हमारी प्राचीन शिक्षाप्रद कहानियों की क़िताब पंचतंत्र ‘स्वाभाविक सहयोगियों’ की बात करती है. अगर राजनीति में कभी स्वाभाविक सहयोगी होते हैं, तो यूरोपीय संघ (ईयू) और भारत को इस रिश्ते की मिसाल होना चाहिए. हमारा सांस्कृतिक आदान-प्रदान प्राचीन युग से है; हमारी भाषाओं की साझा जड़ें हैं; हमें जोड़ने वाले एक मानव सेतु के ज़रिये हमारी सीमाएं पहले के किसी भी दौर के मुक़ाबले ज़्यादा क़रीब हैं : मध्य पूर्व में लाखों भारतीय हैं, और मध्य पूर्व से लाखों भारतीय यूरोप में हैं. यूरोप और भारत एक भौगोलिक निरंतरता में हैं. और यूरोपीय संघ व भारत दोनों, जो ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ हैं, साझा ख़तरों और चुनौतियों का सामना करते हैं. अब हर रास्ता दिल्ली और ब्रसेल्स को जोड़ने वाला होना चाहिए.
यूरोप और भारत एक भौगोलिक निरंतरता में हैं. और यूरोपीय संघ व भारत दोनों, जो ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ हैं, साझा ख़तरों और चुनौतियों का सामना करते हैं. अब हर रास्ता दिल्ली और ब्रसेल्स को जोड़ने वाला होना चाहिए.
यहां हम इन तीन मुख्य चुनौतियों से पेश आने के लिए एक रूपरेखा पेश कर रहे हैं : हरित संक्रमण (ग्रीन ट्रांजिशन), डिजिटल कायाकल्प, और हमारे साझा भूराजनीतिक लैंडस्केप को सहेज कर रखना. इन तीनों मुद्दों पर, ईयू और भारत के बीच प्रत्यक्ष और निकट सहयोग न सिर्फ़ इन दो प्रमुख शक्तियों और उनके लोगों के लिए बेहद अहम होगा, बल्कि अमूमन पूरी दुनिया के लिए भी होगा.
हरित संक्रमण
जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए, ईयू और उसके सदस्य अपनी घरेलू कोशिशों को बढ़ा रहे हैं. यूरोपियन ग्रीन डील कई मुख्य पहलकदमियों में से बस एक है. यह दिखाती है कि किस गंभीरता के साथ ईयू जलवायु परिवर्तन के ख़तरे (जो इंसानी वजूद के लिए चुनौती है) से पेश आ रहा है. इसके साथ ही, यूरोप में इस बात को लेकर काफ़ी गुस्सा है कि ये प्रयत्न तब तक पर्याप्त साबित नहीं होंगे जब तक कि चीन और भारत भी ऐसे ही क़दम न उठाएं. उनकी चिंताएं समझ में आती हैं, लेकिन इस तरह के शब्दों में नैरेटिव बनाना कि ‘क्या हाल होगा दुनिया का अगर हर भारतीय के पास कार हो गयी’- बड़े होने के अहंकार से भरा और अनुपयुक्त है, ख़ासकर जब कोई भारत और ईयू के सदस्य देशों में प्रति व्यक्ति जीवाश्म ईंधन खपत की तुलना करता है. जो भी हो, ख़ासकर भारत के संबंध में, ईयू जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर आसानी से आगे बढ़ रहा है. भारत ने स्वच्छ ऊर्जा के मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय पहलकदमियों में अगुवाई की है. फ्रांस के साथ अंतरराष्ट्रीय सोलर अलायंस बनाना इसका एक उदाहरण है. इतना ही नहीं, पर्यावरण को बचाने की भारत की प्रतिबद्धता ग्रेटा थनबर्ग के हालिया दबाव या ‘फ्राइडेज फॉर फ्यूचर’ से नहीं उपजी है. पश्चिमी मानवकेंद्रीयतावाद (anthropocentrism), जिसमें एक्टिविस्ट ‘हमारे बच्चों के भविष्य’ के लिए जलवायु परिवर्तन की वकालत करते हैं, के विपरीत भारतीय दर्शन हमें सिखाता है कि यह धरती मनुष्यों, वनस्पतियों, जंतुओं और सभी जीवों के लिए है. इसलिए, भारतीयों के पास इस धरती को बचाने की प्रतिबद्धता के लिए गहरे तक समाये और समावेशी कारण हैं. इस प्रतिबद्धता पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए. इसके बजाय, ईयू को इस भारतीय ध्येय में निवेश करने के तरीक़े ढूंढ़ने चाहिए और हमारे साझा भविष्य के लिए समाधान पर मिलकर काम करना चाहिए.
