Published on Jul 13, 2020 Updated 0 Hours ago

अगर एक भी बच्चा ऑनलाइन शिक्षा से वंचित रह जाता है, तो पढ़ाई का ये माध्यम अन्यायपूर्ण होगा. केंद्र और राज्य सरकारों को ये प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए कि वो आगे चलकर सभी शिक्षण संस्थानों को ब्रॉडबैंड सेवा और ऑनलाइन शिक्षा के लिए उचित यंत्र मुहैया कराएंगे.

कोविड-19 के दौर में ऑनलाइन शिक्षा की ज़रूरत और चुनौतियां

24 मार्च को कोविड-19 रोकथाम के लिए जब देश भर में लॉकडाउन लागू किया गया. तो, उसके तुरंत बाद राज्यों की सरकारों ने स्कूली शिक्षा को ऑनलाइन करने का प्रावधान शुरू कर दिया. इसमे एनजीओ, फ़ाउंडेशन और निजी क्षेत्र की तकनीकी शिक्षा कंपनियों को भी भागीदार बनाया गया. इन सब ने मिककर शिक्षा प्रदान करने के लिए संवाद के सभी उपलब्ध माध्यमों का इस्तेमाल शुरू किया. इसमें टीवी, डीटीएच चैनल, रेडियो प्रसारण, व्हाट्सऐप और एसएमस ग्रुप और प्रिंट मीडिया का भी सहारा लिया गया. कई संगठनों ने तो नए अकादमि वर्ष के लिए किताबें भीं वितरित कर दीं. स्कूली शिक्षा की तुलना में देखें, तो उच्च शिक्षा का क्षेत्र इस नई चुनौती से निपटने के लिए बहुत ही कम तैयार था.

इस मामले के तमाम विशेषज्ञ जैसे कि आईआईटी बॉम्बे के प्रोफ़ेसर सहाना मूर्ति का ये मानना है कि आमने सामने की पढ़ाई से अचानक ऑनलाइन माध्यम में स्थानांतरित होने से शिक्षा प्रदान करने का स्वरूप बिल्कुल बदल गया है. इस ऑनलाइन शिक्षा को आपातकालीन रिमोट टीचिंग कहा जा रहा है. ऑनलाइन एजुकेशन और इमरजेंसी ऑनलाइन रिमोट एजुकेशन में बहुत फ़र्क़ है. ऑनलाइन शिक्षा अच्छी तरह से अनुसंधान के बाद अभ्यास में लाई जा रही है. बहुत से देशों में तालीम का ये माध्यम कई दशकों से इस्तेमाल किया जा रहा है, ताकि पाठ्यक्रम को ऑनलाइन उपलब्ध कराया जा सके. इसके मुक़ाबले भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में इस ऑनलाइन शिक्षा की उपलब्धता काफ़ी कम है. अब अगर यूनिवर्सिटी और कॉलेज आने वाले सेमेस्टर से ऑनलाइन क्लास शुरू करते हैं, तो उन्हें इस रिमोट ऑनलाइन एजुकेशन और नियमित ऑनलाइन पढ़ाई के अंतर को ध्यान में रखकर अपनी तैयारी करनी होगी. क्योंकि, अगर देश में कोविड-19 के मरीज़ों की तादाद बढ़ती रही, तो उच्च शिक्षण संस्थानों को भी स्कूलों की ही तरह नियमित ऑनलाइन पढ़ाई शुरू करनी होगी.

