Published on Sep 28, 2023 Updated 0 Hours ago

भारत, सक्रिय क़दमों को उठाकर, टिकाऊ प्रथाओं को अपनाकर और आपसी तालमेल को बढ़ावा देकर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के कारण पैदा होने वाली मुद्रास्फ़ीति से जुड़ी चुनौतियों का प्रभावी तरीक़े से सामना कर सकता है.

ज़रूरी है जलवायु परिवर्तन, भारत की जनसांख्यिकी और मुद्रास्फ़ीति से संबंधित चुनौतियों का समाधान!

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का तमाम सेक्टरों पर दूरगामी असर पड़ता है, महंगाई भी इससे अछूती नहीं है, क्लाइमेट चेंज का मुद्रास्फ़ीति दर पर भी ज़बरदस्त असर पड़ता है. दूसरे देशों की तरह भारत भी जलवायु परिवर्तन और बढ़ती मुद्रास्फ़ीति की समस्या से जूझ रहा है. जब पर्यावरण संरक्षण के लिए जलवायु कार्रवाइयां बेहद अहम हैं, तब आने वाले दशक में मुद्रास्फ़ीति के इसी तरह से बरक़रार रहने से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है. भारत में मुद्रास्फ़ीति को बेहतर तरीक़े से संभालने के लिए जलवायु परिवर्तन के कारण आपूर्ति श्रृंखलाओं में होने वाले व्यवधानों, लगातार बदल रहे जनसांख्यिकीय पैटर्न और जलवायु कार्रवाइयों के नतीज़े हासिल करने में लगने वाले ज़रूरी समय के पारस्परिक प्रभाव के बारे में जानना-समझना बहुत महत्वपूर्ण है.

भौगोलिक विविधता वाले भारत की कृषि के ऊपर निर्भरता बहुत अधिक है. निसंदेह रूप से इस हालातों में जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत अत्यधिक संवेदनशील है. अनियमित और अनिश्चित मानसून, चरम मौसमी घटनाओं और तापमान में वृद्धि ने कृषि उत्पादकता पर बुरा प्रभाव डाला है. कृषि उत्पादकता में कमी से आपूर्ति पक्ष में व्यवधान पैदा हुआ है और यही आगे चलकर मुद्रास्फ़ीति जैसे विकट हालातों का कारण बना है. जलवायु परिवर्तन की वजह से उत्पन्न होने वाली आपूर्ति श्रृंखला की बाधाओं से हाल के वर्षो में थोक मूल्य सूचकांक (WPI) और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) ऊपर की ओर जाते दिखाई दिए  हैं, ख़ास दौर पर हाल के वर्षों में खाद्य वस्तुओं की क़ीमतें आसमान पर पहुंच गई हैं.

अनियमित और अनिश्चित मानसून, चरम मौसमी घटनाओं और तापमान में वृद्धि ने कृषि उत्पादकता पर बुरा प्रभाव डाला है. कृषि उत्पादकता में कमी से आपूर्ति पक्ष में व्यवधान पैदा हुआ है और यही आगे चलकर मुद्रास्फ़ीति जैसे विकट हालातों का कारण बना है.

कृषि उत्पाद एवं खाद्यान्न से जुड़े काम-धंधों में भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा संलग्न है, ज़ाहिर है कि ये लोग ख़ास तौर पर क्लाइमेट चेंज के दुष्प्रभावों की चपेट में हैं. सूखा, बाढ़ और कीड़ों के संक्रमण की वजह से देश में कृषि उपज में कमी आई है, नतीज़तन खाद्यान्न की आपूर्ति कम हो गई है और कृषि उपज की क़मीतों में वृद्धि हुई है. इन सभी का महंगाई के रूप में जो असर पड़ता है, उससे कहीं न कहीं पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है और इसके चलते लोगों का रोज़मर्रा का ख़र्च बढ़ जाता है, साथ ही परिवारों की व्यय करने योग्य आय भी प्रभावित होती है.

