(नोट: ये लेख किगाली वैश्विक संवाद 2022 के उद्घाटन के दौरान ओआरएफ़ के प्रेसिडेंट समीर सरन द्वावा दिए गए संबोधन का संशोधित अंश है.)
रवांडा के विदेश और अंतरराष्ट्रीय सहयोग मंत्रालय, रवांडा कन्वेंशन ब्यूरो और महामारी के दौरान स्थापित हमारी नई संस्था ओआरएफ़ अमेरिका के साथ ओआरएफ़ इंडिया समेत तमाम आयोजकों की ओर से मैं आप सबका गर्मजोशी से स्वागत करता हूं. यहां आपका साथ पाकर हमें बेहद ख़ुशी हो रही है.
व्यक्तिगत रूप से दुबारा रवांडा आना मुझे बेहद रोमांचित कर रहा है. मैं आपके साथ ये बात खुलकर साझा कर सकता हूं कि महामारी का प्रभाव घटने और यात्रा से जुड़ी सुविधाएं दुबारा बहाल होने के बाद मैं सबसे पहले किगाली आना चाहता था. आप सबके साथ दुबारा जुड़कर मुझे काफ़ी संतोष हो रहा है. उम्मीद है कि अगले कुछ दिनों में हमें एक-दूसरे से बातचीत करने, आपसी दोस्ती में नया जोश भरने और नई भागीदारियों को आकार देने का मौक़ा मिलेगा.
दुनिया के देश अलग-थलग पड़ चुके थे, समाज क्वॉरंटीन था और वैश्विक गवर्नेंस निष्क्रिय पड़ा था. ऐसे में हमें ख़ुद से ये वादा करना चाहिए कि अगली बार हम बेहतर प्रदर्शन करेंगे और उसके लिए आज से ही प्रयास शुरू करने की दरकार है.
अगले ढाई दिनों में हमारी कार्ययोजनाओं की जानकारी देने के लिए मैं महामारी के दौरान लिखी अपनी डायरी से कुछ नोट्स साझा करना चाहता हूं. उन दिनों मैं दुनिया के बारे में क्या महसूस कर रहा था, तमाम हालातों पर मेरा आकलन क्या था, ये बताना चाहता हूं. दरअसल तब हम सभी क्वॉरंटीन में अलग-थलग ज़िंदगी गुज़ार रहे थे. कई बार नाउम्मीदी और बेचारगी का अनुभव कर रहे थे. तब मैंने ख़ुद को तीन सवालों से घिरा पाया था.
पहला और सबसे अहम सवाल ये है कि वैश्विक गवर्नेंस, उसकी संस्थाओं और उसके नेतृत्व की आज जो हालत है उसपर हमें ज़रूर सवाल खड़े करने चाहिए. अगर हम सचमुच ईमानदार हैं तो जब महामारी का प्रकोप हुआ तो हम सब ख़ुद के आसरे रह गए थे. कोई फ़ौज हमारी हिफ़ाज़त के लिए नहीं आने वाली थी. हमें ख़ुद ही अपना बचाव करना था. जब महामारी अपना रौद्र रूप दिखा रही थी तब हर इंसान अपनी हिफ़ाज़त ख़ुद कर रहा था. दुनिया के देश अलग-थलग पड़ चुके थे, समाज क्वॉरंटीन था और वैश्विक गवर्नेंस निष्क्रिय पड़ा था. ऐसे में हमें ख़ुद से ये वादा करना चाहिए कि अगली बार हम बेहतर प्रदर्शन करेंगे और उसके लिए आज से ही प्रयास शुरू करने की दरकार है.
आज हर शख़्स का ऑनलाइन वजूद मौजूद है, हालांकि वो ज़िंदगी तो ऑफलाइन ही जीता है. वो अपने क़रीबियों से ऑफ़लाइन जुड़ता है लेकिन समुदायों का निर्माण ऑनलाइन करता है. दुनिया के देश अब डिजिटल राष्ट्र बन गए हैं, लेकिन नक़्शे पर सरहदों की रक्षा के लिए हम बार-बार जंग छिड़ते देख रहे हैं.
वैश्विक संस्थाओं अगर ऐसे वक़्त पर अपनी भरोसेमंद मौजूदगी न दिखा सकें, तो उनमें निवेश का फ़ायदा ही क्या है? हालांकि मैं ये नहीं कह रहा कि हमें इन संस्थाओं को ख़त्म कर देना चाहिए. दरअसल, मैं सबसे इन संस्थाओं के कामकाज के तरीक़े, उनकी ख़िदमत पाने वालों और उनकी स्थापना के पीछे के मक़सदों के बारे में पुनर्विचार करने का अनुरोध करता हूं. साथ ही इस ओर नए सिरे से निवेश करते हुए इन्हें नया आकार देने की अपील भी करता हूं. चिंतकों, नीति पर अमल करने वालों और वैश्विक नागरिक के तौर पर ये मसला हमारी कार्यसूची में ऊपर होना चाहिए. लिहाज़ा हमें वैश्विक गवर्नेंस की गुणवत्ता से जुड़े सवाल पर सबसे पहले ध्यान देना चाहिए.
