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अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एक ऐसी सामरिक साझेदारी के बारे में बताया था, जिसे अहम तकनीकों के मोर्चे पर साझा इनोवेशन से और मज़बूत बनाने की बात कही गई थी.
क्या एक जैसे ख़याल रखने वाली साझेदारियों से तकनीक से जुड़े नियमों, मानकों और परंपराओं में बिखराव आएगा? आज जब हम CyFy 2021 के अहम मुद्दों में से एक, ‘द बिग पॉज़: रिक्लेमिंग ऑवर टेक फ्यूचर’ पर चर्चा कर रहे हैं, तो ये एक अहम सवाल बना हुआ है.
सेंटर फॉर इंटरनेशनल सिक्योरिटी स्टडीज़ के दो रिसर्च प्रोजेक्ट, प्रोजेक्ट क्यू, पीस ऐंड सिक्योरिटी इन ए क्वांटम एज; और क्वांटम मेटा-एथिक्स, नॉर्मैटिव फ्रेमवर्क्स, बेस्ट प्रैक्टिसेज़ ऐंड इफेक्टिव एकॉर्ड्स फ़ॉर इमर्जिंग क्वांटम टेक्नोलॉज़ीस से मिले संकेतों के आधार पर हम ‘तकनीकी भविष्य’ को दो घटनाओं के आधार पर परिभाषित कर सकते हैं, गुज़रा हुआ कल और वर्तमान. हो सकता है कि इनसे अहम तकनीकों के वैश्विक प्रशासन को आकार देने के लिए, ‘समान विचारधारा वाली साझेदारियां’ बनाने या बिगाड़ने से जुड़े उपयोगी सबक़ मिल सकते हैं. पहली घटना तो 9/11 हमले की 20वीं बरसी है. ये उस वक़्त पड़ी थी, जब पश्चिमी देशों की सेनाएं अफ़ग़ानिस्तान से विदा हो रही थीं. यहां ये याद रखना उपयोगी होगा कि किस तरह 9/11 हमले के बाद जिहादी आतंकवाद से निपटने के लिए एक वैश्विक गठबंधन बना था. इस गठबंधन में रूस, चीन और ईरान जैसे ऐसे देश भी सामिल थे, जिनके साथ पहले दोस्ताना ताल्लुक़ात नहीं रहे थे. अब इस मुद्दे पर सभी देशों के बीच लगभग ‘आम सहमति’, की तुलना उस घटना से करें जो तीन साल बाद हुई थी. तब इराक़ पर हमले के लिए ‘इच्छुक देशों का गठबंधन’ बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों में आम सहमति बना पाने में असफल रहा था. इस मामले में समान विचारों वाले देश सिर्फ़ वो थे जो अंग्रेज़ी भाषी थे. और इस गठबंधन में पोलैंड और कुछ छोटे देश भी शामिल हुए थे. इस गठबंधन की बुनियाद किसी ख़ास देश के विचार से ज़्यादा उसकी बाक़ियों पर निर्भरता रही थी. उसके बाद क्या हुआ, हम सबको पता है. बेहतर तकनीक के सदमे और चकाचौंध के आगे इराक़ ने बहुत जल्द शिकस्त मान ली थी. हालांकि, इस जीत के बाद अमन और आज़ादी का वादा बहुत दिनों तक क़ायम नहीं रहा था. इसके बाद एक ‘युद्ध के एक अंतहीन सिलसिले’ की शुरुआत हुई, जो इराक़ से होते हुए अफ़ग़ानिस्तान, लीबिया, सीरिया, यमन, साहेल और अन्य क्षेत्रों में जारी रही. इनमें यूरोप और अन्य जगहों पर आतंकवादी हमले शामिल थे. आज जब आख़िरी अमेरिकी विमान भी काबुल एयरपोर्ट से विदा हो चुका है, तो इस जंग की क़ीमत बहुत भारी लग रही है. आतंकवाद के ख़िलाफ़ वैश्विक युद्ध में 8 ख़रब डॉलर ख़र्च हुए. 9 लाख 29 हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए और 3.8 करोड़ लोग अपने घरों से बेघर होकर शरणार्थी बन गए.
