Authors : Samir Saran | Trisha Ray

Published on Dec 27, 2020 Updated 0 Hours ago

आज दुनिया फिर से इतिहास के मुहाने पर खड़ी है. इसलिए हमें एक नई बुनियाद रखनी होगी, जो अतीत की कमजोरियों से मुक्त हो.

डिजिटल इतिहास के मुहाने पर दुनियाः भविष्य के लिए 9 सबक़

CyFy 2020 से चौथी औद्योगिक क्रांति के लिए निकलीं अहम बातें

महामारी के उथलपुथल वाले बरस से निकलकर हम एक ऐसे साल में क़दम रखने जा रहे हैं, जिसमें क्या होगा, किसी को नहीं पता. 2021 के बारे में अगर दावे के साथ कोई बात कही जा सकती है तो सिर्फ यही कि इसमें इनोवेशन यानी नई खोज के लिए तकनीक का इस्तेमाल तूफ़ानी रफ्त़ार पकड़ेगा. यानी, हमारा डिजिटल फ़्यूचर रोमांचक होने वाला है, लेकिन इसकी भी तस्वीर अभी धुंधली ही है. यह एक विशालकाय ब्लैकहोल की तरह है. वैसे, डिजिटल फ़्यूचर के अभी जो संकेत दिख रहे हैं, वे भी कम कमाल नहीं.

डिजिटल फ़्यूचर के बारे में गहन विमर्श की ज़रूरत है, इससे किसी को इनकार नहीं. इसके बावजूद अब तक इस दिशा में पड़ताल, पहल और उन्हें लागू करने को लेकर हमने सुस्ती बरती है. डिजिटल वर्ल्ड में कोडिंग करने वाले हमारा भविष्य तैयार कर रहे हैं, लेकिन हमारा उनसे कोई तालमेल नहीं है. वे अर्थव्यवस्थाओं को बदल रहे हैं. समाज और राजनीति को भी. सच तो यह है कि मानवता का स्वभाव बहुत तेज़ी से बदल रहा है, जिसके दूरगामी नतीजे सामने आएंगे.

इस डिजिटल युग की शुरुआत में जो देश अच्छी पहल करेंगे, वे चौथी औद्योगिक क्रांति के अगुवा होंगे. 21वीं सदी के मध्य तक ये देश और ताक़तवर बनकर उभरेंगे. जो इससे तालमेल नहीं बना पाएंगे, उन देशों को इसके गंभीर नतीजे भुगतने पड़ेंगे. नए दशक में दाखिल होने से पहले दिल्ली में ऑब्जर्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन ने सालाना CyFy कॉन्फ़्रेंस आयोजित किया, जिसमें जाने-माने विचारक और वक्ता शामिल हुए. इस कॉन्फ़्रेंस में टेक्नोलॉजी, सिक्योरिटी और सोसायटी पर फोकस किया गया. यहां हम इस दौरान हुई बहस और विमर्श से निकले 9 रोमांचक आइडिया पेश कर रहे हैं.

1. डिजिटल क्षेत्र में जीत का परचम लहरा रहा चीन

अमेरिका ने 20वीं सदी में जो पाया, चीन ने उसे 21वीं सदी में पाने का लक्ष्य रखा है. CyFy कॉन्फ़्रेंस का पहला सबक़ यही है कि चीन का उभार जारी रहेगा और इससे वैश्विक व्यवस्था (वर्ल्ड ऑर्डर) में भारी बदलाव होगा. अमेरिका और उसके सहयोगी देश एक तानाशाह डिजिटल शक्ति को उभरते हुए देख रहे हैं. कोविड-19 महामारी ने उसका दुस्साहस और बढ़ा दिया है. चीन आज बिग डेटा और चेहरे की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर (फेशियल रिकग्निशन तकनीक) की मदद से निगरानी और दमनकारी नेटवर्क को और मजबूत कर रहा है. मिसाल के लिए, चाइना इलेक्ट्रॉनिक्स टेक्नोलॉजी ग्रुप कॉरपोरेशन (CETC) को लीजिए. यह डिफेंस कॉन्ट्रैक्टर है, जो ऑनलाइन स्ट्रीमिंग करने वालों के ‘असामान्य व्यवहार’ या निगरानी कैमरे लगाने जैसे भविष्य के एप्लिकेशन ऑफर कर रहा है, जिसकी सूचना पुलिस को दी जाएगी.[i] दुनिया के कई मुल्कों की भी चीन की ऐसी तकनीक में दिलचस्पी है, ताकि वे अपने नागरिकों को कंट्रोल कर सकें.