उल्लेखनीय है कि जयवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए जो भी कार्रवाइयां अमल में लाई जाती हैं, वे एक टिकाऊ भविष्य के निर्माण के लिए बेहद ज़रूरी हैं. लेकिन यह भी समझने योग्य है कि ऐसे प्रयास महंगाई पर लगाम लगाने में तत्काल राहत नहीं दे सकते हैं. नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना, कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने वाले उपायों को लागू करना और जलवायु लचीलापन बढ़ाने के लिए, पर्याप्त निवेश के साथ समय की ज़रूरत होती है. हालांकि दीर्घावधि के लिए इस तरह की पहलें लाभदायक हैं, लेकिन छोटी अवधि में इस उपायों को लागू करने में अच्छा-ख़ासा ख़र्चा आता है और यह सब मुद्रास्फ़ीति को बढ़ाने का ही काम करते हैं.

भारत की जनसांख्यिकी और उपभोग

भारत की जनसंख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और मध्यम वर्ग की तादाद भी बढ़ रही है. इसी के साथ वस्तुओं की खपत में भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है और उपभोग का तौर-तरीक़ा भी बदला है. भारत में युवा आबादी, यानी 35 वर्ष से कम आयु के नागरिकों की संख्या अच्छी-ख़ासी है. युवाओं की यह संख्या अवसर भी सामने लाती है और चुनौतियां भी पेश करती है. युवा वर्ग की जो आकांक्षाएं हैं और उनकी व्यय करने योग्य जो इनकम है, वो अत्यधिक खपत वाले पैटर्न की ओर इशारा करती है और इसे प्रोत्साहित करती है. ज़ाहिर है कि यह पैटर्न आगे फिर मुद्रास्फ़ीति बढ़ने की वजह बन सकता है. युवा आबादी में जिस प्रकार से शहरी जीवनशैली अपनाने की होड़ है, वो न केवल खपत के तौर-तरीक़ों पर असर डालती है, बल्कि महंगाई की भी वजह बनती है. जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ रहा है, वैसे-वैसे सुख-सुविधाओं को जुटाने पर ख़र्च एवं पैकेज्ड या रेडीमेड खाद्य सामग्री का उपयोग बढ़ रहा है. इन चीज़ों की क़ीमत कई बार पारंपरिक विकल्पों से कहीं ज़्यादा होती है. इसके अलावा ब्रांडेड चीज़ों और प्रीमियम सेवाओं को लेकर बढ़ते आकर्षण ने भी उपभोक्ताओं के ख़र्चों को बढ़ाया है. ये सभी वजहें वस्तुओं की क़ीमतों को बढ़ाती हैं और आगे चलकर मुख्य रूप से मुद्रास्फ़ीति में भी इज़ाफ़ा करती हैं.

जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ रहा है, वैसे-वैसे सुख-सुविधाओं को जुटाने पर ख़र्च एवं पैकेज्ड या रेडीमेड खाद्य सामग्री का उपयोग बढ़ रहा है.

उपभोक्ताओं द्वारा खपत की ये बढ़ोतरी, जब जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाली आपूर्ति श्रृंखलाओं के व्यवधानों जैसे दूसरे फैक्टरों के साथ जुड़ जाती है, तो भविष्य में इसका मुद्रास्फ़ीति के ट्रेंड्स पर असर पड़ना लाज़िमी है. ज़ाहिर है कि जैसे-जैसे उत्पादों और सर्विसेज़ की मांग उनकी आपूर्ति की तुलना में अधिक हो जाती है, तो क़ीमतों में इज़ाफ़ा होने लगता है. खाने-पीने की वस्तुएं एवं ऊर्जा जैसी ज़रूरी चीज़ों की बात करें, तो ये एक परिवार का काफ़ी बजट इसमें ख़र्च होता है और महंगाई बढ़ने पर इन वस्तुओं पर भी अच्छा-ख़ासा प्रभाव पड़ता है.

