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पोखरण में दूसरी बार परमाणु परीक्षण से भारत और अमेरिका के रिश्तों को जो झटका लगा था, उसे दोनों देश बहुत पीछे छोड़ चुके हैं.
ये लेख हमारी सीरीज़, पोखरण के 25 साल: भारत के एटमी सफर की समीक्षा का एक हिस्सा है.
मई 1998 में भारत ने पोखरण में ज़मीन के नीचे स्थित परीक्षण स्थल में एक के बाद एक कई एटमी धमाके किए थे. 11 मई 1998 को एक साथ तीनपरमाणु यंत्रों में विस्फोट किया गया था, इसमें एक विखंडन एटमी बम था, जिससे लगभग 12 किलोटन का धमाका हुआ था. एक थर्मोन्यूक्लियर बमथा, जिससे 43 किलोटन शक्ति का ब्लास्ट हुआ और एक एटमी हथियार बेहद छोटा था, जिसमें विस्फोट से एक किलोटन से भी कम ऊर्जा निकली. 13 मई 1998 को को और परमाणु परीक्षण किए गए थे. ये एटमी टेस्ट भारत के क्षेत्रीय और वैश्विक रिश्तों के लिहाज़ से बुनियादी बदलाव लाने वालेसाबित हुए. हालांकि, दोनों के नतीजे बिल्कुल अलग अलग निकले. क्षेत्रीय स्तर पर भारत ने इन परीक्षणों से ख़ुद के एटमी ताक़त होने का संकेत दियाऔर अपने आपको इस क्षेत्र और विशेष रूप से पाकिस्तान के परमाणु हथियारों के ख़तरों से निपटने के लिए तैयार होने का इशारा किया. वैश्विक स्तर परभारत के परमाणु परीक्षणों को इस सामरिक नज़रिए से नहीं देखा गया कि उसने ख़ुद को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र घोषित किया. बल्कि, इन परीक्षणोंको दुनिया ने शक की नज़र से देखा और आशंका जताई कि आने वाले समय में भारत से ये तकनीक दूसरे देशों में पहुंच सकती है. शायद सबसे साफ़बात ये थी कि परीक्षणों के बाद अमेरिका की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाए दिए गए. ये प्रतिबंध भारत के वैश्विक संबंधों और ख़ास तौर से ख़ुदअमेरिका के साथ उसके रिश्तों के लिए बड़ा झटका साबित हुए.
सबसे साफ़ बात ये थी कि परीक्षणों के बाद अमेरिका की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाए दिए गए. ये प्रतिबंध भारत के वैश्विक संबंधों और ख़ास तौर से ख़ुद अमेरिका के साथ उसके रिश्तों के लिए बड़ा झटका साबित हुए.
अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसियां, ख़ास तौर से सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (CIA) को भारत के परमाणु परीक्षण की तैयारी करने की भनक तक नहीं लगीथी. ये अमेरिका की बहुत बड़ी नाकामी साबित हुई, क्योंकि अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियां, इस परमाणु परीक्षण के लिए भारत की तैयारियों का पता लगापाने में नाकाम रही थी. हालांकि, इससे भी ज़्यादा अपमानजनक तो अमेरिका में भारत के एटमी टेस्ट को लेकर हो रहीं सियासी परिचर्चाएं थीं. इनमें कहाजा रहा था कि भारत ने अपने परमाणु परीक्षण के लिए ‘धोखाधड़ी और इनकार’ की रणनीति अपनाई, जिससे अमेरिका को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर औरशर्मिंदगी उठानी पड़ी. अमेरिकी परिचर्चाओं में भारत द्वारा भविष्य में विश्वसनीय तरीक़े से कॉम्प्रिहेंसिव टेस्ट बैन ट्रीटी (CTBT) की पुष्टि करने की क्षमतापर भी शुबहा ज़ाहिर किया गया. राजनीतिक रूप से भारत के एटमी धमाके, क्लिंटन प्रशासन और उसकी परमाणु अप्रसार व्यवस्था की वकालत के लिएबड़ा झटका थे.
भारत के परमाणु परीक्षण से दो साल पहले, 1996 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कॉम्प्रिहेंसिव न्यूक्लियर टेस्ट बैन ट्रीटी (CTBT) पर दस्तख़त करके ऐसाकरने वाले पहले वैश्विक नेता के तौर पर इतिहास रचा था. इस संधि के तहत परमाणु हथियारों के परीक्षण और/ या विस्फोट को प्रतिबंधित किया गयाथा. हालांकि, क्लिंटन इस समझौते पर अमेरिकी सीनेट से मुहर लगा पाने में नाकाम रहे थे. भारत ने परमाणु परीक्षण करके, अपने परमाणु अप्रसार संधि(NPT) पर दस्तख़त की संभावनाओं को भी ख़त्म कर दिया था.