ऑनलाइन शिक्षा को अपनाने में भारत के उच्च शिक्षण संस्थान (HEI) सुस्त रहे हैं

भारत का उच्च शिक्षा का सेक्टर, ऑनलाइन शिक्षा के पाठ्यक्रम को अपनाने में बहुत सुस्त रहा है. इसीलिए अचानक से ऑनलाइन पढ़ाई की ज़रूरत सामने खड़ी हुई, तो ये सेक्टर पूरी तरह से इसके लिए तैयार नहीं दिख रहा है. 30 जनवरी 2020 तक देश के केवल सात उच्च शिक्षण संस्थान ऐसे थे जिन्होंने यूजीसी (UGC) की 2018 गाइडलाइन्स के अनुसार ऑनलाइन कोर्स उपलब्ध कराने की इजाज़त ली हुई थी. कोविड-19 की महामारी फैलने से पहले देश के लगभग 40 हज़ार उच्च शिक्षा संस्थानों में से अधिकतर के पास ऑनलाइन पाठ्यक्रम शुरू करने की अनुमति नहीं थी. इसीलिए, जब केंद्र और राज्य सरकारों ने इन संस्थानों को ऑनलाइन कक्षाओं के माध्यम से अपने छात्रों को पढ़ाई कराने का आमंत्रण दिया, तो ये संस्थान इसके लिए तैयार नहीं थे. ये तो मई महीने के मध्य में जाकर वित्त मंत्री ने एलान किया था कि देश की नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (NIRF) के तहत टॉप के 100 शिक्षण संस्थानों को स्वत: ही ऑनलाइन शिक्षण कार्यक्रम करने की इजाज़त मिल जाएगी. लेकिन, सरकार के इस क़दम से छात्रों के एक छोटे से वर्ग को ही लाभ होगा.

कोविड-19 की महामारी फैलने से पहले देश के लगभग 40 हज़ार उच्च शिक्षा संस्थानों में से अधिकतर के पास ऑनलाइन पाठ्यक्रम शुरू करने की अनुमति नहीं थी. इसीलिए, जब केंद्र और राज्य सरकारों ने इन संस्थानों को ऑनलाइन कक्षाओं के माध्यम से अपने छात्रों को पढ़ाई कराने का आमंत्रण दिया, तो ये संस्थान इसके लिए तैयार नहीं थे

लॉकडाउन लगने के बस दो दिन बाद ही, यूजीसी ने सरकार के ICT यानी सूचना और प्रौद्योगिकी तकनीक पर आधारित संसाधनों के माध्यम से शिक्षा के क्षेत्र में पहल की एक लिस्ट जारी की थी. यूजीसी का कहना था कि इसके माध्यम से छात्र, लॉकडाउन के दौरान मुफ़्त में पढ़ाई जारी रख सकते हैं. इसमें स्वयं (SWAYAM) और नेशनल डिजिटल लाइब्रेरी जैसे विकल्पों का ज़िक्र किया गया था. हाल ही में छात्रों को सेकेंड डिग्री की शुरुआत की अनुमति भी दे दी गई है. जिसे वो अपने नियमित डिग्री कोर्स के साथ साथ ऑनलाइन या ओपन और दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं. हालांकि, ये शानदार प्रयत्न हैं, जिनसे छात्रों को कोविड-19 की महामारी के बाद भी बहुत लाभ होगा. लेकिन ऑनलाइन उच्च शिक्षा की बात करें तो अभी भी ये बहुत देर से और कुछ ही छात्रों के लाभ के लिए उठाए गए क़दम हैं.

ऑनलाइन शिक्षा की ओर बढ़ने की अधूरी तैयारी

और अधिक ऑनलाइन कोर्स उपलब्ध कराने की राह में जो प्रमुख चुनौतियां हैं, उनमें से एक ये है कि पढ़ाने वाले अधिकतर फैकल्टी के सदस्यों को इसके लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया है. और इसीलिए वो ऑनलाइन कक्षाएं चलाने के लिए तैयार नहीं हैं. पूरी तरह से ऑनलाइन कोर्स की योजना बनाने और इसकी तैयारी के लिए छह से नौ महीने लग सकते हैं. इन्हें कोविड-19 महामारी के दौरान कुछ हफ़्तों में ही तैयार नहीं किया जा सकता. ऑनलाइन शिक्षा को अपनाने की पहल करने वाले संस्थानों और फैकल्टी के सदस्यों को अपने सहकर्मियों को इसे अपनाने में काफ़ी मदद करने की ज़रूरत होगी. फिर चाहे वो अपने ही संस्थान हों या शिक्षण समुदाय के अन्य सदस्य हों. ओआरएफ (ORF) द्वारा इस विषय में आयोजित वेबिनार में मानव संसाधन विकास मंत्रालय में नई शिक्षा नीति की ओएसडी (OSD) डॉक्टर शकीला शम्सू ने इस बात पर काफ़ी ज़ोर दिया था. आमतौर पर फैकल्टी के सदस्य, अपने कोर्स के दूसरे या तीसरे सत्र में जाकर ऑनलाइन शिक्षा देने को लेकर सहज हो पाते हैं. ऐसे में उन्हें इसकी शुरुआत करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. उन्हें तकनीक के महारथी टीचिंग सहायकों के माध्यम से मदद दी जानी चाहिए. अभी तक भारत ने इस विकल्प को नहीं अपनाया है. जबकि विदेशों के विश्वविद्यालयों में टीचिंग असिस्टेंट (TAs) का उपयोग व्यापक स्तर पर हो रहा है. ये शिक्षण सहयोगी, छात्रों के लिए चैट रूम और सहकर्मियों से सीखने के सत्र भी आयोजित करते हैं. जो शिक्षा प्राप्त करने में बहुत लाभप्रद होते हैं.