इसके अतिरिक्त, बढ़ते उपभोग एवं जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली आपूर्ति श्रृंखलाओं की दिक़्क़तों के बीच जो पारस्परिक संबंध हैं, वो भी बहुत पेचीदा हैं. जलवायु परिवर्तन से जुड़ी परेशानियां, जैसे कि अनिश्चित मानसून, चरम मौसमी घटनाएं और तापमान में बढ़ोतरी, प्रत्यक्ष तौर पर कृषि उपज एवं खाद्यान्न की क़ीमतों पर असर डाल सकते हैं. ऐसे में जब खाद्य एवं कृषि उत्पादों की मांग लगातार बनी हुई है, तब जलवायु परिवर्तन के चलते इन वस्तुओं की आपूर्ति की कमी महंगाई को भड़का सकती है.

उपभोग बढ़ने से जुड़े विभिन्न मसलों एवं महंगाई पर इनके प्रभावों का समाधान तलाशने के लिए एक बहुआयामी नज़रिए की ज़रूरत है. इसके लिए सर्वप्रथम ज़रूरी है कि टिकाऊ उपभोग के ऐसे तरीक़ों को अपनाया जाए, जो पर्यावरण संरक्षण और संसाधन दक्षता यानी कि प्राकृतिक संसाधनों के कुशल उपयोग और इस्तेमाल किए गए संसाधनों व उनसे हासिल लाभों के बीच संबंधों को प्रमुखता देने वाले हों. लोगों के बीच ज़िम्मेदार उपभोग की आदतों को प्रोत्साहित करके, अर्थात उन्हें काफ़ी सोच-समझ के चीज़ों को ख़रीदने के लिए प्रेरित करके और लोगों को अधिक खपत के कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले असर के बारे में जागरूक करने से वस्तुओं की मांग घटाई जा सकती है और इससे महंगाई के बढ़ते ग्राफ को रोकने में मदद मिल सकती है.

प्रभावशाली मौद्रिक नीतियां बनाकर, मूल्य स्थिरता को प्रोत्साहित कर और बाज़ार में प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित कर, मुद्रास्फ़ीत के ख़तरे कम करने में मददगार हो सकता है.

इसके साथ ही कृषि एवं ग्रामीण विकास के क्षेत्र में निवेश बढ़ाना भी बेहद अहम है, ताकि कृषि उत्पादकता को बढ़ाया जा सके, साथ ही वस्तुओं की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके. जलवायु-लचीली कृषि के विकल्पों को अपनाकर, सिंचाई की पूरी प्रक्रिया में सुधार करके और किसानों के लिए अधिक से अधिक वित्तीय मदद उपलब्ध कराने एवं नई तकनीक़ों को उन तक पहुंचाकर, भारत न केवल कृषि उत्पादन बढ़ा सकता है, बल्कि वस्तुओं की कम आपूर्ति से पैदा होने वाली महंगाई पर भी काबू पा सकता है.

इसके अलावा, नीति निर्माता एवं नियामक अत्यधिक उपभोग के कारण बढ़ने वाली महंगाई को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं. प्रभावशाली मौद्रिक नीतियां बनाकर, मूल्य स्थिरता को प्रोत्साहित कर और बाज़ार में प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित कर, मुद्रास्फ़ीत के ख़तरे कम करने में मददगार हो सकता है. इसके अतिरिक्त, आपूर्ति श्रृंखलाओं को सशक्त करने, घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने और आयात पर निर्भरता कम करने की दिशा में किए गए उपाय भी महंगाई रोकने में योगदान दे सकते हैं.

