Published on Dec 30, 2023 Updated 0 Hours ago

इज़राइल के सैन्य बलों की ज़बरदस्त ताक़त न केवल ख़ुद इज़राइल के अस्तित्व के लिए आवश्यक है, बल्कि ये मध्य पूर्व में सत्ता के संतुलन के लिए भी ज़रूरी है

सैन्य तकनीक और सामरिक मामलों में इज़राइल की अहमियत

इज़राइल की इतनी अहमियत क्यों है? ख़ास तौर उसके मुख्य संरक्षक अमेरिका के लिए? आज जब इज़राइल और फ़िलिस्तीन के आतंकवादी अर्ध-सरकारी समूह हमास के बीच जंग छिड़ी है, तब इस महत्वपूर्ण सवाल का जवाब तलाशना ख़ास तौर से ज़रूरी हो जाता है. फिर भी, इज़राइल की अहमियत अमेरिका के अलावा कई अन्य देशों के लिए भी है. इज़राइल और हमास के बीच चल रहे युद्ध के दौरान जिस तरह अमेरिका ने मज़बूती से इज़राइल का साथ दिया है, उसकी मदद की है, उसका मूल्यांकन हमें सामरिक और सैन्य तकनीक के नज़रिए से करने की ज़रूरत है.

इज़राइल की सामरिक अहमियत

पहली बात तो इज़राइल ने अपने अरब दुश्मनों के ख़िलाफ़ सैन्य अभियानों में असाधारण सफलता हासिल की है. इज़राइल की ये कामयाबी विशेष रूप से 1967 के छह दिनों के युद्ध और 1973 के योम किप्पुर जंग के दौरान ज़ाहिर हुई थी. ये दो कामयाब सैन्य अभियान ही यहूदी मुल्क इज़राइल की प्रमुख उपलब्धियां नहीं हैं. इज़राइल ने ये प्रतिष्ठा अपने बहुचर्चित बंधक बचाव अभियानों, जैसे कि 1976 में एंटेबे के बचाव अभियान और ऐसे ही बेहद राज़दाराना तरीक़े से चलाए गए दूसरे बचाव और खुफ़िया अभियानों की सफलता के ज़रिए भी हासिल की है. 7 अक्टूबर 2023 को इज़राइल के बेगुनाह नागरिकों के ऊपर हमास ने जो निर्मम और बर्बर हमला किया, उसे रोक पाने में इज़राइल का खुफिया तंत्र बुरी तरह से नाकाम रहा था. लेकिन, चाहे हमास के साथ मौजूदा जंग हो या इससे पहले की मिसालें देख लें, जब भी असली मोर्चे पर युद्ध छिड़ा है, तो शुरुआत में भले ही इज़राइल लड़खड़ाता दिखा हो. लेकिन बाद में, इज़राइल के सुरक्षा बलों (IDF) ने काफ़ी हद तक अपनी खुफिया एजेंसियों की नाकामी से उबरने और जंग के मैदान में दुश्मन को असरदार तरीक़े शिकस्त देने में बार बार कामयाबी ही हासिल की है. आम तौर पर इज़राइल के सैन्य प्रदर्शन ने क्षेत्रीय स्तर से लेकर दुनिया की बड़ी ताक़तों जैसे कि अमेरिका की नज़र में उसकी हैसियत को मज़बूती दी है. शीत युद्ध के बाद के दौर में 1967 और 1973 के अरब देशों के साथ युद्धों के दौरान इज़राइल की सफलता ने केवल क्षेत्रीय स्तर पर एक ज़बरदस्त फौजी ताक़त के तौर पर उसकी हैसियत को मज़बूती दी है, बल्कि इन युद्धों के नतीजों की वजह से मध्य पूर्व में सोवियत संघ का प्रभाव भी ख़त्म हो गया था. भले ही आज की नई बड़ी शक्ति चीन भी मध्य पूर्व में अपना प्रभाव लगातार बढ़ा रहा है. मगर, ये इज़राइल ही है, जिसकी वजह से आज भी पश्चिमी एशिया में अमेरिका का दबदबा साफ़ तौर पर दिखता है. आज की जंग हो या पहले के युद्ध, मैदान में अपने सैन्य बलों के शानदार प्रदर्शन की वजह से ही आज इज़राइल, अनिवार्य फौजी सेवा वाले देशों के बीच इंसानी नस्ल के सैन्य इतिहास की सबसे कामयाब ताक़तों में से एक माना जाता है. इस वजह से वो क्षेत्र के सत्ता संतुलन में भी मददगार साबित होता है. ताक़त का ये संतुलन साधने में सैन्य तकनीक के मामले में इज़राइल का बड़ी उपलब्धियां हासिल करना भी काफ़ी योगदान देता रहा है. कई पश्चिमी देशों और इज़राइल के बीच गहरे सैन्य तकनीकी सहयोग रहे हैं. ख़ास तौर से उसके मुख्य संरक्षक अमेरिका के साथ. दोनों पक्षों के बीच सहयोग को हम अमेरिका, पश्चिमी ताक़तों और ग़ैर पश्चिमी सैन्य हथियार बनाने में इज़राइल के अहम तकनीकी योगदान के तौर पर देखते रहे हैं.