अभी भी ऑनलाइन शिक्षा को बहुत से फैकल्टी सदस्य आमने सामने की तालीम के मुक़ाबले कमतर मानते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि कैम्पस की पढ़ाई को पूरी तरह ऑनलाइन से स्थानांतिरत कर पाना संभव नहीं है. ख़ासतौर से अगर किसी को दोनों में से एक को चुनने का विकल्प दिया जाए तो. लेकिन, अगर ऑनलाइन कोर्स को निर्देश के उच्च माध्यमों जैसे कि ऑडियो-वीडियो क्लिप के आधार पर तैयार किया जाए, तो उससे ऑनलाइन शिक्षा को बहुत उपयोगी बनाया जा सकता है. इससे नियमित यूनिवर्सिटी शिक्षा को काफ़ी मदद मिलेगी. ये बात कोर्सेरा, एडेक्स और अन्य ऑनलाइन पाठ्यक्रमों से साबित की है. नए सत्र की शुरुआत में देरी से उच्च शिक्षण संस्थानों और फैकल्टी को ये अवसर मिला है कि वो उच्च गुणवत्ता के ऑनलाइन कोर्स तैयार कर लें.

हाल ही में आईआईटी बॉम्बे ने ऑनलाइन शिक्षा के ख़ुद से बढ़ावा देने वाले कोर्स लॉन्च किए हैं, जिनसे कॉलेज के शिक्षक लाभ उठा सकते हैं. ऐसे और अधिक संसाधन तैयार करने आवश्यक हैं. और इन्हें ऑनलाइन शिक्षा के विस्तार के लिए अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जाना चाहिए

जैसा कि आईआईटी बैंगलोर के प्रोफ़ेसर वी श्रीधर ने ओआरएफ (ORF) के वेबिनार में कहा था, ऑनलाइन कोर्स के विस्तार के पीछे एक आर्थिक तर्क भी है. ऑनलाइन शिक्षा के तमाम प्लेटफॉर्म की कामयाबी इसकी मिसाल है. ऑनलाइन कोर्स बहुत कम ख़र्चीले होते हैं. और इन प्लेटफॉर्म पर बहुत से कॉलेज और यूनिवर्सिटी से ज़्यादा छात्र पढ़ाई करते हैं. भारत के लिए अच्छा ये होगा कि वो इस महामारी से मिले अवसर का लाभ उठाकर ऑनलाइन शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाए. ताकि देश के शिक्षण संस्थान इस आपदा द्वारा दिए गए लंबी अवधि के अवसर को पहचान का उसका लाभ उठाएं. हाल ही में आईआईटी बॉम्बे ने ऑनलाइन शिक्षा के ख़ुद से बढ़ावा देने वाले कोर्स लॉन्च किए हैं, जिनसे कॉलेज के शिक्षक लाभ उठा सकते हैं. ऐसे और अधिक संसाधन तैयार करने आवश्यक हैं. और इन्हें ऑनलाइन शिक्षा के विस्तार के लिए अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जाना चाहिए. ख़ासतौर से भारतीय भाषाओं में.

