कोविड-19 महामारी से जुड़ी मौतों का मॉडल तैयार करने के लिए, इंस्टीट्यूट ऑफ़ हेल्थ मेट्रिक्स ऐंड इवैल्यूएशन (IHME) ने 191 देशों में महामारी से साल 2020 और 2021 में अतिरिक्त मौतों का एक आकलन पेश किया है, जिसमें भारत भी शामिल है. इस रिसर्च के नतीजे हाल ही में द लांसेट में प्रकाशित किए गए थे. इस वैश्विक अध्ययन के भारतीय हिस्से को मोटे तौर पर अतिरिक्त मौतों के ज़मीनी आंकड़ों के आधार पर- यानी महामारी वाले वर्षों के दौरान अनुमानित मौतों और महामारी के पहले के हाल के वर्षों के दौरान अन्य ‘अनुमानित मौतों’ के 12 भारतीय राज्यों के आंकड़ों में फ़र्क़ के आधार पर तैयार किया गया है. ये ज़्यादातर आंकड़े 2020 और 2021 में औसत से ज़्यादा मौतों पर आधारित हैं. ये रिसर्च करने वालों का ये भी दावा है कि वैसे तो 1 जनवरी 2020 से 31 दिसंबर 2021 के दौरान, दुनिया भर में कोविड-19 से 59 लाख मौतों की जानकारी पता है. मगर, इस दौरान औसत से ‘ज़्यादा’ मौतों की वास्तविक संख्या क़रीब क़रीब 1.82 करोड़ है. इस अध्ययन के अनुसार कोविड-19 और उससे जुड़ी अन्य अतिरिक्त मौतें सबसे ज़्यादा भारत में (41 लाख) ही हुई हैं और इस तरह से अप्रत्यक्ष रूप से इन मौतों को कोविड-19 से जोड़कर, इस अध्ययन में दोहराया गया है कि भारत में कोविड-19 महामारी से मौतों का ये आंकड़ा आधिकारिक संख्या से आठ गुना अधिक है.
वैसे तो दुनिया में कोरोना महामारी से वास्तविक मौतों का अंदाज़ा लगाने की अन्य कई कोशिशें भी हुई हैं. लेकिन, दुनिया में कोविड-19 महामारी से हुई अधिक मौतों का समकक्ष विशेषज्ञों द्वारा प्रतिष्ठित पत्रिका में पहला अनुमान लगाने की होड़ लगी हुई थी
निष्कर्षों पर सवालिया निशान
वैसे तो दुनिया में कोरोना महामारी से वास्तविक मौतों का अंदाज़ा लगाने की अन्य कई कोशिशें भी हुई हैं. लेकिन, दुनिया में कोविड-19 महामारी से हुई अधिक मौतों का समकक्ष विशेषज्ञों द्वारा प्रतिष्ठित पत्रिका में पहला अनुमान लगाने की होड़ लगी हुई थी. IHME की टीम ने वो मुक़ाबला तो जीत लिया है. हालांकि, उनकी समीक्षा के इस अनुमान पर कई सवाल खड़े होते हैं. पहला तो ये कि कोई भी आकलन उतना ही अच्छा होता है, जितनी बेहतर गुणवत्ता के आंकड़े उपलब्ध होते हैं, किस तरह किसी मॉडल में अनिश्चितता को जगह दी जाती है और किस हिसाब से अनुमान लगाए जाते हैं. दूसरी बात, महामारी के दौरान जिन मौतों के लिए कोविड-19 को ज़िम्मेदार ठहराया गया था और कोविड-19 व अन्य मौतों के आंकड़े को अलग किया गया था, उनमें कई तरह की दिक़्क़तें पेश आई थीं. तीसरी बात, महामारी से पहले जितनी मौतों की जानकारी दी गई, उनके आधार पर महामारी के दौरान हुई मौतों का आकलन करना सही नहीं है. इस बारे में ये कहना बिल्कुल ग़लत है कि भारत में कोरोना महामारी से सरकारी आंकड़ों से 41 लाख मौतें ज़्यादा हुईं. या फिर, जैसा कि मीडिया की ख़बरें कह रही हैं कि ये सभी मौतें कोरोना महामारी से ही हुई थीं.