इज़राइल और हमास के बीच चल रहे युद्ध के दौरान जिस तरह अमेरिका ने मज़बूती से इज़राइल का साथ दिया है, उसकी मदद की है, उसका मूल्यांकन हमें सामरिक और सैन्य तकनीक के नज़रिए से करने की ज़रूरत है.

इज़राइल और हमास के बीच चल रहे युद्ध के दौरान जिस तरह अमेरिका ने मज़बूती से इज़राइल का साथ दिया है, उसकी मदद की है, उसका मूल्यांकन हमें सामरिक और सैन्य तकनीक के नज़रिए से करने की ज़रूरत है.

सैन्य तकनीक: इज़राइल की ज़बरदस्त क्षमता

एक छोटा सा देश होने के बावजूद इज़राइल, हथियारों के वैश्विक बाज़ार में अपनी क्षमता से कहीं ज़्यादा दबदबा रखता है. चूंकि, इज़राइल का अपना रक्षा बाज़ार, इतना छोटा है कि वो अपने यहां विकसित किए गए सारे सैन्य संसाधनों को नहीं इस्तेमाल कर सकता है. ऐसे में उनका निर्यात करना एक ज़रूरत बन जाता है. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) से मिले आंकड़े बताते हैं कि 2018 से 2022 के दौरान दुनिया में हथियारों के कुल निर्यात में इज़राइल की हिस्सेदारी 2.3 प्रतिशत रही थी. इस वजह से वो दुनिया में हथियारों का दसवां सबसे बड़ा निर्यातक देश बन गया था. तुलनात्मक रूप से देखें, तो इन्हीं वर्षों के दौरान भारत, SIPRI की हथियारों के शीर्ष 25 निर्यातक देशों की लिस्ट में भी जगह नहीं बना पाया था. वैसे तो ये आंकड़े काफ़ी अहम हैं. पर, ये आंकड़े उन्नत सैन्य तकनीक के प्रमुख निर्यातक देश के रूप में इज़राइल की अहमियत की एक मामूली सी झलक ही दिखाते हैं. अगर हम दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे उन्नत सैन्य औद्योगिक शक्ति अमेरिका की बात करें, तो ख़ुद अमेरिका भी अपने कई ताक़तवर हथियार बनाने के लिए इज़राइल के सैन्य हथियार उद्योग द्वारा विकसित तकनीकों का इस्तेमाल करता है. राफेल एडवांस्ड डिफेंस सिस्टम्स (RADS) द्वारा विकसित इज़राइल के एक्टिव प्रोटेक्शन सिस्टम (APS) जिसकोट्रॉफीकहा जाता है, वो केवल इज़राइल के सैन्य बलों द्वारा विकसित स्वदेशी मुख्य युद्धक टैंक (MBT) मेरकावा IV को ताक़तवर बनाता है. बल्कि, अब इसट्रॉफीका इस्तेमाल अमेरिका के मुख्य टैंक, M1 अब्राम्स में भी लगाया जा रहा है. इसके लिए, दोनों देशों ने 2018 में 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर का समझौता किया था. ब्रिटेन के रक्षा मंत्रालय और RADS के बीच 2021 में हुए समझौते के तहत, अब ब्रिटिश सेना (BA) के चैलेंजर 3, मेन बैटल टैंकों (MBTs) को भी इन्हीं ट्रॉफी APS से लैस किया जा रहा है. ‘ट्रॉफीकी ख़ूबियों में सामने से हो रहे हमले का पता लगाना, कंप्यूटर संचालित क्षमताएं, एक रडार और और उनके चार एंटीना शामिल हैं. ट्रॉफी APS जैसा ही इज़राइल द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा एक और डिफेंस सिस्टम आयरन फिस्ट सिस्टम है. इसको इज़राइल मिलिट्री इंडस्ट्रीज़ (IMI) ने तैयार किया था. ट्रॉफी APS तो सामने की चीज़ों का पता लगाने के लिए धातु की छोटी गोलियां छोड़ता है. उसकी तुलना में आयरन फिस्ट सिस्टम, इंटरसेप्शन के लिए एंटी मिसाइल प्रोजेक्टाइल का इस्तेमाल करता है. आज अमेरिकी सेना के हल्की और मध्यम दर्जे की बख़्तरबंद गाड़ियां, आयरन फिस्ट के कम वज़नदार विकल्प से लैस की जा रही हैं. इसके तीन प्रमुख कारण हैं: इनका वज़न कम होना, इंटरसेप्टर लॉन्च होते वक़्त झटका कम देना और इनका कम क़ीमत का होना. रक्षा की इन तकनीकों ने जहां अन्य देशों की ताक़त में इज़ाफ़ा किया है, मगर ये इज़राइल की क्षमता की केवल मुट्ठी भर मिसालें हैं. इज़राइल के पास ऐसे कई ताक़तवर वेपन सिस्टम हैं.

