वैक्सीनेशन की ख़ासियत इसे वैश्विक सार्वजनिक चीज़ बनाती है क्योंकि ये सकारात्मकता फैलाती है, लोगों को संक्रमण और मौत रोकने के लिए सक्षम बनाती है. उम्मीद के मुताबिक़ अलग-अलग देश गहन राष्ट्रवाद में उलझे हुए हैं. इसकी वजह से गंभीर बंटवारा हो रहा है और कोविड-19 के ख़िलाफ़ रोकथाम और इलाज में असमानता और बढ़ रही है. सूक्ष्म जीव देशों, सेक्टर (सार्वजनिक बनाम निजी) और रहने की जगह (ग्रामीण बनाम शहरी) में भेद नहीं करते. वैक्सीनेशन का नतीजा सहज और विलक्षण रूप से देशों, सेक्टर और निवास की सीमाओं के आरपार जाने के लिए तैयार है. नये सबूत दिखाते हैं कि वैश्विक के साथ-साथ राष्ट्रीय जवाब भी ज़्यादा-से-ज़्यादा आदर्श स्थिति से कम हैं. अभी तक हासिल उपलब्धियों के बावजूद भारत के सामने लक्ष्य बहुत बड़ा, अलग-अलग और जटिल है. इस लेख में हम यूनिवर्सिल वैक्सीनेशन की चुनौतियों और इसे हासिल करने के संभावित रास्तों की रूप-रेखा खीचेंगे. मौजूदा टीकाकरण की कोशिशों के सामने मुश्किल और समाधान वैल्यू चेन में हर जगह मौजूद हैं और उन पर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है. हम संभावित समाधान के लिए निम्नलिखित प्रमुख पहलुओं का खाका खीचते हैं: वित्त पोषण, क़ीमत निर्धारण, उत्पादन, सरकारी ख़रीद, सप्लाई चेन और डिलीवरी चैनल.
वैक्सीनेशन को वित्तीय मदद
सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषता को देखते हुए यूनिवर्सल इम्युनाइज़ेशन प्रोग्राम (यूआईपी) और इसके पहले के रूपों का खर्च परंपरागत तौर पर केंद्र सरकार ने उठाया है. इसी तरह केंद्र सरकार ने जनवरी 2021 से कोविड-19 की वैक्सीन के लिए फंड का आवंटन किया है. देश में स्वास्थ्य कर्मियों और फ्रंटलाइन कामगारों की वैक्सीन पर सरकार ने क़रीब 360 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. इसके आगे और प्राथमिकता देते हुए केंद्र सरकार ने टीकाकरण के लिए पहले 45 वर्ष से ज़्यादा उम्र के लोगों की पहचान की और फिर 18 वर्ष से ज़्यादा उम्र के लोगों को चुना. इसके लिए 2021-22 में 35,000 करोड़ रुपये के खर्च का प्रावधान किया. इसकी वजह से उम्मीद जताई गई कि राज्य सरकारों को वैक्सीन ख़रीदने पर खर्च नहीं करना पड़ेगा और वो सप्लाई चेन को मज़बूत करने के साथ वैक्सीन केंद्रों पर वैक्सीन की डिलीवरी पर ध्यान देंगे. 91 करोड़ 40 लाख की पूरी वयस्क आबादी को वैक्सीन लगाने के महत्व को समझते हुए कोविड-19 वैक्सीन के लिए एकमुश्त आवंटन सराहनीय है. लेकिन चूंकि 2-18 वर्ष के उम्र समूह के लिए वैक्सीनेशन भी नज़दीक और अनिवार्य है, और इस उम्र समूह में 44 करोड़ 80 लाख बच्चे और किशोर शामिल हैं, तो 2021-22 के दौरान बच्चों को टीका लगाने के लिए अतिरिक्त फंड की ज़रूरत होगी. वर्तमान में भारत सरकार ने मार्च से जुलाई के दौरान कोविशील्ड और कोवैक्सीन 150 रुपये प्रति डोज़ के हिसाब से हासिल की है. इस तरह मोटे अनुमान के मुताबिक़ अगर 75 प्रतिशत लोगों को सरकार वैक्सीन लगाती है तो पूरी आबादी को वैक्सीन लगाने का खर्च 30,109 करोड़ रुपये आएगा. इसमें बच्चे (2-18 वर्ष) और वयस्क (19 वर्ष से ज़्यादा उम्र) शामिल हैं. वहीं अगर वैक्सीन की प्रति डोज़ की लागत बढ़कर कोविशील्ड के लिए 215 रुपये और कोवैक्सीन के लिए 225 रुपये हो जाती है तो बच्चों और वयस्कों की पूरी आबादी को वैक्सीन लगाने का अंतिम खर्च 44,160 करोड़ रुपये होगा.[1]
91 करोड़ 40 लाख की पूरी वयस्क आबादी को वैक्सीन लगाने के महत्व को समझते हुए कोविड-19 वैक्सीन के लिए एकमुश्त आवंटन सराहनीय है. लेकिन चूंकि 2-18 वर्ष के उम्र समूह के लिए वैक्सीनेशन भी नज़दीक और अनिवार्य है, और इस उम्र समूह में 44 करोड़ 80 लाख बच्चे और किशोर शामिल हैं, तो 2021-22 के दौरान बच्चों को टीका लगाने के लिए अतिरिक्त फंड की ज़रूरत होगी.
