग्लोस्फेयर में आने वाले मुल्क, अमेरिका के साथ मिलकर चीन के ख़िलाफ़ लामबंद होंगे.
यह लगातार साफ़ होता जा रहा है कि भारत, जापान और एंग्लोस्फेयर जैसी महान शक्तियां अपने विशेष हित और चीन के प्रभाव को कम करने के लिए अमेरिका के साथ सहयोग करना चाहेंगी. पूरी दुनिया में यह बेहद साफ़ है कि आख़िर में भू-रणनीतिक साझेदारी के तहत एशिया की प्रजातांत्रिक शक्तियां और एंग्लोस्फेयर में आने वाले मुल्क, अमेरिका के साथ मिलकर चीन के ख़िलाफ़ लामबंद होंगे.
बाइडेन की ‘दो’ नावों की सवारी
लेकिन अफ़सोस की बात है कि अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो–बाइडेन और उनकी टीम को ऐसी भू-रणनीतिक साझेदारी के प्रति सजग होने में और भी वक्त़ लगेगा. अमेरिकी राष्ट्रपति जो–बाइडेन द्वारा फरवरी के मध्य में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को पहली बार फोन करना इस बात की ओर इशारा करता है कि चीन के संबंध में दो नाव पर पैर रखकर सवारी करने की अमेरिकी नीति काफी सोची–समझी रणनीति का हिस्सा थी. एक तरफ बाइडेन ने हॉन्गकॉन्ग में चीनी सैन्य हस्तक्षेप की जमकर भर्त्सना की, जिन–जियांग प्रांत में उइगर मुसलमानों के ख़िलाफ़ चीन के मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर खूब खरी–खोटी सुनाई और ताइवान के प्रति चीनी आक्रामकता और अवैध आर्थिक गतिविधियों के ख़िलाफ़ चीन को आगाह किया. लेकिन इसके साथ ही बाइडेन प्रशासन इन मुद्दों के प्रति बेपरवाह भी बना रहा, क्योंकि ये सारे मामले सुपर–पावर मुल्कों के बीच जारी शीत युद्ध के अभिन्न अंग बताए जाते हैं. दूसरी ओर बाइडेन प्रशासन ने चीन को कोरोना संक्रमण (जिसे चीन ने पूरी दुनिया में फैलाया) को रोकने में साथ काम करने, जलवायु परिवर्तन (बावजूद इसके कि बीजिंग कोयला आधारित नई फैक्ट्रियां बनाने में जुटा है) पर सहयोग बढ़ाने और न्यूक्लियर अप्रसार (बावजूद इसके कि चीन ने अपने परमाणु हथियारों के जख़ीरों को कम करने में उदासीनता दिखाई है) के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने की नसीहत दी.
हालांकि, इस नए दृष्टिकोण को अंजाम देने में तुरंत दो तरह की समस्याएं आती हैं. अव्वल तो ये कि इन तीनों मामलों में यह पूरी तरह से चीन की डरावनी मौजूदा रिकॉर्ड की अनदेखी करता है और तमाम आशाओं के विपरीत यह अपेक्षा करता है कि चीन अपने इतिहास को भूल जाएगा और वही करेगा जैसा कि अमेरिका चाहता है. दूसरा यह कि एक तरफ शीत युद्ध के चलते दोनों मुल्कों में घोर प्रतिस्पर्द्धा और साथ–साथ सहयोग का माहौल का हो पाना इस बात को नज़रअंदाज़ करने जैसा है कि, आख़िरकार व्यक्ति कैसे काम करते हैं. इसमें दो राय नहीं कि वक़्त गुजरने के साथ ऐसे दोनों ही तरह के मामलों का एक दूसरे से घालमेल होना स्वाभाविक है और तो और इन्हें अलग नहीं किया जा सकता. जहां तक चीन के ख़राब रिकॉर्ड की बात है – आक्रामक विस्तारवादी नीति एक तरफ और कोरोना वायरस संक्रमण को लेकर असहयोगात्मक रवैया, जलवायु परिवर्तन और परमाणु अप्रसार जैसे मामलों को लेकर – ऐसे प्रतिस्पर्द्धी मुद्दे दोनों मुल्कों के बीच हमेशा रिश्तों को प्रभावित करेंगे. और आख़िर में तमाम वास्तविकताओं के परिप्रेक्ष्य में अमेरिका को दो नाव में पैर रखकर सवारी करने की अपनी दोहरी नीति में बदलाव लाना ही पड़ेगा.
बाइडेन ने हॉन्गकॉन्ग में चीनी सैन्य हस्तक्षेप की जमकर भर्त्सना की, जिन-जियांग प्रांत में उइगर मुसलमानों के ख़िलाफ़ चीन के मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर खूब खरी-खोटी सुनाई और ताइवान के प्रति चीनी आक्रामकता और अवैध आर्थिक गतिविधियों के ख़िलाफ़ चीन को आगाह किया.