अमेरिका और उसके सहयोगी देश एक तानाशाह डिजिटल शक्ति को उभरते हुए देख रहे हैं. कोविड-19 महामारी ने उसका दुस्साहस और बढ़ा दिया है.

इस बीच, अमेरिका और यूरोप में पहले वाला एका नहीं दिख रहा. यूरोप उभरती हुई तकनीक की दुनिया में अपनी खास जगह बनाना चाहता है. वह नए टेक्नोलॉजी चैंपियंस को आगे बढ़ाना चाहता है, जो इस क्षेत्र में अमेरिका के दबदबे को चुनौती दे सकें. यूरोपीय संघ (ईयू) का प्रेसिडेंट पद हासिल करने के बाद जर्मनी ने डिजिटल संप्रभुता (डिजिटल सॉवरेनिटी) को ईयू की डिजिटल पॉलिसी की बुनियाद बनाने की अपील की है.[ii] नया डिजिटल सेवा कानून शायद इंटरमीडियरी की जवाबदेही में बुनियादी बदलाव लाए, जो डिजिटल अधिकारों और आज़ादी के लिहाज से मील का नया पत्थर होगा.[iii]

अटलांटिक के पार अमेरिका ने यह जाहिर कर दिया है कि वह चीन की टेक्नोलॉजी से डरा हुआ है, लेकिन अभी तक उसने ड्रैगन के डिजिटल विस्तारवाद को रोकने के लिए ताक़तवर डिजिटल अलायंस बनाने की पहल नहीं की है. इससे एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या अमेरिका और यूरोपीय देश इस खतरे के मुकाबले के लिए साथ आएंगे, जो अभी खेमों में बंटे हुए और घरेलू मामलें में उलझे हैं? अधिनायकवादी तकनीक दस्तक दे रही है, क्या पश्चिमी देश इसे चुनौती देने को तैयार हैं? क्या अमेरिका की नई सरकार इस दिशा में नई और अर्थपूर्ण पहल करेगी? या वह बाहरी दुनिया में जो हो रहा है, उसकी तरफ से आंखें बंद किए रहेगी? जिन लोगों को लग रहा है कि चीन के साथ बातचीत करने से बात बन सकती है, वे ग़लत हैं. वह किसी की नहीं सुनेगा, न ही निकलने का कोई रास्ता नहीं देगा. वह कहेगा- आप हमारे साथ आइए नहीं तो आप हमारे खिलाफ माने जाएंगे. इसलिए टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में बढ़िया काम कर रहे देशों का डिजिटल सदी में उदारवाद की रक्षा के लिए साथ आना ज़रूरी है.

2. बहुदेशीय व्यवस्था का अंत और गुटों वाले दौर की वापसी

अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था फेल हो रही है, इसमें दम नहीं रह गया है… इस तरह की बातों में कुछ भी नया नहीं है. आज जो वैश्विक सच्चाई है, ऐसे बयानों से उसी का स्याह पहलू सामने आता है. लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि आपदा में ही अवसर बनते हैं. आज की वैश्विक व्यवस्था में छोटे समूहों की भूमिका और उनके केंद्र में आने की आशा भी दिख रही है. क्षेत्रीय भागीदारी, लोकतांत्रिक देशों के बीच अलायंस और खास मकसद से कुछ देशों के साथ आने और एक मंच बनाना, इस मुश्किल वक्त में काफी अहमियत रखता है. इस तरह की पहल की सबसे अच्छी मिसाल हैं ऑस्ट्रेलिया, भारत और जापान, जो चीन को देखते हुए मुक्त, पारदर्शी, समावेशी, किसी से भेदभाव न करने वाली व्यापार व्यवस्था चाहते हैं और वे सप्लाई चेन के क्षेत्र में पहल के लिए साथ आ रहे हैं.[iv] साझे खास मकसद के लिए बनाए जा रहे ऐसे छोटे समूह उन ज़रूरतों को ख़त्म कर रहे हैं, जिनसे बहुदेशीय व्यवस्था फलती-फूलती है.

