Author : Rakesh Sood

Published on Aug 26, 2020 Updated 0 Hours ago

चूंकि पुराने तौर-तरीकों का आधार अब नहीं रहा, इसलिए दोनों पक्षों को यह सवाल पूछते हुए शुरुआत करनी होगी कि वे आने वाले दशकों में अपने रिश्ते की कैसी कल्पना करते हैं.

चीन की दीवार पर लिखी वो इबारतें जिसकी भारत लगातार अनदेखी करता रहा — भाग 2

पहला भाग यहां पढ़ें

यह साफ है कि सीमावर्ती क्षेत्रों में हालात सुधरने के विषय में कुछ प्रगति के मामले में 2005 उच्चतम बिंदु था, हालांकि, यह मामूली ही था. 2005 के बाद नियमित रूप से शिखर सम्मेलन स्तर की बैठकें होती रहीं और कुछ नए समझौते भी संपन्न हुए, लेकिन इनसे सीमा विवाद का समाधान नहीं हुआ. सचिव नियमित रूप से मिले, लेकिन सीमा के सवाल पर प्रगति हासिल करने में नाकाम रहे. इसकी वजह यह है कि हाल के वर्षों में, सचिव स्तर की वार्ता के एजेंडे का विस्तार हुआ है और अब द्विपक्षीय संबंधों के संपूर्ण आयाम के साथ-साथ क्षेत्रीय और वैश्विक घटनाओं पर विचारों का आदान-प्रदान होता है, जिससे मुख्य मुद्दे पर ध्यान कम हो गया है.

2012 में, भारत-चीन सीमा मामलों पर बातचीत और समन्वय के लिए एक प्रणाली की स्थापना को लेकर समझौता संपन्न हुआ. इसमें संबंधित विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारियों को “सीमावर्ती क्षेत्रों में दोनों पक्षों के सैन्य कर्मियों और प्रतिष्ठानों के बीच आदान-प्रदान और सहयोग का संचालन करने और उन्हें मजबूत करने के तरीकों और साधनों का अध्ययन करने” का ज़िम्मा दिया गया. इस समझौते के आर्टिकल 5 में कहा गया है कि वे “सीमा के सवालों के समाधान पर या विशेष प्रतिनिधि व्यवस्था के प्रभाव पर चर्चा नहीं करेंगे.”

“अगर भारत-चीन सीमा क्षेत्र में किसी इलाके में वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर सहमति नहीं है, तो दूसरी तरफ गश्त या पीछा” नहीं करेंगे. इसमें 2005 के प्रोटोकॉल में हुई सहमति के अनुसार अधिकतम संयम बरतने की ज़रूरत को दोहराया गया.

अगले वर्ष लद्दाख के देपसांग में लंबे समय तक गतिरोध के बाद सीमा रक्षा सहयोग पर एक और समझौता हुआ. आर्टिकल 6 दोनों पक्षों पर शर्त लगाता है कि “अगर भारत-चीन सीमा क्षेत्र में किसी इलाके में वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर सहमति नहीं है, तो दूसरी तरफ गश्त या पीछा” नहीं करेंगे. इसमें 2005 के प्रोटोकॉल में हुई सहमति के अनुसार अधिकतम संयम बरतने की ज़रूरत को दोहराया गया. ध्यान रखने वाली बात यह है कि 2012 और 2013 के समझौतों ने LAC या सीमा मुद्दे पर ठोस प्रगति नहीं दिखी थी; ये केवल दोहराया गया सुझाव है जो अब ज़मीनी स्तर पर काम नहीं कर रहा था.

ज़मीनी हक़ीकत कैसे बदली

भविष्य हमेशा अनिश्चितता से घिरा था और एक नीति आगे की धुंधली सड़क के लिए रोडमैप देने की कोशिश थी. दूसरा पक्ष सही तरीके से समझौते पर अमल कर रहा है, लगातार यह जानने की कोशिश ने तनाव को जन्म दिया जो आगे समस्या बनना ही था, और चीन के मामले में बिल्कुल ऐसा ही हुआ. 1988 से राजनीतिक यथार्थ नाटकीय रूप से बदल गया था, लेकिन भारतीय नीति निर्माताओं और नेताओं ने नीति की निरंतरता पर ही भरोसा रखा.