 भले ही आज भारत की वायुसेना सोवियत संघ के बने मिग-21 बिसन लड़ाकू विमानों को अपने बेड़े से रिटायर कर रही है. लेकिन, इससे पहले इज़राइल से मिले बेहद सस्ते अपग्रेड की मदद से उनके सेवाकाल में बढ़ोतरी की जा सकी थी

अमेरिका और ब्रिटेन की ज़मीनी जंग की ताक़त बढ़ाने में अहम योगदान देने के अलावा, इज़राइल ने हेलमेट माउंटेड डिस्प्ले (HMD) जैसी तकनीकों का भी विकास किया है, जिसका इस्तेमाल, अमेरिका की रॉकवेल कॉलिंस और इज़राइल की एल्बिट सिस्टम्स के बीच हुए समझौते के तहत लॉकहीड मार्टिन द्वारा निर्मित लड़ाकू विमान F-35 लाइटनिंग III या ज्वाइंट स्ट्राइक फाइटर (JSF) के पायलट करते हैं. आप इज़राइल के साथ भारत के संबंधों को ही देख लें. भारत को भी 1965, 1971 और 1999 में पाकिस्तान के साथ युद्धों के दौरान इज़राइल से सैन्य सहायता मिल चुकी है. भले ही आज भारत की वायुसेना सोवियत संघ के बने मिग-21 बिसन लड़ाकू विमानों को अपने बेड़े से रिटायर कर रही है. लेकिन, इससे पहले इज़राइल से मिले बेहद सस्ते अपग्रेड की मदद से उनके सेवाकाल में बढ़ोतरी की जा सकी थी, क्योंकि भारत की एक के बाद कई सरकारों ने पैसे बचाने के लिए इन विमानों को सेवा में बनाए रखा था. इसमें मौजूदा सरकार भी शामिल है, जो वायुसेना के पुराने पड़ चुके मिग-21 बिसन विमानों की जगह उन्नत लड़ाकू विमान ख़रीदने के लिए भारी रक़म ख़र्च करने से परहेज़ करती रही है. भारत के तीनों सैन्य बल इज़राइल के साथ सहयोग का लाभ उठा रहे हैं. इनमें मानवरहित विमान (UAVs) से लेकर मिसाइल सिस्टम तक के क्षेत्र में बढ़ता सहयोग शामिल है. इससे इज़राइल के रक्षा उद्योग की अंतर्निहित मज़बूती का पता चलता है.

निष्कर्ष

आख़िर में, आज के दौर के सबसे अच्छे सैन्य इतिहासकारों में से एक मार्टिन वान क्रेवेल्ड के शब्दों में कहें तो, ‘…तेल या फिर यहूदीके विकल्प में से एक का चुनाव करके तो अमेरिका और ही भारत, इज़राइल से पल्ला झाड़ सकते हैं. भारत और अमेरिका दोनों को यहूदियों की भी ज़रूरत है और तेल की भी. ऐसे में उन्हें इज़राइल की सुरक्षा और फिलिस्तीन के सम्मान के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता है. लंबी अवधि में तेल के बग़ैर भी काम चलाया जा सकेगा, क्योंकि ऊर्जा के अन्य संसाधन उसकी जगह ले रहे हैं और आगे चलकर तेल का इस्तेमाल बहुत कम रह जाएगा. लेकिन इज़राइल के यहूदी नागरिक और उसकी अन्य क्षमताएं अनंतकाल तक उपयोगी बनी रहने वाली हैं. सबसे बड़ी बात, इज़राइल के सैन्य बलों की ज़बरदस्त ताक़त केवल ख़ुद इज़राइल के अस्तित्व के लिए ज़रूरी है, बल्कि मध्य पूर्व में ताक़त का संतुलन बनाने में भी इसकी बराबर की अहमियत है.

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