20वीं सदी के आख़िर में सोवियत संघ के विघटन के बाद से अमेरिका और भारत के क़रीबी संबंध स्थापित करने की रफ़्तार तेज़ थी. लेकिन 1998 मेंभारत के एटमी धमाके करने के बाद, अमेरिका द्वारा प्रतिबंध लगाने से इसमें भी बाधा आई. अमेरिका और उसके साथ कई अन्य देशों ने भारत केख़िलाफ़ राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी प्रतिबंध लगा दिए थे. 1994 के हथियार नियंत्रण पर प्रतिबंध लगाने वाले ग्लेन संशोधन के अंतर्गतअमेरिका इस बात के लिए मजबूर था कि वो मई 1998 में परमाणु परीक्षण करने के बाद, भारत और पाकिस्तान पर प्रतिबंध लगा दे. नीचे की सारणी मेंउन प्रतिबंधों के बारे में जानकारी दी गई है, जिन्हें ग्लेन संशोधन के तहत लगाना, अमेरिकी राष्ट्रपति की मजबूरी थी.
Table 1: ग्लेन संशोधन के तहत लगाए जाने वाले प्रतिबंध
1. विदेशी सहायता निलंबित करना (मानवीय मदद और खाद्य एवं अन्य कृषि उत्पादों के अलावा); |
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2. किसी भी तरह के सैन्य साज़-ओ-सामान की बिक्री ख़त्म करना; |
3. दूसरी सैन्य सहायता समाप्त करना; |
4. अमेरिकी सरकारी संस्थाओं द्वारा क़र्ज़ या गारंटी को रोकना; |
5. अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं में क़र्ज़ या सहायता देने के ख़िलाफ़ वोट करना; |
6. संबंधित विदेशी सरकार को अमेरिकी बैंकों से लोन देने पर प्रतिबंध लगाना; और |
7. (1979 के निर्यात प्रशासन क़ानून के तहत) असैन्य और सैन्य परमाणु यंत्रों से जुड़े ख़ास सामान और तकनीक के निर्यात पर प्रतिबंध लगाना |
Source: https://www.nonproliferation.org/wp-content/uploads/npr/morrow64.pdf
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अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों में विदेशी सहायता क़ानून के तहत विदेशी मदद को रोकना करना या ख़त्म करना भी शामिल था. हालांकि, मानवीयसहायता और खाद्य/ कृषि उत्पादों को इन पाबंदियों के दायरे से अलग रखा गया था. इसके अलावा, हथियार निर्यात नियंत्रण क़ानून के अंतर्गत, सैन्यबिक्री को रोक दिया गया और अमेरिका के निर्यात किए जा सकने वाले हथियारों की सूची में दर्ज कारोबारी बिक्री के लाइसेंस को भी ख़त्म कर दियागया था. अमेरिका की सरकारी संस्थाएं, जैसे कि आयात निर्यात बैंक (EXIM) और ओवरसीज़ प्राइवेट इन्वेस्टमेंट कॉरपोरेशन (OPIC) ने क़र्ज़ औरक़र्ज की गारंटी देने के नए वादे करने से इनकार कर दिया. ग्लेन संशोधन के तहत अमेरिका को अंतरराष्ट्रीय वित्ती संगठनों (IFIs) से भारत और पाकिस्तानको मिलने वाले ग़ैर मानवीय ज़रूरतों से जुड़े क़र्ज़ का भी विरोध करना था. इसका ज़्यादा से ज़्यादा असर हो, इसके लिए अमेरिका ने G-8 देशों को भीऐसे क़र्ज़ देने से रोकने के लिए राज़ी कर लिया. इसके अलावा, अमेरिका के राष्ट्रपति ने आदेश जारी किया जिसके तहत अमेरिकी बैंकों को भारत औरपाकिस्तान की सरकार को क़र्ज़ या उधार देने से रोक दिया गया. परमाणु या मिसाइल तकनीक में दोहरे इस्तेमाल वाली सभी चीज़ों के निर्यात पर रोकलगा दी गई. ये पाबंदी दोनों देशों को परमाणु और मिसाइल क्षेत्र से जुड़ी संस्थाओं के उपयोग में आने वाली अन्य दोहरे इस्तेमाल वाली तकनीकों केनिर्यात पर भी लगा दी गई. 1998 में अमेरिका द्वारा भारत पर लगाए गए इन व्यापक प्रतिबंधों और इनका असर दोनों देशों के बीच कई क्षेत्रों में रिश्तोंपर भी पड़ा. इन प्रतिबंधों का मक़सद भारत को अलग थलग करना और उसे परमाणु हथियार बनाने से हतोत्साहित करना था. अमेरिका द्वारा लगाए गएप्रतिबंधों के ज़रिए परमाणु तकनीक के क्षेत्र में भारत से व्यापार, निवेश और तकनीक देने को सीमित करना था.
