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अगस्त 2021 में जब तालिबान ने सत्ता पर क़ब्ज़ा किया था, तो शायद ही कुछ लोगों को ये अंदाज़ा लगाया होगा कि वो क्षेत्रीय या अंतरराष्ट्रीय ताक़तों के सहयोग के बग़ैर अफ़ग़ानिस्तान पर क़ाबिज़ हो जाएंगे. उन शुरुआती दिनों और महीनों के दौरान ऐसा लग रहा था कि पाकिस्तान, तालिबान का सबसे नज़दीकी पड़ोसी है. हालांकि, ज़्यादा दिन नहीं बीते जब पाकिस्तान को ख़ुद अपने पड़ोस में सत्ता में नए नए आए लोगों की वजह से तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ा. जातीय तनाव सीमावर्ती इलाक़ों से बढ़कर बड़े शहरों में फैल गए और अप्रवासियों की लगातार बढ़ती भीड़ ने तालिबान के पड़ोसी देशों के लिए समस्याओं को और बढ़ाने का काम किया.
अगस्त 2021 में जब तालिबान ने सत्ता पर क़ब्ज़ा किया था, तो शायद ही कुछ लोगों को ये अंदाज़ा लगाया होगा कि वो क्षेत्रीय या अंतरराष्ट्रीय ताक़तों के सहयोग के बग़ैर अफ़ग़ानिस्तान पर क़ाबिज़ हो जाएंगे.
ईरान तो तालिबान के सत्ता में दोबारा आने के बाद से ही दुविधा का शिकार हो गया था. वैसे तो ईरान की हुकूमत ने तालिबान की जीत को अमेरिका की शिकस्त और विदेशी ताक़तों के निष्कासन के तौर पर पेश किया. लेकिन, कंधार को अपनी तथाकथित ‘प्रतिरोध की धुरी’ का हिस्सा बनाने की कोशिश में, ईरान के समाज के आम लोग और ख़ास तौर से अकादेमिक विद्वानों ने तालिबान के राज को शिया इस्लाम, फ़ारसी ज़बान और अफ़ग़ान महिलाओं और लड़कियों के अधिकार की विरोधी एक ताक़त के उभार के तौर पर ही देखा, जो ईरान की नज़र में उसके और उसके जैसी साझा सांस्कृतिक विरासत वाले दूसरे देशों के लिए ख़तरा बनेगी. जैसे जैसे वक़्त बीता, तालिबान की बातों और उनकी हरकतों ने ईरान के विद्वानों द्वारा पेश किए गए तर्क़ों को सही साबित कर दिया, और तालिबान भी ईरान के साथ रिश्तों के मामले में अपना दबदबा दिखा पाने में नाकाम रहा.
उत्तर के पड़ोसी
तालिबान के उत्तरी पड़ोसी यानी ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान भी शुरुआती दौर में इस्लामिक कट्टरपंथ के प्रसार को लेकर आशंकित थे और उन्होंने काबुल में तालिबान की सरकार के साथ किसी तरह के संवाद से परहेज़ ही किया. हालांकि, धीरे धीरे जब ISIS खुरासान के रूप में कट्टरपंथी विचारधाराओं ने पांव जमाने शुरू किए, तो इन देशों ने तालिबान के साथ बातचीत, सहयोग और आर्थिक संवाद की शुरुआत ये सोचते हुए की कि इससे उनको होने वाला नुक़सान कम होगा. हालांकि, पिछले तीन वर्षों के दौरान न केवल उनके लिए सुरक्षा के हालात में कोई सुधार आया है, बल्कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की जल संसाधनों पर नियंत्रण की परियोजनाओं ने पड़ोसी देशों की सरकारों की चिंताओं को बढ़ा दिया है, और आर्थिक और पर्यावरण के संकटों ने इन देशों की असुरक्षा संबंधी चिंताओं को और पेचीदा बना दिया है.
अफ़ग़ानिस्तान के कुछ दूर के पड़ोसी भी हैं. दक्षिण पूर्व में भारत है; उत्तर में रूस है; पश्चिम में तुर्की है; और दक्षिण पश्चिम में फ़ारस की खाड़ी के अरब देश हैं. इन सब देशों को अफ़ग़ानिस्तान का दूर का पड़ोसी माना जाता है. तालिबान ने अलग अलग क्षेत्र में इन सभी देशों के साथ किसी न किसी रूप में संवाद किया है.