इस पेपर से ये बात स्पष्ट नहीं है कि क्या मौत के इन आंकड़ों की पुष्टि या फिर आंकड़ों की गुणवत्ता का परीक्षण किया गया था, या फिर नहीं.
IHME का मौजूदा अध्ययन
IHME का मौजूदा अध्ययन, 12 राज्यों के सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (CRS) में साल 2020 और 2021 में दर्ज मौतों के उस आंकड़े पर आधारित है, जिसकी पुष्टि नहीं की गई है. ये आंकड़े मोटे तौर पर पत्रकारों और दूसरे स्रोतों द्वारा तैयार किए गए हैं, और इसमें दो साल की मौत की दर से तुलना की गई है. इस पेपर से ये बात स्पष्ट नहीं है कि क्या मौत के इन आंकड़ों की पुष्टि या फिर आंकड़ों की गुणवत्ता का परीक्षण किया गया था, या फिर नहीं. इस स्टडी में महामारी से पहले के वर्षों में मौत की संख्या कम दर्ज को भी गणना में शामिल किया गया है और महामारी के दौरान हुई मौतों का आकलन कुछ गिने चुने महीनों यानी जुलाई 2020 से जून 2021 के दौरान दर्ज की गई मौतों के आधार पर किया गया है और इसकी तुलना 2018 से 2019 के इन्हीं महीनों के बीच हुई मौतों से की गई थी. हालांकि, महामारी से निपटने के लिए जिस तरह से पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था को इस दिशा में लगाया गया, वैसी सूरत में सामान्य दौर में दर्ज की गई कम मौतों को कोविड-19 से हुई मौतों की संख्या तय करने के लिए आधार नहीं बनाया जा सकता है. इसके अलावा, कोविड-19 के शिकार हुई लोगों के परिवारों को वित्तीय मुआवज़े का हक़दार बनाया गया है. इस वजह से व्यवस्था में मौतों के सही आंकड़े दर्ज करने करने को प्रोत्साहन भी मिला है. ये बात 2021 के मध्य में 18 राज्यों में 80 हज़ार से ज़्यादा मौतों के पुराने आंकड़े दर्ज होने से साबित होती है. यहां ये देखना होगा कि इन पुराने आंकड़ों को द लांसेट के विश्लेषण में शामिल ज़रूर किया गया है. मगर हमें ये नहीं पता है कि अध्ययन करने वालों ने इस गुणा-भाग को किस तरह से अपनी स्टडी का हिस्सा बनाया है.
दिलचस्प बात ये है कि उन अमीर देशों में जहां पर नियमित रूप से मौत के सरकारी आंकड़े उपलब्ध हैं, वहां के अध्ययन में IHME के रिसर्चर्स ने मौत की जानकारी दर्ज करने में हुई देरी के आंकड़ों को अपने विश्लेषण से अलग रखा है. भारत में मौत के आंकड़े दर्ज करने में देरी, सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम की संस्थागत कमी है और ये साफ़ नहीं है कि मीडिया ने कैसे बिना तस्दीक किए ये आंकड़े प्रकाशित कर दिए. इसके अलावा मौतों के सटीक अनुमान के लिए भारत सरकार भी नियमित रूप से आंकड़े प्रकाशित करती रहती है. सच तो ये है कि भारत सरकार ने रजिस्टर्ड और अनुमानित मौतों के आंकड़ों में अंतर की तरफ़ भी इशारा किया था. मिसाल के तौर पर, सरकार के मुताबिक़, साल 2018 और 2019 में CRS में दर्ज कुल मौतों के 1.46 करोड़ और 1.65 करोड़ के आंकड़े में वास्तविक मौतों के आकलन के बीच 19.2 लाख का फ़र्क़ था. देश में मौतों के दूसरे आकलन सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (SRS) के आधार पर तय किए जाते हैं. चूंकि भारत में मौतों के आंकड़े दर्ज करने में काफ़ी सुधार (2019 में 92 फ़ीसद) आया है, तो अनुमानित और रजिस्टर्ड मौतों के बीच का फ़र्क़ लगातार कम होता जा रहा है. ये सभी आंकड़े सार्वजनिक रूप से मुफ़्त में उपलब्ध हैं और कभी भी पूर्वानुमान लगाने के दौरान आंकड़ों के इस अंतर को भारतीय मीडिया ने सनसनीख़ेज़ बनाकर पेश नहीं किया है. सच तो ये है कि भारत सरकार के विशेषज्ञों ने तो वैज्ञानिक रिसर्च पेपर भी प्रकाशित किए हैं. इनमें से कुछ तो द लांसेट में भी प्रकाशित किए गए हैं, जिनमें सरकार ने अपने ख़ुद के अनुमानों को और बढ़ाकर दर्ज किया है.