भारत पर थोपे गए इन प्रतिबंधों का अमेरिका के साथ उसके आपसी रिश्तों पर तुरंत असर दिखा. फिर भी ये प्रतिबंध स्थायी नहीं रहे, क्योंकि लगाए जानेके कुछ महीनों के भीतर ही इन प्रतिबंधों को हटा लिया गया. बहुत कम समय के लिए ही इन प्रतिबंधों का असर व्यापार, तकनीक के ट्रांसफर औरवैज्ञानिक सहयोग जैसे मामलों में आपसी सहयोग पर पड़ा. हालांकि, ये प्रतिबंध इस तरह लगाए गए थे, जिससे अमेरिका के हित कम से कम प्रभावितहों और भारत की जनता के बजाय इनका सरकार पर ज़्यादा असर हो. 1999 में अमेरिकी कांग्रेस ने राष्ट्रपति को ये अधिकार दिया कि वो बचे खुचेप्रतिबंधों को हटा लें. पोखरण-II परमाणु परीक्षणों ने अमेरिका को मजबूर किया कि वो भारत के प्रति अपनी परमाणु अप्रसार की नीति का नए सिरे सेमूल्यांकन करे. भारत को एक वास्तविक परमाणु शक्ति स्वीकार करते हुए, अमेरिका ने भारत को अलग थलग करने के बजाय उसके साथ संपर्क बढ़ानेकी नीति पर अमल करना शुरू किया. अमेरिका के नज़रिए में आए इस बदलाव से बाद में दोनों देशों के रिश्तों में और भी सुधार आया.
भारत पर लगाए गए प्रतिबंधों को लेकर अमेरिका में चल रही परिचर्चाएं दो ख़ेमों में बंटी हुई थीं. प्रतिबंध लगाने के समर्थकों का तर्क था कि भारत केपरमाणु परीक्षणों ने वैश्विक परमाणु अप्रसार व्यवस्था का उल्लंघन किया है, और इनसे परमाणु हथियारों का विस्तार रोकने की कोशिशों को झटकालगा है. इसके समर्थकों का मानना था कि भारत पर प्रतिबंध लगाना ज़रूरी था, ताकि परमाणु शक्ति के विस्तार के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय समुदाय केसख़्त विरोध को ज़ाहिर किया जा सके और अन्य देशों को इस रास्ते पर चलने से रोका जा सके. प्रतिबंधों के समर्थकों ने परमाणु अप्रसार संधि (NPT) की महत्ता को बरक़रार रखने और उसके नियमों में किसी भी तरह की ढिलाई देने से रोकने पर ज़ोर दिया. वहीं दूसरी ओर, प्रतिबंध लगाने का विरोध करनेवालों ने व्यापक भू-राजनीतिक संदर्भों पर ध्यान केंद्रित किया और कहा कि अमेरिका को व्यावहारिक नज़रिया अपनाना चाहिए. उन्होंने माना कि भारत केएटमी धमाके एक हक़ीक़त हैं, और उसको अलग थलग करने का अमेरिका को नुक़सान हो सकता है. इन लोगों का तर्क था कि भारत सकारात्मक रवैयाबनाए रखे इसके लिए उसके साथ संपर्क बनाए रखना अहम था. इससे दक्षिण एशिया में स्थिरता और अप्रसार को बढ़ावा देने में भी मदद मिलेगी. इसख़ेमे ने भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था, उसकी सामरिक स्थिति और अमेरिकी वस्तुओं और सेवाओं के बाज़ार के तौर पर उसकी हैसियत को भी रेखांकितकिया और सुझाव दिया कि भारत के ख़िलाफ़ दंडात्मक कार्रवाई से अमेरिका के दूरगामी हितों को चोट पहुंचेगी.