अफ़ग़ानिस्तान के साथ सबसे छोटी सीमा चीन की है. उसने तालिबान के साथ शुरुआत से ही संपर्क बढ़ाने की नीति को अपनाया और दोनों देशों के बीच आवाजाही, आर्थिक सहयोग पर परिचर्चाएं, खदानों में निवेश, परिवहन के हिस्से का विस्तार और साझा हितों के अन्य मसलों पर भी बातचीत बड़े आराम से आगे बढ़ती रही है. इसके बावजूद, सवाल ये है कि चीन की वो कौन सी परियोजनाएं हैं, जो पिछले तीन वर्षों के दौरान अफ़ग़ानिस्तान में गंभीरता से लागू की गई हैं? आख़िर ऐसा क्यों है कि चीन, तालिबान की इस्लामिक अमीरात को मान्यता देने से अब तक गुरेज़ करता आ रहा है? क्या पिछले गणतंत्र की तुलना में तालिबान के दौर में चीन के साथ रिश्ते वास्तव में बेहतर हुए हैं?
अफ़ग़ानिस्तान के कुछ दूर के पड़ोसी भी हैं. दक्षिण पूर्व में भारत है; उत्तर में रूस है; पश्चिम में तुर्की है; और दक्षिण पश्चिम में फ़ारस की खाड़ी के अरब देश हैं. इन सब देशों को अफ़ग़ानिस्तान का दूर का पड़ोसी माना जाता है. तालिबान ने अलग अलग क्षेत्र में इन सभी देशों के साथ किसी न किसी रूप में संवाद किया है. निवेश के साथ आर्थिक और सुरक्षा क्षेत्र में सहयोग के वादे भी किए गए हैं. हालांकि, पिछले तीन वर्षों के दौरान तालिबान के नज़दीकी पड़ोसी हों या दूर के, कोई भी तालिबान का मुख्य सहयोगी बन पाने में नाकाम रहा है. किसी ने भी काबुल में इस्लामिक अमीरात को वैध सरकार के तौर पर मान्यता नहीं दी है और न ही तालिबान के साथ अपने रिश्तों को विस्तार दिया है.
पर, बड़ा सवाल ये है कि समस्या कहां है? तालिबान के क्षेत्रीय संबंधों में अटकाव आने की वजह क्या है?
ऐसा लगता है कि तालिबान अभी भी प्रशासन को लेकर अपना नज़रिया स्पष्ट नहीं कर पाया है. तालिबान की इस्लामिक अमीरात को अंतरिम सरकार माना जाता है और वास्तविकता भी यही है कि अभी तक काबुल में ऐसे किसी प्रशासन ने कमान नहीं संभाली है, जो अन्य देशों के साथ सहयोग की व्यवस्था को परिभाषित कर सके. पिछले संविधान को तो ख़ारिज कर दिया गया है. पर, उसकी जगह कोई नया संविधान नहीं लागू किया गया है. पिछले तीन वर्षों से अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा शासक कोई स्पष्ट विदेश नीति लागू न करके केवल पड़ोसी और अन्य देशों के साथ रिश्तों को बढ़ाने से ही संतुष्ट दिख रहे हैं.
व्यापारिक संबंधों के स्तर पर
आर्थिक संबंधों को विस्तार देने और विकास के कार्यक्रम शुरू करने के लिए निवेश आकर्षित करने के लिए किसी भी देश को पहले अपने आर्थिक ढांचे के साथ निवेश और व्यापार के नियमों को निर्धारित करना चाहिए. पिछले तीन वर्षों के दौरान अफ़ग़ानिस्तान के लिए न तो कोई आर्थिक ढांचा नियत किया गया है, न ही विकास के लिए कोई कार्यक्रम बनाया या लागू किया गया है. इसका नतीजा ये हुआ है कि हर गुज़रते दिन के साथ ग़रीबों और ज़िंदगी की जद्दोजहद करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है.
साझा आर्थिक कार्यक्रम लागू करने से पहले अफ़ग़ान समाज के भीतर सामाजिक और राजनीतिक सुरक्षा को सुनिश्चित करना होगा. आज तालिबान जिसे सुरक्षा कहते हैं, वो असल में सभी तरह के राजनीतिक और सामाजिक समूहों और वर्गों का दमन है. फिर भी, किसानों से लेकर महिलाओं तक हम लगातार विरोध और बग़ावतें होते देख रहे हैं, और ऐसा एक भी दिन नहीं गुज़रता है, जब देश के अलग अलग हिस्सों से सशस्त्र संघर्ष की ख़बरें नहीं आती हैं.
