Author : Nilanjan Ghosh

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jul 15, 2024 Updated 0 Hours ago

मानव पूंजी की अवधारणा और इसके आकलन की अहमियत तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या की भलाई के लिए फैसला लेने में आंकड़ों के महत्व को सामने लाती हैं.

विकास की लंबी यात्रा में क्या है ‘मानव पूंजी’ का मूल्य?

ये लेख विश्व जनसंख्या दिवस 2024 की श्रृंखला का एक हिस्सा है


नियोक्लासिकल इकोनॉमिक्स यानी नवशास्त्रीय अर्थशास्त्र का जो वैचारिक ढांचा है, उसमें श्रम को पूंजी और उद्योग के लिए ज़रूरी दूसरे इनपुट (भूमि और उद्यमिता) की ही तरह उत्पादन का एक कारक माना जाता है. दिलचस्प बात ये है कि इस अवधारणा में पूंजी को तो 'स्टॉक' के रूप में देखा जाता है (यानी एक ऐसा विचार जहां वैरिएबल्स की मात्रा को इस तरह पेश किया जाता है, जो अतीत में भी जमा की जा सकती है). इसमें उत्पादन और श्रम दोनों को "प्रवाह" अवधारणाओं के रूप में माना जाता है. दूसरे शब्दों में कहें तो उत्पादन संबंधी वैरिएबल्स जैसे कि सकल घरेलू उत्पाद को मौद्रिक मूल्य में परिभाषित किया जा सकता है. इसे किसी विशेष वर्ष में कुल उत्पाद के मौद्रिक मूल्य के आधार पर मापते हैं. अगर श्रम की बात करें तो इसे उस वर्ष उत्पादन के लिए दिए गए कुल समय का आधार पर मापा जाता है. दूसरी तरफ पूंजी को साल की शुरूआत में या साल के अंत में स्टॉक के मूल्य के रूप मे मापा जाता है.

ऐसे में ये कहा जा सकता है कि श्रम की उत्पादकता को आमतौर पर औसत उत्पाद मूल्य या श्रम द्वारा उत्पन्न सीमांत उत्पाद मूल्य के आधार पर मापना संभव है. लेकिन इस दृष्टिकोण में समस्या ये है कि विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में श्रम उत्पादकता में अंतर बना हुआ है और इसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं की जा सकी है. हालांकि कई बार इस अंतर की व्याख्या करने की कोशिश की गई है. कभी उन्हें स्थानिक रूप से अलग-अलग पूंजी स्टॉक और दूसरे इनपुट के आधार पर स्पष्ट करने की कोशिश की जाती है तो कभी विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में प्रचलित अलग-अलग व्यापारिक वातावरण के हिसाब से इसकी व्याख्या की जाती है. लेकिन इस प्रक्रिया में पारंपरिक न्यूनीकरणवादी नियोक्लासिकल अर्थशास्त्र एक गलती करता है, जिसमें सुधार की आवश्यकता है. श्रम उत्पादकता की गणना करते समय वो श्रम को सिर्फ संख्यात्मक मानदंडों में मापता है. वो देखता है कि उत्पादन में उसकी कितनी समय तक भागीदारी रही. श्रम की गुणवत्ता पर विचार नहीं किया जाता.

यही वजह है कि मानव पूंजी की अवधारणा के उदय के साथ श्रम उत्पादकता मापने के तरीके में भी सुधार हो रहा है. अब श्रम की गुणवत्ता पर भी बात हो रही है. ये कहा जा रहा है कि पूंजी स्टॉक और श्रम का समय अगर एक समान हों, तब भी श्रम की उत्पादकता अलग-अलग हो सकती है. अब सवाल है कि हम मानव पूंजी का चित्रण कैसे करते हैं? मानव पूंजी में वर्कफोर्स यानी श्रमबल का जीवनभर का ज्ञान, कार्यकुशलता और स्वास्थ्य को शामिल किया जाता है. इन्हीं कारकों से उन्हें सामाजिक-आर्थिक प्रणाली में उत्पादक होने की क्षमता मिलती है. इसीलिए श्रमबल को उत्पादक बनाने की जिम्मेदारी कई बार सरकार की होती है. सरकार पोषण, स्वास्थ्य, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, कौशल वृद्धि में निवेश कर उत्पादक श्रमबल तैयार कर सकती है क्योंकि यही मानव पूंजी किसी भी अर्थव्यवस्था का आधार होती है.