1988 में जब दोनों देशों ने अपने संबंधों में नए अध्याय की शुरुआत की, भारत की जीडीपी 296 अरब डॉलर (2010 के डॉलर मूल्य में) थी और चीनी जीडीपी 312 अरब डॉलर थी. प्रति व्यक्ति के हिसाब से देखें तो भारत मामूली तौर पर बेहतर ही था. दोनों देशों का रक्षा बजट 20 अरब डॉलर के बराबर था. एक दशक बाद 1998 में, भारत की जीडीपी 421 अरब डॉलर हो गई, जबकि चीन तेजी से एक हजार डॉलर अरब डॉलर पर पहुंच गया. भारतीय रक्षा खर्च बढ़कर 24 अरब डॉलर हो गया, जबकि चीनी खर्च बढ़कर 33 अरब डॉलर हो गया. यह अंतर बड़ा हो गया था और 2008 में, भारतीय जीडीपी 1.2 खरब डॉलर तक पहुंची तो चीनी अर्थव्यवस्था 4.6 खरब डॉलर पर लगभग चार गुना थी. भारतीय रक्षा बजट 44 अरब डॉलर था जबकि चीनी बजट 133 अरब डॉलर पहुंच गया था. बीते दशक के दौरान, खाई और अधिक चौड़ी हो गई है; चीनी जीडीपी भारत की पांच गुना है जबकि उसका रक्षा बजट बढ़कर भारत का चार गुना तक हो गया है.

ऐसा ही अंतर दूसरे क्षेत्रों में भी बढ़ रहा था. 1988 में लगभग शून्य से, द्विपक्षीय व्यापार ने सामान्य शुरुआत की जो 1998 तक 2 अरब डॉलर को पार कर गया. 2008 तक, चीन 41 अरब डॉलर के टर्नओवर के साथ भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार बन चुका था और भारत के 21 अरब डॉलर व्यापार घाटे में असंतुलन स्पष्ट था. वर्तमान में यह और बढ़कर 50 अरब डॉलर से ज़्यादा हो गया है, यह दर्शाता है कि मौजूदा किस्म के रिश्ते से भारत गैर-बराबरी के स्तर पर नुक़सान में जा रहा है.

चूंकि LAC के स्पष्टीकरण पर कोई प्रगति नहीं हुई थी हर पक्ष LAC को लेकर अपनी सोच के हिसाब से अधिक पुरज़ोर तरीके से गश्त में लगा था, ऐसे में बार-बार आमना-सामना होने लगा.

दूसरे शब्दों में, सभी क्षेत्रों में क्षमताओं में बढ़ती खाई एक सटीक प्रवृत्ति थी जो1988 की नीति के राजनीतिक आधार को कमजोर करती है. 1988 की मूल अवधारणा कि सीमा विवाद पर अधिक स्वीकार्य समाधान पाने के लिए समय बीतने के साथ भारत बेहतर स्थिति में होगा, अब सही नहीं रह गई थी. हालांकि, यह सच है कि भारत ने 1988 और 2008 के बीच काफी विकास किया और कई देशों के साथ अपने रिश्तों में सुधार किया, लेकिन चीन के मामले में भारत की स्थिति खराब होती गई.

जैसा कि सीमा पर सीबीएम (भरोसा बनाने वाले उपाय) का आकलन बताता है, लगभग यही समय था जब इन संवाद व्यवस्थाओं में प्रगति थमने लगी थी. 21वीं सदी को एशिया की सदी कहा जाता है जिसमें चीन और भारत दोनों का उदय भी शामिल था, द्विपक्षीय बयानों में अच्छी बातें  थीं, लेकिन 2008 के बाद इनका कभी ज़िक्र नहीं हुआ.