जटिलताओं को समझने की ज़रूरत
यहां पर हमें कोरोना महामारी से 41 लाख ज़्यादा मौतों के दावे के बहाव में बहने से पहले, भारत के स्वास्थ्य और आंकड़ों के सिस्टम और मौतों का अनुमान लगाने की जटिलताओं को समझने की ज़रूरत है. चूंकि तीसरे स्तर की स्वास्थ्य सेवाएं अलग अलग राज्यों और शहरों में केंद्रित हैं, तो किसी एक राज्य में मौत की संख्या अगर कम है, तो कई बार ये दूसरे राज्य में दर्ज हो जाती है; क्योंकि अलग अलग राज्यों के लोग केरल जैसे राज्यों में जाकर इलाज कराते हैं, जहां स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर हैं. इसका नतीजा ये होता है कि केरल में औसत वर्षों की तुलना में मौत के आंकड़े 100 प्रतिशत से भी ज़्यादा दर्ज किए गए हैं और केरल में कोविड-19 से 58,500 मौतों का आंकड़ा, इसी दौरान CRS व्यवस्था में दर्ज अतिरिक्त मौतों से भी कहीं ज़्यादा है. असल में राज्यों में मौत का आंकड़ा कम दर्ज करने को कुछ ज़्यादा ही बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जाता है. इसलिए, ये भी हो सकता है कि IHME ने इस तथ्य को अपने आकलन में शामिल न किया हो.
यहां पर हमें कोरोना महामारी से 41 लाख ज़्यादा मौतों के दावे के बहाव में बहने से पहले, भारत के स्वास्थ्य और आंकड़ों के सिस्टम और मौतों का अनुमान लगाने की जटिलताओं को समझने की ज़रूरत है.
कुछ अनुमानों के मुताबिक़, अगर साल 2020 और 2021 सामान्य वर्ष ही थे तो ग़ैर कोविड-19 मौतों का आंकड़ा दो करोड़ या हर दिन 27 हज़ार से ज़्यादा का होता. हालांकि, महामारी के दौरान देश के हालात या ज़िंदगी के लिए ख़तरनाक अन्य बीमारियों को दरकिनार भी कर दें, तो जो लोग कोविड-19 पॉज़िटिव थे या मौत के क़रीब थे उन्हें भी भारत में महामारी से हुई मौतों में गिन लिया गया है. अन्य बीमारियों से गंभीर रूप से बीमार लोगों के कोविड-19 पॉज़िटिव होने की बात तभी सामने आती रही होगी, जब अस्पताल में अनिवार्य रूप से कोरोना की टेस्टिंग की जाती होगी. इसका मतलब ये है कि ‘अतिरिक्त मौतों’ के बजाय, भारत में हर दिन जिन 27 हज़ार मौतों का अनुमान लगाया गया है, उसमें कोरोना के शिकार मरीज़ भी शामिल थे. इसके अलावा जिन राज्यों की स्वास्थ्य व्यवस्था कमज़ोर – वहां पर 2020 और 2021 में जो अतिरिक्त मौतें हुई थीं, वो भी अन्य बीमारियों के इलाज में देरी या इलाज की सुविधा न होने से हुई मौतें रही होंगी.
