ये लेख हमारी श्रृंखला कंप्रिहेंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया एंड द वर्ल्ड का हिस्सा है.
भूमिगत कोयला गैसीकरण (UCG) की अब तक की सबसे पहली परियोजना गुजरात के सूरत में चलाई गई थी. तेल और प्राकृतिक गैस निगम लिमिटेड (ONGC) ने गुजरात उद्योग विद्युत कंपनी लिमिटेड (GIPCL) के साथ सहयोग करके इस क़वायद को अंजाम दिया. ONGC ने सूरत ज़िले के नानी नारोली में GIPCL के स्वामित्व वाले वास्टन माइन ब्लॉक को शोध और विकास से जुड़ी सबसे पहली परियोजना के लिए अपने मातहत लेकर इस कार्य को पूरा किया. राष्ट्रीय खनन अनुसंधान केंद्र- स्कोचिंस्की खनन संस्थान (NMRC-SIM), रूस के साथ सहयोग के ज़रिए भूमिगत कोयला गैसीकरण प्रौद्योगिकी की स्थापना के मक़सद से इस गतिविधि को पूरा किया गया. भारत में भूमिगत कोयला गैसीकरण के क्षेत्र में सेवाओं, कार्य संचालन, विकास और शोध के क्षेत्र में ONGC के साथ सहयोग से जुड़े समझौते (AOC) को मार्च 2020 तक विस्तार दिया गया था. ONGC और नेवेली लिग्नाइट निगम लिमिटेड (NLC) ने भूमिगत कोयला गैसीकरण के लिए मुनासिब स्थानों की तस्दीक़ से जुड़े अध्ययन के ज़रिए कई जगहों की पहचान की. इनमें गुजरात का ताड़केश्वर और राजस्थान के होडू-सिणधरी और पूर्वी कुर्ला शामिल हैं. ONGC और GMDC (गुजरात धातु विकास निगम लिमिटेड) ने संयुक्त रूप से गुजरात के भावनगर ज़िले के सुरखा में एक और स्थान की पहचान की थी. इन तमाम स्थलों से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण कर भूमिगत कोयला गैसीकरण के लिए इन जगहों की उपयुक्तता का मूल्यांकन किया गया. इसके बाद इन सभी निर्माण स्थलों को UCG की खुदाई के हिसाब से उपयुक्त पाया गया है. बहरहाल, भूमिगत कोयला गैसीकरण परियोजनाओं पर प्रगति की रफ़्तार सुस्त रही है, लेकिन क्या ये पूरी क़वायद भारत में कोयले को कार्बन रहित करने का विकल्प बन सकती है?
आंकड़ों का विश्लेषण कर भूमिगत कोयला गैसीकरण के लिए इन जगहों की उपयुक्तता का मूल्यांकन किया गया. इसके बाद इन सभी निर्माण स्थलों को UCG की खुदाई के हिसाब से उपयुक्त पाया गया है. बहरहाल, भूमिगत कोयला गैसीकरण परियोजनाओं पर प्रगति की रफ़्तार सुस्त रही है, लेकिन क्या ये पूरी क़वायद भारत में कोयले को कार्बन रहित करने का विकल्प बन सकती है?
बुनियादी प्रौद्योगिकी
भूमिगत कोयला गैसीकरण (UCG) के तहत कोयले की तह का यथास्थान दहन कर उपयोगी गैस का उत्पादन किया जाता है. इस प्रक्रिया में उन्हीं रासायनिक प्रतिक्रियाओं का प्रयोग किया जाता है जो सतह पर स्थित गैसीकरण संयंत्रों में देखने को मिलते है. दरअसल कोयले की तह में भाप और हवा (या ऑक्सीजन) को प्रवेश कराकर ये क़वायद पूरी की जाती है. इसके बाद इनका दहन कर गैसीकरण की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है. आमतौर पर गैसीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए 1000 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा तापमान की दरकार होती है. कोयले की प्रकृति, तापमान और दबाव के हिसाब से गैसीकरण के उत्पाद और उप-उत्पाद बदलते रहते है. हवा या ऑक्सीजन का इस्तेमाल किए जाने या नहीं किए जाने का भी इसपर असर पड़ता है. इनसे निर्मित गैसों में (सिंथेटिक गैस या सिनगैस) प्रमुख रूप से कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), हाइड्रोजन (H2), मिथेन (CH4) और अल्प मात्रा में हाइड्रोजन सल्फ़ाइड (H2S) और कुछ ऊंचे परमाणु भार वाले पायरोलिसिस उत्पाद शामिल होते है. इस्तेमाल चाहे कुछ भी हों, लेकिन सिनगैस को वाणिज्यिक तौर पर मौजूद प्रौद्योगिकियों के ज़रिए साफ़ करना ज़रूरी होता है. ऐसा करके उनसे अशुद्ध कण बाहर निकाले जाते हैं और उन्हें इस्तेमाल लायक़ बनाया जा सकता है. इनमें तारकोल के साथ-साथ हाइड्रोजन सल्फ़ाइड और कार्बोनिल सल्फ़ाइड (COS)जैसे सल्फ़र घटक शामिल है.