LAC पर स्पष्टीकरण प्रक्रिया रुक गई थी, यहां तक कि दोनों देशों ने गश्त भी बढ़ा दी थी. भारत द्वारा की गई रिपोर्ट में “ट्रांसग्रेशन (समझौता उल्लंघन)”  की संख्या एक साल में 400 से ज़्यादा होने लगी. भारत ने सीमा क्षेत्रों में अपनी कनेक्टिविटी के बुनियादी ढांचे में सुधार करने के लिए शुरुआत की. चूंकि LAC के स्पष्टीकरण पर कोई प्रगति नहीं हुई थी हर पक्ष LAC को लेकर अपनी सोच के हिसाब से अधिक पुरज़ोर तरीके से गश्त में लगा था, ऐसे में बार-बार आमना-सामना होने लगा. समझौता उल्लंघन से लंबे गतिरोध बने जिन्हें हल करने के लिए कूटनीतिक और राजनीतिक हस्तक्षेप की ज़रूरत थी. नए समझौतों में सिर्फ संयम की बात दोहराई गई, लेकिन बुनियादी कारणों को दुरुस्त करने या गश्त पर रोक लगाने में नाकाम रहे. संक्षेप में कहें तो, यह सिर्फ समय की बात थी कि आमना-सामना कब हिंसक हो जाए व मामला हाथ से निकल जाए और 15 जून की रात यही हुआ.

एक नई नीति की ज़रूरत

इस समय, विश्लेषक उन संभावित कारणों के बारे में अंदाज़ा लगा रहे हैं जो संकट का कारण बने. इन कारणों की एक लंबी लिस्ट है- देश में परेशानियों का सामना कर रहे चीनी नेतृत्व पर घरेलू दबाव, कोविड-19 महामारी से निपटने में  चीन की आलोचना से ध्यान बंटाने की कोशिश, पिछले साल लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने की घोषणा के बाद भारत के बयानों से नाखुश, भारत का सीमावर्ती क्षेत्रों में बुनियादी ढांचा मजबूत करना, अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते संबंधों के बीच अमेरिका-चीन संबंध लगातार बिगड़ने जाने की प्रतिक्रिया, या हाल के महीनों में ताइवान, हांगकांग और दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती आक्रामकता का एक हिस्सा भर है. हालांकि, भारतीय विश्लेषण में चीन के बर्ताव के पीछे छिपे राजनीतिक मक़सद को गहराई से समझने और उसकी पड़ताल करने की ज़रूरत है.

इस समय, दोनों पक्षों ने कड़ा रुख़ अपना लिया है, लेकिन मामला आगे बढ़ाना दोनों पक्षों के लिए फ़ायदेमंद नहीं है. इसके बावजूद, लंबे समय तक तनातनी की संभावना दिखाई देती है. यह भारत को समुचित सुरक्षा और निगरानी सुनिश्चित करते हुए सीमावर्ती क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के निर्माण पर अपनी योजनाओं की समीक्षा करने के लिए मजबूर करेगा. इस मामले में भी, दारबूक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी रोड सालों से बन रही थी और सड़क को सुरक्षित करने के लिए जोखिम वाली जगहों पर ऊंचाई पर कब्ज़ा करने से 2020 में हमारे सामने आने वाले अप्रिय आश्चर्य से बचा जा सकता था.

चूंकि 2020 की घटनाओं को बड़े पैमाने पर और कई जगहों पर होने के चलते हाल की घटनाओं से अलग करके देखा गया, इसलिए अंतिम रूप से सिर्फ़ यह नतीजा निकाला जा सकता है कि चीनी पक्ष एकतरफ़ा तौर पर अपनी कथित LAC से भारत को बलपूर्वक हटा देना चाहता था. इसलिए भारत ने अप्रैल तक की यथास्थिति बहाली की मांग की है. अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि यह मांग बातचीत से कैसे और कब पूरी होने वाली है. लद्दाख में चीनी हरकतें दक्षिण चीन सागर में इसकी ‘सलामी स्लाइसिंग रणनीति’ (पड़ोसी देशों पर छोटे-छोटे और छिपे हुए हमले जिनसे धीरे-धीरे बड़ा क्षेत्र हासिल कर लिया जाता है ) जैसी हैं, जहां लगातार लैंड रीक्लेमेशन (जलक्षेत्र का भराव करके) ने इसे उथली ज़मीन को रनवे और मिसाइल डिफेंस सिस्टम के साथ द्वीपों में परिवर्तित करने में सक्षम बनाया है, जिससे एक नई सैन्य स्थिति बन गई है. कुल मिलाकर सार यह है कि चीन के एकतरफ़ा रवैये ने यह साफ करते हुए कि 1988 की सोच अब टिकाऊ नहीं है, भारत को रिश्ते के बुनियादी आधार पर फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया है.

