Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Apr 02, 2025 Updated 0 Hours ago

अमेरिका और इज़रायल आतंकी गिरोहों को खत्म करने की कोशिशों में लगे हुए हैं लेकिन उन्हें हराने के लिए ज़रूरी है कि पुरानी रणनीतियों से आगे बढ़ा जाए.

अफ़ग़ानिस्तान: हूथी और हमास चरमपंथियों को बमबारी की मदद से हराने की चुनौती!

साल 2021 के बाद पहली बार किसी उच्च स्तरीय अमरीकी अधिकारी ने अफ़ग़ानिस्तान का दौरा किया. बंधकों की रिहाई के लिए अमेरिका के विशेष राजदूत एडम बोहलर ने हाल ही में काबुल के दौरे पर थे जिसके बाद अमेरिका ने दो साल से क़ैद अपने एक नागरिक की रिहाई के बदले में कुख्यात हक्कानी नेटवर्क के सिराजुद्दीन हक्कानी और कुछ अन्य तालिबान नेताओं को पकड़ने पर लगे आर्थिक इनाम को हटा दिया. 9/11 के आतंकी हमलों के बाद लगभग दो दशकों तक अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में अल-क़ायदा और तालिबान को खत्म करने के लिए सैन्य अभियान चलाया था. लेकिन आज कहानी बिल्कुल अलग है जिसमे जंग के बजाए बातचीत, समझौता और कुछ के अनुसार हार की मौन स्वीकृति शामिल है. 

नॉन-स्टेट मिलिटेंट ऐक्टर्स या गैर-राज्य सशस्त्र समूह जैसे अल-क़ायदा, हिज़बुल्लाह और अब हूथियों को सैन्य रूप से हराने की रणनीति कोई नई बात नहीं है. ज़बरदस्त सैन्य शक्ति का उपयोग कर जीत हासिल करना, या ‘शॉक एंड ऑ’ जैसी रणनीति का प्रयोग करना बुश प्रशासन में काफ़ी लोकप्रिय रहा. सेना की भाषा में शॉक एंड ऑ वो रणनीति है जिसमें ज़बरदस्त और तेज़ प्रहार, सटीक हमले औऱ मनोवैज्ञानिक दबाव से दुश्मन के हौसले पस्त कर दिए जाते हैं. अमरीका ने यही रणनीति इराक़ में सद्दाम हुसैन के शासन को गिराने के लिए अपनाई थी. इराक़ द्वारा कथित तौर से सामूहिक विनाश के हथियारों (WMD) के प्रोग्राम चलाने के मनगढ़त खुफ़िया दावे इस कार्रवाई का औचित्य बने थे. जो ड्रांसफील्ड और केविन रोलैंड्स जैसे विद्वानों ने युद्ध की बदलती प्रकृति पर शोध किया है और उनका कहना है कि समय के साथ-साथ ‘शॉक एंड ऑ’ की रणनीतियां भी बदलती हैं. 

नॉन-स्टेट मिलिटेंट ऐक्टर्स या गैर-राज्य सशस्त्र समूह जैसे अल-क़ायदा, हिज़बुल्लाह और अब हूथियों को सैन्य रूप से हराने की रणनीति कोई नई बात नहीं है. ज़बरदस्त सैन्य शक्ति का उपयोग कर जीत हासिल करना, या ‘शॉक एंड ऑ’ जैसी रणनीति का प्रयोग करना बुश प्रशासन में काफ़ी लोकप्रिय रहा.

ये ध्यान देने की बात है कि सद्दाम हुसैन पश्चिमी देशों को जो पेश कर थे उसकी कॉपी बाद में सीरिया के बशर अल-असद ने भी की थी. तानाशाह सद्दाम हुसैन ने अपने शासन के आधार को धर्मनिरपेक्ष होने का दिखावा किया. इसके साथ ही कट्टरपंथी इस्लामी समूहों से लड़ने के बदले में उन्होंने निरंकुश सत्ता चाही थी. लेकिन सद्दाम के पतन का आधार उनकी घरेलू नीतियां ही बनीं जिनमें जनसंहार, न्याय की अवहेलना और लोगों के अधिकारों का दमन शामिल रहीं. उनकी विदेश नीति की पेशकश और घरेलू हक़ीक़त के बीच एक बड़ी खाई थी. 

हूथियों पर हवाई हमले

आज यूएस और इज़रायल विभिन्न नॉन-स्टेट सैन्य संगठनों और आतंकी गिरोहों को कमज़ोर करने के लिए अभियान चला रहे हैं. इनका भूगोल और इनकी परिस्थितियां इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान से अलग हैं. लेकिन आज भी इनसे निपटने के तरीक़े 2000 के दशक मे तैयार रणनीति पर ही आधारित है. जिस तरह लगभग 20 साल पहले पुरजोर सैन्य-शक्ति से हासिल जीत का जश्न मनाया जाता था और उसका डंका पीटा जाता था, वैसी ही नज़ारा गज़ा में हमास और लेबनान में हिज़बुल्लाह की तबाही के संदर्भ में देखा जा रहा है. हालांकि युद्ध की रणनीतियां बीते कई वर्षों से एक जैसी ही हैं, लेकिन आज तकनीकें ज़्यादा विकसित हो गई हैं और राजनीतिक परिपेक्ष्य भी बदल गए हैं जिसमें हमेशा चलने वाली जंग की नीतियों की आलोचना होने लगी है.