वहीं दूसरी ओर, तीन साल सत्ता में रहने के बाद भी तालिबान, देश की आबादी के एक बड़े तबक़े के नागरिक और धार्मिक अधिकारों को मान्यता देने से इनकार कर रहे हैं, और क़बीलाई परंपराएं लागू कर रहे हैं, जो स्थापित रिवाजों, क़ानूनों और इस्लामिक शरीयत के ख़िलाफ़ हैं. इस वजह से तालिबान ने ख़ुद को अपनी हरकतों की वजह से अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मान्यता मिलने की संभावनाओं से महरूम कर रखा है.
इसके बावजूद, काबूल और कंधार में सत्ता की कमान संभालने वालों ने अन्य देशों के साथ रिश्तों के मामले में लगातार एक सा तरीक़ा अपनाया हुआ है. जहां उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के दूसरे सामाजिक और राजनीतिक दलों और समूहों के साथ संवाद के सारे दरवाज़े बंद कर रखे हैं और अपने विरोधियों को मुश्किल हालात में डाल रखा है. वहीं, तालिबान ने पड़ोसी देशों के साथ संबंध के मामले में द्विपक्षीय संवाद का मॉडल अपनाया हुआ है. तालिबान को ये बात बख़ूबी पता है कि वो घरेलू, क्षेत्रीय अथवा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी गठबंधन का निर्माण रोककर ही सत्ता में बने रह सकते हैं. यही वजह है कि उन्होंने हमेशा बहुपक्षीय संवाद को ख़ारिज किया है, या फिर अनिच्छा से ही ऐसे कार्यक्रमों में शिरकत की है. इसके बजाय वो अपने नज़दीकी और दूर के पड़ोसी देशों और दुनिया के अन्य देशों के साथ हमेशा द्विपक्षीय बातचीत को ही तरज़ीह देने की कोशिश करते रहे हैं.
पिछले तीन वर्षों के दौरान अफ़ग़ानिस्तान के लिए न तो कोई आर्थिक ढांचा नियत किया गया है, न ही विकास के लिए कोई कार्यक्रम बनाया या लागू किया गया है. इसका नतीजा ये हुआ है कि हर गुज़रते दिन के साथ ग़रीबों और ज़िंदगी की जद्दोजहद करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है.
हालांकि, मुख्य बिंदु ये है कि पड़ोसी देशों की तालिबान के साथ जो समस्याएं हैं, वो एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं. अप्रवास, सीमाओं के आर-पार जल का बंटवारा, ड्रग्स की तस्करी, पर्यावरण, उग्रवादी समूह, सुरक्षा और अन्य सभी मसलों का असर पूरे क्षेत्र पर पड़ता है और सिर्फ़ द्विपक्षीय बातचीत से इनके व्यापाक समाधान नहीं निकाले जा सकते. इसीलिए, ऐसा लग रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान के दूर के पड़ोसी हों या पास के वो अपने मक़सद केवल साझा व्यवस्थाओं के ज़रिए ही हासिल कर सकेंगे.
शंघाई सहयोग संगठन (SCO) में अफ़ग़ानिस्तान के लगभग सारे ही पड़ोसी पूर्णकालिक सदस्य या फिर डायलॉग पार्टनर के तौर पर शामिल हैं. वैसे तो SCO के भीतर एक अफ़ग़ानिस्तान संपर्क समूह बनाया गया है. पर अब तक ये समूह ठीक तरह से अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह नहीं कर पाया है. इस संपर्क समूह में दोबारा जान डालकर पड़ोसी देशों की तरफ़ से सामूहिक रूप से तालिबान के सामने मांग पेश करने से निश्चित रूप से पिछले तीन वर्षों की तुलना में बेहतर नतीजे हासिल किए जा सकते हैं. शायद द्विपक्षीय बातचीत का दौर अब बीत चुका है और अब समय आ गया है कि अफ़ग़ानिस्तान के मसलों पर एक नए अध्याय की शुरुआत की जाए.
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