पश्चिमी मानवकेंद्रीयतावाद जिसमें एक्टिविस्ट ‘हमारे बच्चों के भविष्य’ के लिए जलवायु परिवर्तन की वकालत करते हैं, के विपरीत भारतीय दर्शन हमें सिखाता है कि यह धरती मनुष्यों, वनस्पतियों, जंतुओं और सभी जीवों के लिए है. इसलिए, भारतीयों के पास इस धरती को बचाने की प्रतिबद्धता के लिए गहरे तक समाये और समावेशी कारण हैं.
इसे हासिल करने के लिए, हमें कार्रवाइयों की ज़रूरत है, शब्दों की नहीं. जर्मनी को ऊर्जा ज़रूरतों के लिए रूस पर अति-निर्भरता के जोखिमों की पहचान यूरोप में एक पूर्ण-स्तरीय युद्ध छिड़ने के बाद हुई है. बहुत से लोग जैसा चाह रहे होंगे, उसके मुक़ाबले विविधीकरण कहीं धीमा और ज़्यादा जटिल साबित हो रहा है. इस अनुभव की रोशनी में, यह मांग करना पहले के मुक़ाबले शायद और ज्यादा अतर्कसंगत है कि भारत चुटकी बजाते ही कोयले को ‘चरणबद्ध ढंग से बाहर’ कर दे. अगर ईयू जलवायु परिवर्तन की वैश्विक समस्या से निपटने के लिए गंभीर है तो सिर्फ ज़ुबानी जमा ख़र्च से काम नहीं चलेगा. उदाहरण के लिए, कार्बन सीमा समायोजन प्रणाली (Carbon Border Adjustment Mechanism) को एक ‘पॉवर्टी टैक्स’, जैसा कि भारत में इसे देखा जाता है, से कहीं अधिक होना चाहिए. इसे उभरती दुनिया में वैश्विक रूप से एकीकृत सेक्टरों में हरित संक्रमण के लिए वित्तपोषण और प्रोत्साहन का औज़ार बनना चाहिए. निम्न-कार्बन वाली ग्रोथ के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण तकनीकों के यूरोप और भारत जैसे साझेदारों द्वारा सह-सृजन और सह-स्वामित्व की ज़रूरत होगी. यूरोपीय पूंजी को उभरते विश्व में जलवायु-सचेतन विकास की ओर प्रवाहित करने के लिए प्रेरित करना होगा. यह ईयू पर है कि वह मुख्य सेक्टरों में ठीकठाक यूरोपीय वित्तपोषण के ज़रिये, बरास्ता सार्वजनिक-निजी साझेदारी, भारतीय कोशिशों का फलीभूत होना सुनिश्चित करे.
डिजिटल कायाकल्प
यूरोपीय संघ जीडीपीआर के ज़रिये डिजिटल गवर्नेंस के जन-केंद्रित मानदंड स्थापित करने की अगुवाई कर रहा है. भारत की आधार कार्ड योजना ने यह राह दिखायी है कि कैसे डिजिटलीकरण ग़रीबों के सशक्तीकरण और विकास को सुविधाजनक बनाने में भूमिका निभा सकता है. डिजिटल तकनीक के हानिकारक प्रभावों के कई सारे चिंताजनक उदाहरण पहले से मौजूद हैं : प्राधिकारवादी राज्यों द्वारा लोगों की निगरानी, साथ ही बाहरी तत्वों द्वारा बुनियादी ढांचे और सुरक्षा प्रणालियों के साथ छेड़छाड़ और उन पर नियंत्रण. अपने लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण तथा डिजिटल संप्रभुता को मज़बूत करने के लिए यूरोपीय और भारतीय सहयोग बेहद अहम होगा.
अगर ईयू जलवायु परिवर्तन की वैश्विक समस्या से निपटने के लिए गंभीर है तो सिर्फ ज़ुबानी जमा ख़र्च से काम नहीं चलेगा. उदाहरण के लिए, कार्बन सीमा समायोजन प्रणाली को एक ‘पॉवर्टी टैक्स’, जैसा कि भारत में इसे देखा जाता है, से कहीं अधिक होना चाहिए.