आज की वैश्विक व्यवस्था में छोटे समूहों की भूमिका और उनके केंद्र में आने की आशा भी दिख रही है. क्षेत्रीय भागीदारी, लोकतांत्रिक देशों के बीच अलायंस और खास मकसद से कुछ देशों के साथ आने और एक मंच बनाना, इस मुश्किल वक्त में काफी अहमियत रखता है.

पिछले साल आई कोरोना महामारी और उससे हुई उथलपुथल से दुनिया के विकल्प सीमित कर दिए हैं. इनमें से एक रास्ता छोटे और साझे हित वाले देशों को साथ लाकर बहुदेशीय मंच के फिर से निर्माण का है. आशा है कि समय के साथ इस पहल से एक समावेशी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बनाने में मदद मिलेगी. हिंद-प्रशांत क्षेत्र में जब अमेरिका ने मजबूत और एक सुरक्षित टेक्नोलॉजी नेटवर्क बनाने की अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया तो इन देशों ने उसे अपने सिर ले लिया. CyFy में ईयू, आसियान (आपसी खींचतान के कारण मुश्किल लग रहा है) और हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लोकतांत्रिक देशों की टेक्नोलॉजी से जुड़े कानून और नियमों को मजबूत करने, उनकी रक्षा में भूमिका और राजनीति के बारे में खुलकर चर्चा हुई.

देश मायने रखते हैं और उन देशों की लीडरशिप को वैश्विक साझेदारी का नेतृत्व करना होगा, ताकि इस सदी में भी मानवता का भला हो सके. आज दुनिया राजनीति, आर्थिक और वैचारिक धाराओं के हिसाब से बंटी हुई है. ऐसे में प्रतिद्वंद्वियों के साथ बातचीत की अहमियत तो होगी, लेकिन अर्थहीन सर्वसम्मति वाला तरीक़ा काम नहीं आएगा. आज हमें एक्शन की ज़रूरत है, सिर्फ पाक नीयत वाली घोषणाओं से काम नहीं चलेगा. आज जिस तेजी से टेक्नोलॉजी का नया चेहरा सामने आ रहा है और उसमें जो बदलाव हो रहे हैं, उनके सामने संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं बहुत सुस्त दिखती हैं. साथ ही, ताक़तवर देशों के हितों की वजह से वे इतनी कमजोर हो चुकी हैं कि वे बड़ा असर नहीं डाल सकतीं.

3. ग्लोबलाइजेशन पर सवाल

कोविड-19 के बाद के दौर में ग्लोबलाइजेशन (वैश्वीकरण) में पहले वाली बात नहीं रह जाएगी. इसके बावजूद वैश्वीकरण के इस अलग दौर में अलगाव पहले की तरह आसान नहीं होगा. यह सोच कि आप डिजिटल वर्ल्ड को रियल वर्ल्ड से आसानी से अलग कर सकते हैं, ग़लत है. अगर आप अपने डिजिटल प्लेटफॉर्म्स से कंपनियों को हटा देते हैं तो उनके साथ माल और सेवाओं का पारंपरिक व्यापार बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा. इसलिए भविष्य में व्यापार और कनेक्टिविटी का अलग रंग दिख सकता है.

अगर आप अपने डिजिटल प्लेटफॉर्म्स से कंपनियों को हटा देते हैं तो उनके साथ माल और सेवाओं का पारंपरिक व्यापार बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा. इसलिए भविष्य में व्यापार और कनेक्टिविटी का अलग रंग दिख सकता है.

इकनॉमिक ग्रोथ, राष्ट्रीय पहचान और डिजिटल टेक्नोलॉजी के साथ आने से ‘चारदीवारी से घिरा वैश्वीकरण या बाड़ेबंदी वाला वैश्वीकरण (गेटेड ग्लोबलाइजेशन)’ दिखेगा. इसमें एक देश किसी अन्य देश के भरोसे नहीं रहना चाहेगा. उसे ठीक भी नहीं माना जाएगा. सप्लाई चेन भी राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं को देखते हुए तैयार की जाएगी. समय के साथ देश का डेटा, ह्यूमन कैपिटल और उभरती टेक्नोलॉजी के बाहर जाने को जोखिमभरा माना जाने लगेगा. स्वायत्तता और स्वदेशी क्षमता पर फोकस के साथ सीमापार सायबर ऑपरेशन और सायबर हमले बढ़ेंगे.