चूंकि 2020 की घटनाओं को बड़े पैमाने पर और कई जगहों पर होने के चलते हाल की घटनाओं से अलग करके देखा गया, इसलिए अंतिम रूप से सिर्फ़ यह नतीजा निकाला जा सकता है कि चीनी पक्ष एकतरफ़ा तौर पर अपनी कथित LAC से भारत को बलपूर्वक हटा देना चाहता था.

इसलिए, अब तीन दशक पुरानी नीति की गहन समीक्षा की ज़रूरत है. यह साफ हो गया है कि एक अस्पष्ट LAC से शांति और सौहार्द रहने की संभावना नहीं है. काल्पनिक अस्पष्टता ने थोड़ी देर के लिए काम किया, लेकिन इसका समय ख़त्म हो रहा था, ऐसा तथ्य जिसे भारतीय नीति नियंताओं को पहले ही समझ लेना चाहिए था, लेकिन पता नहीं क्यों वो इसे स्वीकार करने को अनिच्छुक थे. चीन को इस तरह की मजबूरी का सामना नहीं करना पड़ा क्योंकि उसने अपनी सोच में सुधार किया और जारी अस्पष्टता उसके लिए फ़ायदेमंद थी. संबंधित धारणाओं की समझ को औपचारिक रूप देना सिर्फ़ पहला कदम है; इसके बाद मतभेदों को हल करने की कठिन चुनौती आती है. और इस बीच, भविष्य में होने वाली घटनाओं को रोकने के लिए, LAC के अस्पष्ट मामलों में गतिविधियों को लेकर सीबीएम के एक नए प्रारूप पर काम करने की ज़रूरत होगी.

अतीत में, चीन का पाकिस्तान के साथ रक्षा, परमाणु और मिसाइल सहयोग था जो भारत के लिए लगातार परेशानी बना रहा, लेकिन इस पर कभी चर्चा नहीं हुई; यह आज भी मौजूद है और अब इसमें CPEC (चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर) भी शामिल हो गया है.

इस पर बातचीत लंबी और तर्क-वितर्क से भरी होने वाली है. 1990 के दशक की तुलना में, जब शुरुआती समझौते संपन्न हुए थे, आज द्विपक्षीय संबंध बहु-आयामी हो गए हैं, जो दोनों पक्षों को अतिरिक्त लाभ प्रदान कर रहे हैं और हालात को नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देने में फ़ायदा भी है. इस बीच चिंता के मुद्दे भी बढ़े हैं. अतीत में, चीन का पाकिस्तान के साथ रक्षा, परमाणु और मिसाइल सहयोग था जो भारत के लिए लगातार परेशानी बना रहा, लेकिन इस पर कभी चर्चा नहीं हुई; यह आज भी मौजूद है और अब इसमें CPEC (चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर) भी शामिल हो गया है. हालांकि, ढेर सारे दूसरे मुद्दे भी हैं- व्यापार असंतुलन, मार्केट तक पहुंच, विदेशी निवेश आने के नियम, वाणिज्यिक गतिविधियों पर नॉन-टैरिफ प्रतिबंध, भारत के पड़ोस में हिंद महासागर सहित अन्य इलाकों में चीन की बढ़ती मौजूदगी, दक्षिण चीन सागर में गतिविधियां, BRI (बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव), मुक्त और खुले इंडो-पैसेफिक की व्याख्या और क्वाड (क्वाडिलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग) की भूमिका, और तमाम मुद्दे, जिसमें दोनों पक्ष में हाल के वर्षों में बात नहीं हुई है, लेकिन तिब्बत, ताइवान, शिनजियांग की तरह दोबारा खड़े हो सकते हैं.

संक्षेप में, चूंकि पुराने तौर-तरीकों का आधार अब नहीं रहा, इसलिए दोनों पक्षों को यह सवाल पूछते हुए शुरुआत करनी होगी कि वे आने वाले दशकों में अपने रिश्ते की कैसी कल्पना करते हैं.

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