ऐसा लगता है कि IHME की टीम ने इस अहम शर्त की अनदेखी कर दी है और जो भी आंकड़े उपलब्ध थे उनके आधार पर अपना आकलन तैयार कर लिया. ये भी नहीं देखा कि जो आंकड़े उपलब्ध थे उनकी गुणवत्ता कैसी थी.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के कोरोना से वैश्विक मौतों के आकलन के प्रोजेक्ट ने अब तक दक्षिण एशिया के आकलन पेश नहीं किए हैं. माना जाता है कि इसकी वजह इन देशों में आंकड़े जुटाने की कमज़ोर व्यवस्था है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, अफ्रीकी, पूर्वी भूमध्य सागरीय, दक्षिणी पूर्वी एशिया और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्रों के 106 में से केवल 16 क्षेत्रों के पास पर्याप्त आंकड़े हैं, जिनसे सबूत के आधार पर आकलन किए जा सकें. हालांकि, ऐसा लगता है कि IHME की टीम ने इस अहम शर्त की अनदेखी कर दी है और जो भी आंकड़े उपलब्ध थे उनके आधार पर अपना आकलन तैयार कर लिया. ये भी नहीं देखा कि जो आंकड़े उपलब्ध थे उनकी गुणवत्ता कैसी थी. कई बार तो मीडिया के लेख के आंकड़े ही अध्ययन में शामिल किए गए हैं, ताकि दुनिया भर के कोविड-19 और ग़ैर कोविड मौतों के आंकड़े अलग अलग किए जा सकें. इस अध्ययन को लेकर मीडिया ने जो हैरानी और गफ़लत फैलाने वाली कवरेज की है, उसमें इस बारीक बात का ज़िक्र नहीं किया गया है.
चूंकि भारत के राज्यों के बीच एक महाद्वीप के समान विविधताएं हैं. ऐसे में मौतों की सही संख्या का आकलन तभी किया जाना चाहिए जब सरकारी आंकड़े उपलब्ध हों; केवल अवास्तविक आकलनों के आधार पर कोई अनुमान लगाना ठीक नहीं होगा.
निष्कर्ष
अपर्याप्त और ख़राब गुणवत्ता वाले आंकड़े के आधार पर की गई कोरोना की मॉडलिंग ने पहले ही, सख़्त लॉकडाउन और अन्य गंभीर रोगों की अनदेखी करके फौरन ही स्वास्थ्य व्यवस्था को सिर्फ़ एक बीमारी से निपटने में लगाने के रूप में भारी क़ीमत वसूली है. अब हम आने वाली महामारी से निपटने की तैयारी के लिए मौतों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाले ऐसे ग़लत आंकड़ों वाले मॉडल पर भरोसा करने की ग़लती दोबारा नहीं कर सकते हैं. सच तो ये है कि भले ही ये मॉडल हल्के सबूतों के आधार पर तैयार किया गया हो. मगर ये अध्ययन महामारी के दौरान कोविड-19 से हुई मौतों से ज़्यादा अन्य रोगों से हुई मौतों के बारे में है. हम ऐसी उम्मीद ही लगा सकते हैं कि जैसे जैसे भारतीय राज्य सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के संस्थागत आंकड़े उपलब्ध कराते जाएंगे, तो इस अध्ययन के लेखक अपने मौजूदा अनुमानों में सुधार करके अधिक संदर्भ वाले आकलन पेश करेंगे. चूंकि भारत के राज्यों के बीच एक महाद्वीप के समान विविधताएं हैं. ऐसे में मौतों की सही संख्या का आकलन तभी किया जाना चाहिए जब सरकारी आंकड़े उपलब्ध हों; केवल अवास्तविक आकलनों के आधार पर कोई अनुमान लगाना ठीक नहीं होगा.
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