व्यापार को भी उसी तरह से शर्तों में बांधा जा सकता है, जिस तरह से जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन (GDPR) के जरिए डिजिटल इकनॉमी की हद तय की गई है. ब्लू डॉट नेटवर्क और सप्लाई चेन इनीशिएटिव से परमिशन और परमिट की एक लेयर बनेगी, जो डिजिटल फ्रीवेज के लिए टोल प्लाजा जैसी होगी. हाइपर इंटरकनेक्टिविटी को ख्याल करके डिजिटल डोमेन बनाया गया था. लेकिन नीतिगत बाधाओं के बीच क्या यह तरक्की की राह पर बढ़ सकेगा?

4. टेक्नोलॉजी और सरकारों के सामने अनिश्चितता वाला दौर

लोकतांत्रिक देशों और टेक्नोलॉजी के बीच एक नया और दिलचस्प समीकरण बन रहा है, जिससे एक गंभीर सवाल खड़ा हुआ हैः अगर कोई लोकतांत्रिक देश टेक्नोलॉजी को पूरी तरह नियंत्रित कर ले तो क्या वहां लोकतंत्र बचा रह सकता है? यह सवाल स्टैनफ़ोर्ड सायबर पॉलिसी सेंटर में इंटरनेशनल डायरेक्टर मारिती शाका ने उठाया.[v] आज ‘टेक्नो-नेशनलिस्ट’ नैरेटिव में तकनीक को भी शामिल किया जा रहा है. यानी किसी देश के हितों को उसकी तकनीकी क्षमताओं के साथ मिलाया जा रहा है, जबकि ‘अन्य’ को इससे बाहर रखा जा रहा है. यह टेक्नो-नेशनलिस्ट नैरेटिव अक्सर दिग्गज टेक्नोलॉजी कंपनियों की तरफ से आ रहा है, जो संबंधित देश की संरक्षणवादी ज़ुबान में बोल रही हैं. मार्क जकरबग ने अमेरिकी संसद में सुनवाई के दौरान जो लिखित बयान दिया था, उसमें खुलेपन और निष्पक्षता जैसे अमेरिकी आदर्शों की रक्षा का जिक्र था, जिसके दूसरे छोर पर चीन (तानाशाही रवैया) है.[vi]

इसी सवाल से एक और प्रश्न निकलता है कि अगर लोकतांत्रिक देश टेक्नोलॉजी को रेगुलेट न करें तो क्या वे बचे रह पाएंगे? सोशल मीडिया से ध्रुवीकरण और अलगाव बढ़ रहा है. इसे देखते हुए कुछ जानकार अभी से लोकतंत्र का शोकगीत गाने लगे हैं.[vii] इन सवालों के जवाब स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि अगर हम लोकतंत्र को बचाना और मजबूत करना चाहते हैं तो खुली बहस के मंच बनाए रखने होंगे और ईमानदार राजनीतिक तंत्र की रक्षा करनी होगी.

चाहे रेगुलेशन हो, शिक्षा, प्रोत्साहन या नियम, हमारे पास जो भी संसाधन मौजूद हैं, उनकी मदद से हमें वैसे जवाब ढूंढने होंगे, जिनसे यह मुमकिन हो सके. हमारा समाज जिस तरह से गढ़ा जा रहा है और उसमें जो दरारें दिख रही हैं, टेक्नोलॉजी का बुरा असर उसे और बढ़ा सकता है. क्या कंपनियों, समुदायों और सरकारों के डिजिटल एथिक्स की ख़ातिर कोई नई रेगुलेटरी समझ सामने आ सकती है? नए दशक में इस आचारसंहिता को बनाने के लिए एक अनकहा मुक़ाबला शुरू हो सकता है. हालांकि, यह देखना होगा कि इसके लिए किसकी आचारसंहिता को स्वीकार किया जाएगा और इससे भी बड़ी बात कि उसे किस मकसद के लिए अपनाया जाएगा.