वित्तीय सेक्टर की भूमिका

भारत के फाइनेंशियल सेक्टर की ओर से जलवायु परिवर्तन एवं महंगाई की वजह से सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिए एक सक्रिय एवं ज़िम्मेदार नज़रिए की ज़रूरत है. विभिन्न संकटों का आकलन करना और उन ख़तरों को कम करना, टिकाऊ पहलों में निवेश करना एवं सहयोग को बढ़ावा देना एक लचीले व कम कार्बन उत्सर्जन वाले भविष्य की दिशा में महत्वपूर्ण क़दम हैं. वित्तीय संस्थानों को टिकाऊ प्रथाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए, निवेश को जलवायु परिवर्तन को कम करने से संबंधित लक्ष्यों के साथ जोड़ना चाहिए और ग्रीन इकोनॉमी अर्थात हरित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के लिए अपना सक्रिय योगदान देना चाहिए. अगर वित्तीय संस्थान ऐसा करते हैं, तो वे न केवल भारत को बढ़ती महंगाई से बचा सकते हैं, बल्कि अधिक टिकाऊ एवं समृद्ध भविष्य का मार्ग भी प्रशस्त कर सकते हैं. हालांकि, जलवायु परिवर्तन और मुद्रास्फ़ीति के पारस्परिक संबंध को नियंत्रित करने के लिए कई ख़तरों एवं चुनौतियों से निपटने की ज़रूरत है:

  • परिवर्तन में होने वाला ख़र्च: कम कार्बन उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्था की ओर परिवर्तन के लिए नवीकरणीय ऊर्जा, बुनियादी ढांचे के निर्माण और विकास एवं टिकाऊ प्रौद्योगिकियों में पर्याप्त निवेश की ज़रूरत होती है. इस तरह के निवेश जलवायु कार्रवाई के लिए बेहद अहम हैं, हालांकि इससे क़ीमतों में उछाल आ सकता है, साथ ही इनसे कुछ समय के लिए महंगाई भी बेकाबू हो सकती है. ज़ाहिर है कि इस परिवर्तन को संतुलित और निष्पक्ष तरीक़े से आगे बढ़ाने के लिए इस पूरी प्रक्रिया में होने वाले ख़र्च को बेहतर तरीक़े से प्रबंधित करने की आवश्यकता है.
  • नियामक अनिश्चितता: जब वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने लिए व्यापक क़दम उठाए जाएंगे, तो ज़ाहिर तौर पर इसके लिए पर्यावरण से संबंधित नए नियम-क़ानून और नीतियां बनाई जाएंगी. इस तरह के नियम-क़ानूनों को बनाना और लागू करना ज़रूरी है, इस बात से कोई इनकार नहीं करता है, लेकिन ऐसा करने से बाज़ार में अनिश्चितता का माहौल बन सकता है, निवेशकों का भरोसा हिल सकता है, साथ ही इससे महंगाई बढ़ने की भी संभावना है. ऐसे में अगर नीति निर्माताओं द्वारा स्पष्ट एवं प्रासंगिक नियमों को बनाया जाता है और इसका अच्छी तरह से लोगों के बीच प्रचार किया जाता है, तो यह इस ख़तरे को कम करने में सहायक सिद्ध हो सकता है.
  • एनर्जी एवं वस्तुओं की क़ीमतें: जब भी जलवायु कार्रवाई की बात सामने आती है, तो इसमें जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने की बात ज़रूर कही जाती है. ऐसा करना ऊर्जा और कमोडिटी मार्केट्स पर असर डाल सकता है. नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों और टिकाऊ प्रौद्योगिकियों में उपयोग किए जाने वाले कच्चे माल की क़ीमतों में उतार-चढ़ाव का महंगाई पर असर पड़ सकता है. क़ीमतों में इस उतार-चढ़ाव के संभावित जोख़िमों को कम करने के लिए एक टिकाऊ और अलग-अलग तरह की ऊर्जा के मिश्रित उपयोग को सुनिश्चित करना, साथ ही संसाधनों के उचित तरीक़े से उपयोग को बढ़ावा देना बेहद ज़रूरी है.

भारत, सक्रिय क़दमों को उठाकर, टिकाऊ प्रथाओं को अपनाकर और सहयोग को बढ़ावा देकर जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाली मुद्रास्फ़ीति की चुनौतियों का प्रभावशाली तरीक़े से मुक़ाबला कर सकता है. 