भूमिगत कोयला गैसीकरण के उत्पाद
बिजली
UCG से प्राप्त गर्म सिनगैस को भाप बनाने के लिए प्रयोग में लाकर वाष्प चक्की को संचालित किया जा सकता है. यही चक्की बिजली पैदा करती है. वैकल्पिक तौर पर इसे प्रज्जवलित कर विद्युत चक्की को चलाने के लिए भाप पैदा की जा सकती है. सिनगैस को सीधे तौर पर ईंधन सेल में भी प्रवाहित किया जा सकता है. ये सेल, कार्बन डाइऑक्साइड झेलकर कम वोल्टेज वाली बिजली पैदा कर सकती है. इस विद्युत ऊर्जा को उन्नत कर उसे ग्रिड के साथ जोड़ा जा सकता है.
फ़िशर-ट्रॉप्स प्रक्रिया के इस्तेमाल से मिथेनॉल, हाइड्रोजन, अमोनिया और अन्य रासायनिक उत्पाद तैयार किए जा सकते है. भारत के केंद्रीय खनन और ईंधन शोध संस्थान (CIMFR) ने भूमिगत कोयला गैसीकरण क्रियाओं के ज़रिए तैयार गैस के संभावित उत्पादों के तौर पर मिथेनॉल और तरल पेट्रोलियम गैस (LPG) की पहचान की है.
रासायनिक फ़ीडस्टॉक
हाइड्रोजन और कार्बन डाइऑक्साइड अनुपात को सटीकता के साथ संतुलित करने के बाद सिनगैस को रासायनिक फ़ीडस्टॉक (कच्चे माल) के तौर पर भी प्रयोग में लाया जा सकता है. फ़िशर-ट्रॉप्स प्रक्रिया के इस्तेमाल से मिथेनॉल, हाइड्रोजन, अमोनिया और अन्य रासायनिक उत्पाद तैयार किए जा सकते है. भारत के केंद्रीय खनन और ईंधन शोध संस्थान (CIMFR) ने भूमिगत कोयला गैसीकरण क्रियाओं के ज़रिए तैयार गैस के संभावित उत्पादों के तौर पर मिथेनॉल और तरल पेट्रोलियम गैस (LPG) की पहचान की है. अपनी सबसे पहली UCG परियोजना के ज़रिए CIMFR रोज़ाना 5 लीटर सिनगैस पैदा कर रहा है. साथ ही वो अपने मिथेनॉल रेक्टिफ़ायर में 1.5 टन कोयले को मिथेनॉल में तब्दील कर रहा है.
हाइड्रोजन का उत्पादन
दरअसल कोयला, हाइड्रोजन का स्वाभाविक स्रोत है और संभावित रूप से हाइड्रोजन, भविष्य के लिए शून्य के क़रीब कार्बन उत्सर्जन करने वाला ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण वाहक है. इसी बात से भूमिगत कोयला गैसीकरण के पक्ष में एक मज़बूत दलील बन जाती है. हाइड्रोजन उत्पादक के रूप में ठोस ऑक्साइड ईंधन सेल (SOFC) से जुड़े UCG (जो सीधे विद्युत शक्ति का निर्माण करते है) का भारतीय विशेषज्ञों ने अध्ययन किया है. ठोस ऑक्साइड ईंधन सेल के साथ एकीकरण दो विशिष्ट फ़ायदे देते है: (1) ठोस ऑक्साइड ईंधन सेल से निकले एनोड एक्सहॉस्ट (जिनमें ऊंचा कार्यकारी तापमान होता है) को UCG के संचालन के लिए ज़रूरी भाप का उत्पादन करने में प्रयोग किया जाता है. इसके साथ ही SOFC के लिए सिनगैस के संशोधन में भी इसे इस्तेमाल में लाया जाता है. (2) ठोस ऑक्साइड ईंधन सेल हवा से ऑक्सीजन का अवशोषण करने वाले चयनित अवशोषक के तौर पर भी काम कर सकता है. इस तरह भूमिगत कोयले से कार्बन-तटस्थ विद्युत शक्ति निर्माण की दक्ष प्रणाली का काम लिया जा सकता है. एकीकृत प्रणाली के थर्मोडायनेमिक विश्लेषण से पारंपरिक संयुक्त चक्रीय संयंत्र के मुक़ाबले शुद्ध ताप दक्षता में भारी सुधार का पता चला है.