5. अनएकाउंटेबल टेक और कॉरपोरेट बोर्डरूम

बड़ी कंपनियों, टेक्नोलॉजी और सामाजिक रिश्ते में जो बदलाव आया है, हम उसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते. अमेरिका, ईयू, ऑस्ट्रेलिया और भारत सहित अन्य जगहों पर जिस तरह से एंट्री-ट्रस्ट एक्शन लिए गए हैं, उन्हें देखते हुए लगता है कि कंपनियों से जवाबदेह बोर्डरूम की आशा की जा रही है[viii] और जल्द ही यह पूरी भी हो सकती है. आज दुनिया में इस विषय पर जो बहस चल रही है, उससे तय होगा कि इसकी शक्ल क्या रहती है. लेकिन इतना तो तय है कि आने वाले वक्त में कॉरपोरेट गवर्नेंस का चेहरा आज जैसा नहीं रह जाएगा. बड़ी कंपनियां काफी दबदबा रखती हैं. उनके पास चीज़ों को प्रभावित करने की क्षमता और दमखम है. इसलिए उन्हें उस समुदाय के हितों को लेकर सचेत रहना होगा, जिसकी वे सेवा कर रही हैं. नए कॉरपोरेट गवर्नेंस का ब्लूप्रिंट किसी क्षेत्र विशेष से प्रभावित नहीं होना चाहिए. इसका जो ढांचा बने, उसका कोई संदर्भ हो और उसमें एक सांस्कृतिक संवेदनशीलता भी होनी चाहिए. आज विशालकाय कंपनियां हमारी पसंद तक को प्रभावित कर रही हैं. ऐसे में यह उनकी ज़िम्मेदारी बनती है कि कम्युनिटी और कंपनी के हित नैतिक रूप से एक हों.

अगर किसी प्रोग्रामर के कोड का लोगों की ज़िंदगी पर असर पड़ रहा हो तो हमें इसके लिए उसकी जवाबदेही तय करनी होगी. असल में हमें ऐसे एल्गोरिद्म चाहिए, जो न सिर्फ पारदर्शी हों बल्कि वे ऐसे ही नज़र भी आएं.

कॉरपोरेट बोर्डरूम से बाहर, हम बंगलुरु, सिलिकॉन वैली, तेल अवीव और दूसरे टेक्नोलॉजी सेंटरों में काम करने वाले प्रोग्रामरों या कोडर्स की भूमिका की भी अनदेखी नहीं कर सकते. सॉफ्टवेयर पर हमारी निर्भरता ज्यों-ज्यों बढ़ रही है, उसे देखते हुए क्या इन कोडर्स को मनमानी करने की छूट दी जा सकती है, वह भी बगैर किसी जवाबदेही के? जिस तरह से हमारी ज़िंदगी एल्गोरिद्म के मकड़जाल में उलझती जा रही है, यह साफ हो गया है कि हमें उसके रहस्य से पर्दा हटाना होगा. इनसे जुड़े सवालों पर चुप्पी अब नहीं चलेगी. बगैर जवाबदेही वाले एल्गो को भी अब बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए. अगर किसी प्रोग्रामर के कोड का लोगों की ज़िंदगी पर असर पड़ रहा हो तो हमें इसके लिए उसकी जवाबदेही तय करनी होगी. असल में हमें ऐसे एल्गोरिद्म चाहिए, जो न सिर्फ पारदर्शी हों बल्कि वे ऐसे ही नज़र भी आएं.

6. महामारी और डिजिटल सोसायटी

महामारी ने जीवन और अपनी आदतें बदलने या कम से कम उन पर गौर करने के लिए हमें मजबूर कर दिया है. हम उपभोग करते हैं, हम एक दूसरे से बात करते हैं और टेक्नोलॉजी की मदद से एक दूसरे से जुड़ भी रहे हैं. एक साल बाद कोविड-19 ने न सिर्फ हमारे जीवन में टेक्नोलॉजी का दखल बढ़ाया है बल्कि इसने हमारे सामने नए सच भी रखे हैं, खासतौर पर प्राइवेसी को लेकर. प्राइवेसी को लेकर बढ़ती चिंता डेटा के मालिकाना हक में बदलाव के सवाल से जुड़ी है. महामारी ने बड़ी कंपनियों को अपनी भूमिका बदलने और टेक्नोलॉजिकल डिवाइसेज, प्रोडक्ट्स और सर्विसेज के कंट्रोल का बहाना दे दिया है.[ix]

हमारे रोज़मर्रा की जिंदगी में डिजिटलाइजेशन का दखल बढ़ने से एक-एक इंसान की निगरानी का जोखिम पैदा हो सकता है और उस पर नजर रखी जा सकती है. इससे ‘लिबरटेरियन पैटरनलिजम’ की स्थिति बन सकती है, जिसमें सरकारी और निजी संस्थान इंसानी आदतों को प्रभावित करने की स्थिति में आ जाएं. इस बात को इस बिना पर सही ठहराया जा रहा है कि लोग बिना पूरी सूचना जुटाए किसी चीज़ को चुनते हैं और इसमें एक तरह का पूर्वाग्रह शामिल होता है. वैसे, लिबरटेरियन पैटरनलिजम में किसी इंसान के चुनने की आज़ादी में दखल नहीं दिया जाता.