 

श्रम की गुणवत्ता


ऐसे में ये कहा जा सकता है कि मानव पूंजी वैचारिक रूप से श्रम से अलग है. अगर इसे स्पष्ट रूप से परिभाषित करना चाहें तो ये कहा जा सकता है कि मानव पूंजी का मतलब श्रमबल की गुणवत्ता से है, जबकि श्रम उत्पादकता का मतलब ये है कि उत्पादन प्रक्रिया में श्रम का योगदान कितने समय का है. अगर विशुद्ध ज्ञान के दृष्टिकोण से देखें तब भी इनमें अंतर को स्पष्ट किया जा सकता है. मानव पूंजी स्टॉक अवधारणा की तरह एक पूंजी स्टॉक है, जबकि श्रम उत्पादकता प्रवाह है. 

अगर 2030 के विकास एजेंडे के हिसाब से भी देखें तो स्थायी विकास के लक्ष्य (SDGs)1, 5 और 8 भी मानव पूंजी की बात करते हैं. यानी विकास की तीन स्पष्ट प्राथमिकताएं मानव पूंजी के महत्वपूर्ण सवाल को संबोधित करके संतुष्ट हैं. ज़ाहिर है मानव पूंजी के सवाल को पारपंरिक नियोक्लासिकल अर्थशास्त्र के ढांचे के तहत नहीं बल्कि नए तरीके से निपटाने की ज़रूरत है. क्योंकि ये पारंपरिक ढांचा श्रम बाज़ार के आपूर्ति पक्ष को अपनी काल्पनिक अवधारणाओं के हिसाब से पेश करता है. ये बातें अब SDGs में भी शामिल हैं और इसमें तीन प्रतिस्पर्धी कार्यक्षेत्रों समानता, कार्य कुशलता और स्थायित्व में सामंजस्य बिठाने की बात की गई है. नवशास्त्रीय अर्थशास्त्र इसमें से कार्यक्षमता वाली बात को तो स्वीकार कर लेगा लेकिन समानता और स्थायित्व को वो शायद अपने मौजूदा ढांचे में शामिल ना करे. हालांकि SDGs में स्पष्ट और मुखर रूप से दक्षता के तर्क को लाया गया है और इसे अशास्त्रीय आर्थिक ढांचे का भी समर्थन हासिल है. 

इसी लेख के पहले हिस्से में इस बात को समझाया गया है कि बाकी चीजें एक जैसी होने पर भी अलग-अलग जगहों पर मानव उत्पादकता अलग हो सकती है. न्याय और समानता का पहलू तो बिल्कुल स्पष्ट है. बेहतर कौशल, स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा से गरीबी, बेरोज़गारी, भूख के साथ नौकरी और उद्यमिता की चिंताओं का समाधान होता है. इन समस्याओं के समाधान के बाद स्थायी विकास और पर्यावरण का आयाम सामने आता है. ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों के एक बड़े हिस्से को लेकर अक्सर ये तर्क दिया जाता है कि अपनी आजीविका के लिए गरीब लोग जिस हद तक नेचुरल इकोसिस्टम (प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र)पर निर्भर रहते हैं, वही उनके पतन का कारण बनता है. प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन प्रकृति के संरक्षण के लक्ष्यों को पूरा करने में बाधा पैदा कर रहा है. कई अध्ययनों में ये सामने आया है कि अविकसित देशों के कुछ हिस्सों में पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भरता का अनुपात उन समुदायों की तरफ से किए जाने वाले आर्थिक प्रयासों से मिलने वाले मूल्य से अधिक होता है. यहां पर पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भरता के अनुपात को नेचुरल इकोसिस्टम द्वारा मानव समुदाय को मिलने वाली प्रावधान सेवाओं के मूल्य और समुदाय की आय के अनुपात के रूप में परिभाषित किया जाता है. अगर मानव पूंजी की कार्यक्षमता बढ़ाई जाएगी तो प्रकृति पर उनकी निर्भरता कम होगी. इससे पर्यावरण में स्थिरता और स्थायी विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में मदद मिलेगी.


विश्व जनसंख्या दिवस 2024


इस बार विश्व जनसंख्या दिवस की थीम में एक लचीले और न्यायसंगत भविष्य के लिए डेटा की अहमियत की सराहना करने का आह्वान किया गया है. इस बात में कोई शक नहीं कि मानव और इस पृथ्वी के भविष्य को लेकर कई महत्वपूर्ण निर्णय लेने, मौजूदा समस्याओं को समझने, एक समावेशी और प्रगतिशील समाज के निर्माण में आंकड़ों की भूमिका अहम होती है. यही बात मानव पूंजी पर भी लागू होती है. मानव आबादी की भलाई के कुछ महत्वपूर्ण फैसले लेने के लिए उनकी ज़रूरतों को समझने की आवश्यकता है.