मुनाफ़े
ऊर्जा में आत्मनिर्भरता
भारतीय कोयले के महज़ एक छोटे से हिस्से का भूमिगत तौर पर खनन होता है, जबकि बाक़ी के ज़्यादातर हिस्से का खुले-खदानों के ज़रिए खनन किया जाता है. कोयले के बड़े भंडार 300 मीटर से ज़्यादा की गहराइयों पर उपलब्ध है, जो खनन की पारंपरिक प्रौद्योगिकियों के हिसाब से कम उपयुक्त हैं. ऐसे में काग़ज़ पर कोयले के बड़े भंडार होने के बावजूद कोयले का उपलब्ध भंडार सीमित हो जाता है. भारतीय कोयले को 'खनन के हिसाब से प्रतिकूल' माना जाता था, क्योंकि वो पुराने और मौलिक जंगली भू-भागों के मातहत था. ये काफ़ी गहराई पर, निम्न दर्जे का या तंग सतहों वाला था. इसे गैसीकरण किया जा सकता है जिससे कोयला भंडार की उपलब्धता ज़बरदस्त रूप से बढ़ जाती है. भारत के पास लिग्नाइट के भी बड़े भंडार जमा हैं. हालांकि निम्न ऊर्जा तत्व के चलते आर्थिक रूप से इसका खनन मुनाफ़े का सौदा नहीं होता. 2006 के अनुमानों के मुताबिक मध्यवर्ती गहराई में स्थित निम्न दर्जे वाले भारतीय कोयले के तक़रीबन 66 प्रतिशत हिस्से को भूमिगत स्तर पर गैसीकृत करके सिंथेटिक प्राकृतिक गैस, मिथेनॉल, पेट्रोल, डीज़ल और हाइड्रोजन तैयार किए सकते हैं. साथ ही उर्वरक उत्पादन के लिए कच्चे माल के तौर पर भी प्रयोग में लाया जा सकता है.
उत्सर्जन में कमी
भारतीय कोयले में राख की ऊंची मौजूदगी से कार्यकारी चुनौती पेश आती है. इस वजह से घरेलू तौर पर खनित किए गए कोयले के सतही उपकरणों (जैसे गैसीफ़ायर्स और बॉयलर्स) में इस्तेमाल कठिन हो जाता है. भूमिगत कोयला गैसीकरण में गहन राख वाले कोयले से ताप मूल्य हासिल करने की अनोखी क्षमता मौजूद है. इसके लिए सतह पर कोयले के आवागमन की आवश्यकता नहीं होती, जिससे लागत घट जाती है. साथ ही रेल (या ट्रकों) के ज़रिए कोयले के परिवहन से जुड़े स्थानीय प्रदूषणकारी कारकों में भी कमी आती है. इस क़वायद से कोयले के भंडारण से जुड़े प्रदूषण में भी गिरावट आती है. चूंकि भूमिगत कोयला गैसीकरण से पारंपरिक कोयला खनन की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, लिहाज़ा कार्यकारी लागत और सतही नुक़सान भी घट जाती है. खदान ढहने और दम घुटने से जुड़े हादसों की आशंका मिट जाने से खदान सुरक्षा में बढ़ोतरी होती है. भूमिगत कोयला गैसीकरण के लिए किसी भी तरह की सतही गैसीकरण प्रणालियों की दरकार नहीं होती, लिहाज़ा इसकी पूंजीगत लागत नीची होती है. इससे भी अहम बात ये है कि भूमिगत तौर पर कार्बन डाइऑक्साइड को अलग करने और दोबारा समाहित करने की प्रक्रिया भारी मुनाफ़े का सबब साबित हो सकती है. इससे बिजली की बढ़ती मांग को ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन से अलग किया जा सकता है. कार्बन रहित ऊर्जा संवाहक के तौर पर हाइड्रोजन में दिलचस्पी बढ़ती जा रही है. ऐसे में भूमिगत कोयला गैसीकरण से जुड़े विकल्प का चुनाव और जायज़ लगने लगा है.