इसके दूसरे छोर पर अगर इस नए माहौल में नागरिकों को बरगलाया जाता है तो उससे एक तरह से हॉब्सेयिन सोशल कॉन्ट्रैक्ट साकार हो जाएगा, जिसमें नागरिकों को खास राजनीतिक धारा की तरफ मोड़ने की बात कही गई है.

डेटा और इंसानी आजादी को बरकरार रखने के लिए इन सभी बदवालों के साथ इंडिविजुअल चॉइस की रक्षा के लिए व्यवस्था को मजबूत करना होगा. निजी आज़ादी और अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त कानून बनाने होंगे ताकि हम जो भी वैल्यू क्रिएट करें, उससे लोगों का हित सधे.

7. सोशल कॉन्ट्रैक्ट को फिर से लिखना होगा

दुनिया को आज नए सोशल कॉन्ट्रैक्ट यानी डिजिटल सोशल कॉन्ट्रैक्ट की जरूरत है. महामारी ने ऑफिस में काम करने की व्यवस्था को हिलाकर रख दिया है. इससे तीन पी यानी पेचेक, प्रोटेक्शन और परपज ऑफ इंडिविजुअल्स को लेकर नई बहस शुरू हो गई है. 2020 की दूसरी तिमाही में महामारी के कारण 47.5 करोड़ फुल टाइम रोज़गार के बराबर नौकरियां ग़ायब हो गईं.[x] बड़े पैमाने पर लोगों के हाथ से हेल्थ इंश्योरेंस और दूसरे फायदे निकल गए, जो वर्क कॉन्ट्रैक्ट का हिस्सा थे और आज उन्हें इनकी सबसे ज्यादा जरूरत है.

दुनिया को आज नए सोशल कॉन्ट्रैक्ट यानी डिजिटल सोशल कॉन्ट्रैक्ट की जरूरत है. महामारी ने ऑफिस में काम करने की व्यवस्था को हिलाकर रख दिया है. इससे तीन पी यानी पेचेक, प्रोटेक्शन और परपज ऑफ इंडिविजुअल्स को लेकर नई बहस शुरू हो गई है.

अब जो नई व्यवस्था बन रही है, उसमें रोज़गार और उसके कॉन्ट्रैक्ट नई शर्तों पर हो रहे हैं. इसमें सामाजिक सुरक्षा और सबके लिए न्यूनतम मजदूरी की बात हो रही है. इसमें सरकार, दिग्गज टेक कंपनियों और इंडिविजुअल्स की भूमिका बदल रही है. दुनिया में आज ऑफ़िस से बाहर से अधिक से अधिक लोग काम कर रहे हैं. इससे ऐसी कंपनियों के लिए अलग-अलग देशों से लोगों को काम पर रखने के मौके बने हैं. उनके पास उस समुदाय के लोगों को जोड़ने का मौका है, जो ऐतिहासिक तौर पर हाशिये पर रहे हैं. हालांकि, हमें इनके साथ आने वाले बदलावों का भी खयाल रखना होगा, जैसे सुरक्षित और समावेशी डिजिटल वर्कस्पेस, तकनीक में होने वाले बदलावों के साथ तालमेल बिठाने, इंसान से जिस कौशल की मांग हो उसे पूरा करना, एंप्लॉयमेंट डिसप्लेसमेंट. जैसे-जैसे हम वर्चुअल फ़र्स्ट के कामकाजी माहौल की तरफ बढ़ रहे हैं, हमें इसकी खास कोशिश करनी होगी कि कोई पीछे न छूट जाए.

जो समुदाय आज मुश्किल में दिख रहे हैं, उनकी तरफ न सिर्फ सरकार बल्कि बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों को भी हाथ बढ़ाना होगा. आखिर इन दोनों को ही उनके डेटा से फायदा हुआ है. इसलिए वे जो टेक्नोलॉजी तैयार कर रही हैं और जिनका लाभ ले रही हैं, उनसे प्रभावित होने वाले समुदाय के साथ पुल बनाने का काम भी उन्हें ही करना होगा. आज हमें जो मौका मिला है, उसका फायदा उठाकर ऐसी तकनीक बनानी होगी, जिससे मानवता का भला हो सके. लोगों को ध्यान में रखकर इनोवेशन करने होंगे, अब सिर्फ इसके बारे में कोरी बातें करने से काम नहीं चलेगा.