इस विश्लेषणात्मक उलझन के परे विलसोनियन प्रशासन को इस बात को स्पष्ट करना होगा कि कैसे ‘इंडो पैसिफिक क्षेत्र में सहयोगियों के साथ काम करना’ किसी संतुलन बनाने से ज्यादा का विषय होगा. क्योंकि हमेशा अंतर्राष्ट्रीय रिश्तों के विश्लेषण में ही कड़वाहट के अंश छिपे होते हैं. और अब तक जो विश्लेषण उपलब्ध हैं वो काफ़ी उत्साहजनक नहीं दिखते हैं. हालांकि, एक ही चाल में इस क्षेत्र में अपने सहयोगियों के साथ आपसी सहयोग बढ़ाने और चीन की आक्रामकता पर अंकुश लगाने के लिए अमेरिका सबसे बड़ा भू-रणनीतिक दांव जो खेल सकता है वह भू-आर्थिक, यानि फिर से कॉम्प्रेहेन्सिव एंड प्रोग्रेसिव ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप(सीपीटीपीपी) में शामिल होना है. यह एक ऐसा मुक्त व्यापार समझौता है जिसके तहत पैसिफिक क्षेत्र के ज्य़ादातर मुल्क़ जुड़ सकते हैं. दरअसल, इस समझौते की नींव शुरुआत में ओबामा सरकार ने रखी थी, जो इस क्षेत्र के (चीन को इसकी इजाज़त नहीं दी गई) लिए सामान्य आर्थिक मानक तय करने के साथ–साथ दुनिया भर में अमेरिका के सहयोगियों को एक सूत्र में बांधने का काम करता था.
लेकिन, तुनकमिजाज़ और कुछ हद तक ईर्ष्यालु अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस समझौते का विरोध किया क्योंकि यह समझौता उनके पूर्ववर्ती अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा प्रेरित और अंजाम दिया गया था – लेकिन डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन के लिए ऐसा करना अकेले सबसे बड़े कूटनीतिक सेल्फ़ गोल के तौर पर देखा गया. हालांकि जो बाइडेन ने इस समझौते में शामिल होने को लेकर अभी तक कोई संकेत नहीं दिया है, जो अमेरिका के लिए एक तरह की कामयाबी है बावजूद इसके कि जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो अबे की दूरदृष्टि के आगे अमेरिका भ्रमित है. क्योंकि डेमोक्रेटिक पार्टी लंबे समय से अमेरिका में संरक्षणवाद
(एनएएफटीए को पारित कराने में रिपब्लिकन सांसदों के बहुमत की भूमिका रही) को प्रश्रय देता रहा है. यह और भी स्पष्ट हो चुका है क्योंकि ओबामा युग के बाद से डेमोक्रेटिक पार्टी का झुकाव और भी वामपंथ की ओर हुआ है. अपने विकासवादी आधार की ओर ना बढ़कर जो बाइडेन ने दबे–छिपे यह संकेत ज़ाहिर कर दिया है कि, सीपीटीपीपी में शामिल होने को लेकर उनकी सरकार अभी ज़ल्दबाजी नहीं करने वाली है, खासकर भू-आर्थिक रणनीतियों के चलते.
क्वॉड को लेकर ज़्यादा प्रतिबद्ध
दूसरी बात यह कि जो बाइडेन ने साल 2020 के अपने राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान इसे लेकर कुछ नहीं बोला था. दरअसल, बाइडेन इस बात को लेकर ज्य़ादा प्रतिबद्ध दिखते हैं कि कैसे क्वॉड जैसे संगठन को मज़बूत किया जाए. क्वॉड यानी इंडो–पैसिफिक संगठन जिसमें भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका शामिल हैं — जिसका उद्येश्य इंडो पैसिफिक के विशाल समुद्री क्षेत्र को मुक्त और खुला रखने के साथ–साथ चीन की विस्तारवादी नीति पर नकेल लगाना है. लेकिन असल में क्वॉड क्या करेगा, इसके सदस्य को कौन और कैसे अनुशासित करेगा और यह सहयोग कितना औपचारिक होगा? इन सभी सवालों को लेकर बाइडेन प्रशासन के पास कोई सटीक जवाब नहीं है.
इस सामान्य द्विपक्षीय विदेश नीति पर सहमति बनने का अर्थ यह है कि तमाम तथाकथित भ्रामक शुरुआत और सहजता के आख़िर में अमेरिका आश्चर्यजनक रूप से आने वाले समय में इंडो पैसिफिक क्षेत्र में स्थायी भू-रणनीतिक नीति को अमल में लाएगा.
इन सभी वजहों से यह कहना बेहद आसान सा राजनीतिक जोख़िम है कि विलसोनियन बाइडेन प्रशासन के सुर बदलने में अभी काफी वक़्त गुजरने और वास्तविकताओं के बदलने का इंतज़ार करना होगा. लेकिन हां इतना ज़रूर तय है कि यह बदलाव होगा. असाधारण रूप से द्विपक्षीय समझौते से संबंधित कुछ नीतिगत क्षेत्रों में वाशिंगटन को यह तो समझ में आता है कि अमेरिका चीन के साथ शीत युद्ध की स्थिति में है और इसकी एक प्रमुख वजह इंडो पैसिफिक क्षेत्र है जहां अमेरिका तभी कामयाब हो सकता है जब वह अपने साथ इस क्षेत्र की शक्तियों के साथ सहयोग को बढ़ावा देगा. इस सामान्य द्विपक्षीय विदेश नीति पर सहमति बनने का अर्थ यह है कि तमाम तथाकथित भ्रामक शुरुआत और सहजता के आख़िर में अमेरिका आश्चर्यजनक रूप से आने वाले समय में इंडो पैसिफिक क्षेत्र में स्थायी भू–रणनीतिक नीति को अमल में लाएगा.