वैक्सीन की क़ीमत
संसाधन के मामले में ख़राब हालत वाले देश में वैक्सीन और दवाई की सरकारी ख़रीद अतीत में अक्सर जवाबदेह और पारदर्शी प्रक्रियाओं के ज़रिए की गई है. इसके तहत उत्पादकों से खुले टेंडर के ज़रिए ख़रीदारी की जाती थी. लेकिन चूंकि कोविड-19 की वैक्सीन के उत्पादन की क्षमता कुछ उत्पादकों के पास ही है, ऐसे में बातचीत के आधार पर तय क़ीमत ही समाधान है. बातचीत के आधार पर क़ीमत तय करने से पहले खुले टेंडर की प्रक्रिया होनी चाहिए जिससे कि सही क़ीमत का पता लग सके. जिस वैक्सीन के उत्पादन की लागत अज्ञात है लेकिन कुल लागत का एक छोटा सा हिस्सा होने की उम्मीद है, ऐसी वैक्सीन के लिए चार अलग-अलग क़ीमत पर बातचीत होने लगी. बातचीत के आधार पर तय क़ीमत से अलग क़ीमत एक ऐसी प्रक्रिया को उजागर करती है जो मात्रा की अर्थव्यवस्था और उससे जुड़े ख़रीद के एकाधिकार का इस्तेमाल करने में नाकाम रही. इससे सरकारी ख़ज़ाने में सेंध लग सकता है और व्यापक स्तर पर नागरिकों पर सामाजिक लागत नकारात्मक रूप से बढ़ने की आशंका है.
वैक्सीन उत्पादन
दवा उत्पादन के मामले में भारत वैश्विक शक्ति है. भारत दवाई और वैक्सीन का उत्पादन करके दुनिया भर में उसका निर्यात करता है. महामारी से पहले भारतीय वैक्सीन उत्पादकों की सालाना कुल क्षमता 820 करोड़ अलग-अलग वैक्सीन डोज़ की थी. लेकिन कोविशील्ड बनाने वाली और सबसे बड़ी वैक्सीन निर्माता कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और कोवैक्सीन बनाने वाली भारत बायोटेक को ही शुरुआत में कोविड-19 की वैक्सीन का उत्पादन करने की इजाज़त मिली. देश में संपूर्ण वयस्क आबादी को वैक्सीन लगाने के लिए घरेलू खपत के तौर पर 183 करोड़ वैक्सीन डोज़ की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए और शायद विकासशील देशों को वैक्सीन सप्लाई की ज़्यादा बड़ी ज़रूरत को देखते हुए सभी दूसरे उत्पादकों- पैनेशिया बायोटेक, सनोफी शांति बायोटेक्निक्स, बायोलॉजिकल ई, हेस्टर बायोसाइंसेज़ और ज़ायडस कैडिला- को भी वैक्सीन उत्पादन में शामिल किया जाना चाहिए ताकि बाधाओं का जवाब दिया जा सके. इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों- सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट, बीसीजी वैक्सीन लैबोरेटरी, पैस्ट्यूर इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, हाफकिन बायोफार्मास्यूटिकल्स कॉर्पोरेशन, इंडियन इम्युनोलॉजिकल्स, भारत इम्युनोलॉजिकल्स और बायोलॉजिकल्स (बिबकोल)- को भी वैक्सीन के उत्पादन और डिलीवरी में सक्रिय रूप से शामिल किया जाना चाहिए. वैसे इनमें से कुछ कंपनियों के द्वारा निकट भविष्य में वैक्सीन उत्पादन की संभावना नहीं है. उदाहरण के लिए, बिबकोल के द्वारा 1 करोड़ डोज़ प्रति महीने की क्षमता के साथ उत्पादन फरवरी 2022 में ही शुरू होगा. इस तरह मौजूदा वैक्सीन की कमी को दूर करने का एकमात्र तरीक़ा उत्पादन क्षमता को बढ़ाना है. इस काम में ज़्यादा-से-ज़्यादा उन अच्छे उत्पादकों को शामिल किया जाना चाहिए जो पहले से ही वैक्सीन उत्पादन के क्षेत्र में स्थापित नाम हैं. ये इसलिए ज़रूरी है क्योंकि जैसे ही बच्चों और किशारों को वैक्सीन लगाने की क़ानूनी मंज़ूरी मिलती है, वैसे ही 2-18 उम्र के समूह के लिए 84 करोड़ 60 लाख अतिरिक्त वैक्सीन डोज़ के उत्पादन की ज़रूरत पड़ेगी.