अगर हम ये कहें कि तीनों देशों के नेताओं ने अपनी वर्चुअल प्रेस कांफ्रेंस में जिस देश का नाम नहीं लिया, उस देश यानी चीन से मुक़ाबले के लिए मोर्चेबंदी कर रहे हैं? अगर ऐसा है, तो नई उभरती हुई तकनीकों के क्षेत्र में किस तरह का नया नज़रिया और वैश्विक प्रशासन निकलकर आएगा, जो सैन्य संघर्ष के बजाय शांतिपूर्ण मुक़ाबले को बढ़ावा देगा?
दूसरी घटना हाल ही में ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका द्वारा टीवी पर सीधे प्रसारण के ज़रिए एक त्रिपक्षीय सुरक्षा साझेदारी बनाने का एलान थी, जिसका नाम ऑकस (AUKUS) रखा गया है. सुर्ख़ियों में लिखा गया कि ऑस्ट्रेलिया ने फ्रांस के साथ 66 अरब डॉलर का एक सौदा रद्द कर दिया है, जिससे कि वो अमेरिका और ब्रिटेन से परमाणु पनडुब्बी बनाने की तकनीक हासिल कर सके. ये साझेदारी अपने आप में अंग्रेज़ी भाषी देशों के बीच एक ख़ास रिश्ते का विस्तार जैसी थी, जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के शब्दों में कहें, तो ‘ये रिश्ता पहले विश्व युद्ध के मोर्चों पर बना था, जो दूसरे विश्व युद्ध के दौरान द्वीपों के बीच छलांग लगा रहा था और फिर कोरिया की भयंकर ठंड से लेकर फ़ारस की खाड़ी की भयंकर गर्मी की चुनौती में तपकर और मज़बूत बना है.’ ऑकस के संदर्भ में एक जैसे ख़याल रखने का मतलब, ‘21वीं सदी के ख़तरों का मुक़ाबला करने के लिए साझा इच्छा रखना था. ये ठीक वैसी ही साझेदारी थी, जैसी हमने बीसवीं सदी में देखी थी.’ परमाणु पनडुब्बियों और फ्रांस द्वारा अंग्रेज़ी बोलने वाले देशों पर पीठ में छुरा घोंपने के आरोप लगाने को लेकर मीडिया के शोर के बीच, इस साझेदारी की एक व्यापक प्रतिबद्धता की अनेदखी कर दी गई. वर्चुअल प्रेस कांफ्रेंस में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एक ऐसी सामरिक साझेदारी के बारे में बताया था, जिसे अहम तकनीकों के मोर्चे पर साझा इनोवेशन से और मज़बूत बनाने की बात कही गई थी. उन्होंने तो क्वांटम शब्द का भी ज़िक्र किया था:
‘ऑकस हमारे नाविकों, वैज्ञानिकों और हमारे उद्योगों को साथ लाएगा जिससे वो सैन्य क्षमताओं और अहम तकनीकों जैसे कि साइबर, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस क्वांटम तकनीक और समुद्र के भीतर के क्षेत्र में हमारी बढ़त को बनाए रख सकें.’
इन दो घटनाओं से एक सवाल पैदा होता है: क्या ‘समान विचार रखने वाले देश’ एक बार फिर भविष्य की ओर लौट रहे हैं? क्या वे उभरती हुई अहम तकनीकों के ज़रिए नई वैश्विक अनिश्चितताओं और ख़तरों से निपटने में बढ़त की तलाश कर रहे हैं? और अगर हम ये कहें कि तीनों देशों के नेताओं ने अपनी वर्चुअल प्रेस कांफ्रेंस में जिस देश का नाम नहीं लिया, उस देश यानी चीन से मुक़ाबले के लिए मोर्चेबंदी कर रहे हैं? अगर ऐसा है, तो नई उभरती हुई तकनीकों के क्षेत्र में किस तरह का नया नज़रिया और वैश्विक प्रशासन निकलकर आएगा, जो सैन्य संघर्ष के बजाय शांतिपूर्ण मुक़ाबले को बढ़ावा देगा?