चरमराती स्वास्थ्य सेवाएं
हम सब जानते हैं कि महामारी सबके साथ समान रूप से पेश आयी. इसके लिए न तो कोई ताक़त बड़ी थी ना छोटी, न कोई महाशक्ति और न ही कोई महान सत्ता. हां दुनिया पर दबदबा बनाने वाली स्वार्थी ताक़तें ज़रूर थीं. न्यूयॉर्क, लंदन, पेरिस केपटाउन, दिल्ली- आप शहरों के नाम लेते जाइए…हर कोई इस महामारी से तबाह था. स्वास्थ्य सेवाओं पर भारी-भरकम ख़र्च, उम्दा मेडिकल व्यवस्थाएं, बेहतर सुविधाएं- सबकुछ धरी रह गईं. निश्चित रूप से हमें अपने स्वास्थ्य ढांचे पर फिर से विचार करना होगा. ज़िंदगियां बचाने और हमारा बचाव करने वाले कार्यक्रमों की नए सिरे से पड़ताल करनी होगी. मेडिकल क्षमताओं पर अरबों डॉलर ख़र्च करने वाले मुल्क भी उस वक़्त ग़रीब देशों की तरह जद्दोजहद करते नज़र आ रहे थे. शायद रौबदार मेडिकल परियोजनाओं पर दौलत लुटाने के बजाए स्वास्थ्य सुविधाओं के न्यायोचित वितरण से वायरस के प्रसार को रोकना मुमकिन हो सकता था. इससे उन भौगोलिक क्षेत्रों को लाभ होता, जिनकी तैयारी लचर थी और जो बुनियादी ढांचे से जुड़ी क्षमताओं के मामले में कमज़ोर थे.
दूसरी स्पष्ट वास्तविकता या आभासी हक़ीक़त हमारे समाज के डिजिटलाइज़ेशन से जुड़ी है. दुनिया का कोई भी राजनेता, चाहे वो कितना ही करिश्माई क्यों न हो, डिजिटलाइज़ेशन को इस तेज़ी से आगे नहीं बढ़ा सकता था जिस रफ़्तार से इसे महामारी ने हवा दी. ये शानदार और हैरतअंगेज़ है. शानदार इसलिए कि हम इससे एक दूसरे से जुड़ने, रोज़ी-रोटी कमाने और जुड़ाव बनाए रखने में कामयाब रहे. कई मायनों में हम एक समुदाय, एक समाज के तौर पर ख़ुद को बरक़रार रख पाए. हैरअंगेज़ इसलिए कि इन डिजिटल दायरों की हिफ़ाज़त करने वाली संस्थाएं, जो आज बेशक़ीमती हैं, वजूद में ही नहीं हैं.
हम क्षेत्रीयतावाद, जातीयतावाद और स्वार्थी बर्तावों की वापसी होते देख रहे हैं. हमने राष्ट्रों को अपने निहित स्वार्थी ज़रूरतों के लिए मेडिकल शिपमेंट्स को हड़पने समेत तमाम हरक़तें करते देखा है. तमाम देशों ने उत्पादन क्षमताओं को इंसानियत के ख़िलाफ़ और हथियारों के तौर पर इस्तेमाल किया.
हमने हर चीज़ का डिजिटलीकरण होते देखा. आज हर शख़्स का ऑनलाइन वजूद मौजूद है, हालांकि वो ज़िंदगी तो ऑफलाइन ही जीता है. वो अपने क़रीबियों से ऑफ़लाइन जुड़ता है लेकिन समुदायों का निर्माण ऑनलाइन करता है. दुनिया के देश अब डिजिटल राष्ट्र बन गए हैं, लेकिन नक़्शे पर सरहदों की रक्षा के लिए हम बार-बार जंग छिड़ते देख रहे हैं. ऐसे में हमें निश्चित रूप से ये सवाल करना चाहिए कि क्या हमारी सियासत और नीतियों का डिजिटल समाज के इस उभार से तालमेल हो सका है? क्या हम डिजिटल क्षेत्र को एक नए भूगोल की तरह स्वतंत्र दायरे के रूप में मान्यता दे रहे हैं? अगर ऐसा है तो क्या इनके लिए नियमों, सिद्धांतों, आचार नीति और गवर्नेंस की ज़रूरत पूरी की जा रही है? या हम अब भी इसे हमारी वास्तविक दुनिया से जुड़े औज़ार के तौर पर ही देख रहे हैं? हमारी डिजिटल वास्तविकता के आकलन के हिसाब से हम ऐसे तौर-तरीक़े सामने लेकर आएंगे जो चलताऊ या महत्वाकांक्षी या शायद सबसे मुनासिब होंगे. महामारी ने कई तरह से डिजिटल समाजों को आगे बढ़ाया है. लिहाज़ा हमें इन मसलों पर परिचर्चा करनी चाहिए.