बातचीत के आधार पर तय क़ीमत से अलग क़ीमत एक ऐसी प्रक्रिया को उजागर करती है जो मात्रा की अर्थव्यवस्था और उससे जुड़े ख़रीद के एकाधिकार का इस्तेमाल करने में नाकाम रही. इससे सरकारी ख़ज़ाने में सेंध लग सकता है और व्यापक स्तर पर नागरिकों पर सामाजिक लागत नकारात्मक रूप से बढ़ने की आशंका है.
स्पुतनिक, फाइज़र और दूसरी वैक्सीन के बाज़ार में उतरने और उनका उत्पादन जल्द शुरू होने के साथ वैक्सीन की कमी कुछ हद तक दूर होने की संभावना है और सप्लाई में और बढ़ोतरी होने की उम्मीद है. इसके अलावा, सिर्फ़ दो वैक्सीन पर निर्भरता ने मौजूदा क्षमता को पहले ही दबा कर रखा है. इसलिए कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि अनिवार्य लाइसेंसिंग प्रक्रिया की मदद ली जाए. ये एक वैध नीतिगत हथियार है जिसकी इजाज़त ट्रिप्स समझौते (विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य देशों के बीच अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनी समझौता) के तहत स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति में है. अनिवार्य लाइसेंसिंग प्रक्रिया के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन में ट्रिप्स में छूट पर चर्चा के नतीजे का इंतज़ार नहीं करना चाहिए. कुछ देशों की तरफ़ से विरोध को देखते हुए ये रास्ता या तो बंद हैं या इसके लिए लंबे इंतज़ार की ज़रूरत पड़ेगी. एक संप्रभु राष्ट्र और महामारी से जूझ रहे देश के तौर पर भारत को निश्चित तौर पर अनिवार्य लाइसेंसिंग प्रक्रिया की सहायता लेनी चाहिए. इससे ये सुनिश्चित किया जा सकेगा कि और ज़्यादा उत्पादकों को वैक्सीन उत्पादन की मंज़ूरी मिले और मौजूदा वैक्सीन उत्पादन की क्षमता को बढ़ाया जा सके. इसके अतिरिक्त कोवैक्सीन, जिसका भारत में निर्माण हुआ है और जिसको आंशिक रूप से करदाताओं के पैसे से बनाया गया है, को दूसरे भारतीय सार्वजनिक और निजी वैक्सीन उत्पादकों के द्वारा उत्पादन की मंज़ूरी ज़रूर मिलनी चाहिए. इस मामले में अनिवार्य लाइसेसिंग की मदद लेने की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी.
वैक्सीन की खपत
19 अगस्त तक भारत ने 57 करोड़ से ज़्यादा वैक्सीन की डोज़ लगाने की उपलब्धि हासिल कर ली है. इसमें 12 करोड़ 70 लाख लोगों को वैक्सीन की दोनों डोज़ शामिल है. ये दुनिया भर में तेज़ रफ़्तार से वैक्सीन लगाने की उपलब्धि है.