किसी भी अर्थव्यवस्था में मानव पूंजी की स्थिति की समीक्षा करना ज़रूरी है. हालांकि कुछ लोग ये तर्क दे सकते हैं कि इसकी जानकारी तो मानव विकास सूचकांक के आंकड़ों से भी मिल सकती है. लेकिन मानव पूंजी से मिलने वाले लाभों और समय के साथ इसमें होने वाले परिवर्तनों को समझने के लिए इसका गहराई से अध्ययन करना आवश्यक है.

अशास्त्रीय आर्थिक साहित्य मानव पूंजी का अनुमान लगाने के लिए तीन व्यापक दृष्टिकोण अपनाता है. ये तीन दृष्टिकोण सूचक, लागत और आय के आधार पर हैं. सूचक दृष्टिकोण में अर्थव्यवस्था के शैक्षणिक मानदंड जैसे कि स्कूलों में नामांकन, स्कूल में पढ़ाई के औसत वर्ष और वयस्क साक्षरता दर शामिल हैं. लागत दृष्टिकोण में शिक्षा व्यय के आधार पर पढ़ाई से संबंधित मानव पूंजी में निवेश को महत्व दिया जाता है. आय दृष्टिकोण में मौजूदा स्कूल नामांकन के कारण पैदा होने वाली वृद्धिशील आय के निवेश पर रिटर्न का अनुमान और विशुद्ध वर्तमान मूल्य को शामिल किया जाता है. यही नियम स्वास्थ्य प्रेरित मानव पूंजी पर भी लागू किए जा सकते हैं. कुल मिलाकर सभी मामलों में आंकड़ों के ज़रिए ही ये समझा जा सकता है कि फिलहाल मानव पूंजी की क्या स्थिति है और इसे बढ़ाने के लिए क्या किए जाने की ज़रूरत है.

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण प्रोग्राम (UNEP) की 2023 की समावेशी वेल्थ रिपोर्ट में ये सामने आया कि 1990 से 2019 के बीच मानव पूंजी में वृद्धि हुई. इस वेल्थ रिपोर्ट में दुनियाभर की प्राकृतिक, मानवीय और भौतिक उत्पादक पूंजी का हिसाब रखा जाता है. हालांकि अगर उत्पादित या भौतिक पूंजी से तुलना की जाए तो इसकी वृद्धि दर धीमी है लेकिन इसके बावजूद मानव पूंजी का संचय अभी भी समावेशी धन (IW)का सबसे बड़ा हिस्सा है. हालांकि शिक्षा, जेंडर और रोज़गार को मानव पूंजी की गणना में आउटपुट वैरिएबल के तौर पर देखा जाता है, लेकिन स्वास्थ्य के मानदंडों को इनपुट ड्राइवर माना जाता है क्योंकि ये शिक्षा और रोज़गार से जुड़े हैं.

इस बारे में हुए अध्ययन बताते हैं कि ज्य़ादातर अर्थव्यवस्था में मानव पूंजी में बढ़ोतरी जनसंख्या वृद्धि से हुई. दूसरा कारण शिक्षा में सुधार है. हालांकि मानव पूंजी की शैडो प्राइस (किसी वस्तु या सेवा का मौद्रिक मूल्य जिसे बाज़ार में खरीदा और बेचा नहीं जा सकता) और अपेक्षित कामकाजी वर्षों का भी इसे बढ़ाने में हाथ है लेकिन इनका योगदान काफी कम है. इसके अलावा मानव पूंजी में सबसे ज़्यादा वृद्धि कम आय वाली अर्थव्यवस्थाओं में देखा गई है, हालांकि समावेशी धन में मानव पूंजी की सबसे बड़ी हिस्सेदारी अब भी उच्च आय वाले देशों की है. इससे ये बात एक बार फिर सामने आती है कि किसी अर्थव्यवस्था के पूंजी आधार को सिर्फ उत्पादित या विनिर्मित पूंजी के आधार पर नहीं मापा जाना चाहिए. प्राकृतिक पूंजी के साथ-साथ मानव पूंजी भी अगर ज़्यादा नहीं तो उतनी ही महत्वपूर्ण है.

निष्कर्ष

मानव पूंजी की अवधारणा और इसके आकलन की अहमियत तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या की भलाई के लिए फैसला लेने में आंकड़ों के महत्व को सामने लाती हैं. मानव पूंजी का विचार ना सिर्फ इससे प्रेरित प्रक्रिया के माध्यम से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था की संभावना को दिखाता है, बल्कि ये प्रणालीगत झटकों से जूझने की क्षमता के समग्र आर्थिक लचीलेपन का सूचक भी है. आंकड़े इस बात को समझने की कुंजी हैं.


(नीलांजन घोष ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में निदेशक हैं).

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