इसके बाद हम क्षेत्रीयतावाद, जातीयतावाद और स्वार्थी बर्तावों की वापसी होते देख रहे हैं. हमने राष्ट्रों को अपने निहित स्वार्थी ज़रूरतों के लिए मेडिकल शिपमेंट्स को हड़पने समेत तमाम हरक़तें करते देखा है. तमाम देशों ने उत्पादन क्षमताओं को इंसानियत के ख़िलाफ़ और हथियारों के तौर पर इस्तेमाल किया. इस सिलसिले में एक बार फिर न तो कोई बड़ी ताक़त थी और ना ही महाशक्ति- हर ओर सिर्फ़ स्वार्थी तत्व ही नज़र आए. यहां कोई साधु नहीं था बल्कि हर रंग-रूप वाले पापी भरे पड़े थे. हम सब इन क्रियाकलापों से जुड़े हुए थे. राष्ट्रीय मीडिया ऐसे स्वार्थी बर्तावों के हक़ में खड़ा रहा और सड़कों पर मतदाता भी इसके पक्ष में झंडा बुलंद करते नज़र आए. ऐसे में सवाल उठता है कि हम इसे कैसे सुधार सकते हैं?
वैश्विक नज़रिये को नुकसान
हमने विश्ववाद में सुस्ती आते भी देखा. भले ही एक-दूसरे से हमारा जुड़ाव बढ़ गया है लेकिन हमारे बीच का भरोसा घट गया है और बेपरवाही में बढ़ोतरी हुई है. हमारे भीतर हमदर्दी का भाव घट गया है. हम इन भावनाओं, उप-राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयतावाद से पल्ला नहीं झाड़ सकते. हालांकि, हम आपस में जुड़ी दुनिया से मिलने वाले फ़ायदों और बचावों को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते. सवाल ये है कि अगली पीढ़ी के वो नेता कौन हैं जो वैश्विकरण को एक नए स्वरूप में खड़ा कर सकेंगे?
हमें विकृत निर्भरताओं पर निवेश करने की ज़रूरत नहीं है. इसकी बजाए हमें चतुराई भरी और आपस में जुड़ी लोचदार व्यवस्थाओं की दरकार है. आने वाले कल का वैश्विकरण बीते हुए कल के रंगरूप से बिल्कुल जुदा होना चाहिए.
हमें विकृत निर्भरताओं पर निवेश करने की ज़रूरत नहीं है. इसकी बजाए हमें चतुराई भरी और आपस में जुड़ी लोचदार व्यवस्थाओं की दरकार है. आने वाले कल का वैश्विकरण बीते हुए कल के रंगरूप से बिल्कुल जुदा होना चाहिए. मैं शुरुआत में कही बात को फिर दोहराता हूं कि समुदाय ही असल शक्ति है. जहां तक शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल और दूसरे सामाजिक क्षेत्रों से जुड़ी हमारी विकास ज़रूरतों का सवाल है तो महामारी ने हमें अपनी मदद आप करना सिखाया है. निश्चित रूप से हमें भागीदारियां बनाने, नेटवर्क तैयार करने और संबंध खड़े करने पर ज़ोर देना चाहिए. लेकिन उससे पहले हमें ख़ुद को और अपनी क्षमताओं को परवान चढ़ाना होगा. व्यक्तिगत सफ़रनामों, साझा अनुभवों और तमाम देशों को हासिल सबक़ों को साझा करने से इस प्रक्रिया को मज़बूती मिलेगी. इस तरह हम अपने आप में, और समुदाय में निवेश को बढ़ावा दे सकेंगे.
किगाली वैश्विक संवाद ऐसा ही समुदाय तैयार करने की क़वायद है. हम आपको हर मर्ज़ की दवा नहीं दे सकते और ना ही इस संवाद से बेहतर भविष्य का कोई ख़ाका निकलेगा. हम यहां आपके साथी, आपका हमसफ़र बनने आए हैं. मेरी कामना है कि आने वाले समय का अनुभव आपके लिए आनंद से भरा हो और हम सबको अहम सबक़ हासिल हों.
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