वित्तीय सेक्टर की ज़िम्मेदारी

जलवायु परिवर्तन और महंगाई से जुड़ी विभिन्न चुनौतियों का प्रभावशाली तरीक़े से सामना करने और उनका समाधान तलाशने के लिए वित्तीय सेक्टर को कुछ जिम्मेदारियां उठानी पड़ेंगी:

  • जोख़िम का मूल्यांकन करना और उसके बारे में बताना: वित्तीय संस्थानों को जलवायु से संबंधित जोख़िम के मूल्यांकन को अपनी विभिन्न गतिविधियों में शामिल करने की ज़रूरत है. इसमें निवेश पोर्टफोलियो में जलवायु से जुड़े ख़तरों को पहचानना और उनकी व्यापकता के बारे में पता लगाना, साथ ही निवेशकों को इससे जुड़ी हर जानकारी पारदर्शी तरीक़े से उपलब्ध कराना शामिल हैं. परिसंपत्तियों और देनदारियों पर जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रभावों को उचित तरीक़े से समझने से महंगाई से जुड़े ख़तरों से बेहतर तरीक़े से निपटना आसान हो जाता है.
  • टिकाऊ निवेश रणनीतियां: जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने एवं उनके साथ सामंजस्य बैठाने की कोशिशों का समर्थन करने वाली टिकाऊ निवेश रणनीतियों को अपनाना बेहद अहम है. हरित परियोजनाओं, नवीकरणीय ऊर्जा पहलों और टिकाऊ उद्यमों के लिए पूंजी आवंटित करना न केवल पर्यावरणीय लचीलेपन को प्रोत्साहित करता है, बल्कि दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता को भी सशक्त करता है. इस तरह के निवेश जहां एक तरफ रोज़गार पैदा करने एवं नई तकनीक़ों को अपनाने में योगदान देते हैं, वहीं दूसरी तरफ टिकाऊ व समावेशी अर्थव्यवस्था भी सुनिश्चित करते हैं.
  • सहयोग एवं जानकारी साझा करना: वित्तीय संस्थानों, रेगुलेटरी निकायों और जलवायु विशेषज्ञों के बीच सहयोग और जानकारी साझा करने को बढ़ावा देना बेहद अहम है. अगर सर्वोत्तम प्रथाओं, रिसर्च एवं विचारों को साझा किया जाता है, तो ज़ाहिर तौर पर नए-नए वित्तीय समाधानों और जोख़िम कम करने के उपायों को विकसित करने में मदद मिलती है. वित्तीय सेक्टर मिलजुल कर कार्य करके जलवायु कार्रवाई और मुद्रास्फ़ीति की पेचीदगियों का मुक़ाबला करने की अपनी क्षमता बढ़ा सकता है.

निष्कर्ष

टिकाऊ भविष्य की दिशा में भारत की जो यात्रा है, उसे निर्बाध रूप से जारी रखने के लिए एक ऐसे समग्र नज़रिए की ज़रूरत है, जो जलवायु कार्रवाइयों को लक्षित आर्थिक नीतियों के साथ तालमेल करने वाला हो. सुरक्षित अर्थव्यवस्था एवं अपने नागरिकों की सुख-समृद्धि के लिए जलवायु परिवर्तन को कम करने और वस्तुओं की क़ीमतों की स्थिरता लाने के बीच एक संतुलन बनाना ज़रूरी है. भारत, सक्रिय क़दमों को उठाकर, टिकाऊ प्रथाओं को अपनाकर और सहयोग को बढ़ावा देकर जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाली मुद्रास्फ़ीति की चुनौतियों का प्रभावशाली तरीक़े से मुक़ाबला कर सकता है. भारतीय रिज़र्व बैंक जैसे वित्तीय नियामकों पर मुद्रास्फ़ीति पर लगाम लगाए रखने की पूरी ज़िम्मेदारी होगी. भारत इस दिशा में सिर्फ़ सशक्त प्रयासों के ज़रिए ही एक ऐसे टिकाऊ और लचीले भविष्य का निर्माण कर सकता है, जो न केवल पर्यावरण को संरक्षित करने वाला हो, बल्कि देश के नागरिकों के लिए भी फायदेमंद हो.


श्रीनाथ श्रीधरन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में विज़िटिंग फेलो हैं.

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