भूमिगत कोयला गैसीकरण के लिए किसी भी तरह की सतही गैसीकरण प्रणालियों की दरकार नहीं होती, लिहाज़ा इसकी पूंजीगत लागत नीची होती है. इससे भी अहम बात ये है कि भूमिगत तौर पर कार्बन डाइऑक्साइड को अलग करने और दोबारा समाहित करने की प्रक्रिया भारी मुनाफ़े का सबब साबित हो सकती है.
कार्बन प्रबंधन
ग्रीन हाउस गैसों (GHGs) (मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड) में कमी लाने के लिए कार्बन कैप्चर, इस्तेमाल और भंडारण (CCUS) की क़वायद प्रौद्योगिकी के एक प्रमुख घटक के तौर पर उभरकर सामने आई है. इसके लिए मुख्य रूप से भूगर्भीय ज़ब्ती का प्रयोग किया जाता है. जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC) की रिपोर्ट से भी यह बात सामने आई है. भूगर्भीय कार्बन भंडारण (GCS); कार्बन कैप्चर, इस्तेमाल और भंडारण से मिलती-जुलती प्रक्रिया है. प्रतिक्रिया क्षेत्र में भूमिगत कोयला गैसीकरण प्रक्रिया के ज़रिए खाली जगह में CO2 के भंडारण में अनेक फ़ायदे हैं: (1) भूमिगत कोयला गैसीकरण की प्रक्रिया खदानों के बीच अपेक्षाकृत बड़ी सुराख (चौड़ाई में क़रीब 5-8 मीटर तक) तैयार करती है. 300 मीटर के दायरे वाले कुओं में एक इकलौते प्रज्ज्वलन से 6000-15000 घन मीटर का खाली स्थान तैयार हो सकता है, जिसमें 8000 टन कार्बन डाइऑक्साइड का भंडारण हो सकता है. (2) CO2 डिलीवरी और समुचित भराव और परित्याग के लिए उत्पादन और प्रच्छेदन से जुड़े कुएं उपलब्ध है. इससे कार्बन कैप्चर, इस्तेमाल और भंडारण की लागत में भारी गिरावट आ जाएगी क्योंकि इस पूरी क़वायद की लागत का 40-60 फ़ीसदी हिस्सा इन्हीं कुओं पर ख़र्च होता है. (3) कार्बन डाइऑक्साइड के प्रति कोयले की भौतिक प्रतिक्रिया से ज़ब्ती की कार्रवाई को बढ़ावा मिल सकता है. गैसीकरण के लिए ऑक्सीजन का प्रयोग किए जाने पर पानी-गैस बदलने वाले रिएक्टर्स (कार्बन डाइऑक्साइड और हाइड्रोजन पैदा करने के लिए भाप के साथ कार्बन मोनो ऑक्साइड की प्रतिक्रिया) समूचे कार्बन मोनोऑक्साइड को कार्बन डाइऑक्साइड में बदल देते हैं. अनेक उपलब्ध प्रौद्योगिकियों के ज़रिए CO2 को इससे आसानी से हटाया जा सकता है. कार्बन डाइऑक्साइड को गहरे खारे जलाशयों, खाली हो चुके गैस क्षेत्रों और तेल के सक्रिय कुओं में भंडारित किया जा सकता है. साथ ही खाली पड़ चुके और खनन के लायक़ नहीं रह गए कोयला सतहों में भी इसे संजोकर रखा जा सकता है. अक्सर ये सारे तत्व भूमिगत कोयला गैसीकरण के लिए चुने गए कोयला तहों के पास ही पाए जाते हैं. लिहाज़ा कार्बन प्रबंधन के लिए भूमिगत कोयला गैसीकरण और कार्बन कैप्चर, इस्तेमाल और भंडारण का मिश्रण एक आकर्षक विकल्प बन जाता है. चूंकि कार्बन डाइऑक्साइड की मौजूदगी में कोयला फैलने लगता है और ढालने योग्य अवस्था में आ जाता है, लिहाज़ा वहां मौजूद दरारों और छिद्रों को तेज़ी से भरा जा सकता है. इसके चलते CO2 के संभावित प्रसार को गतिहीन कर उनकी शक्ति घटाई जा सकती है.
