जैसा कि यूक्रेन संकट एक गंभीर दौर में प्रवेश कर चुका है, यूरोप और एशिया के ज़्यादातर मध्यम और महान शक्तियां या तो किसी अप्रत्याशित घटना के लिए तैयारी कर रही है या फिर यूक्रेन से उठने वाली आग की लपटों को बुझाने की कोशिशों में मध्यस्थता करने में जुटी हुई है. हाल ही में अमेरिका द्वारा यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के संभावित ख़तरे को लेकर यूएनएससी की बैठक बुलाई तो उसी समय रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन को लेकर अपने सख़्त रुख़ को सुनिश्चित करने के लिए बीजिंग की यात्रा कर रहे थे, ऐसे में अधिकांश मुल्क ख़ुद को एक तरफ या तो पूर्वी यूरोप में उभरती हुई युद्ध की संभावनाओं के साथ दूसरी ओर पाते हैं. हालांकि, भारत ने ऐसी रणनीतिक उलझन से परहेज़ किया है.
यूएनएससी की बैठक में भारत ने गैबॉन और केन्या के साथ भागीदारी नहीं की और इससे उस धारणा को दरकिनार किया कि भारत रूस के ख़िलाफ़ अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन का समर्थन कर रहा है.
यूएनएससी की बैठक में भारत ने गैबॉन और केन्या के साथ भागीदारी नहीं की और इससे उस धारणा को दरकिनार किया कि भारत रूस के ख़िलाफ़ अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन का समर्थन कर रहा है. उसी तरह भारत ने बीजिंग ओलंपिक से भी ख़ुद को दूर कर लिया, जिसे कई मायनों में अमेरिका विरोधी होने के साथ-साथ पश्चिम विरोधी भी माना जा रहा है. ये दो निर्णय नई दिल्ली पर दुनिया के ताक़तवर देशों की राजनीति की मज़बूरियों के साथ-साथ उनके हितों के दो अलग-अलग आय़ाम बताते हैं. कुछ लोगों ने यूएनएससी की बैठक से भारत की अनुपस्थिति को अमेरिका के साथ इसकी निकटता की सीमाओं को बताने के तौर पर किया (रूस के लिए एक मौन समर्थन के साथ), जबकि भारत का बीजिंग ओलंपिक के बहिष्कार का फैसला देश की रणनीतिक स्वायत्तता का संकेत देती है जिसकी ख़ासियत यह है कि यह मज़बूत, स्वतंत्र और दुनिया की बड़ी शक्तियों की राजनीति और उन्हें नाराज़ करने के जोख़िम से अलग है. भारत के लिए यूक्रेन संकट पर सावधानी से आगे बढ़ना ख़ास तौर पर तीन सामरिक ज़रूरतों को संतुलित करने जैसा है: अमेरिका में एक करीबी रणनीतिक साझेदार की अपेक्षाएं; मॉस्को के साथ मज़बूत संबंध बनाए रखने की ज़रूरत और; उभरती हुई चीन-रूसी धुरी के साथ किसी भी निकटता की धारणा को ख़त्म करना है. इन्हें एक साथ देखने पर यही लगता है कि ये तीन मज़बूरियां मौजूदा समय में भारत की चुनौतियों की कहानी बयां करती हैं और यह बताती हैं कि भारत को अपनी पारंपरिक रणनीतिक स्वायत्तता के लिए एक समावेशी नीति की ज़रूरत है जिससे ऐसी स्थितियों में संतुलन और बचाव को प्रभावित किया जा सके.
भारत का यह बयान देना कि वह यूक्रेन में स्थितियों पर नज़र बनाए हुए है, जिसमें अमेरिका और रूस के बीच कूटनीतिक प्रयासों के जरिए लंबे समय के लिए शांति और स्थिरता को देखते हुए शांतिपूर्ण समाधान की अपील करना भी शामिल है, दोनों देशों के बीच भारत द्वारा संतुलन स्थापित करने की कोशिश को ही दिखाता है. कुछ मायनों में, विश्व की बड़ी शक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता से दूर रहने की नीति यूक्रेन संकट पर भारत की बेहतर ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ की याद दिलाती है. फिर भी कीव में अपने दूतावास के माध्यम से यूक्रेन संकट पर नज़र रखने की बात इस धारणा के जोख़िम को कि भारत एक या दूसरे मुल्क का समर्थन करता है उसे कम करता है, और यह नई दिल्ली के संतुलन का व्यावहारिक पक्ष दिखाता है.