उपलब्धता की चुनौतियां

महामारी की इमरजेंसी के दौरान दूरस्थ शिक्षा यानी ऑनलाइन एजुकेशन को लेकर सारी परिचर्चाएं इस बुनियाद पर आधारित हैं कि सभी छात्रों के पास इंटरनेट सेवा है. और सभी के पास ऑनलाइन पढ़ाई के लिए उपकरण यानी लैपटॉप या कंप्यूटर मौजूद हैं. जिसकी मदद से वो ऑनलाइन पढ़ाई कर सकते हैं. पर दुर्भाग्य की बात ये है कि ये बात स्कूल के स्तर पर भी ग़लत है और उच्च शिक्षा के स्तर पर भी. स्कूलों में जहां स्थानीय समुदायों के ही छात्र आमतौर पर पढ़ाई करते हैं. वहीं, उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले छात्र दूर दराज़ से भी आते हैं. ये अलग अलग राज्यों के छात्र भी हो सकते हैं और ग्रामीण इलाक़ों के रहने वाले भी हो सकते हैं. ऐसे में, ऑनलाइन शिक्षा को लेकर अगर इसी आकलन पर कि सभी छात्रों के पास इसके संसाधन होंगे, तो इसका बुरा प्रभाव लगभग सभी उच्च शिक्षा संस्थानों पर पड़ेगा. क्योंकि ज़्यादातर छात्र, जो लॉकडाउन के बाद अपने घर लौट गए, उनके पास इंटरनेट की पर्याप्त सुविधा नहीं थी. नेशनल सैंपल सर्वे के शिक्षा से जुड़े 75वें चरण के आंकड़े बताते हैं कि देश में केवल 24 प्रतिशत घरों में ही इंटरनेट की सुविधा है. इनमें से 42 फ़ीसद शहरी क्षेत्रों में हैं तो ग्रामीण क्षेत्रों के केवल 15 प्रतिशत घरों में इंटरनेट की सुविधा है. वहीं देश के केवल 11 प्रतिशत घरों में अपने कंप्यूटर हैं. (23 प्रतिशत शहरी घरों में कंप्यूटर हैं. तो गांवों में केवल 4.4 प्रतिशत घरों में अपने कंप्यूटर हैं. इसमें स्मार्टफ़ोन को शामिल नहीं किया गया है.) आईएएमएआई (IAMAI) की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत में इस समय लगभग 50 करोड़ इंटरनेट यूज़र हैं. इनमें से 43.3 करोड़ यूज़र 12 साल की आयु से ज़्यादा के हैं. और 65 प्रतिशत पुरुष हैं. ग्रामीण और शहरी, पुरुषों और महिलाओं के बीच के इस डिजिटल अंतर को अन्य बड़े विश्वविद्यालयों सर्वे भी सही बताते हैं. जैसे कि हैदराबाद यूनिवर्सिटी के एक सर्वे के अनुसार केवल 37 प्रतिशत छात्रों ने कहा कि वो ऑनलाइन कक्षाएं ले सकते हैं. वहीं 90 प्रतिशत छात्रों ने क्लास में लेक्चर लेने को तरज़ीह देने की बात कही. यहां तक कि देश के बड़े तकनीकी संस्थानों यानी की आईआईटी के दस प्रतिशत या इससे भी अधिक छात्रों ने कहा कि वो स्टडी मैटीरियल को डाउनलोड नहीं कर सकते हैं. या वो ऑनलाइन क्लास नहीं ले सकते हैं. छात्रों ने इसकी वजह कभी तो कनेक्टिविटी और कभी अपर्याप्त डेटा प्लान बताई.