जोख़िम
धसान को आमंत्रण
भूमिगत कोयला गैसीकरण के चलते पैदा रिक्त स्थानों से बचे हुए कोयले और आसपास की चट्टानों में ज़बरदस्त विकृति आ सकती है. तापमान बढ़ने, ठंडा होने, जल प्रवाह के साथ-साथ छत और दीवारों के संभावित विघटन से उन दरारों की अखंडता पर गंभीर प्रभाव पड़ सकते हैं. इन घटनाओं का पूर्वानुमान लगाना कठिन होता है. आम तौर पर दरारों के किनारे अंदर की ओर आगे बढ़ते हैं, फ़र्श ऊपर की ओर बढ़ती है और छत नीचे की ओर आती है, जिसे धसान कहा जाता है. धसान का आकार और स्वरूप कई कारकों पर निर्भर करता है. इनमें तलहटी की गहराई (मोटाई और अतिभार), चट्टान की प्रभावी कठोरता और उत्पाद शक्ति शामिल हैं. इन घटनाओं के पूर्वानुमान त्रुटिपूर्ण हो सकते हैं क्योंकि कई चट्टानें तनाव और खिंचाव का विषम रुख़ प्रदर्शित करती हैं.
भूमिगत जल में मिलावट
भूमिगत कोयला गैसीकरण से जुड़े कार्य-संचालनों को गैसीकरण के सतही उपकरणों की तरह नियंत्रित नहीं किया जा सकता. इसके चलते दरारों में ऊंचे तापमान और दबाव का जोख़िम पैदा हो जाता है. UCG में मौजूद कुछ कोयलों में भूगर्भिक या जलीय विशेषताएं हो सकती हैं. इससे पर्यावरणीय जोख़िम अस्वीकार्य स्तरों तक बढ़ जाते है. भूमिगत कोयला गैसीकरण की पूर्ण-स्तरीय क़वायद का व्यापक प्रतिक्रिया क्षेत्र भूमिगत जल के लिए एक सघन दबाव परिक्षेत्र तैयार कर सकता है. इसके चलते प्रज्ज्वलन क्षेत्र से दूर हटने की बजाए उसकी ओर प्रवाह वाली परिस्थितियां पैदा हो सकती है. चूंकि भूमिगत कोयला गैसीकरण एक उच्च-तापमान और उच्च-दबाव वाली प्रक्रिया है, ऐसे में प्रज्ज्वलित दरारों से विषैले प्राकृतिक घटकों के निर्माण और प्रसार का नतीजा सामने आएगा. भले ही गैसीकरण के लिए किसी भी प्रकार का कोयले इस्तेमाल में लाया जाए, लेकिन यही नतीजा देखने को मिलेगा. दहन क्षेत्र बरक़रार रखने के लिए भूमिगत कोयला गैसीकरण के गहरे अड्डों को ऊंचे दबाव और तापमान का इस्तेमाल करना होता है. इससे क्षेत्रीय भूजल में बाह्य प्रवाह का जोख़िम बढ़ जाता है. कार्बन कैप्चर, इस्तेमाल और भंडारण के लिए भूमिगत कोयला गैसीकरण से जुड़े स्थान के प्रयोग से कई प्रदूषकों की गतिशीलता बढ़ सकती है. आम तौर पर प्राकृतिक तत्वों के कार्बन डाइऑक्साइड में काफ़ी घुलनशील होने और धातु के अम्लीय जलयुक्त वातावरणों में इकट्ठा होने के चलते ऐसे हालात बनते है. भूमिगत जल के प्रवाह की दिशा को दरार से दूर हटने की बजाए उसकी ओर बरक़रार रखने से घुलनशील प्रदूषकों की गतिशीलता को काफ़ी हद तक घटाया जा सकता है.