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की 2024 की चुनावी जीत आंशिक रूप से अमेरिका को अधिक आत्मकेंद्रित बनाने और वैश्विक व्यवस्था में एक महाशक्ति की अब तक निभाई गई अपनी भूमिका से अलग-थलग रखने की नीति पर आधारित रही थी. लेकिन ट्रंप की इस नीति को चुनौती मिलने लगी है. जिस तरह से यमन में हूथियों पर हालिया हवाई हमले किए जा रहे हैं, ईरान से तनाव बढ़ता जा रहा है और सीरिया में अमेरीकी सैनिक अभी भी तैनात हैं, ये सब इसी बात का संकेत दे रहे हैं. 

हमास और हिज़बुल्लाह के भौगौलिक और राजनीतिक लक्ष्य निर्धारित हैं. दोनो ने चुनाव भी लड़े हैं जो कि अल-क़ायदा और आईएसआईएस की विचारधारा के खिलाफ़ है. हमास और हिज़बुल्लाह के राजनीतिक लक्ष्य कई बार वैचारिक और धार्मिक प्राथमिकताओं से बड़े होते है. हालांकि इस व्यवहारिकता की अपनी चुनौतियां हैं जिनसे तालिबान भी जूझ रहा है. 

ज़बरदस्त सैन्य शक्ति का उपयोग कर गैर-राज्य आतंकी समूहों को तोड़ने का तर्क ये दिया जाता है कि इनके शीर्ष नेतृत्व का ख़ात्मा करके इनके ढांचे को अगर नष्ट ना भी कर पाए तो कम से कम उसे तोड़ा ज़रूर जा सकता है. इनके वैचारिक नेताओं को हटाकर संगठन में भ्रम की स्थिति पैदा की जा सकती है और स्थानीय कमांडरों के बीच सत्ता संघर्ष भी शुरु हो सकता है जिससे नए लोगों तक पंहुचने और उनपर प्रभाव बनाने के मौक़े मिल सकते हैं. 

यही स्थिति 2011 में ओसामा बिन-लादेन के ख़ात्मे के बाद अल-कायदा के साथ देखा गया था. उनके उत्तराधिकारी अयमान अल-ज़वाहिरी को अपने ग्रुप में उतनी लोकप्रियता नही मिली. अल-क़ायदा के कुछ अन्य करिश्माई नेता जैसे अमेरिकी नागरिक अनवर अल अवलाकी को ड्रोन हमलों में मार गिराया गया. उसके बाद से अल-क़ायदा काफ़ी कमज़ोर हुआ जो नेतृत्व की अस्थिरता के अलावा दूसरे कई बड़े कारणों से संभव हुआ है. लेकिन ये संगठन अभी भी अस्तित्व में है और इसके दोबारा से ना खड़े हो पाने की गारंटी नहीं दी जा सकती.

लेकिन कथित तौर पर इस्लामिक स्टेट, जिसे आईएसआईएस और अरबी में दायश भी कहा जाता है, कि संरचना अल-क़ायदा से अलग रही. ये ज्यादा विकेंद्रित संगठन रहा और इसके कमांडरों के पास अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी. उन्हें बस संगठन के नेता अबू बक्र अल बग़दादी के प्रति वफ़ादारी की क़सम खानी होती थी और और ग्रुप की विचारधारा की सीमा को लांघने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी. इनकी तुलना में अल-क़ायदा की संरचना को रूढ़िवादी कह सकते थे. यूएस के डायरेक्टर ऑफ़ इंटेलिजेंस की 2025 की ‘देश पर ख़तरों की रिपोर्ट’ में आईएस को उद्यमशील प्रवृति का बताया गया जो ‘डू इट योरसेल्फ़’ की दृष्टिकोण पर चलता है. इसकी वजह से ये संगठन स्थानीय स्तर पर इस्लामिक कट्टरपंथियों और दूसरे संगठनों को एक ब्रांड की तरह आकर्षित कर सका. किसी दूसरी नीतिगत चुनौती की तरह ही आतंकवाद का मुकाबला करते समय गैर-संगठित और अव्यवस्थित मिलिशिया से निपटने की नीति बनाना भी एक बड़ा संघर्ष है.