जैसा कि अक्सर तेज़ रफ़्तार से होने वाले तकनीकी बदलावों के साथ होता है, नैतिकता, राजनीति और प्रशासन अक्सर दौड़ में पीछे रह जाते हैं. इससे सामाजिक नुक़सान, आर्थिक असमानता और जियोपॉलिटिकल अस्थिरता पैदा होने की आशंका रहती है. उभरती तकनीकों जैसे कि साइबर, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और क्वांटम के क्षेत्र में नई संभावनाओं और दुविधा से निपटने के लिए नए नियमों की ज़रूरत है. ‘एक जैसी विचारधाराओं के बीच साझेदारी’ से ये अपेक्षा होती है कि वो नैतिकता या अनैतिक बर्ताव, अच्छे या बुरे मानकों और उभरती हुई अहम तकनीकों उत्पादक या विध्वंसक मानने को लेकर आम सहमति बनाए. जैसे की कोई एक तकनीक, घटना या देश के भविष्य को तय नहीं तय करेगा, वैसे ही कोई एक व्यवहारिक या राजनीतिक ढांचा सभी देशों और अहम तकनीकों को उनके विकास के सभी स्तरों पर लागू नहीं किया जा सकता है.
आज ये अटकल लगाने की ज़रूरत है कि अहम तकनीकों के चलते अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में कैसा बदलाव आएगा और कोई बदलाव आएगा भी या नहीं?
आज ये अनुमान लगाने की ज़रूरत है कि अहम तकनीकों के चलते अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में कैसा बदलाव आएगा और कोई बदलाव आएगा भी या नहीं? शायद ताक़त का एक ध्रुवीय दो-धुरी वाली या बहुध्रुवीय नज़रिया पहले ही विविधता भरी वैश्विक व्यवस्था के लिए जगह ख़ाली कर रहा है. ऐसी व्यवस्था में तमाम तरह के देश और किरदार शामिल हैं. जिनकी पहचान, हित और मज़बूती अलग अलग हैं. जो देश एप्लिकेशन- यानी परिभाषा के हिसाब से अहम तकनीकों के ज़रिए दुनिया पर बहुत गहरी छाप छोड़ने की ताक़त रखते हैं.
आज प्रोजेक्ट क्यू के छठे बरस में ये तर्क मज़बूती से दिया जा सकता है कि आने वाले समय में सबसे अहम उभरती तकनीकें, क्वांटम कंप्यूटिंग, कंट्रोल, कम्युनिकेशन और इंटेलिजेंस (QC3I) होंगी. ये उभरते भविष्य की व्यवस्था के शिखर पर सिर्फ़ इसलिए नहीं होंगे कि ये आपस में मिलकर साइबर, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, सर्विलांस, सेंसिंग और अन्य मौजूदा तकनीकों की ताक़त कई गुना बढ़ा सकते हैं. क्वांटम असल में न्यूटन-हॉब्स के घात, पूर्वानुमान और पर्यवेक्षक से स्वतंत्र हक़ीक़त के उन सिद्धांतों को भी चुनौती देते हैं, जो ख़ात्मे की कगार पर पहुंच चुकी वैश्विक व्यवस्था को ताक़त देते हैं.
जब तकनीक का भविष्य क्वांटम की ओर आगे बढ़ेगा, तो हमारे वैश्विक नज़रिए और दुनिया की राजनीति को भी नए दौर की ओर बढ़ना होगा.
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James Der Derian is a Director Centre for International Security Studies The University of Sydney
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