देश की 2.5 लाख ग्राम पंचायतों को इंटरनेट सेवा उपलब्ध कराने वाली योजना भारत नेट 2011 से चल रही है. लेकिन, आख़िरी छोर तक इंटरनेट की सेवा न पहुंच पाने से ये योजना भी अधर में ही लटकी है. जब भी ये योजना पूरी तरह कार्यान्वित होती है, और इसे प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए, तब ये ग्रामीण समुदायों और छात्रों को अच्छी ब्रॉडबैंड सेवा से जोड़ सकेगी

रैंकिंग एजेंसी क्वाक्वारेली सायमंड्स (QS) के एक ताज़ा सर्वे को उनके क्षेत्रीय निदेशक डॉक्टर अश्विन फर्नांडिस ने ORF के वेबिनार में प्रस्तुत किया था. इस सर्वे में दिखाया गया था कि इसमें शामिल 7500 से अधिक छात्रों में से 72.6 प्रतिशत, इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए मोबाइल फ़ोन हॉट स्पॉट का इस्तेमाल करते हैं. यूनेस्को इंटरनेट सुविधा के इस माध्यम को ख़राब तकनीक का कहता है. केवल 15.87 प्रतिशत छात्रों के पास ब्रॉडबैंड की सुविधा थी. मगर, इन छात्रों ने बताया कि उनके ब्रॉडबैंड में भी कनेक्टिविटी की समस्याएं आती थीं. कभी बिजली नहीं रहती थी और कभी सिग्नल नहीं होता था. और जो छात्र मोबाइल हॉट स्पॉट का इस्तेमाल इंटरनेट के लिए कर रहे थे, उनमें से लगभग 97 प्रतिशत को ख़राब कनेक्टिविटी या सिग्नल न मिलने की चुनौतियां झेलनी पड़ रही थीं. अब अगर हम इन आंकड़ों को इस बात से जोड़ कर देखें कि केवल 30 प्रतिशत भारतीय आबादी के पास ही स्मार्टफ़ोन हैं, तो आपको पता चलेगा कि देश की कुल आबादी का बेहद छोटा सा हिस्सा स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल करता है. सबसे अच्छी पहुंच वाली तकनीक यानी टीवी चैनल का इस्तेमाल शिक्षा के लिए करना भी एक समाधान नहीं है. क्योंकि, देश के केवल 67 प्रतिशत घरों में ही टीवी है.

आज स्मार्टफ़ोन, लैपटॉप, टीवी वग़ैरह को आपस में साझा करने के विकल्प भी आज़माए जा रहे हैं. लेकिन, अगर एक छात्र भी ऑनलाइन शिक्षा के दायरे से बाहर रह जाता है, तो ये उसके साथ नाइंसाफ़ी होगी. ऑनलाइन शिक्षा के लंबी अवधि के समाधान के लिए राज्यों और केंद्र की सरकारों को चाहिए कि वो सभी शिक्षण संस्थानों को अच्छी ब्रॉडबैंड सेवा और ऑनलाइन पढ़ाई के लिए लैपटॉप और कंप्यूटर उपलब्ध कराएं. देश की 2.5 लाख ग्राम पंचायतों को इंटरनेट सेवा उपलब्ध कराने वाली योजना भारत नेट 2011 से चल रही है. लेकिन, आख़िरी छोर तक इंटरनेट की सेवा न पहुंच पाने से ये योजना भी अधर में ही लटकी है. जब भी ये योजना पूरी तरह कार्यान्वित होती है, और इसे प्राथमिकता के आधार पर करना चाहिए, तब ये ग्रामीण समुदायों और छात्रों को अच्छी ब्रॉडबैंड सेवा से जोड़ सकेगी. तब इसका इस्तेमाल न सिर्फ़ शिक्षा के लिए हो सकेगा. बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं, कृषि और रोज़गार के अन्य माध्यमों में भी ये लोगों की मदद कर सकेगी.

तब तक उच्च शिक्षा के सभी फैकल्टी सदस्यों को उपलब्ध संसाधनों से भी काम चलाना होगा. ताकि वो अपने सभी छात्रों से लगातार संपर्क में रहें और अपनी चतुराई से इन छात्रों को इस कोरोना काल में पढ़ाई के लिए प्रेरित करते रहें. ये आपदा एक अवसर बन सकती है, अगर हम उच्च शिक्षा देने के लिए नई परिकल्पनाओं पर काम कर सकें. शिक्षा को लेकर पारंपरिक सोच को परे हटाकर अध्ययन, अध्यापन और समीक्षा के नए तरीक़े अपनाएं. हमेशा के लिए नहीं, तो कम से कम इस अवधि में तो ऐसा हो ही सकता है.

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