183 करोड़ वैक्सीन डोज़ की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए और शायद विकासशील देशों को वैक्सीन सप्लाई की ज़्यादा बड़ी ज़रूरत को देखते हुए सभी दूसरे उत्पादकों- पैनेशिया बायोटेक, सनोफी शांति बायोटेक्निक्स, बायोलॉजिकल ई, हेस्टर बायोसाइंसेज़ और ज़ायडस कैडिला- को भी वैक्सीन उत्पादन में शामिल किया जाना चाहिए
लेकिन वैक्सीन लगाने में राज्यों के बीच बहुत ज़्यादा असमानता है. राष्ट्रीय स्तर पर वैक्सीन की कमी जहां 50 प्रतिशत से ज़्यादा है वहीं केरल (22 प्रतिशत), दिल्ली (22 प्रतिशत), पंजाब (26 प्रतिशत), कर्नाटक (30 प्रतिशत), गुजरात (37 प्रतिशत) राष्ट्रीय कमी से काफ़ी नीचे है. उत्तर में दूसरे बड़े राज्य राष्ट्रीय औसत से काफ़ी नीचे हैं ख़ास तौर पर बिहार (71 प्रतिशत), राजस्थान (66 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल (66 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश (64 प्रतिशत) और झारखंड (62 प्रतिशत). रेगुलेटरी मंज़ूरी के बाद जैसे-जैसे ज़्यादा वैक्सीन लगाने की शुरुआत होती है- स्पुतनिक, नोवावैक्स और दूसरे वैक्सीन उत्पादक जैसे डॉ. रेड्डीज़ लैब, बायोलॉजिकल ई और आयात के ज़रिए जैसे सिपला मॉडर्ना वैक्सीन का आयात करेगी- वैसे-वैसे वैक्सीन उत्पादन की क्षमता में अच्छी बढ़ोतरी की उम्मीद लगाई जा रही है. इससे वैक्सीन की कमी दूर होगी और प्रति दिन 40 लाख वैक्सीन की डोज़ लगाने के औसत को दोगुना या तीन गुना किया जा सकेगा. वैक्सीन में ज़्यादा कमी की एक वजह प्राइवेट सेक्टर के लिए 25 प्रतिशत वैक्सीन का रिज़र्व होना हो सकता है. वैक्सीनेशन का अभियान शुरू होने के वक़्त से प्राइवेट केंद्रो में वैक्सीनेशन का औसत 7 प्रतिशत रहा है. वैक्सीन की ज़्यादा क़ीमत– प्राइवेट संस्थानों में कोवैक्सीन की एक डोज़ की क़ीमत 1,410 रुपये है जबकि भारत सरकार 250 रुपये प्रति डोज़ में कोवैक्सीन ख़रीदती है, इसी तरह कोविशील्ड की सरकारी क़ीमत 150-250 रुपये प्रति डोज़ है जबकि प्राइवेट संस्थानों में 780 रुपये प्रति डोज़ के हिसाब से मिल रही है- की वजह से सरकार ने प्राइवेट संस्थानों के द्वारा सर्विस चार्ज अपेक्षाकृत कम कर दी (अधिकतम 150 रुपये). माना जाता है कि इसकी वजह से प्राइवेंट सेंटर वैक्सीनेशन अभियान में तेज़ी नहीं ला रहे हैं.
सारांश
कोविड-19 के ख़िलाफ़ यूनिवर्सिल वैक्सीनेशन का रास्ता संभावित चुनौतियों से पटा है. राष्ट्रीय स्तर पर पूरी तरह सरकारी पैसे से टीकाकरण कार्यक्रम, जिसमें कई उत्पादकों की वैक्सीन का इस्तेमाल हो और जो क़ीमत के मामले में प्रतिस्पर्धी हो, वो इस वक़्त की ज़रूरत है. सरकार के पैसे से चलने वाले टीकाकरण कार्यक्रम का सामाजिक फ़ायदा अमीर लोगों के लिए भी बाज़ार आधारित वैक्सीनेशन कार्यक्रम से ज़्यादा है. टुकड़ों में ख़रीदारी और सप्लाई चेन से परहेज करके एक राष्ट्रीय पूल वाली ख़रीदारी के तौर-तरीक़े से मात्रा की अर्थव्यवस्था और उससे जुड़े ख़रीद के एकाधिकार का फ़ायदा है. इस तरह का तौर-तरीक़ा न सिर्फ़ सरकार के लिए किफ़ायती है बल्कि व्यापक स्तर पर इससे समाज को भी फ़ायदा होगा. यहां तक कि अगर प्राइवेट सेक्टर को भी वैक्सीन मुहैया करानी हो, जो कि अमीर लोगों के लिए किफ़ायती हो, तब भी सार्वजनिक भलाई के काम के रूप में टीकाकरण को संक्रमण से रोकथाम के सिद्धांत पर चलाना चाहिए न कि पैसा बचाने की ग़लत सोच के आधार पर.
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