लेकिन हमेशा की तरह अमेरिका इसमें वक्त लेगा. और वास्तविक रूप में ज्य़ादा समय भी अभी ख़त्म नहीं हुआ है. क्योंकि कमज़ोर होते दो ध्रुवीय दुनिया की अवधारणा के बीच भारत, जापान और एंग्लोस्फेयर के तहत आने वाले ताक़तवर मुल्क महाशक्तियों के बीच वर्चस्व की जंग में महज़ मूक दर्शक बन कर खड़े नहीं रहेंगे. बल्कि अपने हित की रक्षा करते हुए ये सारे मुल्क सक्रिय भू-राजनीतिक नीतियों के रास्ते पर चलेंगे. अभी तक ये सारे मुल्क शीत युद्ध दौर की स्थितियों का सहजता के साथ अनुकरण कर रहे हैं.
रक्षा खर्च महज़ इस बेचैन करने वाली स्थिति का सही मापदंड कहा जा सकता है. चीन का रक्षा खर्च पहले से ही एशिया के सभी देशों के कुल रक्षा व्यय से अधिक है. चीन रक्षा पर भारत से करीब चार गुना और जापान से पांच गुना ज्यादा खर्च करता है. इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलिपिन्स और जापान करीब अपनी जीडीपी का एक फीसदी ही रक्षा पर खर्च करते हैं जो चीन के मुक़ाबले बेहद कम है. यहां तक कि तमाम जोख़िम झेलता ताइवान भी रक्षा खर्च को लेकर लगभग गहरी नींद की स्थिति में है. ताइवान ने वर्ष 1999-2019 के बीच अपने रक्षा खर्च में लगातार कटौती की है. ताइवान ने रक्षा खर्च को अपनी जीडीपी के तीन प्रतिशत से घटाकर दो फीसदी से भी कम कर लिया है,. लेकिन अब चीन की आक्रामकता के बाद वह इसमें बदलाव करने पर मज़बूर है.
इंडो पैसिफिक क्षेत्र में अपनी विदेश नीति को स्थायी बनाने में अमेरिका चूक कर रहा है लेकिन इस क्षेत्र के दूसरे अहम किरदारों के पास खोने के लिए वक्त नहीं है. पहला तो ये कि इन मुल्कों को अपनी सुरक्षा मज़बूत करनी होगी. अगर उन्हें आने वाले समय में भारत-जापान-एंग्लोस्फेयर-अमेरिकी सहयोग का अर्थपूर्ण हिस्सा बनना है और चीन की विस्तारवादी नीति पर लगाम लगानी है. दूसरा इन्हें इस बात को लेकर इंतज़ार करना छोड़ देना चाहिए कि अमेरिका इस क्षेत्र के लिए कोई रणनीतिक विचार के साथ आगे आएगा. इस संबंध में फिर से जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो अबे का अनुकरण किया जा सकता है जब अमेरिकी अनदेखी के बावजूद वो सीपीटीपीपी को बचाने में जुटे रहे और साथ ही उन्होंने क्वॉड के विचार को भी आगे बढ़ाया. इस बात का इंतज़ार करना कि अमेरिका उनकी मदद को आगे आएगा,इससे बेहतर ये होगा कि क्षेत्र की महान शक्तियां मिलकर ऐसी स्थिति पैदा करे जिससे अमेरिका उनके साथ शामिल होने को तैयार हो जाए.
भविष्य के इस रणनीतिक सहयोग का दूसरा सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि चीन इंडो पैसिफिक क्षेत्र में अपनी नीतियों में बदलाव नहीं करेगा. इसका सबूत हाल ही में देखने को तब मिला जब चीन ने एक ऐसे कानून को पारित किया जो इसके तटीय रक्षक दल को ऐसे विदेशी जहाजों के ख़िलाफ हथियार इस्तेमाल करने की इजाज़त देता है जिन्हें चीन यह समझता है कि यह जहाज उसकी सीमा में अवैध रूप से दाख़िल हुए हों. इसी आधार पर चीन ने ईस्ट चाइना और साउथ चाइना–सी में भारी हथियारों का जख़ीरा जमा किया है. इसमें कोई शक नहीं हर दिन और एक के बाद एक मामलों से साफ है कि चीन अपनी विस्तारवादी नीतियों को अंजाम देने में लगा है. ऐसे में इंडो पैसिफिक क्षेत्र के मुल्कों के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति बेंजमिन फ्रैंकलिन के ब्रह्म वाक्य नसीहत के तौर पर काम आ सकते हैं – “भगवान उनकी सहायता करते हैं जो खुद की सहायता करता है.”
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