भारत पर लगाए गए प्रतिबंधों को लेकर अमेरिका में चल रही परिचर्चाएं दो ख़ेमों में बंटी हुई थीं. प्रतिबंध लगाने के समर्थकों का तर्क था कि भारत के परमाणु परीक्षणों ने वैश्विक परमाणु अप्रसार व्यवस्था का उल्लंघन किया है, और इनसे परमाणु हथियारों का विस्तार रोकने की कोशिशों को झटका लगा है.
समय के साथ, जैसे जैसे भारत और अमेरिका के रिश्ते धीरे धीरे बेहतर हुए और भारत के साथ संवाद की सामरिक अहमियत स्पष्ट हुई, तो दोनों देशों केआपसी संबंध नई नई ऊंचाइयां छूने की ओर बढ़ने लगे. अमेरिका पर 9/11 के आतंकवादी हमले के बाद, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो माहौल बना उसनेदोनों देशों के बीच सुरक्षा के मामले में तालमेल की ज़मीन तैयार कर दी. 2002 में इन जज़्बात की अभिव्यक्ति, बुश प्रशासन की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीतिमें दिखाई दी, जिसमें कहा गया था कि अमेरिका ने, ‘भारत के साथ अपने आपसी संबंध में इस विश्वास के साथ बदलाव लाने का क़दम उठाया है किअमेरिकी हितों के लिए, भारत के साथ अच्छे रिश्तों की दरकार है.’ भारत को एक संभावित बड़ी शक्ति बताते हुए, बुश प्रशासन ने अमेरिका और भारत केमज़बूत रिश्तों की बुनियाद के तौर पर कुछ अहम स्तंभों, जैसे कि लोकतंत्र, बढ़ती आर्थिक आज़ादी, आतंकवाद से जंग और सामरिक रूप से स्थिर एशियाकी संरचना की पहचान की.
इसके बाद भी, अमेरिका और भारत के बीच कई मुद्दों पर मतभेद बने रहे थे. लेकिन भारत का परमाणु और मिसाइल कार्यक्रम इन मसलों में सबसे अहमथा. 2005 में दोनों देशों के बीच असैन्य परमाणु समझौते पर दस्तख़त होना, एक अहम पड़ा था. इस समझौते ने भारत को लेकर परमाणु प्रसार कीचिंताओं के कम होने और उसके साथ संबंध सामान्य होने के साथ साथ परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अधिक सहयोग का मार्ग प्रशस्त किया. अमेरिका औरभारत के बीच एटमी समझौते की पहल को लागू करने में सेफगार्ड समझौता एक महत्वपूर्ण क़दम था. 1 अगस्त 2008 को IAEA के बोर्ड ऑफ गवर्नर्सने भारत के सेफगार्ड समझौते पर मुहर लगा दी. इससे भारत के न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में शामिल होने और मूल्यांकन की संभावनाओं के द्वार खोलदिए. अमेरिका और भारत के रिश्तों में आए इस बदलाव को, चीन के साथ उभार के कारण एशिया में बदलती भू-सामरिक मजबूरियों और चीन से संतुलनबनाने के लिए एक दूरगामी महाद्वीपीय रणनीति की ज़रूरत ने रेखांकित किया था.
भारत के न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में शामिल होने और मूल्यांकन की संभावनाओं के द्वार खोल दिए. अमेरिका और भारत के रिश्तों में आए इस बदलाव को, चीन के साथ उभार के कारण एशिया में बदलती भू-सामरिक मजबूरियों और चीन से संतुलन बनाने के लिए एक दूरगामी महाद्वीपीय रणनीति की ज़रूरत ने रेखांकित किया था.
एटमी परीक्षण के बाद प्रतिबंध लगाने से लेकर अब ‘वैश्विक सामरिक साझेदारी’ तक, भारत और अमेरिका के रिश्तों ने लंबा सफ़र तय किया है. सामरिकसहयोग के मामले में भारत और अमेरिका के बीच बढ़ता सहयोग, हिंद प्रशांत क्षेत्र के बाहरी हालात और दोनों देशों में आ रहे नीतिगत बदलावों नेआपसी रिश्तों के समीकरण बदलने का मार्ग प्रशस्त किया है.
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Vivek Mishra is Deputy Director – Strategic Studies Programme at the Observer Research Foundation. His work focuses on US foreign policy, domestic politics in the US, ...
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