8. झूठ की महामारी

झूठ की महामारी के विरुद्ध भी एक ज़ोरदार संघर्ष चल रहा है और यह महामारी से लड़ाई के साथ-साथ चल रही है. ग़लत सूचनाओं का इस्तेमाल आज बिज़नेस और राजनीतिक तंत्र को अव्यवस्थित करने के लिए हो रहा है. इसके ज़रिये सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ने की भी कोशिश हो रही है, वह भी लोगों की जान की कीमत पर.[xi] झूठ की इस महामारी ने न जाने कितनी जानें ली हैं, जिन्हें रोका जा सकता था.

कितनी भी डिजिटल डिस्टेंसिंग हो, उससे फ़ेक न्यूज़ को रोकने में मदद नहीं मिल रही है. आज जो दो विपरीत सिरों में बंटा सूचना तंत्र दिख रहा है, उसके बरक्स एक नया गारंटर खड़ा होना चाहिए, जिस तक सबकी पहुंच हो. कोई भी एक इकाई वैश्विक सूचना तंत्र की ईमानदारी सुनिश्चित नहीं कर सकती. इसके लिए सरकार, दिग्गज टेक्नोलॉजी कंपनियों और पब्लिक, तीनों को साथ आना होगा.

सरकार ग़लत या झूठी ख़बरों का सच बताए और उसके साथ हाई क्वालिटी कंटेंट को बढ़ावा दे. बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियां ग़लत सूचनाओं को हटाने के लिए एल्गोरिद्म तैयार कर सकती हैं. फ़ेक न्यूज़ के ज़रिये जो वित्तीय लाभ लिए जा रहे हैं, वह उन्हें भी रोक सकती है. इन कंपनियों को अधिक जवाबदेह बनना होगा. अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान जो तत्परता और जोश इन लोगों ने दिखाया, उसे देखते हुए इस मसले के समाधान की एक उम्मीद बंधी है.

सरकार ग़लत या झूठी ख़बरों का सच बताए और उसके साथ हाई क्वालिटी कंटेंट को बढ़ावा दे. बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियां ग़लत सूचनाओं को हटाने के लिए एल्गोरिद्म तैयार कर सकती हैं. फ़ेक न्यूज़ के ज़रिये जो वित्तीय लाभ लिए जा रहे हैं, वह उन्हें भी रोक सकती है. इन कंपनियों को अधिक जवाबदेह बनना होगा.

आखिर में, लोगों को सूचना के अलग-अलग जरियों की मदद से अपने लिए इसका दायरा बढ़ाना होगा. सोशल मीडिया पर कुछ भी पोस्ट करने से पहले पढ़ना जरूरी है. उन्हें फ़ेक न्यूज़ का पर्दाफ़ाश करना और उसके बारे में दूसरों को आगाह भी करना चाहिए. अगर हम सब मिलकर काम करें तो झूठ की इस महामारी का ‘वैक्सीन’ तैयार कर सकते हैं.

9. #टेकफॉरगुड- उम्मीद की किरण

क्षितिज पर चारों ओर छाये धुंधलके के बीच आखिरकार कुछ रोशनी और साफ आसमान दिखने लगा है. टेक्नोलॉजी आज उस मुकाम पर है, जहां कम्युनिटी को आवाज़ मिलने लगी है और वे अपने भविष्य की राह बदल रही हैं. इससे आशा की एक किरण दिखी है. दुनिया भर में, खासतौर पर एशिया और अफ्रीका में, टेक्नोलॉजी की मदद से लोगों में नई चाहत पैदा हो रही है और वे अपने लिए नए लक्ष्य तय कर रहे हैं. अफ्रीकी संघ ने डिजिटल सोसायटी और इकॉनमी में विविधता, उनका विकास करने और मालिकाना हक जताने की ओर ध्यान दिलाया है.[xii] कम्युनिटी डेटा पहले एक धुंधला विचार था, जो आज मुख्यधारा की बहस में आ चुका है. इसे सराहा जा रहा है. मिसाल के लिए, भारत का नॉन-पर्सनल डेटा गवर्नेंस फ्रेमवर्क.[xiii]

एक तरफ जब महामारी हमारी ज़िंदगी में उथलपुथल मचा रही थी, तब हमने देखा कि सरकार किस तरह से टेक्नोलॉजी की मदद से समाज के हित में कदम उठा रही है. हमने यह भी देखा कि बिज़नेस कम्युनिटी ने कितनी ईमानदारी से मदद करने की कोशिश की. इस दौरान महिलाओं की तरफ से पहल करके मौके का फायदा उठाने की बात भी नजर आई.