चीन पर अपनी निर्भरता (जैसे 5जी तकनीक और उसके बुनियादी ढांचे के विकास के लिए) से हटते हुए विविधता लाने में आपसी सहयोग इन दो लोकतांत्रिक शक्तियों के लिए फ़ायदेमंद साबित होगा. ईयू और भारत के बीच किसी व्यापार समझौते को इस मुख्य विचार को प्राथमिकता देना चाहिए. दोहरे उपयोग वाली तकनीक पर अनुसंधान सहयोग, इन नवाचारों को लागू करने और उनकी मार्केटिंग में सार्वजनिक-निजी भागीदारी, तथा डाटा गवर्नेंस व साइबर सुरक्षा के लिए नियम स्थापित करने के वास्ते मिलकर और समान सोच वाले गठबंधनों के ज़रिये काम करना अत्यावश्यक है. न ही ईयू और न ही भारत उस खेल में पीछे छूट सकते हैं, जिस पर अमेरिका में बोर्डरूमों का और चीन में पार्टी मुख्यालय का दबदबा है. भारत और ईयू को एक तकनीकी साझेदारी में प्रवेश करने की ज़रूरत है, जो इन सबके लिए अनुमति देती हो, और भरोसेमंद व एकीकृत सप्लाई चेन्स सुनिश्चित करने के लिए काम करती हो.
साझा भू-राजनीतिक परिदृश्य
हमारा साझा भूराजनीतिक परिदृश्य –भौगोलिक निकटता से परे विस्तृत और हिंद-प्रशांत समेत – हाल के वर्षों में चरम दबाव में रहा है. ईयू रूस द्वारा अपनी सीमाओं पर शुरू किया गया युद्ध झेल रहा है; भारत और उसके पड़ोसियों को हिमालय में व अपने पड़ोस के समुद्र में चीनी दुस्साहस बर्दाश्त करना पड़ा है.
भारत और ईयू को एक तकनीकी साझेदारी में प्रवेश करने की ज़रूरत है, जो इन सबके लिए अनुमति देती हो, और भरोसेमंद व एकीकृत सप्लाई चेन्स सुनिश्चित करने के लिए काम करती हो.
यह ईयू और भारत दोनों के लिए क्षेत्र में संतुलन बहाल करने में मदद के वास्ते साथ मिलकर काम करने का वक़्त है. ईयू को चीन के संबंध में झिझक छोड़ फ़ैसला लेना होगा; ‘साझेदार, प्रतिस्पर्धी, प्रतिद्वंद्वी’ का यूरोपीय मंत्र उस चीन से निपटने के लिए क़तई नाकाफ़ी है जिसने रूस के साथ ‘कोई सीमा नहीं’ वाली साझेदारी पर दस्तख़त किये हैं. भारत को भी अपनी निर्भरताओं पर दोबारा सोचने की ज़रूरत होगी. निकट आर्थिक व सैन्य संबंध विकसित करने के लिए दोनों लोकतंत्रों के पास अभी बिल्कुल वास्तविक प्रोत्साहन हैं.
नैतिकता के बारे में पाखंडी भाषणों को हटाकर समान सोच वालों की एक साझा सहानुभूति को जगह देनी होगी. और इसके लिए यूरोप के पसंदीदा औज़ार ‘सॉफ्ट पॉवर’ भर से बात नहीं बनेगी, बल्कि बुनियादी ढांचा परियोजनाओं, हरित निवेश और सैन्य सहयोग के ज़रिये ‘हार्ड पॉवर’ का भी इस्तेमाल करना होगा.
नैतिकता के बारे में पाखंडी भाषणों को हटाकर समान सोच वालों की एक साझा सहानुभूति को जगह देनी होगी. और इसके लिए यूरोप के पसंदीदा औज़ार ‘सॉफ्ट पॉवर’ भर से बात नहीं बनेगी, बल्कि बुनियादी ढांचा परियोजनाओं, हरित निवेश और सैन्य सहयोग के ज़रिये ‘हार्ड पॉवर’ का भी इस्तेमाल करना होगा. अपने आर्थिक और सुरक्षा हितों का एक दूसरे के साथ पुनर्संरेखण (री-अलाइनमेंट) करना, ईयू और भारत दोनों को अपने प्रिय मूल्यों- लोकतंत्र और बहुलतावाद के लिए खड़े होने में सक्षम बनायेगा.
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