लेकिन अल-क़ायदा और आईएसआईएस के विपरीत हमास औऱ हिज़बुल्लाह दूसरी चुनौतियां पेश करते हैं. हमास और हिज़बुल्लाह के भौगौलिक और राजनीतिक लक्ष्य निर्धारित हैं. दोनो ने चुनाव भी लड़े हैं जो कि अल-क़ायदा और आईएसआईएस की विचारधारा के खिलाफ़ है. हमास और हिज़बुल्लाह के राजनीतिक लक्ष्य कई बार वैचारिक और धार्मिक प्राथमिकताओं से बड़े होते है. हालांकि इस व्यवहारिकता की अपनी चुनौतियां हैं जिनसे तालिबान भी जूझ रहा है. काबुल में तालिबान का एक अंग दुनिया के साथ व्यवाहारिक संबंध बनाने की कोशिश कर रहा है तो वहीं कांधार की तालिबानी शाखा अभी भी कट्टरपंथी इस्लामी सोच पर अड़ी हुई है. जिस तरह देशों को आतंकवाद के ख़िलाफ़ रणनीति बनाने में मुश्किलें आती हैं, उसी तरह आतंकवादी गुटों को भी कई नीतिगत समस्याओं का सामना करना पड़ता है. ये तब होता जब उन्हें  रणनीतिक और सामरिक जीत मिल जाती है और उनपर शासन करने की ज़िम्मेदारी आ जाती है. इनके पास किसी देश की तरह शासन करने और उचित न्याय देने जैसे जटिल मुद्दों को हल करने की सलाहियत मौजूद नहीं होती.

निष्कर्ष

इज़रायल और अमेरिका द्वारा हमास और हूथियों को सिर्फ हवाई हमलों के ज़रिए हराने की अपनी सीमाएं हैं. पिछले एक महीने से यमन में हूथियों पर हवाई हमलों के प्रभाव स्पष्ट नहीं है – इन हमलों किन्हें निशाना बनाया गया और हूथियों को कितना नुकसान हुआ इसकी साफ़ जानकारी नहीं है. खुद अमेरिकी अधिकारी भी स्पष्ट नहीं दिखते कि हूथी कौन हैं? मैदान में उतर कर लड़ने के कई ख़तरे हैं इसलिए हवाई हमले ही व्यावहारिक विकल्प हैं. ये भी ट्रंप के कैंपेन का विरोधाभास है जिसमे यूएस को दूर-दराज के संघर्षों से दूर रखने की बात कही गई थी.

जैसे-जैसे तालिबान और सीरिया में अहमद अल-शारा अपनी शासन को मज़बूत करते जाते हैं वैसे ही वो अपनी सेनाओं को भी मज़बूत करने की कोशिश करेंगें जिसमें एयर डिफेंस जैसे सिस्टम हासिल करना भी शामिल रहेगा.

लेकिन 2000 के दशक का एक राजनीतिक सबक ये भी है कि आतंकवाद विरोधी अभियानों को राष्ट्र-निर्माण के अभियान में बदलने से कई हज़ार सैनिक और कई ट्रिलियन डॉलर के खोने का डर रहता है जैसा अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में देखा गया. 

इसमें कोई शक़ नहीं है कि हमास औऱ हिज़बुल्लाह को अपनी क्षमता और नेतृत्व में ज़बरदस्त नुकसान हुआ है. इसमें भी कोई शक़ नहीं कि इन समूहों को चुनौती देनें की काबिलियत मौजूद है जैसा कि पिछले साल इज़रायल द्वारा हिज़बुल्लाह के पेजरों को बम के जैसे उड़ा देने से नज़र आया.

लेकिन 2000 के दशक का एक राजनीतिक सबक ये भी है कि आतंकवाद विरोधी अभियानों को राष्ट्र-निर्माण के अभियान में बदलने से कई हज़ार सैनिक और कई ट्रिलियन डॉलर के खोने का डर रहता है जैसा अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में देखा गया. अमेरिका को आखिरकार काबुल तालिबान के हवाले करना ही पड़ा और बग़दाद में भी उसका प्रभाव कमज़ोर पड़ता गया. 

आज वैश्विक राजनीति और आधुनिक संघर्ष एक नए अनजान दौर में प्रवेश कर रहे हैं जिससे आतंकवादी संगठनों को राजनीतिक और वैचारिक भूमिका बढ़ाने के लिए ज्य़ादा अवसर मिल सकते हैं. जहां अमेरिका अभी भी आतंक से लड़ने के लिए दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त बना हुआ है, वहीं ऐसी कोई भी दूसरी शक्ति नज़र नहीं आती जिसके पास इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति या सैन्य ताक़त मौजूद है. अगर आने वाले समय में अमेरिका खुद ही अपनी ताक़तों को समेट लेता है तो ये साफ़ नहीं कि आतंकवादी संगठनों से समझौता करने के बजाए उन्हें काबू में रखने के लिए क्या कदम उठाए जाएंगे. 

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