महामारी के बाद का दौर हमें एक विविध और समावेशी डिजिटल ऑर्डर बनाने का मौका दे रहा है. हमें विविधता को नए सिरे से परिभाषित और अल्पसंख्यकों की मदद करनी चाहिए. यह भी देखना चाहिए कि कोविड-19 पर युद्ध के मलबे से जो नई दुनिया सामने आएगी, उसमें महिलाएं अहम भूमिका अदा करें. आज दुनिया फिर से इतिहास के मुहाने पर खड़ी है. इसलिए हमें एक नई बुनियाद रखनी होगी, जो अतीत की कमजोरियों से मुक्त हो.


[i] What footage do Public Security Bureaus capture every day? The answer will shock you!”, Taihe, January 10, 2019.

Translated by Jeffrey Ding: https://docs.google.com/document/d/13QqWIFAhNsMnV9uEAc1jK6IBjMzy3c_D_75
w7wTcnmc/edit#heading=h.xcykam

Original Mandarin: https://mp.weixin.qq.com/s/ir3RR6TfcJ_vgBche6LS3g?fbclid=IwAR2x9oqPS6GxbFewbMm8TlVzwy-M8Eee0oI3Gplrn-BV6B2_VLhVYUpLD7g

[ii] Together for Europe’s Recovery: Programme for Germany’s Presidency of the Council of the European Union”, German Foreign Office, July 2020.

[iii] Digital: The EU must set the standards for regulating online platforms, say MEPs”, European Parliament, October 20, 2020.

[iv] Australia-India-Japan Economic Ministers’ Joint Statement on Supply Chain Resilience”, Ministry of Economy, Trade and Investment of Japan, September 1, 2020.

[v] Stanford University School of Engineering, “Marietje Schaake: Can democracy survive in a digital world?”, YouTube, September 24, 2020.

[vi] HEARING BEFORE THE UNITED STATES HOUSE OF REPRESENTATIVES COMMITTEE ON THE JUDICIARY Subcommittee on Antitrust, Commercial, and Administrative Law July 29, 2020: Testimony of Mark Zuckerberg Facebook, Inc.”, House of Representatives .

[vii] Cass Sunstein, #Republic: Divided Democracy in the Age of Social Media (Princeton University Press: April 2018) Mauktik Kulkarni, “Techies Are Ruining Our Democracies. It Is High Time We Held Them Accountable.”, The Wire, July 14, 2019. Jonathan Haidt and Tobias Rose-Stockwell, “The Dark Psychology of Social Networks”, The Atlantic, December 2019.

[viii] Justice Department Sues Monopolist Google For Violating Antitrust Laws”, US Department of Justice, October 20, 2020.

Antitrust/Cartel Cases: 40411 Google Search (AdSense)”, European Commission.

COMPETITION COMMISSION OF INDIA Case No. 07 of 2020”, Competition Commission of India, November 2020.

[ix] Tracking the Global Response to COVID-19”, Privacy International

[x] ILO Monitor: COVID-19 and the world of work. Sixth edition”, International Labour Organisation, September 23, 2020.

[xi] Managing the COVID-19 infodemic: Promoting healthy behaviours and mitigating the harm from misinformation and disinformation”, Joint statement by WHO, UN, UNICEF, UNDP, UNESCO, UNAIDS, ITU, UN Global Pulse, and IFRC, September 23, 2020.

[xii] The Digital Transformation Strategy for Africa (2020-2030)”, African Union.

[xiii] Report by the Committee of Experts on Non-Personal Data Governance Framework”, Ministry of Electronics and Information Technology (2020).

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Samir Saran

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Samir Saran is the President of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank, headquartered in New Delhi with affiliates in North America and ...

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Trisha Ray

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Trisha Ray is an associate director and resident fellow at the Atlantic Council’s GeoTech Center. Her research interests lie in geopolitical and security trends in ...

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