कुछ मायनों में, विश्व की बड़ी शक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता से दूर रहने की नीति यूक्रेन संकट पर भारत की बेहतर ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ की याद दिलाती है.
भारत के पास मौजूद विकल्प
यूक्रेन को लेकर भारत के विकल्प भौगोलिक रूप से यूरेशियाई रणनीतिक मुद्दों और भारत के अहम राष्ट्रीय हितों के बीच की दूरी का प्रतीक हो सकती है, मध्य एशिया में इसकी बढ़ती भूमिका और यूरोप के साथ बढ़ते जुड़ाव इसकी इस क्षेत्र को लेकर अब तक की विदेश नीति के ख़िलाफ़ मज़बूरियों को बयां कर रही है. भारत की अपनी व्यापक होती भूमिका और आकांक्षाओं के साथ भारत के निर्णय लेने में दबाव को भविष्य में देखा जा सकता है, ख़ासकर जब विकल्प एक तरफ अमेरिका के साथ “व्यापक वैश्विक रणनीतिक साझेदारी” और रूस के साथ इसके “ख़ास और विशेषाधिकार साझेदारी” के बीच हो. भारत के साथ चीन का सीधा संघर्ष और इसकी लगातार बढ़ती दुश्मनी इसे भारत की ताक़तवर होती शक्तियों के बीच एक सापेक्षिक रूप से चिह्नित करती है जहां चीन पर कारोबारी निर्भरता के बावजूद, बीजिंग के मुक़ाबले भारत की अन्य दो महान शक्तियों के मुकाबले स्पष्ट है. सीमा पर चीनी आक्रमकता और भारतीय हितों के ख़िलाफ़ उसकी कार्रवाई ने चीन को लेकर भारत की द्विपक्षीय और बहुपक्षीय स्तर पर भारत की नीतियों में स्पष्टता प्रदान की है.
भविष्य में भी भारत की कूटनीतिक संतुलन बनाने को लेकर रणनीतिक विकल्पों में ऐसे दबाव दिख सकते हैं. भारत के राष्ट्रीय हितों को लेकर मुद्दे कैसे तय होते हैं इस पर यह निर्भर करेगा और इसी वजह से अमेरिका और रूस के बीच भारतीय कूटनीतिक समर्थन किस तरफ जाएगा यह भी प्रभावित हो सकता है. एलएसी पर भारत के साथ सीधे टकराव और दक्षिण एशिया समेत हिंद-प्रशांत में चीन के विस्तारवादी एजेंडे के चलते भारत की कूटनीतिक नीतियों में चीन गैर हो सकता है. मोटे तौर पर, भारत उस एशियाई भविष्य का हिस्सा नहीं बनना चाहता है जिसका नेतृत्व चीन कर रहा है.
भारत के राष्ट्रीय हितों को लेकर मुद्दे कैसे तय होते हैं इस पर यह निर्भर करेगा और इसी वजह से अमेरिका और रूस के बीच भारतीय कूटनीतिक समर्थन किस तरफ जाएगा यह भी प्रभावित हो सकता है.
जहां तक भारत-रूस संबंधों की बात है तो नई दिल्ली और मॉस्को दोनों एक दूसरे के साथ मज़बूत द्विपक्षीय संबंध साझा करते हैं और दोनों मुल्कों को एक दूसरे के ख़िलाफ़ बचाव के लिए मज़बूत बाहरी ताक़तें भी मौजूद हैं. पिछले एक दशक में ऐसी बाहरी ताक़तें काफी मज़बूत हुई हैं क्योंकि भारत की भागीदारी और हित में बदलाव हुआ है और रूस पूर्व और पश्चिम के बीच सत्ता संतुलन के बदलाव के बीच ख़ुद को पुनर्स्थापित करने की कोशिशों में जुटा हुआ है. अगर अमेरिका के साथ भारत के मज़बूत संबंध रूस को कयास लगाने पर मज़बूर करते हैं, तो रूस ने भी चीन के साथ मज़बूत संबंध बनाकर और कभी-कभी पाकिस्तान के साथ संबंधों के संकेत देकर अपनी आशंकाओं को कम करने की कोशिश की है.