अर्थशास्त्र
भूमिगत कोयला गैसीकरण पर आधारित बिजली संयंत्रों का अर्थशास्त्र तैयार रूप से उपलब्ध नहीं है क्योंकि पश्चिमी जगत में कोई भी बिजली संयंत्र क्रियाशील नहीं हैं. दूसरी ओर चीन और रूस में संचालित संयंत्रों के लागत अनुमानों को हासिल कर पाना भी एक मुश्किल सबब है. आम तौर पर एक UCG-आधारित बिजली संयंत्र, एकीकृत गैसीकरण संयुक्त चक्र (IGCC) बिजली संयंत्र से काफ़ी मिलता-जुलता (सतह पर स्थित गैसीकरण उपकरण को छोड़कर) होता है. भूमिगत कोयला गैसीकरण संयंत्र को गैसों की सफ़ाई करने वाले बेहद छोटे उपकरणों की भी दरकार होती है. इसकी वजह ये है कि भूमिगत कोयला गैसीकरण पर आधारित सिनगैस में तारकोल और राख का हिस्सा सतही गैसीकरण उपकरणों की तुलना में बेहद कम होता है. इन कारकों के चलते भूमिगत कोयला गैसीकरण आधारित बिजली संयंत्रों को IGCC संयंत्रों और अत्यंत नाज़ुक चूर्णित कोयला (SCPC) संयंत्रों के मुक़ाबले भारी आर्थिक बढ़त मिल जाती है. आकलनों में एक UCG बिजली संयंत्र की लागत को SCPC या IGCC संयंत्रों की तुलना में तक़रीबन आधा पाया गया है. साथ ही भूमिगत कोयले का गैसीकरण करने वाले संयंत्र से तैयार बिजली की लागत IGCC या SCPC संयंत्र की तुलना में क़रीब-क़रीब एक चौथाई बताई गई है.
कुल मिलाकर भूमिगत कोयला गैसीकरण से रणनीतिक फ़ायदे जुड़े हैं. इनमें घरेलू स्रोत का इस्तेमाल शामिल है, जो ऊर्जा सुरक्षा देने के साथ-साथ वैकल्पिक स्वच्छ प्रौद्योगिकियों की तुलना में लागत प्रतिस्पर्धा मुहैया कराते हैं. साथ ही भारत में सीमित भू संसाधनों की मांग भी कम रहती है.
भूमिगत कोयला गैसीकरण के अर्थशास्त्र में बड़ी अनिश्चितताएं होती हैं, जिनके आगे भी बरक़रार रहने की आशंका है. निहित रूप से UCG एक ‘अस्थिर’ पारिस्थितिक प्रक्रिया है, ऐसे में प्रवाह दर के साथ-साथ उत्पादित गैस का ताप मूल्य, समय के हिसाब से बदलता रहेगा. किसी भी कार्यशील संयंत्र को निश्चित रूप से इन कारकों को मद्देनज़र रखना चाहिए. प्रक्रिया से जुड़े कई अहम चर तत्वों का तापमान और उत्पादित गैस की गुणवत्ता के साथ-साथ उसके परिमाण की माप के ज़रिए ही आकलन किया जा सकता है. इनमें जल प्रवाह की दर, गैसीकरण क्षेत्र में प्रति कारकों का वितरण और दरार की वृद्धि दर शामिल है. निर्मित गैस की गुणवत्ता और मात्रा में बदलावों का परियोजना से जुड़े अर्थशास्त्र पर भारी प्रभाव पड़ेगा. दूसरी ओर भूमिगत कोयला गैसीकरण परियोजनाओं का पूंजीगत व्यय उसके समकक्ष सतही गैसीकरण इकाइयों के मुक़ाबले काफ़ी कम हो सकता है क्योंकि UCG में गैसीकरण इकाई की ख़रीद की दरकार नहीं होती. कोयला खनन, कोयला परिवहन और राख प्रबंधन पर कार्यकारी व्यय भी भूमिगत कोयला गैसीकरण में काफ़ी घट जाता है. भारी पर्यावरणीय निगरानी और सुरक्षा सहूलियतों वाली परियोजनाओं के पैमाने पर भी UCG संयंत्रों ने अपनी आर्थिक बढ़त क़ायम रखी है.
कुल मिलाकर भूमिगत कोयला गैसीकरण से रणनीतिक फ़ायदे जुड़े हैं. इनमें घरेलू स्रोत का इस्तेमाल शामिल है, जो ऊर्जा सुरक्षा देने के साथ-साथ वैकल्पिक स्वच्छ प्रौद्योगिकियों की तुलना में लागत प्रतिस्पर्धा मुहैया कराते हैं. साथ ही भारत में सीमित भू संसाधनों की मांग भी कम रहती है. हालांकि इस पूरी प्रक्रिया के साथ पर्यावरणीय और भूगर्भीय तौर पर भारी-भरकम जोख़िम भी जुड़े होते हैं. भारत के हिसाब से सही विकल्प चुनने के लिए UCG के लागतों और मुनाफ़ों का सतर्कता पूर्ण विश्लेषण किए जाने की दरकार होगी. इसके लिए विस्तृत पायलट परियोजनाओं का सहारा लेना होगा.
स्रोत: ए के सिंह, भारत में भूमिगत कोयला गैसीकरण, केंद्रीय खनन अनुसंधान संस्थान, धनबाद
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