कश्मीर का मसला
हाल के कुछ विवाद और कुछ मिलेजुले संकेतों के बावजूद, कश्मीर मुद्दे पर रूस हमेशा से भारत का समर्थन करता रहा है. भारत बहुपक्षीय स्तर पर रूस के समर्थन को महत्व देता है ख़ास कर उन बहुपक्षीय समूहों में भी जिनका चीन हिस्सा है, जैसे ब्रिक्स और एससीओ की बात आती है. व्यापक बहुपक्षीय समूहों जैसे संयुक्त राष्ट्र में भी रूस की स्थायी सदस्यता भारत के पक्ष में उपयोगी साबित हुआ है. हालांकि, यूक्रेन के तत्काल संकट को लेकर, रूस के डिप्टी विदेश मंत्री (जिन्होंने यूक्रेन संकट को लेकर अमेरिका के साथ कूटनीतिक वार्ता का नेतृत्व किया था) ने भारत का दौरा किया था, वो भी ठीक उस वक़्त जब यूएनएससी की अध्यक्षता रूस के हाथों थी. यह कूटनीतिक कोशिश ऑस्ट्रेलिया में आने वाले क्वॉड मंत्रियों की बैठक में भारत पर संभावित अमेरिकी दबाव को ध्यान में रखते हुए किया गया था.
जैसा कि अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकन, एशिया के दौरे पर थे, उनका 9 से 12 फरवरी के बीच ऑस्ट्रेलिया की यात्रा अन्य क्वॉड सदस्यों के साथ दुनिया भर में वैश्विक प्राथमिकताओं और अस्थिरताओं पर चर्चा करने के लिए एक अहम मौका था. हालांकि, क्वॉड को एशियाई नाटो के रूप में देखना एक दूरगामी विचार के रूप में पहले ही ख़ारिज़ किया जा चुका है, ऐसे में यह समूह के विस्तार होते एज़ेंडे के साथ-साथ एक दूसरे को समर्थन का भरोसा देने के लिए चीन के ख़िलाफ़ एशिया-प्रशांत मोर्चे को मज़बूत करने के लिए विकल्प दे सकता है, जबकि यूक्रेन के यूरेशियन मोर्चे पर संभावित रूसी आक्रमण के ख़िलाफ़ अमेरिका जुटा हुआ है.
अमेरिका के उप विदेश मंत्री, वेंडी शेरमेन की पिछले महीने यूक्रेन की सीमाओं पर रूस के सैन्य निर्माण के संबंध में चर्चा इस बात का सबूत है कि एक मज़बूत रणनीतिक साझेदार के रूप में, अमेरिका वैश्विक शांति और सुरक्षा के लिए ज़्यादातर मुद्दों पर भारत पर कूटनीतिक दबाव बनाए रख सकताहै
अमेरिका के उप विदेश मंत्री, वेंडी शेरमेन की पिछले महीने यूक्रेन की सीमाओं पर रूस के सैन्य निर्माण के संबंध में चर्चा इस बात का सबूत है कि एक मज़बूत रणनीतिक साझेदार के रूप में, अमेरिका वैश्विक शांति और सुरक्षा के लिए ज़्यादातर मुद्दों पर भारत पर कूटनीतिक दबाव बनाए रख सकता है. चूंकि अमेरिकी कांग्रेस “डिफेंडिंग यूक्रेन सोविरेन्टी एक्ट 2022” या “सभी प्रतिबंधों की जननी” पर बहुपक्षीय सहमति चाहती है, भारत इस बात से सावधान रहेगा कि इस बिल के तहत पाबंदियों की सूची के चलते रूस के साथ उसके रक्षा व्यापार और दूसरी साझेदारी कैसे प्रभावित हो सकती है. यूक्रेन-रूस तनाव को देखते हुए यह इस बात को भी प्रभावित कर सकता है कि बाइडेन प्रशासन अमेरिकी कांग्रेस में भारतीय समर्थन के बावजूद पिछले साल रूस के साथ हुए समझौते के बाद शुरू हुई एस-400 ट्रायम्फ़ सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल रक्षा प्रणाली की आपूर्ति पर क्या कहता है. ख़ास कर अगर यूक्रेन पर रूस हमला करता है तो भारत को अमेरिका से कूटनीतिक हमले के लिए तैयार रहना चाहिए और अपने सहयोगियों से रूस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करने के लिए कहना चाहिए.
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